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स्मृतिः उन्होंने कथक को 'डिजाइन' किया

व्यक्ति की जरूरत कब, कहां है, इसे वे बखूबी जानते थे. जयपुर-लखनऊ घराने की अपनी अग्रज नृत्यांगना रोहिणीताई भाटे के लिए उनके मन में विशेष स्नेह था

जरा देखिए तो! पंडित बिरजू महाराज नवरसों का प्रदर्शन करते हुए
जरा देखिए तो! पंडित बिरजू महाराज नवरसों का प्रदर्शन करते हुए
अपडेटेड 29 जनवरी , 2022

कुमुदनी लाखिया

मेरा-उनका बहुत सालों का संबंध रहा. मैं जब दस साल की थी और उनके पिता अच्छन महाराज के पास नृत्य सीखने गई थी तब बिरजू महाराज दो-तीन साल के थे. पता नहीं था कि यह छोटा-सा बालक इतना महान कलाकार बनेगा, पूरी दुनिया में अपना और कथक का नाम रौशन करेगा. मैं अपना गुरु उनके चाचा शंभु महाराज को मानती हूं. अच्छन महाराज से जब सीखा तब मैं बहुत छोटी थी. तब उन्होंने जो बताया, करती गई. लेकिन शंभु महाराज से सीखते समय मुझे मालूम था कि मैं क्या कर रही हूं. बिरजू महाराज का नृत्य बाद में सबसे अलग हो गया. मुझे याद है कि एक बार शंभु महाराज ने मुझसे कहा भी था कि ये बिरजू किस तरह का नृत्य करता है?

वास्तव में बिरजू महाराज को कथक को पूरी दुनिया में ले जाना था. यह वह समय था जब भरतनाट्यम विदेश में काफी लोकप्रिय था, कथक नहीं था. कथक की एक बंधी-बधाई पद्धति थी, मसलन टुकड़ा करो, पैर का काम करो, वेशभूषा की ओर भी बहुत ध्यान नहीं दिया जाता था. मंच पर कलाकार आता था और तोड़े-टुकड़े लगाना शुरू कर देता था. बिरजू महाराज और मैंने कथक की प्रस्तुति पर ध्यान दिया. बिरजू महाराज ने ताल-लय में बहुत काम किया. नई-नई तिहाइयां बनाईं. बंदिशें भी लिखीं. हम दोनों ने साथ में खूब काम किया. नृत्य नाटिकाएं कीं. रति कामदेव की हमारी युगल प्रस्तुति बहुत लोकप्रिय हुई. मैंने उनकी पोशाक बदली, मैं ही उनके वस्त्र, मेकअप का ध्यान रखती थी.

वह एक ऐसा समय था जिसे कथक का 'टर्निंग प्वाइंट' कह सकते हैं. मुझे एक और शब्द के उपयोग की इजाजत मिले तो कहना चाहूंगी कि उन्होंने कथक को 'डिजाइन' किया. जैसे चीजें तो वही होती हैं लेकिन एक अच्छा रसोइया अच्छा खाना बना देता है. उन्होंने कथक को 'डिजाइनर' कर दिया. मंच पर कथक की प्रस्तुति किस प्रकार होनी चाहिए, इसके बारे में विचार किया और इसमें मेरा भी योगदान था. मेरे पिता से उनका बहुत मेलजोल था. वे मुझे कुमुद जी कहते थे, मैं उन्हें महाराज जी कहती थी. हमारी बहुत अच्छी दोस्ती थी. वे मेरी संस्था में भी खूब आते थे. हाल के वर्षों में उन्होंने फिल्मों के लिए भी काम किया, ये फिल्में मैंने देखी हैं. देवदास, बाजीराव मस्तानी, डेढ़ इश्किया मुझे बहुत पसंद आईं लेकिन विश्वरूपम नहीं, हालांकि इसे राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला.
    
वरिष्ठ कथक नृत्यांगना, कोरियोग्राफर और गुरु

राममोहन महाराज

जब से मेरे पिता शंभु महाराज का स्वर्गवास हुआ, तभी से भैया बिरजू महाराज ने मेरी उंगली थाम ली थी, मैं बहुत छोटा ही था. वे मेरे पिता, मेरे गुरु ही नहीं, मेरे लिए भगवान थे. जब थे तब भी और अब जब नहीं हैं तब भी. मेरा एक-एक कतरा उनका शुक्रगुजार है और मैं जीवन पर्यन्त इसे नहीं भूल सकता. मैं आज जो भी नृत्य करता हूं, बच्चों को सिखाता हूं, सबकुछ उन्हीं का सिखाया हुआ है. उन्होंने मुझे गुरु की पदवी भी दी. वे साधारण इंसान नहीं थे, मैं उन्हें ईश्वर का रूप मानता हूं. वे भगवान कृष्ण के रूप थे.

