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किताबेंः स्थापना मौलिक अवधारणाओं की

एब्सर्डिटी या विसंगति के नाटकों का विश्लेषण करते हुए वे स्पष्ट कहते हैं कि हमारे यहां विसंगति फैशन के तौर पर आई.

रंगमंच की कहानी  
रंगमंच की कहानी  
अपडेटेड 19 अगस्त , 2021

विजय पंडित

कहानी के रंगमंच के प्रणेता देवेंद्रराज अंकुर की किताब रंगमंच की कहानी रंगमंच के उद्भव से लेकर आधुनिक रंगमंच तक की यात्रा का एक विस्तृत कथा-वृत्तान्त है. अभी तक इस विषय को लेकर रंगकर्मियों, नाटककारों और शोधार्थियों को अंग्रेजी की किताबों पर ही आश्रित रहना पड़ता था.

इतना ही नहीं देश के विभिन्न नाट्य संस्थानों मंं भी सिद्धांत, तकनीक और इतिहास के लिए बाहर की ही किताबें पढाई जाती रही हैं. यह किताब उस खालीपन को भरती है. विश्व के रंगमंच की कथा को अंकुर ने काफी श्रम और शोध करके लिखा है.

इस किताब में वे 'प्रागैतिहास का रंगमंच’ के ‘आदिम रंगमंच’ से होते हुए पूर्व का रंगमंच, पश्चिम का रंगमंच और नेपथ्य की कहानी कहते हैं, जिसमें अभिनय, प्रेक्षागृह, मंच अभिकल्पक और दृश्यांकन से लेकर निर्देशन तक की यात्रा है. चार विशद भागों में विभक्त इस किताब में कुल उन्नीस शीर्षक हैं और हर शीर्षक नितांत तार्किक है.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे पाश्चात्य थिएटर की अवधारणाओं से कतई प्रभावित नहीं होते. इन सभी कहानियों में उन की अपनी अवधारणा है. विशेषकर जहां उन्हें लगता है कि भारतीय रंगमंच या इसके किसी भी पक्ष को विदेशी लेखकों और शोधकर्ताओं ने संज्ञान नहीं लिया है, वहां वे तर्कपूर्ण ढंग से अपनी बात रखते हैं.

पूर्व के रंगमंच में चीनी और जापानी रंगमंच के दो अध्याय हैं, वहीं भारतीय रंगमंच के चार अध्याय—भारतीय शास्त्रीय रंगमंच, लोक रंगमंच, पारसी रंगमंच और आधुनिक रंगमंच. इन सभी शीर्षकों को मिलाकर भारतीय रंगमंच की यात्रा अपनी पूर्णता को प्राप्त करता है. वहीं ‘पश्चिम का रंगमंच’ में—ग्रीक, रोमन, मध्यकालीन रंगमच, रिनेंसां कालीन (इतालवी), एलिजाबेथ कालीन, स्तानिस्लाव्स्की, ब्रेख्त और एब्सर्ड का रंगमंच है.

एब्सर्डिटी या विसंगति के नाटकों का विश्लेषण करते हुए वे स्पष्ट कहते हैं कि हमारे यहां विसंगति फैशन के तौर पर आई. युद्ध की विभीषिका से हम सीधे प्रभावित नहीं थे, इसलिए हमारे नाटकों का कथ्य प्रभावशाली नहीं रहा. केवल हम फॉर्म अपना पाए और इस तरह से जैसे ही वह नाटक आया, वैसे ही चला भी गया.

इस संदर्भ में वे बादल सरकार के 'तीसरा रंगमंच’ का उदाहरण देते हैं कि किस तरह समय के साथ उसे लोग भूलते गए. भुवनेश्वर हिंदी एब्सर्ड नाटक के जन्मदाता या प्रथम प्रयोगकर्ता थे, इस धारणा को भी वे सिरे से नकारते हैं.

