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बॉलीवु़डः हया हो रही है हवा

हिंदी फिल्मी गीतों पर फूहड़ता के आरोप लग रहे हैं. हर हफ्ते के साथ ही भुला दिए जाने वाले गीतों की तादाद बढ़ रही है. क्या कला पर बाजारवाद हावी हो गया है या फिर यह पॉपुलर कल्चर की अभिव्यक्ति है?

फिल्म 'गोरी तेरे प्यार में' के एक सीन में करीना और इमरान
फिल्म 'गोरी तेरे प्यार में' के एक सीन में करीना और इमरान
अपडेटेड 18 मार्च , 2015

डोंट रिजेक्ट मी, आइ एम अ लर्नर, मुझे सीखने दो, आंखें सेंकने दो, हे गन अपनी लोडेड है, टारगेट भी कोडेड है, ट्रिगर पे उंगली है, मन एकदम जंगली है...हंटर फिल्म का यह गाना हंटर थ्री नॉट थ्री (303) है. 303 से वे लोग वाकिफ होंगे जो अक्सर अखबारों में सेक्स लाइफ में नई जान फूंकने के विज्ञापनों से रू-ब-रू होते रहे हैं. प्रोड्यूसर अनुराग कश्यप की फिल्म हंटर का यह गाना बॉलीवुड में द्विअर्थी और बोल्ड होते गीतों की बानगी भर है. कभी जाम छलकाने तक सीमित रहने वाला बॉलीवुड अब गांजे तक पहुंच चुका है और तौबा यह मतवाली चाल अब बम डोले तक का सफर तय कर चुकी है. टशन दिखाने के लिए हीरो को सलमान का फैन...जो लेवे पंगा कर दूं मां बहन तक बोलने में परहेज नहीं है. यह नए दौर का फिल्मी गीत है, जिसमें शराब, सेक्स और बोल्डनेस से जुड़े गाने लिखे जा रहे हैं, और ये हिट भी हो रहे हैं. लेकिन कुछ लोग इसे फूहड़ता मान रहे हैं. गायिका ऋचा शर्मा कहती हैं, ''जिस तरह के शब्दों का इस्तेमाल इनमें हो रहा है, उससे मैं सहमत नहीं हूं. यह बहाना सही नहीं है कि लोग इसी तरह के गाने पसंद करते हैं क्योंकि उन्हें क्या दिखाना और सुनाना है, यह तो हमारे हाथ में है.''

कैसे बदला गीतों का मिजाज
देश में बिंदास और बेबाक युवा पीढ़ी अंग्रेजी के साथ ही विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों का सहजता के साथ इस्तेमाल कर रही है. टेक्नोलॉजी ने जिंदगी को बदलकर रख दिया है. जिंदगी कूल हो गई और ओ माइ गॉड बदलकर ओएमजी हो गया. साल भर में बनने वाली फिल्म अब दो से तीन महीने में तैयार हो रही हैं और इसी फटाफट अंदाज में गीत-संगीत तैयार होने लगा है. प्रतीक और उपमाएं बदल रही हैं.
ऐसे में रैपर हनी सिंह का दावा बेजा नहीं लगता कि उनके गानों पर बेशक कितने भी आरोप लगते रहें कि उनके बोल अच्छे नहीं होते, लेकिन उनके सारे गाने आम जिंदगी से प्रेरित होते हैं. जो  दिखता है, वही बिकता है या फिर 'जो बोला जा रहा है, उसे लिखा जाए' का आग्रह पहले से ज्यादा है. लिहाजा, साहित्य और सिनेमा में इस संस्कृति की झलक दिखना लाजिमी है.
वैसे, 1980 के दशक में भी एक-दो उदाहरण ऐसे मिल जाते हैं जब कुछ गानों से जुड़े विवादों ने खूब जोर पकड़ा था. विधाता (1982) फिल्म का गाना सात सहेलियां ऐसा ही था. नब्बे के दशक में इसकी शुरुआत खलनायक (1993) के चोली के पीछे से मानी जा सकती है जिसे आगे बढ़ाने का काम गोविंदा और डेविड धवन की जोड़ी ने किया. खुद्दार (1994) का सेक्सी सेक्सी सेक्सी मुझे लोग बोलें, राजा बाबू (1994) का सरकाइ लेव खटिया और अंदाज (1994) का खड़ा है खड़ा है जैसे गानों की भरमार रही. यह रुझान इस कदर आगे बढ़ा कि यह डीके बोस (डेल्ही बेली) और बिट्टू सब की ले लेगा (बिट्टू बॉस) से होते हुए इंजन की सीटी पे मारो बम डोले (खूबसूरत 2014) तक पहुंच गया है. हालांकि गीतकार इस तरह के गाने बनने की एक वजह फिल्मों में भावनात्मकता के खत्म होने को भी मानते हैं. गीतकार जावेद अख्तर कहते हैं, ''आज अगर कोई लिखना भी चाहे तो अच्छे और भावनात्मक गीतों के लिए कोई जगह नहीं है.''
बेबीडॉल (रागिनी एमएमएस-2) और चिट्टियां कलाइयां (रॉय) जैसे हिट और साफ-सुथरे सांग दे चुकी संगीतकार जोड़ी मीत ब्रदर्स इस साल लगभग 40 गाने लेकर आ रहे हैं. वे बताते हैं कि चार-पांच गाने ऐसे हैं, जिनकी लिरिक्स पर कुछेक लोगों को आपत्ति हो सकती है. वे कहते हैं, ''जिस तरह की जनता डिमांड करती है, और जो हिट होता है वैसा ही बनता है. वैसे भी लिरिसिस्ट प्रोड्यूसर के मुलाजिम की तरह होता है, जैसा वह चाहता है वैसा ही म्यूजिक तैयार किया जाता है.''

