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सर्वसम्मति का निर्माता

आरएसएस के मुख्यालय जाने के प्रणब मुखर्जी के फैसले को बहुत-से लोगों ने गलत समझा. यह धर्मनिरपेक्षता में भरोसा जताने का एक उपक्रम था. उनका मानना था कि आप अपने ही एकांत में बने रहकर इसका निर्वाह कैसे कर सकते हैं

प्रणब मुखर्जी 1935-2020
प्रणब मुखर्जी 1935-2020
अपडेटेड 11 सितंबर , 2020

सलमान खुर्शीद

जब मैं गुजरे दिनों को याद करता हूं और अपने पास रखे कागजी और डिजिटल एलबमों में अनगिनत तस्वीरों को पलटता हूं, तो ख्याल आता है कि प्रणब दा किस कदर मेरी जिंदगी का हिस्सा थे. यह दावा करना गुस्ताखी होगी कि मैं भी उनकी जिंदगी का हिस्सा था, क्योंकि उनकी जिंदगी बेहद शानदार, भरी-पूरी और घटना प्रधान थी. इतनी कि सोचकर हैरत होती है कि एक जिंदगी इतनी समृद्ध और विविधताओं से भरी कैसे हो सकती है. मैंने उन्हें पहली बार वाणिज्य मंत्रालय में अपने वालिद के सीनियर मंत्री के तौर पर देखा.

उन्होंने कुछ जरूरी कागजात फौरन मंगवाए थे और मैं वही लेकर गया था. देर शाम का वक्त था. अपने पसंदीदा पाइप से कश लगाते और अपने मंत्रालय के एक वरिष्ठ सिविल सेवक को किस्सा सुनाते वे बेफिक्र दिखाई देते थे. उन्होंने यह जहमत उठाने के लिए मेरा शुक्रिया अदा किया, मुझे बिठाया और पूछा कि मैं क्या कर रहा हूं. मुझे कैसे पता होता कि एक दिन आएगा जब विदेश मंत्रालय में वे मेरे वरिष्ठ मंत्री होंगे और कुछ साल बाद कैबिनेट में साथी? फिर भी कागज पहुंचाने वाले नौजवान के तौर पर जो स्नेह और सहजता मैंने महसूस की, वह आखिर तक वैसी ही बनी रही. मैं अपने आप से सवाल करता हूं कि मीडिया चैनलों और स्तंभों में भरे पड़े चमकदार कसीदों से आगे बढ़कर प्रणब दा मेरे लिए क्या थे. जवाब भावुकता से भरा और पेशे से जुड़ा है. वे तनाव के लम्हों में सुकून देने वाले, बुद्धिमता और ज्ञान में हैरान करने वाले, राजनैतिक परिवेश पर अपनी पकड़ में प्रेरणा देने वाले ऐसे आइकन थे जो अपनी विनम्र कद-काठी से बहुत ऊंचे मालूम देते थे और फिर भी मिलने पर बहुत मानवीय थे. मैंने प्रणब दा से बहुत कुछ सीखा और कभी कल्पना नहीं की थी कि शिक्षक को दूर ले जाने के लिए घंटी इतनी जल्दी बज जाएगी.


यह अभी कल की ही बात लगती है जब हम गणराज्य के राष्ट्रपति के उच्च पद पर प्रणब दा के चुने जाने के मौके पर गुलदस्ते लेकर पहुंचे थे. फिर मैं अपनी लिखी किताबें भेंट करने के लिए बीच-बीच में राष्ट्रपति भवन फोन करता. आम तौर पर मिलने वाली हौसला अफजाई के अलावा वे इस बारे में भी पूछताछ करते कि सियासत हमारे साथ कैसा सुलूक कर रही है. इतने सालों में मैंने पार्टी पदाधिकारी, कैबिनेट के साथी, पश्चिम बंगाल के लोकप्रिय सांसद से लेकर सदन में वक्ता, चुनावों में प्रचारक, राष्ट्रपति और फिर वाकई पूर्व राष्ट्रपति तक प्रणब दा को जितने अवतारों में देखा, सभी में वे हमेशा सहज और नियंता दिखाई दिए. माहौल में जान डाल देने के लिए उनके पास हमेशा कोई किस्सा या लतीफा होता. जिस किसी ने भी प्रणब दा के बोले गए शब्दों के बीच, या दरअसल उनके भीतर के अर्थों को पढ़ने की परवाह की, उसे इनाम के तौर पर यह समझ मिली कि दुनिया में क्या घट रहा है. इसके अलावा वे अतीत में घट चुकी घटनाओं की जानकारियों का बेशकीमती खजाना भी थे.

कभी-कभी कोई कहता कि अर्थशास्त्र के मामले में प्रणब दा कट्टर समाजवादी और आधुनिक जमाने के साथ थोड़े असहज थे. लेकिन फिर कांग्रेस कार्यकर्ताओं के लिए उनकी भाषा कई बाजार अर्थशास्त्रियों के मुकाबले कहीं ज्यादा समझ में आने वाली थी. इस लिहाज से प्रणब दा कांग्रेस की आज के वक्त की कशमकश के जीते-जागते प्रतीक थे. कशमकश यह कि आजादी के आंदोलन और राष्ट्र निर्माण के शुरुआती सालों के दौरान पार्टी के लिए बेहद कारगर रहे मूल्यों और धारणाओं में उसकी जड़ें अब भी इतनी गहरी हैं कि वह वक्त के हाथों संस्थाओं पर थोपे गए बदलाव के हिसाब से खुद को बदल नहीं पा रही है या ऊहापोह में है. तो भी वे क्षितिज के उस पार एक नई और ललकारती दुनिया के संदेश के साथ जगमगाती रोशनियों की तरफ देख सकते थे. इस लिहाज से उथल-पुथल भरे समुद्र से रास्ता बनाकर निकाल ले जाने की महारत में उनका कोई सानी न था.


