वर्ष 1949 के प्रारंभ में मुक्तिबोध जबलपुर से नागपुर न आए होते तो स्वयं उनका जीवन और हिंदी कविता का रूप दूसरा ही होता. 1948 में मुक्तिबोध जबलपुर में थे. जबलपुर आए उनको दो साल हो रहे थे. वहां वे डी.एन. जैन हाइस्कूल में मास्टरी करते थे. अपनी मास्टरी से वे संतुष्ट नहीं थे. जिस स्कूल में वे थे, वह उन्हीं के शब्दों में बेहद सडिय़ल था. तनख्वाह बहुत कम थी, वह भी समय पर न मिलती थी. वहां के साहित्यिक वातावरण में वे स्वयं को मिसफिट अनुभव करते थे. वे अभी बीए थे. खाने-कमाने की ‘फिजूलियात’ से ही फुर्सत नहीं थी. वे बहुत कुछ करना चाहते थे पर दम भरने का वक्त तो मिले. सवेरे उठते ही वे हाड़तोड़ कामों में जुट जाते. सवेरे तोताछाप बुकनी वाली कड़क चाय पीते.
अपनी टूटी हुई साइकिल उठाते और न्यू एज की प्रतियां ग्राहकों के यहां पहुंचाने की मुहिम पर निकल पड़ते. ग्राहक कौन उनके घर के आसपास ही रहते? साइकिल भी कैसी? सीट का कवर उखड़ा हुआ, पैडल के नाम पर केवल पैडल का ढांचा. न्यू एज के वितरण से मास्टरी से मिलने वाली तनख्वाह के अलावा थोड़ी-बहुत ऊपरी आमदनी का जुगाड़ हो जाता. तंग दस्ती. मानसिक रूप से वे बेहद बेचैनी का अनुभव करते, शारीरिक रूप से कमजोरी का. सवेरे की कड़क चाय 10 बजते-बजते पेट में ठंडी हो जाती, स्कूल पहुंचने का वक्त हो जाता. न्यू एज बांटकर घर पहुंचते समय रास्ते में कॉलेज जाने वाले प्रोफेसर मिलते, सूट-बूट-टाई या जोधपुरी में. अंचलजी के कॉलेज का रास्ता मुक्तिबोध के मुहल्ले से जाता. वही सीता का मायका, वही रावण की गैल. अंचलजी टूटी साइकिल पर फटे पांयचों वाले मुक्तिबोध को देखते तो टिप्पणी करते—ये देखो, हिंदी का एजरा पाउंड जा रहा है.
अंचलजी मुक्तिबोध को कोई दर्जा देने को तैयार नहीं थे. मुक्तिबोध ‘तार सप्तक’ के पहले कवि थे पर उससे क्या हुआ? “तुम न कॉलेज में हो, न किसी अखबार में. नगर सेठ गोविंद दास की हवेली में भी तुम्हें कभी नहीं देखा. मकान भी तुम्हारा वहां है, ऑब्जर्वेटरी रोड पर. जहां सुभद्रा कुमारी चौहान रहती, उसके पिछवाड़े.” उनके घर के पहले मौसम कार्यालय था, दो-मंजिला इमारत. दूसरी मंजिल पर एक मुर्गा बना था. हवा चलती तो मुर्गा घूमता. उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम. मुक्तिबोध चाहते थे कि मुर्गा सदैव बाईं दिशा बतलाए पर वह कमबख्त कभी दक्षिण का रुख करता, कभी पश्चिम का, क्या उनका न्यू एज बांटना निरर्थक हो रहा है? स्कूल पहुंचने में देर हो रही है. किसी तरह खाना गटको, सिरहाने के नीचे से तह किया पैजामा निकालो, उस पर खूंटी पर टंगा कुर्ता डालो और संकरी गली से डी.एन. जैन स्कूल निकल लो. रास्ता कच्चा, ऊबड़-खाबड़. ऑब्जर्वेटरी रोड पर रहना मुक्तिबोधजी का चुनाव नहीं, लाचारी थी.
