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कोई ताजा हवा चली है अभी

कई प्रतिबद्ध युवा फिल्मकारों के आगे आने से मैथिली सिनेमा में उठी नई हलचल. लेकिन कई तरह की बाधाएं रास्ते में पहले से खड़ीं.

बनाएंगे यहीं: निर्देशक अचल मिश्र दरभंगा में अपनी नयी फिल्म की शूटिंग करते हुए
बनाएंगे यहीं: निर्देशक अचल मिश्र दरभंगा में अपनी नयी फिल्म की शूटिंग करते हुए
अपडेटेड 15 फ़रवरी , 2023

पुष्यमित्र

अचल मिश्र इन दिनों दरभंगा शहर में अपनी नई मैथिली फिल्म की शूटिंग कर रहे हैं. इस शहर के बैकड्रॉप वाली यह उनकी तीसरी फिल्म है. पहली फिल्म गामक घर को तो कुछ समीक्षकों ने मिथिला की पोथेर पांचाली का खिताब दिया. उनके अनूठे काम की तुलना द टोक्यो स्टोरी के विश्वचर्चित जापानी निर्देशक योशुजिरो ओजू और इदा के निर्देशक हीरोकाजू कोरे के काम से की जाने लगी.

फिल्म को मुंबई के मामी समेत छह बड़े फिल्म फेस्टिवल्स में अवार्ड मिला. उनकी दूसरी फिल्म धुइन भी सराही गई. और अब वे मैथिली भाषा की अपनी तीसरी फिल्म बना रहे हैं, जहां फिल्म निर्माण के लायक न तो कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर है, न ही तकनीकी जानकार. और तो और, इस इलाके में सिनेमाघर भी नहीं बचे हैं. फिर भी उनका जुनून है कि वे अपनी भाषा में ही फिल्म बनाएंगे और अपने शहर के विषय पर ही.

ऐसा सोचने वाले वे मैथिली के अकेले फिल्मकार नहीं हैं. उनके साथी पार्थ सौरभ ने भी 2022 में पोखर के दुनू पार नाम की एक फिल्म बनाई जिसे स्पेन के सेन सेबेस्टीन फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट न्यू डायरेक्टर अवार्ड मिला. उनकी फिल्म धर्मशाला, भुवनेश्वर और दूसरे शहरों के फिल्म फेस्टिवल्स में भी सराही गई. इस फिल्म की कहानी भी कोरोना के बाद अपने घर मिथिला लौटे प्रेमी जोड़ों के जीवन पर आधारित है. यह विशुद्ध मैथिली फिल्म तो नहीं पर बैकड्रॉप मिथिला ही है.

अचल और पार्थ दरभंगा के ही रहने वाले और मैथिली भाषी हैं. मगर कई गैर मैथिली भाषी भी अब मैथिली में इसी तरह की फिल्में बना रहे हैं. भोजपुरी फिल्मों से अपनी शुरुआत करने वाले भोजपुरी क्षेत्र के नितिन चंद्रा ने मिथिला मखान नाम से एक मैथिली फिल्म बनाई, जिसे 63वां राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला. अब वे अपनी नई मैथिली फिल्म जैक्सन हॉल्ट बना रहे हैं.

इसी तरह गैर मिथिला भाषी फिल्मकारों प्रतीक शर्मा/अस्मिता शर्मा की जोड़ी ने लोटस ब्लूम्स मैथिली फिल्म बनाई जो पिछले साल इंडिया इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के भारतीय पैनोरमा की आधिकारिक प्रविष्टि थी. इस फिल्म को कोलकाता समेत देश के दूसरे फिल्म फेस्टिवल्स में सराहना मिल रही है.

इन फिल्मों से मैथिली सिनेमा के एक नई राह पर निकल पड़ने की उम्मीद जगी है. चंद्रा कहते हैं, ''अभी तो शुरुआत है, पर मुझे लगता है कि आने वाले दिनों में मैथिली सिनेमा ही बिहार के रिप्रेजेंटेटिव सिनेमा के रूप में जाना पहचाना जाएगा क्योंकि मैथिली भाषा में सरस दर्शक हैं, जो अच्छी फिल्में सराहना जानते हैं.’’

लोटस ब्लूम्स की कहानी-पटकथा लेखन और अभिनय से जुड़ीं अस्मिता फिल्म के रेस्पांस से इतनी प्रभावित हैं कि अब वे प्रसिद्ध लेखिका उषाकिरण खान की मैथिली कहानियों पर उस तरह की सीरीज बनाने की तैयारी कर रही हैं, जैसी टैगोर की कहानियों पर निर्देशक अनुराग बसु ने एपिक चैनल के लिए बनाई है.

वैसे तो बिहार में भोजपुरी भाषा में हर साल बड़ी संख्या में फिल्में बनती हैं और बिहार की पहचान भोजपुरी फिल्मों की वजह से ही है. मगर अश्लीलता ने इन फिल्मों को बदनाम कर डाला. चंद्रा और दूसरे कई निर्देशकों ने इस भाषा में सार्थक फिल्में बनाने की कोशिश की पर वह नाकाफी रही.

मैथिली में फिल्में बनना तो 1963 में ही शुरू हो गया था पर ज्यादा बन नहीं पाईं. पर अब जो हलचल शुरू हुई है उसने जानकारों का भी ध्यान खींचा है. मैथिली सिनेमा के इतिहास पर किताब लिखने वाले किसलय कृष्ण कहते हैं, ''गिनती के लिए मैथिली में सौ-एक फिल्में बन चुकी हैं. पर इनमें से दर्जन भर ही होंगी जिन्हें फीचर फिल्मों के व्याकरण पर कसा जा सकता है. मगर हाल के वर्षों में बनी कुछ अच्छी फिल्में उम्मीद जगाती हैं.’’

माहौल तो बना है पर कई बाधाएं जैसे राह रोके खड़ी हैं. फिल्में तो बन जा रही हैं मगर उन्हें दिखाएं कहां! सिनेमा घर तो बचे ही नहीं. इलाके के सिंगल स्क्रीन थियेटर खत्म हो गए और मल्टीप्लेक्स बने नहीं. ऐसे में ओटीटी के जरिए ही नई फिल्में दिखाई जा पा रही हैं. फिल्म निर्माण के नाम पर मिथिला में बस लोकेशन है.

सौ आर्टिस्ट एक साथ एक जगह रह सकें, ऐसे होटल तक नहीं. निर्माता अभी भी मुंबई और काठमांडो के तकनीशियनों और लैब पर निर्भर हैं. हाल ही मुंबई के एक जानेमाने एडिटर ने समस्तीपुर में एक बेहतरीन एडिटिंग लैब की शुरुआत की है मगर ऐसे संसाधन बहुत कम हैं. इस दिशा में बने माहौल को कायम रखना है तो राज्य सरकार को सजग होना पड़ेगा और केंद्र सरकार को भी जरूरी मदद मुहैया करनी होगी.

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