कोई भी नाटक कैसे प्रासंगिक रहता है, उसके लिए वे ब्रेख्त का उदाहरण देते हैं.वहीं ब्रेष्ट और ग्रोतोव्स्की को आमने-सामने रख कर वे स्पष्ट करते हैं कि ब्रेख्त की एपिक थिएटर की अवधारणा को हम प्राय: महाकाव्यात्मक शैली से जोड़ देते हैं, जबकि ब्रेख्त की सोच है कि उनके दर्शक घटनाओं को विश्लेषित भी करें और परिवर्तनों को लेकर उतने ही सक्रिय हों.

स्तानिस्लाव्स्की की चरित्रपरक प्रस्तुति और ब्रेख्त की प्रस्तुतिपरक प्रस्तुति की चर्चा करते हुए वे साफ कहते हैं कि यह कोई नवीन अवधारण नहीं है. आज से ढाई हजार साल पहले भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में लोकधर्मी और नाट्यधर्मी इन दो शीर्षकों के अंतर्गत दोनों पद्धतियों का संकेत कर दिया था.

वे एलिजाबेथकालीन थिएटर के योगदान और ग्लोब थिएटर, शेक्सपियर तथा रेनेसां थिएटर के कारण नए रंगमंचीय तत्वों के प्रयोग से लेकर गॉर्डन फ्रैग, जॉर्ज बर्नाड शॉ, लॉरेन्स ओलिवर और पीटर ब्रूक तक की रंगयात्रा को भी विस्तार से लिखते हैं, साथ ही मेयरहोल्ड, आर्तो और अगस्तोबोल के रंगमच को भी उद्घृत करते हैं.

अंत में वे अभिनय, प्रेक्षागृह, सेट डिजाइन और निर्देशन की कहानी भी बताते हैं. लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि विश्व रंगमंच की इस कथा यात्रा में भारतीय रंगमंच के योगदान को वे बखूबी स्थापित करते हैं.

पुस्तक की भाषा में लालित्य है, केवल सूचना की भाषा नहीं है. हर अध्याय एक निबंध है, ललित निबंध. वहीं पर अंग्रेजी शब्दों का टर्मिनोलॉजी और नाम के लिए बखूबी प्रयोग किया गया है जो कि भाषायी रूप से समृद्ध करती है.

इसमें चित्र की कोई आवश्यकता नही थी और इस बात को लेखक ने स्पष्ट भी किया है. लेखन ही अपने आप में इतना सक्षम है कि संबंधित कथा का विजुअल पाठकों के सामने ला सके.

रंगमंच की कहानी रंगकर्म से जुड़े लोगों के लिए तो जरूरी है ही, साथ ही साथ कहानी लेखकों के लिए भी जरूरी है क्योंकि हर कहानी में एक नाटक आवश्यक रूप से उपस्थित रहता है. हां, यह एक दो-दिन में पढ़ डाली जाने वाली किताब नहीं है.

तीन सौ सोलह पृष्ठ की इस किताब को आत्मसात करने के लिए समय देना होगा, क्योंकि यह कहानी के साथ एक शोध प्रबंध भी है. इस किताब का अन्य भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में भी अनुवाद अपेक्षित है, जिससे कि यह कहानी दूर-देश के लोग भी सुन-पढ़ सकें.

यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि देवेंद्र राज अंकुर जितना 'कहानी का रंगमंच’ के लिए जाने जाते हैं, अब उतना ही वे 'रंगमंच की कहानी’ के लिए भी जाने जाएंगे.

 

रंगमंच की कहानी  
लेखक: देवेंद्र राज अंकुर
वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नयी दिल्ली 
कीमत: 695 रुपए

अंकुर पाश्चात्य थिएटर की अवधारणाओं से कतई प्रभावित नहीं होते. जहां उन्हें लगता है कि भारतीय रंगमंच या उसके किसी पक्ष का विदेशी लेखकों ने संज्ञान नहीं लिया है, वहां वे तर्कपूर्ण ढंग से अपनी बात रखते हैं.

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