आप गौर करें तो पाएंगे कि पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में जिन लोगों को मशहूर शायर राहत इंदौरी का सबसे ज्यादा साथ मिला, मेरा सौभाग्य है कि उनमें से एक मैं भी था. मैं उन्हें राहत भाई कहता था और वो मुझे 'डॉक्टर'! सत्ताओं की कृपाछायाओं के बाहर वे जैसे सच के हरसिंगार के नीचे चेतना का बोरिया बिछाए जमे थे. कबीरों और नागार्जुनों की परंपरा में बेखौफ फकीरी स्वायत्तता की जिस हनक और जीवनशैली की मांग करती है, वह राहत भाई में कूट-कूट कर भरी थी. हिंदी कवि-सम्मेलन और उर्दू मुशायरों में उनकी बराबर की लोकप्रियता इस बात को पुख्ता करती है कि मौजूदा दौर में राहत भाई हिंदी और उर्दू के बीच के सबसे मजबूत पुल थे. उनका जाना केवल एक शायर का जाना नहीं बल्कि जबरन लादी जा रही खामोशी के दौर में लफ्जों की खंजड़ी बजाकर अलख जगाने वाले एक कलंदर का जाना है.
दुनिया भर के मुशायरों की यात्रा में वे जिस बेलौसी से हिंदुस्तानियत का दामन थाम कर चलते थे, उसकी हनक, उसकी अदायगी उनके चेहरे पर भी दिखाई देती थी. वे एक शायर होने, इंदौरी होने और सबसे अव्वल हिंदुस्तानी होने पर हर वक्त फिदा रहते थे.
बहरीन का वो एक मुशायरा मैं कभी नहीं भूल सकता जब मंच पर खूब जम चुके राहत इंदौरी ने तालियों की गडग़ड़ाहट के बीच यह शेर सुनाया कि मैं जब मर जाऊं तो मेरी अलग पहचान लिख देना/लहू से मेरी पेशानी पे हिंदुस्तान लिख देना. वहां उपस्थित श्रोताओं में हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी मूल के श्रोताओं की संख्या लगभग बराबर थी. यह शेर किसी पाकिस्तान मूल के श्रोता को शायद नागवार गुजरा. श्रोताओं के झुरमुट से उसने राहत भाई पर बुलंद आवाज में एक तंज कसा, ''राहत भाई, कम से कम गजल को तो मुल्क के रिश्ते से बाहर रखिए.'' इस बात पर महफिल में कुछ तालियां तो उस श्रोता के समर्थन में बजीं और उससे ज्यादा तालियां राहत भाई के समर्थन में. दोनों तरफ से जोरदार टिप्पणियां हुईं. मैं संचालक की भूमिका में था.
आम तौर पर ऐसी परिस्थितियां महफिल को खराब करती हैं. हिंदी-उर्दू के मंचों पर बराबर संचालन-निजामत करते-करते इन हालात को संभालने का मुझे ठीक-ठाक-सा अनुभव और अभ्यास हो गया है. संचालक होने के नाते उस मौके पर भी मैंने कमान अपने हाथ में लेने की कोशिश की, लेकिन मैं कुछ बोलता, इससे पहले ही राहत भाई ने मुस्कुराते हुए मुझे चुप रहने का इशारा किया और पूरे धैर्य लेकिन उतने ही तेवर और हनक के साथ दर्शक दीर्घा के उसी कोने की तरफ मुखातिब होकर कहा, ''हिंदुस्तान के अलग हुए एक छोटे-से टुकड़े के बिछड़े हुए प्यारे भाई, शायरी सुनने-समझने और सहने की तहजीब रखते हुए जरा मेरा ये शेर भी सुनो और हिम्मत हो तो इसके बाद फिकरा कसो, 'ऐ जमीं, इक रोज तेरी खाक में खो जाएंगे, सो जाएंगे/ मर के भी रिश्ता नहीं टूटेगा हिंदुस्तान से, ईमान से'. '' इसके बाद महफिल में जो तालियां बजीं, वाह-वाह उठी, जो ऊर्जा आई, वह अद्भुत और अविस्मरणीय थी.
