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तीन तिलंगे कन्नड़ के

कांतारा की कामयाबी तुक्का कतई नहीं. कन्नड़ सिनेमा चुपचाप एक बड़े बदलाव का गवाह बन रहा है. और इस कायापलट के लिए विशेष रूप से तीन अभिनेता तारीफ के हकदार हैं.

सितारे की चमक : ॠषभ शेट्टी फिल्म कांतारा के एक दृश्य में
सितारे की चमक : ॠषभ शेट्टी फिल्म कांतारा के एक दृश्य में
अपडेटेड 29 नवंबर , 2022

नयतारा की रिलीज की तारीख यानी 30 सितंबर से पहले कन्नड़ अभिनेता-लेखक और निर्देशक ऋषभ शेट्टी से अगर कोई कहता कि रिलीज के महीने भर बाद वे कर्नाटक से बाहर अपनी फिल्म को प्रमोट कर रहे होंगे, तो वे शायद ही इस पर यकीन कर पाते. कुछ महीने पहले कर्नाटक के बाहर उन्हें कम ही लोग जानते थे.

मगर देखते ही देखते, फिल्म के हिंदी संस्करण के लिए 39 वर्षीय ऋषभ मुंबई जा पहुंचे और फिर दिल्ली भी. वे कहते हैं, ''मुझे अब भी नहीं पता कि फिल्म इतनी बड़ी हिट कैसे हुई.’’ फिल्म में उन्होंने बचकानी हरकतों वाले आदमी से बागी बन जाने वाले एक ऐसे किरदार को पर्दे पर जिया है जिसे तटीय कर्नाटक के, एक अनुष्ठान से जुड़े जोशीले नृत्य 'बूटा कोला’ में जिंदगी का मकसद मिलता है.

ऋषभ फिल्म की परफॉर्मेंस से खुश हैं. करीब 16 करोड़ रुपए के बजट से बनी कांतारा देश भर से 350 करोड़ रुपए बटोर चुकी है. इसमें से आधी कमाई तो कर्नाटक के बाहर हुई है. कांतारा 2022 की दूसरी कन्नड़ फिल्म है, जिसने देश भर में धूम मचा दी. अप्रैल में होम्बले फिल्म्स की ही फिल्म के.जी.एफ. पार्ट 2 खासी कामयाब रही थी. यश शेट्टी के किरदार रॉकी की शक्ल में भारत को उसका दूसरा 'ऐंग्री यंग मैन’ मिला. यह ऐक्शन-ड्रामा फिल्म 2022 की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म है.

लंबा सफर

साल 2014 में फिल्मकार के  तौर पर बनाई अपनी पहली फिल्म उलिदावारू कांदांते (2014) में नसीरुद्दीन शाह का ’80 के दशक का संवाद 'फटा पोस्टर निकला हीरो’ बोलकर दरवाजा तोड़ते रक्षित एक संघर्षरत अभिनेता हुआ करते थे. इस फ्रेम में उनके साथ को-स्टार ऋषभ थे. ऋषभ की एक फिल्म हिट हो चुकी थी, लेकिन अभी बड़ी पहचान नहीं मिली थी. उसके आठ साल बाद आई कांतारा कोई तुक्का नहीं थी.

यह कन्नड़ सिनेमा की उस नई लहर का हिस्सा थी, जो पवन कुमार की लूसिया (2013) से शुरू हुई. क्राउड-सोर्सिंग से बनी लूसिया ने पारंपरिक सिनेमा के रूपकों को उलट दिया. यह शायद उस कामयाबी की तरफ पहला इशारा था जो कुछ सालों बाद कन्नड़ फिल्म उद्योग में नई जान डालने वाली थी. यह लहर कुछ ऐसी फिल्मों के दम पर परवान चढ़ी जो अपनी मिट्टी के नजदीक थीं और राज्य की संस्कृति के कम खंगाले गए पहलुओं को परदे पर लाईं.

मसलन, राज बी. शेट्टी की 2021 की फिल्म गरुड़ गमन वृषभ वाहन (जीजीवीवी), जो दोस्त से दुश्मन बने दो किरदारों (राज और ऋषभ अभिनीत) के जुर्मों और बेवकूफियों के जरिए तटीय मंगलूरू का छोटा सा इतिहास पेश करती है. अकेलेपन से घिरे फैक्ट्री कामगार और आवारा लैब्राडोर कुत्ते की कहानी 777 चार्ली (2022) भी रक्षित की ऐसी ही फिल्म थी.

