देवेंद्र राज अंकुर
हाल ही में रूथ वनिता का हिंदी में एक उपन्यास आया है परियों के बीच. कहना तो यह चाहिए कि यह उनका पहला उपन्यास है जो मेमोरी ऑफ लाइट नाम से अंग्रेजी में आ चुका है. लेखक ने स्वयं इसका हिंदी में पुनर्लेखन किया है. किताब में अगर यह सूचना न दी गई होती तो निश्चय ही उसे एक मौलिक रचना माना जाता.
वनिता ने हिंदी भाषा के जिस तेवर, मुहावरे और व्यवहार के प्रयोग से 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में स्थित अवध रियासत के दौरान कोठों की अंदरूनी दुनिया को उजागर किया है, निश्चय ही उसका चित्रण इस रचना को एक खास पहचान देता है.
यह पहचान मात्र अपने भाषायी स्वरूप के कारण ही नहीं वरन अपनी विषय-वस्तु को लेकर भी बनती है. समलैंगिक प्रेम आरंभ से ही समाज में तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाता है, भले उसकी उपस्थिति हमेशा से रही हो. लेकिन जिस रूप में यह संबंद्ध दो औरतों, मशहर तवायफ चपला बाई और शायरा नफीस बाई के माध्यम से उद्घाटित किया गया है, उसकी कोमलता, सूक्ष्मता और मार्मिकता देखते ही बनती हैं. उसके भीतर से गुजरकर इस रिश्ते को कुछ अपवित्र या अछूत जैसा मानने का एहसास ही खत्म हो जाता है.
सारी कथा नफीस बाई की डायरी के रास्ते हम तक पहुंचती है. मुख्य रूप से लखनऊ और बनारस के साथ-साथ मुख्य किरदार कलकत्ता और दिल्ली से भी होकर आते हैं. कई-कई पगडंडियां साथ चलती हैं. तवायफों के कोठों और उनके घर-परिवार का अंतरंग चित्र—उनका रहन-सहन खान-पान तीज-त्यौहार, वेशभूषा-शृंगार—कोई पक्ष ऐसा नहीं जो हमारी नजरों से अनदेखा रह जाए. उपन्यास के रूप में इसे तत्कालीन तवायफ समाज का गहरा दस्तावेज कहा जा सकता है.
उपन्यास में यथार्थ और कल्पना का अद्भुत संगम है. एक तरफ उस वक्त के मशहूर शायर कथा में जबरदस्त उपस्थिति दर्ज करते हैं, दूसरी तरफ कंपनी राज से जुड़े कई बड़े अफसरान, उनकी बीवियों और इनके बीच रिश्तों की एक लंबी दास्तान से गुजरतीं चपला बाई और नफीस बाई. एक हिंदू, एक मुसलमान पर लगता ही नहीं कि दोनों कहीं अलग हैं. ठीक यही बात शरद और दूसरे मुस्लिम शायरों के रिश्ते के बारे में कही जा सकती है.
इतने सारे ऐतिहासिक तथ्यों, ब्यौरों और रिसर्च के बावजूद कहीं भी किस्सागोई का अंदाज छूटता नहीं. रचना की यही सबसे बड़ी खूबी है. जिस रिश्ते की कहानी सुनाई जा रही है, वह बिना किसी दस्तक के कब कथा में शामिल हो जाता है, पता ही नहीं चलता. इसका एकमात्र कारण है कि जिस सहजता से वनिता ने इस रिश्ते के कोमल तंतुओं को छुआ है उसी सहजता से उपन्यास के दूसरे पात्र भी उसे स्वीकारते हैं, उसमें मदद भी करते हैं.
यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि समलैंगिक को लेकर जो हौवा खड़ा किया जाता रहा है, उसे मिटाने में यह उपन्यास बहुत मददगार साबित होगा. एक बात और—जो लोग इस रिश्ते में सनसनीखेज जैसा कुछ ढूंढते हैं, उन्हें अवश्य झटका लगेगा. वे शायद विश्वास कर पाएं कि ऐसे रिश्ते भी सहज हो सकते हैं—इसके लिए लेखक को बहुत बधाई.
—देवेंद्र राज अंकुर