बाजार और ऑडिएंस

फिल्म इंडस्ट्री का एक हिस्सा यह मानता है कि बाजार के दबाव और ऑडिएंस की मांग की वजह से इस तरह के गीत तैयार होते हैं. ऑडिएंस न सिर्फ इसे हिट कराती है बल्कि जमकर एंजॉय भी करती है. हनी सिंह के गानों की आलोचना के बावजूद लोकप्रियता के मामले में उनका सानी नहीं. गानों के बोल उतने महत्वपूर्ण नहीं, जितनी कि उनकी आक्रामक मार्केटिंग. इसकी बदौलत चॉकलेट के नाम पर गुड़ भी बेचा जा सकता है.
यह गीतों को लेकर होने वाली जबरदस्त मार्केटिंग ही है, जिसकी वजह से ये सबकी जुबान पर चढ़ जाते हैं. इसके लिए प्रोड्यूसर गानों के आकर्षक बोल की मांग करते हैं. मिसाल के तौर पर प्रोड्यूसर एकता कपूर के लिए आक्रामक मार्केटिंग और बोल्डनेस हमेशा से हथियार रहे हैं. फिर वह चाहे द डर्टी पिक्चर का चुटकी जो तूने काटी है हो या फिर शूटआउट ऐट वडाला का लैला तेरी ले लेगी.
मजेदार बात यह है कि इन गानों को लिखने-गाने वाले भी बोल के बेतुके होने की बात कर रहे हैं. हंटर 303 के गायक बप्पी लाहिड़ी कहते हैं, ''आजकल के गाने बेतुके हो गए हैं.'' अख्तर इस तरह के गीतों को लिखने से मना करने पर ही इस तरह के रुझान में कमी आने की बात करते हैं. ऋचा कहती हैं, ''जब हम अच्छा देंगे तो वे अच्छा ही सुनेंगे. दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए या फिर बीड़ी जलाइ ले जिगर से पिया...गानों में खूब मस्ती है. शृंगार रस का भी पुट है. लेकिन वल्गेरिटी नहीं. हर चीज में मर्यादा होनी चाहिए.''
प्रोड्यूसर जानते हैं कि नैतिकता या मर्यादा की निगहबानी के लिए सेंसर बोर्ड है. उन्हें अपने निवेश पर मुनाफे की चिंता रहती है. और उन्हीं की तरह गीतकार-संगीतकार को भी अपनी दाल-रोटी के बारे में सोचना होता है. मीत ब्रदर्स कहते हैं, ''किचन चलना चाहिए. हम नहीं लिखेंगे तो प्रोड्यूसर किसी और से करवा लेगा.''

सेंसर बोर्ड के कड़े तेवर
अब पहलाज निहलाणी की अध्यक्षता वाला सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (सीबीएफसी) इस तरह के गीतों के लिए खतरा हो सकता है. इसकी भनक इस बात से मिल सकती है कि बोर्ड ने हाल ही में ऐसे 34 शब्दों की सूची जारी की थी, जिन्हें फिल्मों में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था. लेकिन काफी विचार-विमर्श के बाद इस फैसले को वापस ले लिया गया. हालांकि सेंसर बोर्ड के एक सदस्य इस बात पर जोर देते हैं कि हमारा काम फिल्म से जुड़े सुझाव देना है, उसे प्रतिबंधित करना नहीं.
समय के हिसाब से नैतिकता के पैमाने बदलते रहते हैं. ऐसे में फिल्मवालों को इसकी सीमाएं खुद तय करनी होंगी क्योंकि उसे मर्यादाओं के साथ ही कूल होते दौर के साथ कदमताल भी तो करनी है.

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