मानसी! इतने पॉजेज क्यों ले रही हो? बेवकूफ लड़की.’’ मीठी डांट खाने के बाद उलूपी बनी मानसी (रावत) संवादों की गति, लय, उतार-चढ़ाव और इमोशंस को बेहतर पकड़ती हैं: संशय होता है तुम वही पुरुष हो जिससे मैंने प्रेम किया था. पराक्रमी अर्जुन और इतना विवेकहीन! पांच फुट कद की, पैनी निगाह और तने हुए कानों वाली स्वाति (दुबे) का ध्यान अगले सीन में बैकस्टेज से घंटा बजाने से चूके अर्पित (खटीक) पर जाता है: ''कहां खोया है तू?
इस बार भूलना मत, बहुत मारेंगे. फिर से मारो घंटा.’’ एक और सीन में वे ज्योत्सना (कटारिया) को कसती हैं: ''तुम्हारा ये सीन मैं काटने वाली हूं. लेट पिक कर रही हो तुम टोपी.’’ इस दौरान काफी देर से तसव्वुरे जाना किए हुए-से एक ओर बैठे आशीष (पाठक) संवादों के पाठ पर अपने ऑब्जर्वेशन के साथ अब बीच में आते हैं: ''पोएट्री को भड़भड़ा के मत बोलो यार! जो पोएटिक लाइन्स हैं, उन्हें बहुत स्पष्ट, एक-एक लफ्ज बोलो. यह पूरा नाटक ही एक पोएट्री की तरह है. तेज या धीमा कर दोगे तो ऑडियंस पकड़ नहीं पाएगी.’’
जबलपुर शहर के बीच राइट टाउन इलाके में परसाई भवन की पहली मंजिल के बड़े-से हॉल में उतरते दिसंबर की यह शाम खासी गहमागहमी लिए हुए है. हिंदी रंगमंच के हलके में अपनी एक खास जगह बना चुका समागम रंगमंडल आशीष के ही लिखे ताजा नाटक भूमि को अंतिम रूप देने में जुटा है. बुंदेली में लिखे, ग्रुप के चर्चित नाटक अगरबत्ती से उलट यह संस्कृतनिष्ठ हिंदी में है. अर्जुन और चित्रांगदा के कथानक के जरिए यह आत्मविस्तार बनाम भूविस्तार की राजनीति को रेखांकित करता है.
हफ्ते भर बाद जयपुर में उसका पहला शो है. चार बजे ब्रेक होने पर ये 18-20 कलाकार (आठ लड़कियां) लंच के लिए फर्श पर पालथी मारकर, पास के अपना भोजनालय से आई दाल, चावल, रोटी, सब्जी का स्वाद लेते हैं. कांवड़ियों जैसे गेरुए टी-शर्ट-निकर में उकड़ू बैठकर तेज-तेज खातीं स्वाति आशीष की थाली से छोले की प्लेट झटक लेती हैं. इस बीच आशीष का एक और ऑब्जर्वेशन आता है: ''गैबल (संवाद तेज गति से बोलने का अभ्यास) बहुत करना होगा.’’
रंग समागम ने अपने स्मार्ट क्रिएटिव नजरिए से हाल के वर्षों में तेजी से रंग रसिकों का ध्यान खींचा है. नाटककार-निर्देशक आशीष पाठक (45) और अभिनेत्री स्वाति दुबे (33) ने पिछले 5-6 साल में जबलपुर और आसपास के इलाकों से, आंखों में आर्टिस्टिक सपने लिए नौजवानों की उम्दा नर्सरी रची-गढ़ी है. इन उभरते कलाकारों का नाटक तैयार करना तो एक पहलू है. इस प्लेटफॉर्म तक पहुंचने के उनके संघर्ष कम रोचक और नाटकीय नहीं. खासकर जबलपुर जैसे दूरदराज के परंपरावादी शहर में इस ग्रुप के पास आठ सशक्त अभिनेत्रियों का होना कितनी अहम बात है, यह पूरे उत्तर भारत के थिएटर हलके पर नजर दौड़ाने से साफ दिख जाएगा.