कच्चा मकान, अभावग्रस्तों का मुहल्ला, पानी के लिए चौरस्ते पर नल. पर किराया कम था. स्कूल भी पास था, पैदल पहुंचने में पांच मिनट लगते. वे अपनी साहित्यिक अकर्मण्यता से ऊब अनुभव कर रहे थे, जबलपुर के साहित्यकारों के व्यवहार से उनके भीतर एक ग्रंथि बन गई थी. जबलपुर से वे इतने ऊबे हुए थे कि किसी भी अन्य नगर जाने के लिए छटपटा रहे थे. वे कभी उज्जैन की नौकरी के लिए आवेदन भेजते, कभी बनारस की प्रेस में मैनेजरी के लिए लिखा-पढ़ी करते. अमृत राय हंस के लिए एक सहायक चाहते थे. वे मोहन सिंह सेंगर को बुला चुके थे पर सेंगर नहीं गए. उन्होंने नरोत्तम नागर को भी बुलाने की सोची थी. अमृतजी ने मुक्तिबोध को लिखा, “नागर को भी काम की सख्त जरूरत है मगर तुमको भी तो है पर आने की सबसे बड़ी शर्त यह होगी कि काम के समय हमारे संबंध स्ट्रिक्टली बिजनेस लाइक हों. मैं इस शर्त पर इसलिए जोर दे रहा हूं कि दोस्ती पर आंच न आए. ऐसी स्थिति में जब दोस्त ही एम्प्लॉयर हो इस तरह की साफगोई कुछ कटु भी लग सकती है पर अभी तुम बच्चे ही हो.” ’47 में मुक्तिबोध बच्चे नहीं रह गए थे. घाट-घाट का पानी पी चुके थे. दोस्त जब मालिक बन जाए तब वह दुलत्ती नहीं झड़ेगा, इसका क्या भरोसा? वे बनारस नहीं गए. चलो, नागपुर के तिवारीजी को लिखते हैं. उन्होंने 28.06.1948 को 550, ऑब्जर्वेटरी रोड, राइट टाउन, जबलपुर से मॉरिस कॉलेज, नागपुर के हिंदी प्राध्यापक पं. शुकदेव प्रसाद तिवारी को पत्र लिखा. मुक्तिबोधजी की 1948 की मानसिक, शारीरिक, आर्थिक और साहित्यिक हालत को जानने के लिए यह पत्र बहुत काम का है. मुक्तिबोध ने लिखाः
आदरणीय तिवारीजी,
आशा है आप प्रसन्न होंगे और आपका स्वास्थ्य ठीक होगा. इधर कई दिनों से मैं सोच रहा था कि आपसे मिलूं पर अवसर न आया. आज पत्र लिख रहा हूं. अत्यंत संकोच का अनुभव करते हुए ही यह साहस कर रहा हूं.
मैं जबलपुर में करीबन दो साल से हूं. जिस हाइस्कूल में हूं वह बेहद सडिय़ल है. तनख्वाह बहुत कम होते हुए भी कभी समय से न मिल पाई. ऐसी फिजूलियात में पड़ा हुआ हूं कि कुछ लिख-पढ़ नहीं पाता. इस साल मैं हिंदी से एमए की भी तैयारी कर रहा हूं. यदि आप मुझे नागपुर में किसी अच्छी नौकरी में बुला सकें. शायद रेडियो भी वहां खुल रहा है. स्पेशल एजुकेशन में भी, सुना, जगह खाली है. मैं इस प्रांत में बिल्कुल नया हूं. साधारणतः यहां के लोगों से जान-पहचान भी अल्प है. इसलिए कोई ‘सिप्पा’ नहीं भिड़ा सकता. दूसरे, स्वभाव ऐसा है कि इस प्रकार की चीजें कर नहीं पाता. यदि आपकी सुविधा के अनुकूल हो तो मुझे कहां, कैसे और क्या करना चाहिए—कौन-सी नौकरी के लिए एप्लीकेशन डालनी चाहिए. यह बतलाएं अत्यंत कृतज्ञ रहूंगा.
सस्नेह आपका
गजानन माधव मुक्तिबोध
(तिवारीजी ने आदत के अनुसार मुक्तिबोध को तत्काल पत्र लिखा. अपनी लगभग अपाठ्य लिखावट में. बताया, कहां, कैसे और क्या करना है.)
