• ज्यादा दिन घर पर रहने से आपके शायर शीन काफ निजाम और गृहस्थ शिवकिशन बिस्सा (उनका मूल नाम) के बीच कोई तकरार तो नहीं हुई?
तकरार नहीं हो सकती क्योंकि दोनों की आइडियोलॉजी कविता और साहित्य है. इतना लंबा कभी घर पर रहा नहीं, तो घर वालों को भी लगा कि अब ये बंदा कहां जाएगा (हंसते हुए) और मैंने भी समझौता कर लिया है. कर ही क्या सकता है बंदा मुस्कुराने के सिवा. आजकल तो फोन पर भी लोग इसी अंदाज में पूछते हैं कि आप जिंदा हैं ना! अरे भई, अभी मरने का कोई इरादा नहीं, मरने से मन फटा हुआ है.
• मुशायरे हो नहीं पा रहे, स्टेज पोएट्री का क्या होगा?
देखिए, मुशायरे मैं पढ़ता जरूर हूं क्योंकि वह कल्चर में शामिल है, लेकिन मैं मुशायरे का शायर हूं नहीं. मैं पढऩे-लिखने वाला आदमी हूं. मुशायरे का असर मुझ पर उतना नहीं पड़ा है. इस बीच उर्दू में आलोचना की तीसरी किताब तैयार कर ली है लफ्ज के दर पर, राजस्थान उर्दू एकेडमी से यह बस छपकर आई ही है. कुछ नए लेख हैं, बाकी पुराने.
• कुछ नई गजलें, उनका कोई नया कलेक्शन?
बस एडिट कर रहा हूं. सौ सफे (पन्ने) तैयार कर लिए हैं, शायद वल्र्ड बुक फेयर (जनवरी) में आ जाए. पहले उर्दू में दूंगा, फिर हिंदी में आएगी. उसी की एक ताजा गजल का शेर है: दीवार के साए पे तो है मीर का कब्जा, चलते हैं चलो साया-ए-दीवार से आगे. मीर चूंकि खुदा-ए-सुखन हैं, गॉड ऑफ द पोएट्री, तो मेरे शेर का अर्थ है कि हमें उस परंपरा का निर्वाह करते हुए आगे निकल जाना है.
और साया एक तरह का आश्रय भी है. आज की पोस्टमॉडर्न जबान में कहें तो अर्थ ये है कि हमें परंपरा भी नहीं चाहिए और न आश्रय. बुजुर्गों ने जो किया है वो हमारे काम का नहीं. चलो अब आगे चलते हैं.
• लॉकडाउन के बीच ही आपका अमृत महोत्सव भी पड़ा होगा...
काहे का अमृत महोत्सव! जिंदगी से एक बरस और निकल जाता है. जब तक आप जिंदा हैं, दिखाई दे रहे हैं, ठीक है. उसके बाद लोग जरूरी समझेंगे तो याद कर लेंगे. दुनिया में कौन किसको याद करता है?
चकबस्त का एक शेर है बादे फना फिजूल है नामोनिशां का जिक्र, जब हम नहीं रहे तो रहेगा मजार क्या. हां, समय मिला तो उपनिषद, हदीसें, पुराण, कुरान और बाइबिल जरूर पढ़ गया. नंदकिशोर आचार्य की विनोबा संचयिता भी पढ़ी. गोपीचंद नारंग की किताब गालिब: अर्थवत्ता, रचनात्मकता एवं शून्यता अभी-अभी मिली है. इसे उर्दू में पहले पढ़ चुका हूं.