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पुस्तक समीक्षाः नुक्कड़ नाटकों का स्पार्टाकस

इस किताब में सुधन्वा ने फिल्म की फ्लैश बैक प्रविधि अपनाई है मतलब कि जो बाद में घटित हुआ, उससे शुरुआत करके फिर वे अतीत में जाते हैं.

हल्ला बोल: सफदर हाश्मी की मौत और जिंदगी 
हल्ला बोल: सफदर हाश्मी की मौत और जिंदगी 
अपडेटेड 30 सितंबर , 2020

संजय कुंदन

आज की युवा पीढ़ी जो नब्बे के बाद जवान हुई, नुक्कड़ नाटकों को सरकारी या सामाजिक संस्थाओं (एनजीओ) के प्रचार माध्यम के रूप में देखती रही है. उनमें से बहुतों को लगता है कि ये स्वच्छता, पर्यावरण, स्वास्थ्य आदि के बारे में जानकारी देने का एक टूल हैं.

शायद उन्हें नहीं पता कि करीब दो दशक पहले तक ये रंगकर्म का एक अभिन्न हिस्सा रहे हैं और इन्हें न सिर्फ एक स्वतंत्र नाट्य विधा के रूप में प्रतिष्ठा मिली बल्कि इन्हें लाखों की संख्या में दर्शक मिले, जो आज भी मुख्यधारा के रंगमंच के लिए एक सपना ही है. यही नहीं वैकल्पिक रंगमंच के रूप में इन्होंने मजदूर-कामगारों के संघर्ष में जबर्दस्त भागीदारी की.

नुक्कड़ नाटकों के प्रतीक-पुरुष रहे हैं सफदर हाश्मी. उन्होंने इस कला को एक नया मुहावरा दिया, नई धार दी. वे नुक्कड़ नाटकों के लिए ही जिए और इसी के लिए जान भी दे दी. एक जनवरी, 1989 को दिल्ली से सटे साहिबाबाद में नुक्कड़ नाटक हल्ला बोल के प्रदर्शन के दौरान गुंडों ने नाट्य दल पर हमला किया जिसमें उनकी जान चली गई.

यह किताब उनके साथी और सुपरिचित रंगकर्मी सुधन्वा देशपांडे ने अंग्रेजी में लिखी है, जिसका हिंदी अनुवाद पिछले दिनों आया है. योगेंद्र दत्त का अनुवाद इतना सहज और संप्रेषणीय है कि आपको जरा भी पता नहीं चलेगा कि आप अनूदित पुस्तक पढ़ रहे हैं. किताब सफदर के जीवन पर जरूर है लेकिन यह उनकी जीवनी नहीं है. यह दरअसल जन नाट्य मंच (जनम) की नाट्य यात्रा का एक दस्तावेज है और कहने की जरूरत नहीं कि सफदर जनम के पर्याय थे.

इस किताब में सुधन्वा ने फिल्म की फ्लैश बैक प्रविधि अपनाई है मतलब कि जो बाद में घटित हुआ, उससे शुरुआत करके फिर वे अतीत में जाते हैं. किताब एक जनवरी 1989 के स्याह दिन से होती है, जब जनम के कलाकारों पर हमला हुआ. उसके बाद सफदर के जीवन के कुछ प्रसंग आते हैं, जिनसे उनके व्यक्तित्व की अनेक विशेषताएं सामने आती हैं.

फिर जनम के गठन से लेकर उसके विभिन्न नाटकों के प्रदर्शन के रोचक अनुभव हैं. मार्क्सवादी राजनीति से जुड़े सफदर एक संपूर्ण सांस्कृतिक नेता थे, जो मानते थे कि नाटक या अन्य कलाओं के जरिए सर्वहारा वर्ग की सांस्कृतिक रुचियों का परिष्कार किया जाना चाहिए ताकि यह अपनी रुढिय़ों से बाहर निकल कर अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो. वे इसे प्रतिबद्ध रंगकर्मी का दायित्व मानते थे. सुधन्वा देशपांडे ने उन्हें ठीक ही नुक्कड़ नाटकों का स्पार्टाकस कहा है. 

—संजय कुंदन

हल्ला बोल: सफदर हाश्मी की मौत और जिंदगी 
सुधन्वा देशपांडे
वाम प्रकाशन, दिल्ली
कीमत: 325 रुपए

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