थिएटर के सबसे बड़े मेटा अवार्ड से सम्मानित और पिछले छह साल में 25 शहरों में 40 बार खेला जा चुका अगरबत्ती तो सिर्फ और सिर्फ (आठ) अभिनेत्रियों का नाटक है. इसमें ठाकुर बिरादरी की दमयंती का सशक्त किरदार निभाने वाली, 12वीं की छात्रा हर्षिता गुप्ता कभी साथ निभाना साथिया सीरियल की दीवानी थीं. वे मॉडलिंग में जाने की सोच रही थीं. लेकिन बड़ी बहन और अगरबत्ती में ही नन्ही बाई का रोल करने वालीं साक्षी के थिएटर में आ जाने पर वे भी साथ आ गईं. पिता सब्जी का कारोबार करते हैं. साक्षी अभिनय के लिए अनुपम खेर के संस्थान अप्लाज में जाना चाहती थीं पर ज्यादा फीस की वजह से वह रास्ता रुक गया.
एमएससी-बीएड कर चुकीं मानसी हंसते हुए बताती हैं, ''डेस्टिनेशन वेडिंग मेरा सपना था. फिर धीरे-धीरे बेचैनी बढ़ी कि यार, लगता है ऐसे ही मर जाऊंगी.’’ हर कलाकार अपनी दास्तान के अंत में नाटकीय ढंग से जोड़ता है कि ''तभी किसी ने यहां (रंग समागम) के बारे में बताया.’’ मानसी के शब्दों में, ''यहां आने के बाद बहुत सारे भरम चटके.’’ उनकी पर्सनालिटी में एक तरह का स्वैग है. आशीष भी जोड़ते हैं, ''यह मुझे अपने लिए रोल लिखने को मजबूर कर देती है.
थिएटर के बच्चे कविता मैंने ऐसे ही बच्चों को ऑब्जर्व कर लिखी. अगरबत्ती में फूलन देवी सरीखा दबंग किरदार कल्ली करने वालीं, एम. कॉम कर चुकीं साक्षी दुबे ने जब यहां का रुख किया तो घर पर कहा गया कि यह नाच-नौटंकी ब्राह्मणों का काम नहीं. लेकिन अगरबत्ती देखने के बाद घरवालों ने दोबारा कोई शिकायत नहीं की. आज मां उन्हें सबसे ज्यादा सपोर्ट करती हैं.
एमबीए और नौकरीपेशा आयुषि राव ने 2019 में भारत भवन (भोपाल) में अगरबत्ती देखा था. संयोग ही था कि लॉकडाउन में मुंबई से लौटीं और तब से ग्रुप का हिस्सा हैं. संगीत में एमए शिवांजलि गजभिए जबलपुर के पास के मानेगांव की हैं. सिंधी परिवार की ज्योत्सना एनएसडी में प्रवेश के लिए पिछली बार दिल्ली की फाइनल वर्कशॉप तक पहुंच गई थीं. मां-बाप की इकलौती संतान होने के बावजूद उनको राजी कर वे पिछले सात साल से रंग समागम का हिस्सा हैं.
लेकिन रंग समागम का इससे भी बड़ा रोल उन प्रतिभाओं को तराशने का है जो सबसे वंचित और उपेक्षा का दंश झेलने वाले परिवेश से आते हैं. बी. कॉम. पास, अंग्रेजी के स्टेनोग्राफर और राज्य स्तरीय तैराक रहे विधान कटारे का अपनी कहानी बताते हुए गला रुंध जाता है. ''अपने घर-परिवार और लोगों के बारे में उलटी-सीधी बातें सुन-सुनकर खीज हो गई थी. मैं किसी तरह से बच पाया उस सबसे. प्रेस बाइंडिंग, चूड़ी की दुकान और मेडिकल स्टोर वगैरह पर काम किया.
