बंसी कौल कोरोना काल में लगातार असहज सवाल कर रहे हैं, नौजवान रंगकर्मियों से, देश के बुद्धिजीवियों से और सरकार से भी. वह भी सीधे आंखों में आंखें डालकर, कुछ ऐसी भाषा और अंदाज में कि बात चुभे. प्रतिनिधि भले वे रंगमंच के हों लेकिन मुद्दे वे खुद को सारी कलाओं के सरोकार से जोड़कर उठा रहे हैं. कोरोना की महामारी के दौरान सभागार भी 4-6 महीने बंद रहने का अंदेशा है. शहरी रंगकर्मियों और दूसरे कलाकारों का एक बेचैन तबका ऐसे में तरह-तरह से अंदेशे जता रहा है.
लेकिन खुद कौल के दिलोदिमाग में उन लाखों लाचार मजदूरों की मीडिया में तैरती तस्वीरें घूम रही हैं, जो सिर पर गठरी और बगल में दुधमुंही संतानों को दबाए पैदल ही 1,000-1,500 किलोमीटर दूर घरों की ओर निकल पड़े हैं. कोई हादसे में मारा जा रहा है, कोई थककर दम तोड़े दे रहा है. एक ऐसी त्रासदी जो लोकतंत्र के सारे चेहरों को बौनों में तब्दील करते हुए महामारी से भी बड़ी शक्ल अख्तियार किए ले रही है.
कौल इस मुद्दे को सिरे से पकड़ते हैं: ‘‘थिएटर वाले तो मजदूर की, किसान की बात उठाते रहे हैं, जो कि उनका कंसर्न होना भी चाहिए. लेकिन अब ये ऑडिटोरियम में परफॉर्म न कर पाने का सवाल कौन लोग उठा रहे हैं? वे जो वहां परफॉर्म करते थे, टिकट बेच लेते थे. देश के रंगकर्मियों में ऐसे लोग कितने परसेंट हैं? कमानी (दिल्ली में मंडी हाउस स्थित सर्वाधिक चर्चित सभागार) 365 दिन भी चलता था तो भी अर्बन थिएटर ही तो हो रहा था. कुछ ग्रुप्स के लिए मुमकिन है कि इससे उनकी इकोनॉमी चल रही हो लेकिन 1-2 फीसद से ज्यादा नहीं.’’
इसके बाद वे मुद्दे को एक बड़े तल पर ले जाते हुए कहते हैं कि थिएटर का क्या होगा, सवाल यही नहीं, सवाल होना चाहिए कि थिएटर या कलाएं समाज के लिए जो कुछ कर रही थीं, उसका क्या होगा? ''सरकारें नदी पार करने के लिए सीमेंट के पुल बनवाती हैं.
लेकिन किसी भी समाज के लिए उससे भी जरूरी है संस्कृति का पुल. इस पुल से तमाम तरह के दिल और दिमाग मिलते हैं. कलाएं बनिए की दुकान नहीं हैं, सुबह दस आने लगाए, शाम को पंद्रह आने लेकर चल दिए. उनका असर देर से, देर तक दिखता है.’’
देश के शीर्ष, चिंतनशील रंगकर्मियों में शुमार 71 वर्षीय कौल मशहूर स्टेज/स्पेस डिजाइनर भी हैं. इस रूप में उन्हें एक मंच पर पूरे लघु भारत को पेश करने की अवधारणा देने का श्रेय जाता है.
मद्धम सुर वाली, साफ, भरी हुई आवाज में गहरे सेंस ऑफ ह्यूमर के साथ बात करने के अपने स्वभाव के नाते वे रंगकर्मियों में अलग से अपनी पहचान रखते हैं. यही वजह है कि लंबे खिंचते लॉकडाउन में वे दिल्ली के द्वारका स्थित अपने फ्लैट से ही फेसबुक लाइव के अलग-अलग प्लेटफॉर्मों पर रंगकर्मियों खासकर युवाओं से सीधा संवाद कर रहे हैं.
और यूट्यूब पर उन्हें 7,000-8,000 व्यूज तक मिल रहे हैं, जो रंगमंच से जुड़ी किसी गतिविधि के लिए अहम बात है. भोपाल की अपनी नाट्य संस्था रंग विदूषक के नए-पुराने रंगकर्मियों से उन्होंने प्रवासी मजदूरों की बेहाली पर कविताएं लिखवाई हैं, जिसकी एक रचना बनाकर संगीतबद्ध किया जाएगा. उन्हें पता है कि ये कोई महान रचनाएं नहीं हैं ‘‘लेकिन एक संवेदनशील कलाकार के नाते आपको अपने आसपास की ऐसी त्रासदियों के बारे में सोचना पड़ेगा, दिमाग पर जोर डालना पड़ेगा. नहीं तो काहे के कलाकार!’’
