अभी साल भर पहले की तो बात है, जब राधिका आप्टे बड़ी आसानी से मुंबई के यारी रोड स्थित अपने घर से बाहर निकल जाती थीं. इसी इलाके में रहने वाली प्रियंका चोपड़ा की तरह उन्हें इस बात का डर नहीं था कि सड़क पर कोई उन्हें पहचान लेगा. फिर 2015 आया और एक के बाद एक उनकी चार फिल्में रिलीज हुईः बदलापुर, हंटर, मांझीः द माउंटेन मैन और कौन कितने पानी में. साथ ही अनुराग बसु के टेलीविजन धारावाहिक चोखेर बाली और सुजय घोष निर्देशित लघु फिल्म अहल्या में भी वे दिखाई दीं. पांच साल पहले रामगोपाल वर्मा की फिल्म रक्तचरित्र में पहली बार बड़े परदे पर आने के बाद आज आप्टे एक परिचित चेहरा हैं. थोड़े आशावाद और सतर्कता के साथ वे कहती हैं, “माहौल तो बना है, लेकिन असली इम्तिहान इसमें है कि यह कितनी देर तक टिक पाता है.”
तीस साल की आप्टे का बॉलीवुड ने दिल खोलकर स्वागत किया है. यह अपने आप में असाधारण बात है. वे एक ऐसी महिला हैं, जो फिल्म जगत की लीक को तोड़ती हैं. इस प्रतिस्पर्धा भरे क्षेत्र में अगर उन्हें जगह मिली है तो यह इस बात का संकेत है कि आज के फिल्मकार और दर्शक भी उन अभिनेत्रियों को स्वीकार कर रहे हैं, जो प्रयोग करने से नहीं डरतीं, जो मुश्किल और जटिल किरदार निभाने में यकीन रखती हैं.
ऐसी अभिनेत्रियों को अगर हम “दूसरी हीरोइन” का नाम दें तो कह सकते हैं कि 2015 में अब तक इस हीरोइन का सफर कामयाब रहा है. यह नायिका सिर्फ नायक की लटकन नहीं होती. उसके पास अपना दिमाग होता है. आप्टे में इस किरदार की शुरुआत बदलापुर फिल्म की एक ऐसी महिला से होती है, जो अपने पति की दुराचारों और एक यौनकर्मी के बीच फंसी हुई है. ठीक ऐसे ही दम लगा के हइशा में भूमि पेडणेकर ने छोटे शहर की एक मोटी लड़की का किरदार निभाया है, जिसे खूब सराहना मिली. ऐसे ही 31 साल की श्वेता त्रिपाठी ने नीरज घेवन की फिल्म मसान में कॉलेज की एक मासूम छात्रा का किरदार निभाया था, जिसे कविताओं से बहुत प्यार है. इसी फिल्म में 26 साल की ऋचा चड्ढा ने दुख और अपराधबोध से भरी एक युवती की भूमिका निभाई.
मेरी भूमिका क्या है?
नायिकाओं की यह नई खेप स्मिता पाटील, शबाना आजमी और दीप्ति नवल सरीखी गुजरे जमाने की अभिनेत्रियों से मेल खाती है. लेकिन उसे हाशिए के किरदारों में सिमटना पसंद नहीं. ये नायिकाएं छरहरी काया की दीवानी भी नहीं. अपने रूप के मुकाबले इन्हें अपने किरदार और अपनी मेहनत पर ज्यादा भरोसा है. रोल चाहे छोटा हो या बड़ा, उसमें चुनौती और रोमांच होना चाहिए. यही वजह थी कि चड्ढा को गोलियों की रासलीलाः रामलीला में दीपिका पादुकोण और सुप्रिया पाठक के साथ अभिनय करने से कोई गुरेज नहीं हुआ. जैसा कि श्वेता त्रिपाठी कहती हैं, “परदे पर मेरे किरदार की अवधि ने मुझे कभी परेशान नहीं किया. आप चाहते हैं कि आप अपने किरदार के लिए याद किए जाएं तो इसलिए कि आपने उसके साथ न्याय किया है.”
