महीने भर में नटसम्राट की यह तीसरी प्रस्तुति थी. भोपाल, सीधी और अब रायपुर (छत्तीसगढ़) के रंग मंदिर में. एसी और कूलर के बगैर, लोहे की पटरियों वाली संकरी कुर्सियों पर जमे 500 से ज्यादा दर्शक रात 10 बजे नाटक खत्म होने पर भी जैसे जाने को तैयार न थे. बीते जमाने के एक अभिनेता अप्पा बेलवलकर का सवा दो घंटे का फैमिली ड्रामा कई बार रुलाते हुए उनके दिमाग पर तारी हो चुका था. अप्पा बने अभिनेता आलोक चटर्जी मंच पर चढ़ आए पचासों दर्शकों से देर तक बधाइयां लेते रहे. कोई पांव छूता, कोई कहता, ''हमें भी ऐक्टिग सिखा दीजिए सर.'' थोड़ी देर बाद वे पीछे ग्रीन रूम में पहुंचे और नाटक के निर्देशक जयंत देशमुख को भींचते हुए फफक कर रो पड़े. 40 साल मंच पर गुजार चुका प्रशिक्षित महारथी अभिनेता और ऐसी भावुक प्रतिक्रिया.
पर चटर्जी के करियर के उतार-चढ़ाव से वाकिफ लोग इसके पीछे की वजह को समझ पा रहे थे. नटसम्राट उनकी जिंदगी में एक निर्णायक मुकाम की तरह आया है. मराठी के मशहूर कवि और नाटककार विष्णु वामन शिरवाडकर (कुसुमाग्रज) ने शेक्सपियर के नाटक किंग लियर की भावना को लेते हुए इसे सत्तर के दशक में लिखा था. इसमें मंच पर राज कर चुका एक अभिनेता सामाजिक-पारिवारिक उपेक्षा और नोस्टैल्जिया के द्वंद्व में बार-बार टूटता और खड़ा होता है. जूलियस सीजर, ओथेलो, हैमलेट सरीखे उसके जिए हुए किरदारों की 'आत्माएं' अक्सर उसकी देह में आ उतरती हैं. मराठी में डॉ. श्रीराम लागू ने इसके हजार से ज्यादा शो किए. पिछले साल महेश मांजरेकर के निर्देशन में नाना पाटेकर ने इसे परदे पर जीकर मुंबई की अभिनय दुनिया में खलबली मचा दी. पिछले नवंबर में उन्होंने गोवा में भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के दौरान कहा कि ''अब अगर मैं अभिनय छोड़ भी दूं तो मुझे मलाल नहीं रहेगा.'' ऐसा रुतबा रहा है इस नाटक का. इसके लिए शिरवाडकर को 1974 में देश का सर्वोच्च साहित्य अकादमी सम्मान प्राप्त हुआ था.
ऐसे नटसम्राट को हिंदी में पहली बार मंच पर लाने के लिए चटर्जी जैसे समृद्ध अभिनय जीवन और ऊंचे पाए का अभिनेता होना जरूरी था. वे भारत भवन रंगमंडल में ऋषि रंगकर्मी ब.व. कारंत की छाया में निखरे थे. 1984-87 के बीच राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) में अभिनेता इरफान खान और वे बैचमेट थे. उसी दौरान वहां इलाहाबाद से पढऩे गए फिल्मकार तिग्मांशु धूलिया बताते हैं, ''आलोक का थिएटर में जलवा हुआ करता था. उसके नाटक इलाहाबाद भी आते थे. उस वक्त हम लोग उसे स्टार मानते थे.'' वे एनएसडी और पुणे स्थित एफटीआइआइ में पढ़ाते रहे हैं. मुंबई में अनुपम खेर के संस्थान ऐक्टर प्रेपेयर्स में भी उन्होंने अभिनय सिखाया. पर तभी शराब और कुछ दूसरी अराजकताओं ने उन्हें गुमनामी में धकेल दिया. घर चलना मुश्किल हो गया. दोनों समय महाकाल की पूजा करने वाले चटर्जी के शब्दों में, ''वह साढ़े साती का असर था.''