इस मायने में वे कलाकारों की पूरी बिरादरी का आगे बढ़कर नेतृत्व करते हैं. महामारी के दौरान दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के बाहर बदहाल तीमारदारों को देख उन्होंने पत्नी अंजना पुरी के साथ मिलकर 7 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक चिट्टी लिखी. उसमें उन्होंने एम्स के 5 किमी के दायरे में मेडिकल टाउनशिप और उसी में तीमारदारों के लिए सस्ती दरों वाले यात्री निवासी जैसी पुरानी अवधारणा फिर से लागू करने की वकालत की.
वे कहते हैं, ‘‘एम्स के पास दिल्ली हाट के सामने सरकार ने अपने बाबुओं के लिए पूरी बिल्डिंग बना दी. अच्छा होता वह जगह एक्वस को दे दी होती तो आज सारे डॉक्टरों को नजदीक ही रहने की जगह होती. हर राज्य में एक हेल्थ पार्क बनाने की जरूरत है.’’ उन्हें पीएमओ से जवाब का इंतजार है.
पर उससे अहम, व्यापक सोच वाली सुविचारित चिट्ठी उन्होंने इसी 10 मई को देश के संस्कृति सचिव को लिखी. इसमें सात बिंदुओं में उन्होंने सांस्कृतिक-सामाजिक विविधता और समृद्धि में शिल्पियों-दस्तकारों के रोल को बारीकी से रेखांकित करने के बाद आज के समय में सांस्कृतिक केंद्रों की प्रासंगिकता पर सवाल उठाए हैं. वे इसे और स्पष्ट करते हैं, ''महामारी के समय इस वक्त सांस्कृतिक गतिविधियां तो चल नहीं रहीं, तो सरकार को नए सिरे से विचार करना चाहिए कि जो क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्र, कई अकादमियां और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) वगैरह 60-70 साल पहले जिस मकसद से खोले गए थे, अब वे क्या कर रहे हैं?
यही समय है कि एक कमेटी बनाकर इनके काम की ढंग से समीक्षा करवाई जाए.’’ एनएसडी के विकेंद्रीकरण को वे ध्यान से रेखांकित करते हैं. ‘‘आप 40-50 करोड़ रु. सालाना एनएसडी पर खर्चते हैं. इतने में देश भर में 1-1 करोड़ रु. के इतने ही केंद्र बन जाएं, जहां हजारों युवाओं को हम संस्कृति से जोड़ सकते हैं. मोदी जी वैसे भी लोकल को लेकर वोकल होने की बात कर रहे हैं, तो कर दीजिए न एनएसडी को लोकल. इतना बड़ा एक हाथी पालने की जरूरत क्या है?’’ वे बेबाकी से कहते हैं.
कौल ने लंबी बीमारी के चलते इसी साल जनवरी में मां को खो देने के बाद कश्मीर को लेकर दोगलेपन के सवाल पर एक फेसबुक पोस्ट लिखी थी, जिसने पूरे बुद्धिजीवी हलके में सनसनी फैला दी थी. इसी तरह से जनवरी 2019 में एनएसडी की पूर्व निदेशक कीर्ति जैन से 'भारतीय रंगमंच में उभरती नई दृश्य भाषा’ को लेकर उन्होंने ऐसे सीधे और सधे सवाल उठाए कि हिंदी पट्टी के तमाम युवा रंगकर्मी उनके साथ आ खड़े हुए.
फिर ऑडिटोरियम के सवाल पर लौटते हैं. आप कैसे करेंगे नाटक? ''मैंने सोच लिया है. मुमकिन है मैं सड़कों पर मेकैनिकल प्रॉप्स के साथ एक यात्रा निकालूं, जिसे मैं प्रोसेशनल थिएटर कहूं और जिसे लोग खिड़कियों से देखें. किसी कॉलोनी या सोसाइटी में ऐसा प्ले करूं जिसे लोग बालकनी से देखें. और अब स्मारकों में, बिल्डिंग की छतों पर भी फिर से नाटक के बारे में सोचा जाए.’’ मानो विचारों की खदान का नाम है बंसी कौल.
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