यहां का पता चला तो डर के मारे डेढ़ महीने तक बस बाहर-बाहर ही चक्कर लगाया.’’ दूसरे साथियों के यह बताने पर कि ''दसवीं में इसने टीचर पर तलवार चला दी थी,’’ वे चुप रहते हैं. अब वे नाटक में काम करने की सहूलत के लिए सुबह 6 से 2 तक सिक्योरिटी गार्ड का काम करते हैं. गिरीश कारनाड के नाटक अग्नि और बरखा के पृथ्वी थिएटर (मुंबई) में हुए शो में परावसु का किरदार निभाना उनके लिए एक बड़े रोमांच की तरह था.
बारहवीं पास अनमोल किरार याद करते हैं कि आसपास अक्सर जुए, सट्टे, दारूबाजी और मरने-मारने की बातें ही सुनने को मिलती थीं. उन्हें तारक मेहता का उल्टा चश्मा देखने का शौक क्या लगा, ऐक्टर बनने की भी चाह पैदा हो गई. और यहां पहुंचे तो हवाई सपनों से सीधे पढ़ने-सीखने और समझकर भाव-अभिनय करने की पुख्ता जमीन पर आ लगे.
इसी तरह से शिवाकर सप्रे (बॉबी) अब जब फूटा ताल के पास खटीक मोहल्ले की पतली गलियों से बाइक से रिहर्सल के लिए निकलते हैं तो वहां उनके काम को लेकर चर्चाएं चल पड़ती हैं. थाली में मनुहार के साथ एक और रोटी रखते हुए बॉबी की मां उनके काम के बारे में पूछती हैं: ''काम ठीक है इसका?’’ पर बीमार पिता उनको लेकर आश्वस्त हैं, ''सही जगह पहुंच गया है. वहां से बेहतर ही बनकर निकलेगा.’’ इसी तरह से उत्सव हंडे, शिवम बावरिया, सितांशु पाल और नमन सेन के किस्से हैं. हर्षित सिंह को भी परिवार से बगावत करके आना पड़ा. फौजी परिवार के अंकित मूलत: बलिया के हैं.
खैर, सुबह चार बजे रिहर्सल खत्म होती है. और दोपहर में फिर शुरू. नाटक में इस्तेमाल सोम ठाकुर की दर्द भरी लेकिन आशावादी कविता जाओ पर/संध्या के संग/लौट आना तुम की रिहर्सल में यह बात साफ होती है कि स्त्री कोरस के चलते हुए गाने से बात नहीं बन रही, उसे एक जगह रुककर ही गाना होगा. दिग्गज रंग-संगीतकार संजय उपाध्याय की कंपोज की हुई कविता प्रस्तुति में और असर पैदा करती है.
पर शहर के लोग क्या सोचते हैं आशीष-स्वाति के इस पूरे उपक्रम पर? पहल के संपादक रहे, दिग्गज आलोचक ज्ञानरंजन उनकी प्रस्तुतियां देखने आते रहे हैं. हिंदी की प्रमुख समकालीन कवयित्री और गद्यकार बाबुषा कोहली हाथीताल इलाके में फर्स्ट फ्लोर के अपने फ्लैट पर पूड़ी और भंडारे जैसी सब्जी साझा करते हुए कहती हैं: ''इसमें दो राय नहीं कि (2017 में) स्वाति के आने से रंग समागम में स्त्री कलाकारों की संख्या, शक्ति और भरोसा बढ़ा है.
पर मेरा अनुभव कहता है कि आशीष पर लड़कियों का पहले भी गहरा भरोसा रहा है. इसके भीतर एक फेमिनिन एलिमेंट मौजूद रहा है. इसने सुगंधी नाटक शहर की अनगढ़ औरतों को लेकर किया था.’’ गौरतलब है कि बाबुषा हर दीवाली को रसगुल्ले का डिब्बा लेकर परसाई भवन पहुंचती हैं.
