शेख अयाज
''मैं ही क्यों, कोई भी आर्टिस्ट बाजार के लिए आर्ट नहीं बनाता. बाजार में मांग के आधार पर मैं शिल्प नहीं रचता’’
चर्चित मूर्तिशिल्पी सुबोध गुप्ता के नए कामों के शो 'कॉस्मिक बैटल’ में एक चलता हुआ सा मूर्तिशिल्प भी है, जिसे उन्होंने 'सेल्फ पोट्र्रेट’ नाम दिया है (यह प्रदर्शनी दिल्ली की नेचर मोर्ते गैलरी में 10 अप्रैल तक चलेगी). गुप्ता के पहले के कामों की तरह ये कलाकृतियां भी खाना पकाने के बर्तनों से रची गई हैं. इसमें कलाकार या उसका चेहरा कहीं दिखाई नहीं दे रहा.
ऐसे में सवाल उठता है कि यह सेल्फ-पोट्र्रेट कैसे है? गुप्ता हमें बताते हैं, ''यह बचपन की मेरी यादों का कसीदा है. मुझे याद है जब मैं बच्चा था, मेरी मां कांसे की थाली में ईंट, रेत, चावल, आम के पल्लव, नारियल और कुछ फूल सजाकर विधिवत पूजा करती थीं. हम ऐसे ही कर्मकांड के साथ बड़े हुए जो हमारे लिए स्थापत्य या प्रदर्शनकारी कला की तरह थे. यह सेल्फ पोट्र्रेट मेरे और मां के बीच जुगलबंदी है.’’
सेल्फ-पोट्र्रेट एल्युमिनियम, कांसे और स्टेनलेस स्टील को नए सिरे से ढालकर बनाया गया है. यह 58 वर्षीय गुप्ता के लिए रोजमर्रा की सामग्री है, जिसका इस्तेमाल वे अपनी जड़ों की पड़ताल के लिए तीन दशक से करते आए हैं. आज कला के संग्राहक दुनिया के और भारत के महान रसोईघर दोनों की उनकी व्याख्या को हासिल करने के लिए अपनी अंटी से करोड़ों रुपए ढीले कर देते हैं.
गुप्ता अपनी कला को ''स्वाभाविक रूप से नाटकीय’’ कहना पसंद करते हैं. कॉलेज में रंगमंच से जुड़े रहे गुप्ता की अवधारणाएं हमेशा परफॉर्मेंस के विचारों से ओतप्रोत रहीं. वे हंसते हुए कहते हैं, ''मुझे अभिनेता होने की कमी जरा भी नहीं खलती. वह मेरी जिंदगी का एक दौर था. अब मैं अपने मूर्तिशिल्पों से नाटकीयता रचता हूं. अब मैं अपनी पेंटिंग के जरिए परफॉर्म करता हूं.’’
गुप्ता के लिए रसोई के बर्तन सीधे-सादे रूपक से कहीं ज्यादा हैं. वे कहते हैं, ''अपनी एक कविता में संत कबीर मिट्टी के घड़े के बारे में लिखते हैं, जिसके भीतर उन्हें स्रष्टा और तारे मिलते हैं. मैं समझता हूं यह विचार मेरे मूर्तिशिल्पों पर बिल्कुल फबता है.’’ गुप्ता मानते हैं कि हर बर्तन अपने भीतर कहानियों का पूरा एक गुलदस्ता समेटे है.
वे कहते हैं, ''पुराने बर्तनों में हद दर्जे की खासियतें होती हैं. उन ढेर सारे लोगों की कल्पना कीजिए जिन्होंने उसमें खाना खाया. मैं उन्हें निजी तौर पर नहीं जानता पर अंदाज लगा सकता हूं कि वे कौन हैं. इसीलिए मेरी तश्तरियों पर आप खरोंच और निशान देखते हैं. यह इनसानी हथेली की तरह है. हथेली की तस्वीर लो तो ब्रह्मांड की तरह दिखती है.’’