ये दोनों शेट्टी दूसरों से अलग इसलिए हैं क्योंकि ये फिल्मों का निर्माण और उसमें अभिनय ही नहीं करते, बल्कि लिखते और निर्देशित भी करते हैं. लूसिया में पुलिस अफसर की भूमिका निभाने से पहले ऋषभ तीन फिल्में कर चुके थे, जिनमें से एक तुगलक (2012) रक्षित के साथ थी.

फिल्म तो नहीं चली, पर उनकी दोस्ती चल पड़ी. रक्षित याद करते हैं, ''लोगों का इंतजार करते हुए हम सिनेमाघरों के बाहर बैठे पटकथाओं पर बातें किया करते थे. इस जोड़ी ने उलिदावारू कांदांते हाथ में लेने से पहले एक शॉर्ट फिल्म पर काम किया. रक्षित कहते हैं, ''मैंने ’’ सोचा कि मुझे शायद कुछ ऐसा लिखना चाहिए जिससे मैं अभिनेता के तौर पर अपनी संभावनाएं दिखा सकूं.’’

उलिदावारू कांदांते का निर्देशन रक्षित ने किया, ऋषभ ने उन्हें असिस्ट किया और दोनों ने अभिनय किया. अलबत्ता इसने भी बॉक्स ऑफिस पर अच्छा प्रदर्शन नहीं किया, पर अपने कट्टर मुरीद जरूर जुटा लिए. इसकी पृष्ठभूमि में उन दोनों का अपना शहर उडुपी था. फिल्म ने परिपाटी तोड़ी: यह पहली व्यावसायिक फिल्म थी जिसमें मंगलूरू इलाके के  परिवेश और बोली को परदे पर खूब जगह मिली.

दूसरी जगहों पर बोली जाने वाली कन्नड़ से अलग मंगलूरू का यह लहजा मुख्यधारा के सिनेमा से अब तक गायब था. इसे इस्तेमाल किया भी जाता था तो अमूमन हंसी-मजाक के लिए. कन्नड़ की कला फिल्मों में जरूर इस इलाके को देखा जाता रहा.

गिरीश कासरवल्ली और मणि रत्नम सरीखे निर्देशकों के सहायक रह चुके फिल्मकार श्रीनिवास भाष्यम कहते हैं, ''अपनी पहली फिल्म में इन्हें इतना महत्वाकांक्षी होते देखना हैरत की बात थी. यह कुछ नया रचती, टेढ़े-मेढ़े रास्तों से गुजरती और हाजिर-जवाबी से भरी कहानी थी. (क्वांटिन) तारेंतिनो की शैली का असर साफ था, पर उन्होंने मुख्यधारा के बेहतरीन सिनेमा की तरह संगीत का इस्तेमाल भी खूब किया.’’

2017 में आई राज बी. शेट्टी की मंगलूरू आधारित फिल्म ओंदु मोत्तेया कथे (गंजे आदमी की कहानी) ने कन्नड़ फिल्म जगत को यह समझा दिया कि छोटे बजट की दिलचस्प फिल्में भी बॉक्स ऑफिस पर चमक सकती हैं. राज ने मंगलूरू की थीम पर ही जीजीवीवी बनाई, जिसकी तारीफ लेखक-निर्देशक अनुराग कश्यप ने भी की. उन्होंने इसे सुब्रमण्यपुरम (2008, तमिल), अंगमाली डायरीज (2017, मलयालम) और वाडा चेन्नै (2018, तमिल) सरीखी भरपूर सराही गई गैंगस्टर ड्रामा फिल्मों की बिरादरी में रखा. राज ने कांतारा के 'बूटा कोला’ दृश्यों के निर्देशन के अलावा 777 चार्ली के संवादों पर भी काम किया है.

इन तीनों शेट्टियों ने सीधे-सादे ढंग से जिंदगी शुरू की और यह उनके काम में देखा जा सकता है. बेंगलूरू में आइटी इंजीनियर रहे रक्षित उडुपी में पले-बढ़े और वहां के 'पिलिवेशा’ (बाघ नृत्य) के मुरीद थे. यह नृत्य उनकी फिल्मों में बार-बार लौटता है (जीजीवीवी में भी).

