अपनी एक कविता में कुंवर नारायण जब लोगों से नफरत करना चाहते हैं तो इसमें असमर्थता व्यक्त करते हुए कहते हैः अंग्रेजों से नफरत करना चाहता तो शेक्सपीयर आड़े आ जाते/जिनके मुझ पर न जाने कितने एहसान हैं/मुसलमानों से नफरत करने चलता/तो सामने गालिब आकर खड़े हो जाते/अब आप ही बताइए, किसी की कुछ चलती है/उनके आगे? एक और कविता में वे सत्ता और ताकत के बरअक्स अपने ''वृहत्तर, मनुष्यतर, कृतज्ञतर और पूर्णतर्य होकर लौटने का विनम्र संकल्प करते हैं जिसमें मानवीय हित और अहित की बहुत चिंता है. दरअसल जिस भाषा को पुराना, कमजोर और खोखला कर दिया गया है, वह उनकी कविता में बार-बार लौटती है और एक वैकल्पिक, ज्यादा मानवीय यथार्थ की रचना करती है.
प्रेम कुंवर नारायण की कविता का केंद्रीय कथ्य है. शब्द उनके लिए प्रिज्म की तरह हैं जिनसे वे मानवीय प्रेम को विभिन्न कोणों और विस्तारों में पनपते, फैलते और प्रकट होते हुए देखते हैं. यह प्रेम मनुष्यों ही नहीं, मिथकों, स्मारकों, दार्शनिक धाराओं, स्मृतियों, ''एक नया सवेरा देने" वाले पेड़ों और नीम, मालती, अमलतास के फूलों तक फैला हुआ है. घृणा, विद्वेष, सांप्रदायिकता और तमाम अमानवीयताओं और मनुष्य-विरोधी ताकतों और सत्ताओं से उनकी विरक्ति इस प्रेम का एक हिस्सा है.
वे जिस ढंग से एक गहरे विराग और उदासीनता को इन चीजों की आलोचना और प्रतिरोध का औजार बनाते हैं, वह हिंदी कविता में विलक्षण है. कभी-कभी वे बाजारों की तरफ भी जाते हैं, लेकिन सिर्फ यह देखने कि उन्हें इन चीजों की कोई जरूरत नहीं है.
अयोध्या में बाबरी मस्जिद के नियोजित ध्वंस और गुजरात की हिंसा पर हिंदी में बहुत कविताएं लिखी गई हैं, लेकिन कुंवर नारायण की कविता अयोध्या 1992 राम को संबोधित करते हुए कहती है, अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं/योद्धाओं की लंका है,/ ''मानस" तुम्हारा ''चरित" नहीं/चुनाव का डंका है! पिछले कुछ वर्षों में हमारे समाज में जिस तरह की असहिष्णुता, नफरत और अल्पसंख्यकों और बुद्धिजीवियों के प्रति हिंसा बढ़ती गई है, उससे भी वे विचलित हुए और जब कुछ लेखकों ने प्रतिरोध में साहित्य अकादेमी पुरस्कार लौटाए तो उन्होंने इसे अपना नैतिक समर्थन दिया.
कुंवर नारायण की पारिवारिक पृष्ठभूमि आर्थिक रूप से काफी संपन्न थी. अपने प्रिय शहर लखनऊ में वे एम्बेसडर कारों के बड़े शोरूम के ''मैनेजिंग पार्टनर" थे, लेकिन इस व्यवसाय को बढ़ाने और लाभ कमाने के लिए उन्होंने कभी कुछ नहीं किया, बल्कि वे आत्म-विनोद के साथ खुद को ''डैमेजिंग पार्टनर" बताते थे या कभी कहते, ''मैं गाडिय़ों का व्यापार इसलिए करता हूं ताकि शब्दों का व्यापार न करना पड़े." लखनऊ का उनका घर भी प्रसिद्ध था, जहां कई कलाकार आया और रहा करते. उनमें उस्ताद अमीर खां भी थे जिन्होंने उस घर में कई रागों का प्रभावशाली गायन किया था.
सत्यजित राय जब प्रेमचंद की कहानी पर अपनी पहली हिंदी फिल्म शतरंज के खिलाड़ी बना रहे थे तो शूटिंग के दौरान अक्सर उनके घर रुकते. बाद में उन्हें लखनऊ छोड़कर दिल्ली आना पड़ा, जिसे वे सत्ता का केंद्र मानते थे और जैसा कि उन्होंने अपनी एक कविता में कहा था—दिल्ली की तरफ घुड़सवारों के पीछे घिसटते हुए दो बंधे हुए हाथ ही पहुंचते हैं. दिल्ली आने के कुछ वर्षों बाद उनकी आंखों की रोशनी और सुनने की क्षमता कम होती गई, लेकिन तब भी वे आखिरी दिनों में कोमा में जाने से पहले तक नैतिक और दार्शनिक सरोकारों की विलक्षण कविताएं बोलकर लिखवाते रहे.
उनकी प्रबंध कविता कुमारजीव इसी दौर की देन है, जिसमें वे बौद्ध ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद करने वाले इस दार्शनिक की भीतरी और बाहरी यात्रा को एक जीवन के दूसरे जीवन में अनूदित करने की यात्रा बना देते हैं. एक बार बातचीत में आंखों की समस्या का जिक्र आने पर उन्होंने कहा, ''मैं अब अपने भीतर ज्यादा देखता हूं." दरअसल कुंवर नारायण शुरू से ही ''अपने भीतर" देखने वाले कवि रहे.
दुनिया में लडऩे-झगडऩे के लिए" इतना सब कुछ होने" के बावजूद पूरा जीवन ''जरा से प्यार में बिता" देने वाले कुंवर नारायण जितने बड़े नैतिक कवि थे उतने ही नैतिक मनुष्य भी थे. कह सकते हैं कि नैतिकता ही उनकी राजनीति थी. हमारी चालू राजनीति, बाजार, पूंजी और कई तरह की अमानुषिकता और बर्बरता ने मनुष्यता, ईमान, अच्छाई, सच्चाई जैसे महान और उदात्त शब्दों को निरर्थक और बेदखल कर दिया है, लेकिन कुंवर नारायण की कविता ऐसे शब्दों को फिर से प्रतिष्ठित करने वाली कविता हैः किसी भी शब्द को/एक आतशी शीशे की तरह/जब भी घुमाता हूं आदमी, चीजों या सितारों की ओर/मुझे उसके पीछे/एक अर्थ दिखाई देता/जो उस शब्द से कहीं बड़ा होता है.
जर्मन कवि-नाटककार बेर्टोल्ट ब्रेष्ट बड़ी रचना की पहचान यह मानते थे कि उसे एक शब्द या वाक्य में परिभाषित किया जा सकता है. कुंवर नारायण की कविता ''पूर्णतर मनुष्य" होने की कविता है. शायद इसीलिए देह के न रहने के बाद भी उनकी कविता का जीवन जारी रहेगा.
कुंवर नारायण (1927-2017)
—मंगलेश डबराल