हमारा परिवार विख्यात कथक नर्तकों का परिवार है. बिरजू महाराज के नृत्य में उनके पिता अच्छन महाराज, मेरे पिता शंभु महाराज और चाचा लच्छू महाराज-तीनों का ही रूप रहा. उन्होंने कथक के अंगों को नया मोड़ देकर उसे अलग बनाया. पुराने समय में कथक के जो अंग थे, उन्होंने उसको बदला. कथक में खड़े होने का अंदाज कैसा होना चाहिए, भंगिमाएं कैसी होनी चाहिए, पैरों से बोलों का निकास किस प्रकार किया जाना चाहिए, इन सब पर उन्होंने नए सिरे से विचार किया. बिंदादीन महाराज ने पांच हजार बंदिशों की रचना की थी, बिरजू महाराज जी ने भी तीन हजार बंदिशों की रचना की है. वे कभी बांसुरी लेकर, कभी तबला लेकर बैठ जाते, कभी गाने लग जाते, कभी पेंटिंग करने लग जाते थे.

वे बहुआयामी थे, बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. कहना गलत न होगा कि देवी सरस्वती हमेशा महाराज जी के साथ ही रहती थीं. मैं बचपन से महाराज जी के साथ रहा हूं और उनका अनुकरण करता रहा हूं. उनके नृत्य को, उनके व्यवहार को अपने भीतर ढालने की कोशिश की जिससे जब मंच पर मैं आऊं तो मुझमें उनकी झलक मिले. उन्होंने अभ्यास न करने पर हमें डांटा भी है. कभी हम बहाना करते तो मजाक में ही पिटाई भी कर देते थे. मैं इतने वर्षों से उनके साथ था लेकिन अभी साल भर पहले ही उन्होंने मुझे गंडा बांधा और इसके काबिल समझा था. बेटा मैं शंभु महाराज का हूं और जब नृत्य करता हूं तो लोग मेरे पिता को याद करते हैं लेकिन मैं बिरजू महाराज के करीब रहने की कोशिश करता हूं. 

प्रसिद्ध कथक नर्तक, चचेरे भाई (दोनों टिप्पणियां आलोक पराड़कर से बातचीत के आधार पर)

कथक के अभिभावक का प्रस्थान

राजेश गनोदवाले

कथक के लखनऊ घराने को लोकतांत्रिक चेहरा देने वाले 20वीं सदी के जीनियस कथक नर्तक पंडित बिरजू महाराज डायलिसिस से लड़ते-लड़ते अंतत: 17 जनवरी को तड़के हमसे बिछुड़ गए. किसी बड़ी हस्ती के जाने पर 'एक बड़ा-सा शून्य उभर आया है' कहने का चलन-सा है. लेकिन महाराज जी के लिए इस कथन को सुनते-पढ़ते सच्चाई नजर आती है. भारतीय शास्त्रीय संगीत के लिए तो यह गहरा आघात है ही.

अब वे स्मृतियों में ही होंगे. दिग्गज कथक नृत्यांगना उमा शर्मा उन्हें 11 साल के बृजमोहन (मिश्र) वाले दिनों से ही जानती थीं. वे उन्हें 'जीनियस' के रूप में संबोधित करती हैं. ''अभी बीती दीवाली में ही तो वे घर आए थे. हमने साथ खाना खाया. हमेशा की तरह खूब बातें हुईं. जैसी कि उनकी खासियत थी, हंसी-मजाक भी हुआ. कवित्त गढ़ने में तो उन्हें महारत थी. ब्रज श्याम कहे  नाम का अपना काव्य संग्रह मुझे दिया था. उन्होंने मेरे लिए एकाधिक गीत कंपोज किए थे. बंदिशें बनाने में हुनरमंद थे ही. बाद में पूछते भी थे, ''उमा, तुमने मेरी ठुमरियों पर काम किया था न, कैसा रहा प्रोग्राम?'' दुनिया उन्हें कथक सम्राट मानती है लेकिन बैले तैयार करने में भी वे बेजोड़ थे. देश-विदेश में मैंने उनके साथ अनेक बैले किये. निर्देशन के साथ वे पार्ट भी करते थे.''
वे कुशल पेंटर भी थे. राजनांदगांव (छत्तीसगढ़) में उन्हीं के 35 साल पुराने शागिर्द डॉ.

कृष्ण सिन्हा के आमंत्रण पर नियमित 4 साल तक वे कार्यशाला लेने आए. उस दौरान फुर्सत पाते ही सर्किट हाउस के कमरे में घुटनों के ऊपर तक चढ़ाई हुई धोती में पालथी मारकर चित्र बनाने बैठ जाते थे. सिन्हा याद करते हैं, कार्यशाला की जरूरतों की सूची मांगी तो महाराज जी ने कहा, ''तुम्हें बताने की जरूरत नहीं. लेकिन हां, मेरे कमरे में कैनवस और रंग जरूर रखवा देना.''

इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स के साथ भी वे एकाकार थे. नई-नई कार ड्राइव करने में उन्हें आनंद आता था. ''जरा एक चक्कर लगाकर देखें, कह कर वे अनजानी कार को भी कुछ उसी ढंग से चला के वापस ला दिया करते थे जैसे उसे हमेशा से चलाते आए हों.

रियलिटी शोज में कथक आधारित एपिसोड्स में जब उन्हें विजिटिंग गुरु के रूप में आमंत्रित किया गया तो सिनेमा को हीरो-हीरोइन तक सीमित कर देखने वाली यह सामान्य समझ भी बदली कि जिस गाने ने फिल्म को लोकप्रियता दिलाई उसमें महाराज जी का योगदान कितना बड़ा था. वे जिस भी फिल्म से जुड़े, उसके गीतों की सिनेमाई पहचान बरकरार रखते हुए उसमें उन्होंने अपनी उपस्थिति की चमक भी बिखेरी. उनमें कथक की कलात्मकता आश्चर्यजनक ढंग से उभरी.

व्यक्ति की जरूरत कब, कहां है, इसे वे बखूबी जानते थे. जयपुर-लखनऊ घराने की अपनी अग्रज नृत्यांगना रोहिणीताई भाटे के लिए उनके मन में विशेष स्नेह था. उन्हीं से दीक्षित नाशिक निवासी विद्या देशपांडे महाराज जी से भी बरसों से तालीम लेती आईं. देशपांडे का नृत्य देखकर महाराज जी कहते,  ''तुममें रोहिणीताई झिलमिलाती हैं. भले तुम मुझसे सीखती हो. अपने में उन्हें बचाए रखना.'' क्या ऐसा वाक्य सामान्य हो सकता है? कमल हासन अभिनीत विश्वरूपम में उन्होंने इन्हीं देशपांडे को अपने सहायक के तौर पर आमंत्रित किया.

वे परंपरा के प्रति सच्चे आग्रही तो थे ही लेकिन खुला नजरिया रखने वाले प्रगतिशील भी थे. दिल्ली के कथक केंद्र में दीवार के एक ओर महाराज जी की क्लास चलती और दूसरी ओर पंडित राजेंद्र गंगानी की. नई सदी में जयपुर घराना जिनके नाम से जाना जाता है, ऐसे गुरु गंगानी को उनसे चार दशक तक नेह मिला. सन् 1965 में दस वर्ष की उम्र में पिता के साथ जोधपुर से दिल्ली आने पर उन्होंने पहली बार महाराज जी को देखा था. समय के साथ कलात्मक संबंधों की रौनक निखरती रही. दो घरानों के कलाकारों का साथ एक संग सिखाने और परफॉर्म करने से प्रगाढ़ होता गया.

गंगानी कोलकाता की एक महफिल नहीं भूलते जब उनके बाद महाराज जी का नृत्य होना था. वे नृत्यु कर चुके थे और कोलकाता के खांटी रसिकों के मध्य उनका जादू जम गया था. सोचा कि एक बार महाराज जी से मिल लें. स्नेहवश वे प्रणाम करने ग्रीन रूम पहुंचे. उन्हें देखते ही महाराज जी ने सीधे गले लगाते हुए कहा, ''खूब नाचा तुमने, रिपोर्ट आ गई.'' और मंच से अपना नृत्य पेश करने से पहले हमारे घराने की बात करते हुए प्रशंसात्मक वाक्य कहे. उनका साफ कहना था, ''जो करता है घराना उसका है. लक्ष्य कथक होना चाहिए. इसलिए सारे घरानों को मैं एक मानता हूं. आखिर हम लोग कथक के लिए ही तो लगे हुए हैं.''

महाराज जी को शुगर-फ्री बिस्कुट पसंद थे. गंगानी इसका ध्यान रखते हुए कम मीठी चाय भी उनके सामने रख दिया करते. कथक केंद्र में एक-दूसरे की कक्षाओं से आती घुंघरुओं की झंकार में भी महाराज जी की छवि दिख जाती थी. ऐसा कई बार हुआ कि बरामदे से गुजरते हुए वे अचानक आकर बैठ जाते और पूछते, ''क्या सिखा रहे हो? अच्छा सिखाओ-सिखाओ,'' साथ ही कुछ गुर भी दे दिया करते थे. गंगानी ने अपनी सारी जिन्दगी पं. बिरजू महाराज को कभी किसी की आलोचना करते नहीं देखा. न उमा शर्मा ने उन्हें कभी रूठते हुए देखा. ''रूठना जैसी क्रियाएं उनके लिए मात्र नृत्य का हिस्सा थीं.'' 

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