इसी तरह, ऋषभ ने बचपन में अपने गांव केराड़ी, कुंदापुर में 'यक्षगान’ की सालाना परंपरा में हिस्सा लेने के लिए मेकअप और कॉस्ट्यूम पहना. वे कहते हैं,''आंगिक अभिनय (देह के अंगों से अभिव्यक्त करना) मैंने यहीं सीखा.’’ बाद में उन्होंने रंगमंच पर काम किया, जिससे अदाकारी का उनका हुनर और निखरा. मंगलूरू में पले-बढ़े राज सामाजिक कार्य में ग्रेजुएशन के बाद पटकथाएं लिखने लगे. एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि पहली फिल्म उन्होंने मंगलूरू के समुद्रतट पर मछली पकड़ने वाली नाव की पृष्ठभूमि में लिखी थी.

देश भर का सफर
कन्नड़ फिल्में पहले भी हिंदी और दूसरी भाषाओं में डब होती थीं, पर इंडस्ट्री राष्ट्रीय स्तर पर अपने काम की मार्केटिंग नहीं कर रही थी. 2013 में स्थापित होम्बले फिल्मस के चेलुवे गौड़ा और विजय किरगंदूर कहते हैं कि कन्नड़ फिल्म उद्योग को कर्नाटक के बाहर इंडस्ट्री तक नहीं माना जाता था. गौड़ा कहते हैं, ''हमें लगा कि हम इंडस्ट्री को अगले पड़ाव पर ले जा सकते हैं. यहां अच्छे अभिनेता थे, निर्देशक थे, हमारी फिल्में दूसरी भाषाओं में डब भी होती थीं. पर किसी ने इन्हें दुनिया के दर्शकों तक पहुंचाने की कोशिश नहीं की थी.’’

के.जी.एफ. और कांतारा के साथ छह महीने के भीतर कंपनी की दो फिल्में हिट हो चुकी हैं. यह बैनर फिलहाल 14 फिल्में बना रहा है, जिनमें प्रभास के  साथ सालार, पवन कुमार निदेशित और फहाद फाजिल अभिनीत एक मलयालम फिल्म और कीर्ति सुरेश के साथ एक तमिल फिल्म शामिल हैं. थ्रिलर-ऐक्शन फिल्म रिचर्ड एंथनी भी आ रही है, जो उलिदावारू कांदांते का दूसरा भाग है. रक्षित इसमें निर्देशन और अभिनय, दोनों कर रहे हैं.

बात टीमवर्क की
भाष्यम कहते हैं, ''मलयालम फिल्म इंडस्ट्री की तरह कर्नाटक में भी निर्देशक, निर्माता, लेखक और अभिनेता साथ मिलकर काम करने लगे हैं. मगर यह भारतीय सिनेमा के लिए नया है.’’

यह रास्ता खालिस रणनीति से निकला है. रक्षित कहते हैं, ''जब मैंने उलिदावारू कांदांते बनाई, तो सोचा लोग सिनेमाघरों में दौड़े चले आएंगे.’’ जब वे नहीं आए, तो उन्होंने नए फिल्मकार तलाशे. 2014 के बाद रक्षित ने कई नए निर्देशकों के साथ काम किया. उनके  प्रोडक्शन हाउस परमवाह स्टूडियो ने लेखकों की एक बिरादरी बनाई, जिसमें ज्यादातर दोस्त थे.

नाम रखा गया 'द सेवन ऑड्स.’ इसमें वे और ऋषभ भी थे. रक्षित कहते हैं, ''आप महज एक फिल्म बनाकर यह नहीं कह सकते कि हम क्लास ऑडिएंस के लिए फिल्में बना रहे हैं.’’ वे मानते हैं कि साल में 10 फिल्में बनाने के लिए कम से कम 10 फिल्मकार चाहिए.

रक्षित कहते हैं, ''तमाम राज्यों के हिंदीभाषी दर्शकों ने तटीय कर्नाटक के गांव की कहानी पसंद की. अगली फिल्म में कहानी कहने का अपना अंदाज मुझे बदलना होगा? मुझे नहीं लगता...मुझे अपनी जड़ों से जुड़े रहना होगा, मैं जुड़ा रहूंगा.’’ कांतारा को मिली प्रतिक्रिया को देखें तो सिनेदर्शक भी शायद यही चाहते हैं—अनगढ़ और सच्ची क्षेत्रीय कहानियां, जो अपने आप में अनूठी हों.

खांटी देसी कहानियां
(ऊपर) रक्षित शेट्टी 777 चार्ली में; और राज बी. शेट्टी गरुड़ गमन वृषभ वाहन (जीजीवीवी) में.

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