राहत भाई सिर्फ शायरी के ही नहीं, महफिल के भी पारखी थे. उन्हें पता होता था कि किस महफिल में किस तरह के श्रोता बैठे हैं और उनके सामने किस तरह के अशआर परोसने हैं. जब कभी भी वे आइआइटी या किसी और कॉलेज वगैरह के परिसर में होते, तो शरारती अशआर के अलावा आपसी प्रेम और यकजहती फैलाने वाले शेर जैसे शेर जरूर सुना जाते, मसलन: फूलों की दुकानें खोलो, खुशबू का ब्योपार करो/ इश्क खता है, तो ये खता एक बार नहीं, सौ बार करो. जवानियां मचल-मचल जातीं और जब सुनने वाले ऐसे शेरों के पार चलने के लिए तैयार हो जाते तब वे अपने सबसे बेहतरीन कलाम के दरीचे उन बच्चों के जहनों के लिए खोल देते!
बहुत कम ऐसे शायर हुए हैं जिन्हें उनके शेरों से पहचाना जा सके. संचालन के दौरान मैं अक्सर यह बात राहत भाई के लिए कहता था कि वे खुदरंग शायर हैं. उनके जैसा रंग किसी और शायर के पास नहीं. हालांकि इस बेहद संजीदा और सच्चे जुमले पर भी वे माइक से मुझे छेड़ते हुए कह देते थे कि ''डॉक्टर, अगर तू ये मेरे चेहरे के रंग को देख कर कह रहा है तो ये तेरी बदमाशी है, और अगर मेरी शायरी के लिए कह रहा है तो सुब्हान अल्लाह!''
राहत भाई के शेरों में इनसान होने की हनक बहुत होती थी. कई बार तो वह हनक शरीफ लफ्जों की आखिरी हद को छू कर निकल जाती थी. एक बार एक यात्रा में ऐसे ही कुछ शेरों पर तफ्सरा करते हुए मैंने राहत भाई को छेड़ा कि आपके कुछ शेरों में ऐसा लगता है कि जहां मिसरा खत्म हुआ है, उसके बाद शायद कोई गाली थी जिसे आपने 'साइलेंट' कर दिया है. इसके बाद तो जैसे राहत भाई की आदत में यह शुमार ही हो गया कि वे दुनिया के किसी भी डायस पर जब कोई हिंदुस्तानियत की हनक वाला शेर पढ़ते, तो अक्सर तालियों के बीच, निजामत कर रहे मेरी तरफ देख कर कहते ''डॉक्टर, इसमें वो 'साइलेंट' है! '' फिर जोरदार ठहाका लगाते.
राहत भाई को दी जा रही तमाम श्रद्धांजलियों के बीच एक कसक तो रहती है. उनकी बेबाकी और सरोकार की कोई भी बात बेहिचक कह देने की बेलौसी के कारण किसी भी सरकार ने उन्हें पद्मश्री तक के लायक भी नहीं समझा. हम जैसे उनके करोड़ों चाहने वालों के लिए यह टीस हमेशा हरी रहेगी. हालांकि राहत भाई ने कभी भी इन सब बातों की चिंता नहीं की, लेकिन जो व्यक्ति करोड़ों लोगों के दिलों पर राज करता हो, उसके प्रति सरकारों की यह उपेक्षा दुखी करती है. उस बेलौस फकीर का शारीरिक अस्तित्व भले ही अब हमारे बीच नहीं है, लेकिन राहत इंदौरी नहीं मर सकता. उनके ही लफ्जों में कहूं तो वो मुझको मुर्दा समझ रहा है/ उसे कहो मैं मरा नहीं हूं.