गजानन नागपुर आ गए. 1949 में नागपुर आने पर काफी अर्से तक वे इलाहाबाद, बनारस और फिर जबलपुर के अपने अनुभवों के कारण बेहद आशंकाग्रस्त रहते थे. उन्हें हवा में तलवारें दिखाई देतीं. रात को सपने में मोटी-मोटी छिपकलियां उनके ऊपर गिरतीं, वे पसीने -पसीने हो जाते. यदि कोई आदमी उनके पीछे आ रहा होता तो उन्हें लगता कि वह सीआइडी का आदमी है और उनकी जासूसी के इरादे से पीछा कर रहा है. कहते, साले, सरकारी कुत्ते. ‘परसिक्यूशन मेनिया’ शायद इसी को कहते हैं. जुम्मा टैंक की सीढिय़ां नागपुर में नए-नए आए मुक्तिबोध का प्रिय स्थान था. वे रात देर तक इन सीढिय़ों पर बैठे रहते, कभी अकेले, कभी मित्रों के साथ. इन सीढिय़ों पर बैठने वालों में जीवन लाल वर्मा ‘विद्रोही’ उनके अनन्य सहचर थे. विद्रोहीजी मुक्तिबोध को महागुरु कहते. नागपुर ने मुक्तिबोध के अस्तित्व पर छाई हुई असुरक्षा, आशंका और अविश्वास की धुंध को छांटने का काम किया, लेकिन इसमें काफी समय लगा. असुरक्षा, आशंका और आतंक के भूत को झाडऩे के लिए किसी ओझ, किसी औलिया की दरकार थी.
‘विद्रोही’ ऐसे ही औलिया थे. जबलपुर से डरा-डरा, सहमा-सहमा जो गजानन नागपुर आया था, उसे भारतीय राजनीति के चाणक्य पं. द्वारका प्रसाद मिश्र के रू-ब-रू बैठकर अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर बहस करने लायक नागपुर के जिन मित्रों ने बनाया, उनमें ‘विद्रोही’ अव्वल थे, ‘विद्रोही’ की देखादेखी मित्र-मंडली के अन्य सदस्यों ने भी मुक्तिबोध को महागुरु कहना शुरू किया. ये वे दिन थे जब, जैसा कि प्रमोद वर्मा ने लिखा है, “दोस्त मुक्तिबोध की अहम जरूरत थे. इन दोस्तों का साहचर्य मुक्तिबोध को भावदीप्त करता, विचार दीप्त और रचनादीप्त भी.” मुक्तिबोध को संतोष था कि उनका साहित्यिक जीवन बिल्कुल परती नहीं है. वे जीवन के प्रश्नों से जूझ रहे हैं. उन्हें कलात्मक रूपों में ढाल रहे हैं. वे कामायनीः एक पुनर्विचार का अंतिम प्रारूप तैयार कर चुके थे, एक साहित्यिक की डायरी के प्रश्नों पर रात भर जुम्मा टैंक की सीढिय़ों पर बैठकर, हाथ और पैरों का एग्जिमा खुजलाते हुए मंथन कर रहे थे. नया खून के लिए यौगंधरायण और अवंतिलाल गुप्त के साथ दुनिया-जहान के विषयों पर लंबे उत्तेजक लेख लिख रहे थे, अपनी लंबी कविताएं रच रहे थे, टिन के बक्से में बंद अपनी अधूरी कविताओं को पूरा करने में जुटे थे.