अभी मध्य प्रदेश नाट्य विद्यालय में शिक्षक चटर्जी गहरी साहित्यिक समझ के साथ अभिनय की विशाल रेंज के लिए जाने जाते हैं. 59 वर्षीय देशमुख और उनका पुराना याराना है. भारत भवन रंगमंडल में तीन साल दोनों साथ लड़े-झगड़े हैं. चटर्जी के उभरे पेट पर जैकेट के बटन खींचकर बंद करते हुए देशमुख दावा करते हैं कि ''दसवें शो तक इसका पेट अंदर हो जाएगा.'' इस नाटक की तैयारी प्रक्रिया और शो पर दर्शकों की प्रतिक्रियाओं ने दोनों को रोमांचित कर डाला है. रंगमंच के सारे ताने-बाने पर नटसम्राट भले अव्वल न बैठे पर यह लोकप्रिय बहुत हो रहा है. पिछले महीने सीधी जैसे धुर आंचलिक कस्बे के एक कॉलेज में भी लोग इसे देखने के बाद आंखें पोंछते हुए देर रात तक चटर्जी के आसपास जमे रहे. अगले हक्रते जबलपुर में इसके आयोजक शहर में चटर्जी के 30 फुट के कटआउट लगा रहे हैं.
और ग्रीन रूम में चटर्जी को चुप करा रहे देशमुख भी भीतर रो रहे थे. कुछ और याद करके. सत्तर के दशक में इसी सभागार से उन्होंने नाटकों की दुनिया में कदम रखा था. और 15 साल पहले मई 2002 का वह वाकया! वे इसी शहर के एक सिनेमाहॉल में परिवार के साथ विपुल शाह की आंखें देखने पहुंचे थे. उन्हीं के शद्ब्रदों में, ''बालकनी में पहली ही लाइन में बैठा था. परदे पर श्आर्ट डायरेक्टरः जयंत देशमुख्य लिखा हुआ आते ही जार-जार रोने लगा.'' उन्होंने घर में राशन के लिए कभी कागज के ठोंगे बनाकर बेचे थे. परिवार कई बार भूखे पेट लेकिन चुपचाप सो जाता था. उन पर दो छोटी बहनों को पालने-पढ़ाने का जिम्मा भी था. कई छोटी-मोटी नौकरियां कीं लेकिन हुनर चमकाने की हुलस उन्हें भोपाल के भारत भवन खींच ले गई. वहां कारंत, कथाकार विजय मोहन सिंह और निर्मल वर्मा वगैरह की संगत मिलती. रसरंजन के साथ साहित्य, संगीत, कला पर देर रात तक गप्प गोष्ठी. नाटक करते ही थे. उनकी रचनात्मकता खिल उठी. दस साल रहने के बाद किसी बात पर बगावत की तो सीधे मुंबई जा पहुंचे.
नए सिरे से संघर्ष का दौर. सेट और स्टेज के छोटे-छोटे काम करते. कैसे भी जुगाड़ कर बहनों के लिए मनीऑर्डर करना न भूलते. कुछ सीरियल और फिर बवंडर फिल्म मिली. पर आंखें पहली बड़ी कमर्शियल फिल्म थी. वे बताते हैं, ''प्रोड्यूसर गौरांग दोषी साथ थे पर निर्देशक विपुल शाह की पहली फिल्म होने की वजह से वे कोई रिस्क लेने को तैयार न थे. बोले कि छलका छलका-सा गाने का सेट लगाकर दिखाओ, ठीक लगेगा तो रखेंगे.'' देशमुख हफ्ते भर तक घर नहीं लौटे. सेट पर ही खाते-पीते और अब उनकी पहचान बन चुके टी-शर्ट बरमूडा पहने वहीं फर्श पर सो जाते. सारा स्ट्रगल उस ग्रीन रूम में देशमुख की आंखों के सामने नाच गया.
आज मुख्य धारा की करीब 70 फिल्मों के प्रिंट पर आर्ट डायरेक्टर/प्रोडक्शन डिजाइनर की जगह उनका नाम दर्ज है. इनमें विशाल भारद्वाज, सतीश कौशिक और श्याम रामसे सरीखे अलहदा मिजाज के निर्देशकों की फिल्में शामिल हैं. लेकिन प्रकाश झा की फिल्मों की तो जैसे वे कलात्मक आंख बन गए हैं. पर यहीं सवाल उठता है. लोग सिनेमा में स्थापित होने के लिए बीसियों साल लगा देते हैं. और वे उस मुकाम पर पहुंचकर फिर से नाटकों की ओर? वे बेबाकी से बताते हैंरू ''काम में एक वक्त सैचुरेशन पॉइंट आ जाता है. आप चुकने लगते हैं. बेस्ट होने के लिए रिचार्ज करना पड़ता है. लौटकर मैं चैगुने उत्साह से काम में लग जाऊंगा.'' आंखें-2 के सेट के लिए उन्हें डेढ़-ड़ेढ़ महीने लंदन और जोहानिसबर्ग में रहना है.
