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शायरी का एंग्री यंगमैन

राहत इंदौरी अपने श्रोताओं से प्रेम के ही चलते, बुरी सेहत के बावजूद राहत अपनी जान पर खेलकर मुशायरे करते आए. बहुत हिम्मती इनसान. ऐसा नहीं कि मुशायरों में जाना उनकी कोई जरूरत था, बस उनका कमिटमेंट था कि अवाम के बीच जाना है

बंदीप सिंह
बंदीप सिंह
अपडेटेड 18 अगस्त , 2020

अपने एक लाडले शायर राहत इंदौरी के जाने का गम बयान कर पाना मुश्किल हो रहा है. 44-45 साल से हम साथ-साथ मुशायरों का सफर करते आ रहे थे. वे दरअसल शायरी में रचे-बसे इनसान थे. माइक पर 20-25 मिनट की अपनी मौजूदगी के वक्त वे बिल्कुल अलग ही शख्स होते थे. पहले और बाद वाले राहत से बिल्कुल जुदा. अपने शब्दों से एक जादुई माहौल रचना उनका बहुत बड़ा हुनर था. आप देखें तो पाएंगे कि पहले कहां तो गजल चिलमन से लगी बैठी थी. भीनी-भीनी खुशबू का नाम था गजल.

इस आदमी ने उस विधा को बेतकल्लुफ होकर अपनी बात कहने का जरिया बनाया. स्टेज पर उनके मुंह से निकलने वाले एक-एक लफ्ज जैसे उनके रोएं-रोएं से निकलते थे. उसी का नतीजा था कि श्रोता उन्हें सुनते वक्त भूल जाता था कि इसमें अच्छा क्या है, बुरा क्या है. मुशायरों के स्टेज पर पहले तरन्नुम में, लय के साथ, पढ़ी जाने वाली शायरी ही मकबूल होती थी. राहत भी पहले तरन्नुम में ही पढ़ते थे लेकिन बाद में उन्होंने अपना स्टाइल निकाला.

उनकी शायरी में तल्खी की बात आती है, तो यह एक स्थापित तथ्य है कि जितने भी लिखने-पढऩे-सोचने वाले लोग होते हैं, वे अपने जमाने से कभी मुतमइन नहीं होते. वे ख्वाबों की दुनिया बनाना चाहते हैं. ये अच्छा हो, वो सुंदर हो, जो कभी नहीं होता, हो ही नहीं सकता. उस तलब (चाहत) और हासिल (असलियत) के बीच के फासले को तय करना ही क्रिएटिव राइटिंग या शायरी होता है. तल्खी तो सबके यहां होती है पर उसके इजहार का माद्दा हरेक का अलग-अलग होता है. उनकी तल्खी नुमाइशी नहीं थी.

इसे आप इस तरह से देखें कि सत्तर के दशक में सिनेमा में जिस तरह से अमिताभ बच्चन एंग्री यंगमैन के रूप में उभरे थे, उस दौर की उभरती हुई नस्ल के जज्बात को स्वर देकर हिंदुस्तान के तहजीबी पसमंजर पर छा गए थे, उसी तरह से उर्दू स्टेज का पहला एंग्री यंगमैन राहत इंदौरी के रूप में आया और उसने अपील किया. समाज की ख्वाहिशें किसी न किसी रूप में अपने को प्रकट होते देखना चाहती हैं. उर्दू शायरी के स्टेज पर उन्होंने उसी का इजहार करने के लिए गजल को जरिया बना लिया. एंग्री यंगमैन के किरदार में उस समय की तल्खियों को भाषा दी. सिनेमा की तरह शायरी में राहत का जादू चला. आमोखास सभी को उनके अशआर पसंद आए.

मुशायरे के प्रति उस आदमी के कमिटमेंट की मिसाल बताऊं आपको: गालिबन यह 2018 की बात है. लंदन में मोरारी बापू की कथा थी. उसी मौके पर वहां दो मुशायरे भी रखे गए थे. राहत साहब भी गए थे. पिछले तीन-चार साल से वे काफी बीमार रहने लगे थे. दिल की बीमारी के अलावा शुगर की बड़ी तकलीफ थी. तो हम लोगों ने मुशायरे किए. वापसी के रोज हम लोगों का सामान होटल से निकालकर बस में रखा गया. हम जाकर बैठ भी गए. पर काफी इंतजार के बाद भी राहत साहब नहीं आए.

रिसेप्शन से उनके कमरे में फोन किया गया तो कोई जवाब नहीं. स्टाफ के साथ उनके कमरे तक पहुंचे, बेल बजाया. आखिरकार मास्टर की से कमरा खोला गया तो वे बेहोश मिले. उनकी शुगर कोलैप्सिंग पॉइंट पर आ गई थी. इमरजेंसी डॉक्टर आया. एक घंटे की रिकवरी प्रोसेस चली और जहाज की रवानगी के ऐन मौके पर हम एयरपोर्ट पहुंचे. अपने श्रोताओं से प्रेम के ही चलते, बुरी सेहत के बावजूद राहत अपनी जान पर खेलकर मुशायरे करते आए. बहुत हिम्मती इनसान. ऐसा नहीं कि मुशायरों में जाना उनकी कोई जरूरत था, बस उनका कमिटमेंट था कि अवाम के बीच जाना है.

राहत के और भी कई पक्ष हैं. कभी मौका मिला तो एक समालोचक के नजरिए से किसी अदबी प्लेटफॉर्म पर उनकी पोएट्री पर लिखूंगा. अभी उसका समय नहीं है.

शिवकेश से बातचीत के आधार पर

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