अपनी अद्भुत प्रतिभा, काम की अथक क्षमता, कांग्रेस नेतृत्व की तीन पीढिय़ों की गहरी जानकारी, ब्योरों को याद रखने की गजब की स्मरणशक्ति, पैने विश्लेषण की योग्यता और संगठन के विशाल अनुभव की बदौलत उन्हें शीर्ष पर होना चाहिए था, मगर हालात ने पक्का कर दिया कि वे ऐसे डिप्टी या सहायक ही बने रहे जिसकी पार्टी के 'मिस्टर फिक्स इट' होने के नाते खासी मांग थी. जब देश अपने सर्वोच्च संवैधानिक पद की पेशकश करे तो भला कौन ठुकरा सकता है? बेशक प्रणब दा ने भी नहीं ठुकराया. मगर उनके मन में शायद कुछ दुविधा रही भी हो तो कोई नहीं जानता, क्योंकि वे जानते थे कि देश की सेवा को तरजीह देने की वजह से उन्हें उस पार्टी से दूरी बनानी पड़ सकती है जिसे वे इतना प्यार करते थे. राष्ट्रपति पद के बाद उन्हें जो थोड़ी-बहुत फुरसत मिल पाई, उसमें वे अक्सर पार्टी के बारे में पूछताछ करते और मैं कह सकता हूं कि बेचैनी महसूस करते थे.


ऐसा नहीं था कि सिरे से सौम्य और शालीन प्रणब दा ने कभी आपा नहीं खोया. वे सब कुछ झेल सकते थे लेकिन पार्टी के प्रति बेरुखी दिखाने वालों को झेलने का धैर्य उनमें नहीं था. अलबत्ता गुस्से का विस्फोट जल्दी ही प्रेरक नसीहतों में बदल जाता. संवैधानिक पद की मर्यादाओं और उसके बाद भी पूर्व राष्ट्रपति के तौर पर निभाई गई गरिमा को देखकर आप सोचते रह जाते हैं कि वे आजीवन राष्ट्रपति थे. राजनीति के तपे-तपाए उस्ताद के बारे में सोचने का कोई और ढंग नहीं है और इसलिए उनके जाने की क्षति और भी ज्यादा है. निजी तौर पर मुझे लगता है मानो मैं राजनीति में अनाथ हो गया हूं, हालांकि हमारे रिश्ते वाकई आम सियासी रिश्तों की तरह नहीं थे. यह अकारण नहीं था कि मुझे उनमें अनुकरणीय आदर्श वाली सार्वजनिक शख्सियत दिखाई देती थी. उन्होंने कुछ संभावना देखी होगी जिसके प्रति उन्होंने बहुत दुलार दिखाया.


हाल के वक्त में जब सियासत यथासंभव ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचने के लिए अपने सबसे सरलीकृत तौर-तरीकों की तरफ मुड़ गई है, प्रणब दा दार्शनिक महाराजा की तरह तनकर ऊंचे खड़े थे. लगातार दो चुनावी पराजयों के बाद कांग्रेस को संकट से घिरा मानने वाले लोगों ने, देश और लोकतंत्र पर जो बीत रही है, उसकी तरफ से आंखें मूंद ली हैं. सोचकर हैरत होती है कि इतने उतार-चढ़ावों के बावजूद ऐसी शानदार जिंदगी बसर करने के बाद क्या यह इस शख्स के साथ मुनासिब था कि उसे उस भारत और उसकी लोकतांत्रिक राजनीति को इतना अप्रिय और निर्दयी मोड़ लेते देखना पड़ा, जिससे वह इतना ज्यादा प्यार करता था. उदार शक्तियां जब फिर अपनी किस्मतें संवारने के लिए नए सिरे से गोलबंद हो रही हैं, भारत को राजनैतिक और आर्थिक झंझावातों से निकलने में मदद करने वाले इस शख्स की कमी बुरी तरह खलेगी. प्रणब दा के मन और मस्तिष्क की शानदार खूबियों में सर्वानुमति बनाने और मतभेदों को पाटने की अनूठी प्रतिभा थी, जिसकी सबसे ज्यादा जरूरत है. आरएसएस मुख्यालय पर जाने के उनके फैसले को इस संगठन के आलोचकों ने समझा नहीं. लेकिन उन्हें अच्छी तरह जानने वालों के लिए यह सेक्युलरिज्म में आस्था का ही इजहार था. वे अलग-थलग और बंद रहने को खूबी नहीं मानते थे.

सलमान खुर्शीद यूपीए-दो सरकार में विदेश मंत्री थे. यूपीए-एक में यह मंत्रालय प्रणब मुखर्जी के पास था

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