इन दोनों का साथ हिंदी थिएटर को भा रहा है. दोनों मनोरंजन के साथ मैसेज के पैरोकार हैं. यह बात दर्शकों को उन तक खींच ला रही है. रायपुर में देशमुख के आयोजन के मेजबान सुभाष मिश्र कहते हैं, ''इप्टा के लोगों से मेरा मतभेद इसी बात पर हुआ. हर कविता, कहानी, नाटक में से बस उपदेशात्मक बातों को खोजना. दर्शक आए तो कैसे! जयंत और आलोक का काम हिंदी थिएटर में फैली उदासी और जड़ता को तोडऩे का काम कर रहा है.'' यही तो कमाई है दो दीवानों की.
पर चटर्जी के करियर के उतार-चढ़ाव से वाकिफ लोग इसके पीछे की वजह को समझ पा रहे थे. नटसम्राट उनकी जिंदगी में एक निर्णायक मुकाम की तरह आया है. मराठी के मशहूर कवि और नाटककार विष्णु वामन शिरवाडकर (कुसुमाग्रज) ने शेक्सपियर के नाटक किंग लियर की भावना को लेते हुए इसे सत्तर के दशक में लिखा था. इसमें मंच पर राज कर चुका एक अभिनेता सामाजिक-पारिवारिक उपेक्षा और नोस्टैल्जिया के द्वंद्व में बार-बार टूटता और खड़ा होता है. जूलियस सीजर, ओथेलो, हैमलेट सरीखे उसके जिए हुए किरदारों की 'आत्माएं' अक्सर उसकी देह में आ उतरती हैं. मराठी में डॉ. श्रीराम लागू ने इसके हजार से ज्यादा शो किए. पिछले साल महेश मांजरेकर के निर्देशन में नाना पाटेकर ने इसे परदे पर जीकर मुंबई की अभिनय दुनिया में खलबली मचा दी. पिछले नवंबर में उन्होंने गोवा में भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के दौरान कहा कि ''अब अगर मैं अभिनय छोड़ भी दूं तो मुझे मलाल नहीं रहेगा.'' ऐसा रुतबा रहा है इस नाटक का. इसके लिए शिरवाडकर को 1974 में देश का सर्वोच्च साहित्य अकादमी सम्मान प्राप्त हुआ था.

अभी मध्य प्रदेश नाट्य विद्यालय में शिक्षक चटर्जी गहरी साहित्यिक समझ के साथ अभिनय की विशाल रेंज के लिए जाने जाते हैं. 59 वर्षीय देशमुख और उनका पुराना याराना है. भारत भवन रंगमंडल में तीन साल दोनों साथ लड़े-झगड़े हैं. चटर्जी के उभरे पेट पर जैकेट के बटन खींचकर बंद करते हुए देशमुख दावा करते हैं कि ''दसवें शो तक इसका पेट अंदर हो जाएगा.'' इस नाटक की तैयारी प्रक्रिया और शो पर दर्शकों की प्रतिक्रियाओं ने दोनों को रोमांचित कर डाला है. रंगमंच के सारे ताने-बाने पर नटसम्राट भले अव्वल न बैठे पर यह लोकप्रिय बहुत हो रहा है. पिछले महीने सीधी जैसे धुर आंचलिक कस्बे के एक कॉलेज में भी लोग इसे देखने के बाद आंखें पोंछते हुए देर रात तक चटर्जी के आसपास जमे रहे. अगले हक्रते जबलपुर में इसके आयोजक शहर में चटर्जी के 30 फुट के कटआउट लगा रहे हैं.