हालांकि गुप्ता बड़ी कलाकृतियों की रचना गुरुग्राम के अपने स्टुडियो में करते हैं, पर कभी-कभी वे उन्हें चीन, दक्षिण कोरिया, अमेरिका और जर्मनी सरीखे देशों के विदेशी प्रोडक्शन हाउसों को आउटसोर्स भी करते हैं. वे यह धारणा तोड़ने को उत्सुक हैं कि उनकी सभी कलाकृतियां विशालकाय हैं. वे कहते हैं, ''पूरे करियर में मैंने बमुश्किल 20-30 बड़े मूर्तिशिल्प किए होंगे. बाकी सभी छोटी कृतियां हैं.
संयोग से उनमें से कई तो पेंटिंग हैं.’’ मूलत: उन्होंने पेटिंग ही सीखी थी. उन्हीं के शब्दों में, ''मुझे पेटिंग करने में बड़ा आनंद आता है. असल में आउटडोर मूर्तिशिल्पों के बीच जब भी वक्त मिलता है, मैं पेंटिंग करता हूं.’’ लगातार कद्दावर कलाकृतियां देते रहने के लिए अगर बाजार का दबाव न हो तो क्या गुप्ता कैनवस पर लौटना चाहेंगे? वे टका-सा जवाब देते हैं, ''कोई कलाकार बाजार के लिए नहीं रचता. मेरी कला मांग के मुताबिक नहीं रची जाती.’’
गुप्ता की कला वस्तु भले न हो, पर इस तथ्य से उनके लिए इनकार कर पाना मुश्किल होगा कि उसकी मांग लगातार बनी रहती है. उनके मूर्तिशिल्पों ने भारत और विदेशों के प्रमुख कला संग्रहों में जगह बनाई है. गुप्ता के भीतर उद्यमिता वाला हुनर भी उनकी कलात्मक काबिलियत जितना ही है. इसी के दम पर उन्होंने आधुनिक कलाकार की पहचान बदल दी, उसे 'प्रताडि़त और फटेहाल’ से 'दौलतमंद और मशहूर’ बना दिया है.
चूंकि उनकी तरह का कोई दूसरा नहीं (शायद एक एम.एफ. हुसैन को छोड़कर), इसीलिए पत्रकारों ने कभी उनका उपनाम 'नई दिल्ली का डैमियन हस्ट’ रख दिया था. आज इस तुलना को वे झिड़क देते हैं: ''मैं अंतरराष्ट्रीय कलाकार हूं. मेरी अपनी पहचान और सत्ता है.’’
बिहार के खगौल में जन्मे और पटना के कॉलेज ऑफ आर्ट्स ऐंड क्राफ्ट से पढ़े गुप्ता को हमेशा अपनी कामयाबी का आत्मविश्वास था. हालांकि, कामयाबी इतनी भव्य होगी, इसकी उम्मीद उन्हें न थी. विडंबना यह कि जिस कलाकार की रीति-नीति की तुलना अक्सर बेअदब फ्रांसीसी कलाकार मासेल डूशाम्प के तौर-तरीकों से की जाती है, वह हमें याद दिलाता है कि उसके कॉलेज में आर्ट हिस्ट्री की एक क्लास तक नहीं हुई थी.
अच्छी बात यह थी कि वे परंपरा तोड़ सके. उनके मुताबिक, ''हम डूशाम्प, पिकासो या मटीज के बारे में पढ़ते हुए बड़े नहीं हुए. यह सब हम तक बहुत बाद में आया.’’ 1989 में दिल्ली आने के बाद ही गुप्ता पश्चिमी कला के पूरे संपर्क में आए.
1992 में पत्नी भारती खेर से पहली बार मिलना गुप्ता की जिंदगी का निर्णायक मोड़ था, निजी तौर पर भी और पेशेगत तौर पर भी. अचानक हिंदी में बोलते हुए गुप्ता कहते हैं, ''भारती मुझे नई दुनिया से मिलवाने में मददगार रहीं.’’ हिंदी उनकी अभिव्यक्ति की प्राथमिक भाषा है. पर वे ऐसी कला रचना चाहते हैं जो भारतीय होने की उनकी विरासत पर फूले-फले. वे कहते हैं, ''नशा काम बनाने में है दोस्त. मुझे नहीं पता इसे समझाऊं कैसे.’’
—शेख अयाज