बहरहाल, अगले दिन दोपहर बाद जबलपुर निजामुद्दीन एक्सप्रेस के एक स्लीपर कोच में बैठकर दिल्ली निकली समागम टोली ऊपर की बर्थ पर बैठकर भूमि का ही रिहर्सल करती है. पर कल दिल्ली के श्रीराम सेंटर में शो तो अगरबत्ती का है? आशीष कहते हैं, ''कल वहीं एक बार दोहरा लेंगे.
उसका डर नहीं है.’’ दिल्ली का शो सफल रहता है लेकिन दो दिन बाद जयपुर में भूमि का शो? आशीष के ही शब्दों में, ''हमने जान-बूझकर वीडियोग्राफी नहीं कराई थी. पता नहीं कैसा हो शो. इतनी कामयाबी की उम्मीद होती तो यहीं करा लेते. पूरी टीम ने कहा कि अगरबत्ती के बाद का दूसरा मकसद मिल गया.’’ 1.30 घंटे के इसी भूमि का शो अब 23 जनवरी को जबलपुर के शहीद स्मारक में है.
आशीष और स्वाति ने जबलपुर जैसे परंपरावादी शहर में अभिनेत्रियों की सशक्त पौध तैयार की है. साथ ही वे ऐसी प्रतिभाओं को मंच पर लेकर आए हैं जो अपने आसपास के अशांत परिवेश की वजह से बड़ी उड़ान नहीं भर पा रहे थे
और इधर रंग परसाई
जब भी तुम जीवन में बहुत अकेले हो तो एक बार राधा पुकार लेना.’’ जीवन के अंतिम चरण में द्वारका में महाप्रयाण के समीप पहुंचे कृष्ण राधा के वचन याद करते हुए नाम पुकारते हैं और पीछे से पहुंची राधा बोल उठती है 'कान्हा.’ पांडव परिवार, सत्यभामा और रुक्मिणी वगैरह के साथ कृष्ण, उनकी बांसुरी और राधा के कथानक को लेकर मशहूर नाटककार जावेद सिद्दीकी ने नाटक लिखा है श्याम रंग. यह 1 से 5 फरवरी तक जबलपुर में हो रहे विवेचना रंगमंडल के 27वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह का हिस्सा है. इसके निर्देशक हैं आगरा के रंगकर्मी डिंपी मिश्र.
दरअसल यह हिंदी के मशहूर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का शताब्दी वर्ष है. विवेचना रंगमंडल उन्हें केंद्र में रखकर बाद में कुछ आयोजन करने वाला है पर अभी यह उसका सालाना समारोह है जो कोविड के बाद पहली बार हो रहा है. श्याम रंग के अलावा इसमें कोलकाता के विनय शर्मा (लेखक-निर्देशक) का दोष और वहीं के लिटिल थेस्पियन ग्रुप का एंड गेम (लेखक: सैमुएल बेकेट; निर्देशक: एस.एम. अजहर आलम) भी होना है.
परसाई के उपन्यास रानी नागफनी की कहानी पर इसी नाम से विवेचना ग्रुप की खुद की प्रस्तुति है. प्रयागराज के रंगकर्मी प्रवीण शेखर इसमें अपने बैकस्टेज ग्रुप का चर्चित नाटक हवालात (लेखक: सर्वेश्वर दयाल सक्सेना) पेश करेंगे. प्रवीण को इस वर्ष का राष्ट्रीय रंग सम्मान भी दिया जाएगा. यह 17वां सम्मान होगा.
मेजबानों में से एक, अभिनेता नवीन चौबे बताते हैं, ''प्रवीण को 11,000 रु. की राशि का यह सम्मान 2020 में ही दिया जाना था. सारे आयोजन की तैयारी हो गई थी लेकिन तभी कोविड ने दस्तक दी और सब चौपट हो गया.’’ इस बार उम्मीद है कि जबलपुर के तरंग प्रेक्षागृह में शहर के दर्शक रंग की तरंग का आनंद ले पाएंगे.