नए दौर की ये नायिकाएं दिलेर भी हैं. कान फिल्म समारोह में मसान को मिली वाहवाही और दो पुरस्कारों के बाद चड्ढा ने ट्विटर पर एक तस्वीर डाली, जिसमें उन्होंने अपने विरोधियों को बीच वाली उंगली दिखाई थी. वे कहती हैं, “यह प्रतिक्रिया उन लोगों के लिए थी, जो आपको ज्ञान देते हैं कि अलग किस्म की, छोटी बजट की और नाच-गाने से खाली फिल्मों में काम न करो.”
दौर किस्सागोई का
व्यावसायिक और स्वतंत्र सिनेमा के बीच की विभाजक रेखा अब धुंधली होती जा रही है. दीपिका पादुकोण, कंगना रनोट, प्रियंका चोपड़ा और अनुष्का शर्मा जैसी नायिकाओं को भी अब नायकों की बांहों में झूलना रास नहीं आता. इसीलिए एनएच10 में अनुष्का शर्मा का एक प्रतिशोध लेने वाली और आक्रोश से भरी हुई पत्नी का किरदार नजर आता है. पीकू में दीपिका ऐसी आजाद, आत्मनिर्भर युवती के रूप में दिखती हैं जो अपनी निजी और पेशेवर जिंदगी के बीच संतुलन कायम करने की जद्दोजहद में है. वहीं तनु वेड्स मनु रिटर्न्स की कंगना बिल्कुल बदले हुए रूप में दिखाई देती हैं. बॉक्स ऑफिस पर इन फिल्मों की कामयाबी ने इस विचार को मजबूत किया है कि एक अभिनेत्री कितनी सशक्त हो सकती है. इसीलिए निमरत कौर (द लंचबॉक्स) और हुमा कुरैशी (डेढ़ इश्किया) जैसी अभिनेत्रियां भी अब तक बची हुई हैं और कम चर्चित होने के बावजूद फिल्मकार इन पर दांव आजमाने को तैयार दिखाई देते हैं.
हालांकि नए दौर की ज्यादातर नायिकाओं ने छोटी और स्वतंत्र फिल्मों से नाम कमाया है, लेकिन वे इस जरूरत को भी समझती हैं कि अपना दायरा बढ़ाया जाए और किसी खास किस्म के सिनेमा में बंधकर न रहा जाए. चड्ढा कहती हैं, “इस इंडस्ट्री में हम वाकई प्रताड़ित हैं, क्योंकि कई चीजों के हिसाब से हम पर कई मुहरें चस्पां कर दी गई हैं. हम कमर्शियल, आर्टी, ग्लैमर रहित, सेक्सी...और जाने क्या-क्या हैं. किसी से मिलने से पहले ही इतने सारे फिल्टर लगा दिए जाते हैं.” आप्टे कहती हैं, “मेरी कभी कोई छवि नहीं रही. मैं किसी छवि के चक्कर में नहीं हूं और उम्मीद है कि ऐसा कभी नहीं होगा.”
इंतजार का खेल
आप्टे पुणे से हैं तो चड्ढा की तरह त्रिपाठी भी दिल्ली में पली-बढ़ी हैं. फिल्मी दुनिया से उनका कोई संपर्क नहीं था. अब मुंबई उनका दूसरा घर है. लिहाजा ये नायिकाएं खुद ही अपनी गॉडफादर हैं. इसीलिए इनके मामले में धैर्य और लचीलापन बहुत अहम है. चाहे वह किसी ड्रीम प्रोजेक्ट पर दस्तखत करने की बात हो या अपनी फिल्म के रिलीज तक का इंतजार.
त्रिपाठी इन तमाम तरीकों से परिचित हैं. एनआइएफटी से स्नातक त्रिपाठी ने डिज्नी के शो क्या मस्त है लाइफ में काम किया. पहली फिल्म उन्हें हरामखोर 2013 में मिली थी, जिसे नए निर्देशक श्लोक शर्मा ने निर्देशित किया है. नवाजुद्दीन सिद्दीकी इसमें नायक हैं. यह फिल्म अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में दिखाई जा चुकी है. भारत में अभी इसका प्रदर्शन होना है. त्रिपाठी को अंधेरी में रहना पसंद नहीं, जहां कई फिल्मी लोग रहते हैं क्योंकि वहां रहने पर हर आदमी एक ही सवाल पूछता है, “और क्या चल रहा है?” वे कहती हैं, “वैसे भी आप जैसा काम करने की चाहत रखते हैं, वैसा मिलना यहां मुश्किल है. विज्ञापनों के मामले में भी चुनना पड़ता है. मतलब यह कि कभी भी आपका काम आसान नहीं होता.”