और ग्रीन रूम में चटर्जी को चुप करा रहे देशमुख भी भीतर रो रहे थे. कुछ और याद करके. सत्तर के दशक में इसी सभागार से उन्होंने नाटकों की दुनिया में कदम रखा था. और 15 साल पहले मई 2002 का वह वाकया! वे इसी शहर के एक सिनेमाहॉल में परिवार के साथ विपुल शाह की आंखें देखने पहुंचे थे. उन्हीं के शद्ब्रदों में, ''बालकनी में पहली ही लाइन में बैठा था. परदे पर श्आर्ट डायरेक्टरः जयंत देशमुख्य लिखा हुआ आते ही जार-जार रोने लगा.'' उन्होंने घर में राशन के लिए कभी कागज के ठोंगे बनाकर बेचे थे. परिवार कई बार भूखे पेट लेकिन चुपचाप सो जाता था. उन पर दो छोटी बहनों को पालने-पढ़ाने का जिम्मा भी था. कई छोटी-मोटी नौकरियां कीं लेकिन हुनर चमकाने की हुलस उन्हें भोपाल के भारत भवन खींच ले गई. वहां कारंत, कथाकार विजय मोहन सिंह और निर्मल वर्मा वगैरह की संगत मिलती. रसरंजन के साथ साहित्य, संगीत, कला पर देर रात तक गप्प गोष्ठी. नाटक करते ही थे. उनकी रचनात्मकता खिल उठी. दस साल रहने के बाद किसी बात पर बगावत की तो सीधे मुंबई जा पहुंचे.
नए सिरे से संघर्ष का दौर. सेट और स्टेज के छोटे-छोटे काम करते. कैसे भी जुगाड़ कर बहनों के लिए मनीऑर्डर करना न भूलते. कुछ सीरियल और फिर बवंडर फिल्म मिली. पर आंखें पहली बड़ी कमर्शियल फिल्म थी. वे बताते हैं, ''प्रोड्यूसर गौरांग दोषी साथ थे पर निर्देशक विपुल शाह की पहली फिल्म होने की वजह से वे कोई रिस्क लेने को तैयार न थे. बोले कि छलका छलका-सा गाने का सेट लगाकर दिखाओ, ठीक लगेगा तो रखेंगे.'' देशमुख हफ्ते भर तक घर नहीं लौटे. सेट पर ही खाते-पीते और अब उनकी पहचान बन चुके टी-शर्ट बरमूडा पहने वहीं फर्श पर सो जाते. सारा स्ट्रगल उस ग्रीन रूम में देशमुख की आंखों के सामने नाच गया.
आज मुख्य धारा की करीब 70 फिल्मों के प्रिंट पर आर्ट डायरेक्टर/प्रोडक्शन डिजाइनर की जगह उनका नाम दर्ज है. इनमें विशाल भारद्वाज, सतीश कौशिक और श्याम रामसे सरीखे अलहदा मिजाज के निर्देशकों की फिल्में शामिल हैं. लेकिन प्रकाश झा की फिल्मों की तो जैसे वे कलात्मक आंख बन गए हैं. पर यहीं सवाल उठता है. लोग सिनेमा में स्थापित होने के लिए बीसियों साल लगा देते हैं. और वे उस मुकाम पर पहुंचकर फिर से नाटकों की ओर? वे बेबाकी से बताते हैंरू ''काम में एक वक्त सैचुरेशन पॉइंट आ जाता है. आप चुकने लगते हैं. बेस्ट होने के लिए रिचार्ज करना पड़ता है. लौटकर मैं चैगुने उत्साह से काम में लग जाऊंगा.'' आंखें-2 के सेट के लिए उन्हें डेढ़-ड़ेढ़ महीने लंदन और जोहानिसबर्ग में रहना है.
इन दोनों का साथ हिंदी थिएटर को भा रहा है. दोनों मनोरंजन के साथ मैसेज के पैरोकार हैं. यह बात दर्शकों को उन तक खींच ला रही है. रायपुर में देशमुख के आयोजन के मेजबान सुभाष मिश्र कहते हैं, ''इप्टा के लोगों से मेरा मतभेद इसी बात पर हुआ. हर कविता, कहानी, नाटक में से बस उपदेशात्मक बातों को खोजना. दर्शक आए तो कैसे! जयंत और आलोक का काम हिंदी थिएटर में फैली उदासी और जड़ता को तोडऩे का काम कर रहा है.'' यही तो कमाई है दो दीवानों की.