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किस्सागोई का अलग अंदाज

गंजीफा और अन्य कहानियां पुस्तक में नैयर मसूद की सात लघु कहानियां हैं—गंजीफ़ा, अल्लाम और बेटा, किताबदार, बादेनुमां, आज़ारियान, मिसकीनों का एहाता और बड़ा कूड़ाघर. ताऊस चमन की मैना की तरह गंजीफ़ा भी उनकी मशहूर कहानी है. इसमें एक पतनशील समाज का खाका है जिसका शानदार अतीत उतना ही झूठा और अविश्वसनीय लगता है जितना सच उसका वर्तमान है.

गंजीफ और अन्य कहानियां
गंजीफ और अन्य कहानियां

उर्दू पाठकों के लिए प्रोफेसर नैयर मसूद (1936-2017) तआरुफ के मोहताज नहीं हैं पर हिंदी पाठक जान लें कि लखनऊ के मसूद मशहूर अफसानानिगार थे. गंजीफ़ा, सिमिया, इत्र-ए-काफ़ूर, ताऊस चमन की मैना जैसी कहानियों के लेखक नैयर मीर अनीस के विशेषज्ञ और लखनऊ के स्मारकों के जानकार थे. उनकी लघु कथाओं की लोकप्रियता का आलम यह है कि अंग्रेजी में पांच किताबें—एसेंस ऑफ कैंफर, स्नेक कैचर, द ऑकल्ट, द मैना फ्रॉम पीकॉक गार्डन और कलेक्टेड स्टोरीज—मौजूद हैं लेकिन ‌हिंदी में केवल एक कहानी संग्रह ताऊस चमन की मैना दिखती है, वैसे, उनकी कुछ और लघु कथाएं ‌हिंदी में मौजूद हैं.

समीक्षित पुस्तक में उनकी सात लघु कहानियां हैं—गंजीफ़ा, अल्लाम और बेटा, किताबदार, बादेनुमां, आज़ारियान, मिसकीनों का एहाता और बड़ा कूड़ाघर. ताऊस चमन की मैना की तरह गंजीफ़ा भी उनकी मशहूर कहानी है. इसमें एक पतनशील समाज का खाका है जिसका शानदार अतीत उतना ही झूठा और अविश्वसनीय लगता है जितना सच उसका वर्तमान है.

कहानी के शुरू में गंजीफ़ा और उसके नियम के बारे में बताया गया हैः "दिन को आफ़ताब (मीर) जिस खेलने वाले के पास हो वह बाज़ी को शुरू करता है और आफ़ताब के जिलु में माहताब एक कम क़ीमत, बल्कि बेक़ीमत पत्ता होता है, रात के वक़्त माहताब के हुक़ूक़ माहताब को मिल जाते हैं और आफ़ताब की हैसियत एक मामूली मीर की रह जाती है.'' कहानी जब खत्म होती है तो ऐसा लगता है कि पात्रों का जीवन और उनकी भूमिका इन्हीं पत्तों की तरह है.

एक बेरोजगार शख्स को मलाल है कि वह अपने बाप की तरह अपनी मां की कमाई पर पल रहा है. लेकिन मां उसे दुरुस्त करती है कि उसके बाप ने उसे बहुत प्यार और सम्मान दिया. वह उसे भी पढ़ाने के लिए विलायत भेजना चाहता था; इस फिराक में उसने अपने दो घर बेच डाले, ऑफिस से कर्ज ले लिया जिसकी वजह से रिटायरमेंट के बाद उसे पेंशन भी नहीं मिली. उस मां की जद्दोजेहद पाठक खुद महसूस कर सकते हैं. यानी आफ़ताब (सूरज) के ढलने के बाद भी जीवन माहताब (चांद) की कम रोशनी में ही चलती रहती है.

कहानी में यह नवाचार बिल्कुल अलग किस्म का है. इसी तरह, "अल्लाम और बेटा'' की कहानी सामान्य लोगों की फितरत बयान करती है, जिन्हें लगता है कि वक्त के साथ उनकी याददाश्त कमजोर होती जा रही है. मौजूदा दौर में पाठकों को यह कहानी अपने इर्दगिर्द की घटना मालूम देगी. उनकी दूसरी कहानियों की तरह इसमें भी आखिर तक रहस्य बना रहता है और इसकी वजह से पाठकों में उत्सुकता भी.

रज़ा पुस्तकमाला के तहत हिंदी-उर्दू के बीच संवाद की परंपरा को कायम रखते हुए इस संग्रह का प्रकाशन प्रशंसनीय है. साहित्य अकादमी अवॉर्ड और सरस्वती सम्मान से नवाजे गए नैयर की किस्सागोई का अंदाज लोगों को अलग लग सकता है.

‌‌लेकिन इस किताब में नुक्ते के इस्तेमाल में बरती गई लापरवाही मजा किरकिरा कर देती है. "खाने'' को "ख़ाने'' और "शक्ल'' को "शक़्ल'' बनाकर अर्थ का अनर्थ किया गया है. यही नहीं, ख्वाहमख्वाह "ख़ामख़ा'' हो गया है. अदब में इस तरह की गलतियां बेअदबी के दायरे में आ सकती हैं.

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