इंडस्ट्री के अनुकूल बनने का मतलब है कि आप खेल के कुछ शाश्वत नियमों को स्वीकार कर लें. फैशन शो में लाल कालीन पर चलना और पार्टियों में जाना उतना ही अहम है, जितना अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में अपनी मौजूदगी दर्ज करवाना. त्रिपाठी कहती हैं, “मैं शायद ही कभी काजल लगाती थी. कायदे से मेकअप तो छोड़ ही दो. अब मैंने कार में भी मेकअप करना सीख लिया है. मैं सोचती थी कि मेरी प्रतिभा ही पर्याप्त होगी, लेकिन इस इंडस्ट्री में आप कैसे दिखते हैं, इसकी भी बड़ी अहमियत है.”
संतुलन साधना
तय है कि ये अभिनेत्रियां चालू किस्म का सिनेमा नहीं करेंगी. ये सार्थक किरदार निभाने की सचेत कोशिश भी करेंगी. मसान में त्रिपाठी अगर चुलबुले किरदार में आकर्षित करती हैं तो हरामखोर में वे 15 साल की लड़की की भूमिका में आपको चौंका देंगी, जिसका प्रेम उम्र में कई साल बड़े टीचर (सिद्दीकी) के साथ है.
द लंचबॉक्स की रिलीज के बाद निमरत कौर ने एक साल तक चुनौतीपूर्ण भूमिका का इंतजार किया. फिर उन्हें एयरलिफ्ट में अक्षय कुमार के साथ रोल मिला, जो 2016 में रिलीज होगी. इस दौरान चड्ढा ने पूजा भट्ट की अगली फिल्म कैबरे में नर्तकी का किरदार निभाया है.
कौर और चड्ढा जैसी अभिनेत्रियों को मुख्यधारा के सिनेमा में लेने की फिल्मकारों की तैयारी बता रही है कि हिंदी सिनेमा किन रास्तों से बदल रहा है. इसके बावजूद स्वतंत्र सिनेमा ही वह ठौर है, जहां ये नायिकाएं सबसे ज्यादा सहज महसूस करती रहेंगी. सुधीर मिश्र की फिल्म और देवदास में चड्ढा ने काम किया है और कल्कि कोचलिन के साथ वे जिया और जिया में भी नजर आएंगी. कुरैशी को आप अमेरिका की लोकप्रिय हॉरर फिल्म ऑक्युलस के भारतीय संस्करण और गुरिंदर चड्ढा की वाइसरॉयज हाउस में देख सकते हैं.
आप्टे भी काफी व्यस्त हैं. वे अजय देवगन प्रोडक्शन की फिल्म पार्च्ड में दिखाई देंगी, जिसे टोरंटो इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के प्रीमियर में दिखाया जाना है. साथ ही वे तमिल सुपरस्टार रजनीकांत के साथ बंबैरिया की शूटिंग शुरू करने वाली हैं. वे जानती हैं कि कामयाबी बहुत नाजुक चीज है. वे कहती हैं, “मुझे नहीं लगता कि संघर्ष कभी खत्म होता है. पहले आप अपने हिस्से के लिए संघर्ष करते हैं, फिर उसे पाते रहने के लिए. फिर संघर्ष इस बात का होता है कि आपकी कोई छवि न बनने पाए. मुझे लगता है स्थिरता कहीं ज्यादा अहम चीज है. अगर थोड़ी-सी भी मिल गई तो खुश रहूंगी.”
सिनेमा: आया दिलेर लड़कियों का दौर
मजबूत नायिकाओं की एक नई खेप ने बॉलीवुड में तूफान मचा रखा है. अगर उसे चालू सिनेमा में बंधना पसंद नहीं तो वह अपने ऊपर कुछ अलग होने की मुहर भी नहीं लगने देना चाहती.

अपडेटेड 11 सितंबर , 2015
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