दूसरा सप्तक छप चुका था. मुक्तिबोध को यह देखकर हैरानी हो रही थी कि नई कविता के नाम से प्रस्तुत छठे दशक की हिंदी कविता तार सप्तक के मूलतः वामपंथी रुझान को काट-छांटकर सौंदर्यपरक बनती जा रही है. प्रसिद्ध कवि और मुक्तिबोध के अनन्य मित्र प्रमोद वर्मा ने गजानन माधव मुक्तिबोध नामक अपने निबंध में लिखा है कि “ऐसा तो छायावाद के जमाने में भी नहीं हुआ था. तो क्या यह सब उनके नव-स्वाधीन देश का अंतरराष्ट्रीय पूंजीवाद की गिरफ्त में रहे चले आने के लिए किया जा रहा है. उन्हें लगा कि लड़ाई मात्र कला मूल्यों की नहीं है. इस परिवर्तित रुझान को राजनैतिक शीत युद्ध की साहित्यिक शाखा नाम देते हुए विरोधियों से जूझने के लिए मुक्तिबोध खुले मैदान में उतर आए. एकदम नए और अपरिचित कवियों के अटपटे किंतु तेजस्वी स्वर उनके आसपास हवा में लहरा रहे थे, जिससे उनकी यह धारणा और पुष्ट हुई कि प्रगतिशील कविता मरी नहीं है, सिर्फ भूमिस्थ है. इन कवियों से हिंदी संसार को परिचित कराने के ख्याल से उन्होंने नर्मदा की सुबह नाम से कविता संकलन प्रकाशित करने की योजना बनाई थी.”
ये वे दिन थे जब मुक्तिबोध हिंदी कविता में राजनैतिक स्वरों की पहचान कर रहे थे. उन कवियों को रेखांकित कर रहे थे जिनकी कविता में राजनैतिक स्वर प्रच्छन्न अथवा प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान थे. अपने स्वयं के काव्य में विद्यमान राजनैतिक स्वरों से वे अनभिज्ञ नहीं थे पर अभी तक इस स्वर को नाम नहीं दिया गया था. नई कविता में जिस प्रकार राजनैतिक स्वर वाली कविता को पीछे धकेला जा रहा था, उससे वे दुखी थे. मुक्तिबोध पर एमआरए वाले तो आक्रमण कर ही रहे थे, हमारे सौष्ठववादी आलोचक भी उन्हें भाव नहीं दे रहे थे. विश्वंभरनाथ उपाध्याय हिंदी के माक्र्सवादी आलोचकों में काफी ऊंचे पायदान पर थे. उनके लेखे मुक्तिबोध गजा है, शायद गधा. डॉ. रामविलास शर्मा मुक्तिबोध की फैंटसी को डिस्पेप्सिया की उपज मानते थे.
मुक्तिबोध की पब्लिक रिलेशनिंग अच्छी नहीं थी. वे अच्छे संगठनकर्ता भी नहीं थे. उनके पास न तो किसी धनपति का संरक्षण था, न ही कोई प्रकाशक. उनकी अपनी कविता पुस्तक भी उनके जीवनकाल में नहीं निकल पाई. वे नर्मदा की सुबह निकालना चाहते थे पर चाहने भर से क्या होता है? नर्मदा की सुबह निकल सकी होती तो हिंदी कविता का इतिहास दूसरा होता. वे अज्ञेय नहीं थे. सप्तकों के माध्यम से अज्ञेय ने स्वतंत्रता परवर्ती हिंदी काव्य को हाइजैक कर लिया. उसे सौंदर्य और सौष्ठव की ओर ‘टिल्ट’ कर दिया पर मुक्तिबोध अपने मोर्चे पर सामाजिक प्रगतिशील कविता के लिए निरंतर संघर्षरत रहे.
15.09.1960 को लोलार्क कुंड, भदैनी, वाराणसी से डॉ. नामवर सिंह ने आदरणीय भाई मुक्तिबोधजी को लिखा, “मुझे बार-बार लगता है कि अज्ञेय के नेतृत्व ने तार सप्तक के विराट काव्यांदोलन को आगे गलत दिशा में मोड़ दिया, फलस्वरूप प्रारंभिक प्रयोगों के जीवंत तत्व क्रमशः उपेक्षित होकर बैकग्राउंड में चले गए. तत्कालीन प्रगतिशील आंदोलन की कमनिगाही कहिए कि उससे भी उस जीवंत प्रवृत्ति को प्रोत्साहन या मार्गदर्शन नहीं मिल सका. जो हो, अब वह समय आ गया है कि पूरी बात सामने रखी जाए, क्योंकि नई पीढ़ी ने अज्ञेय वाली प्रवृत्ति को दरकिनार करके नए स्रोतों की खोज शुरू कर दी है. मैं तो खैर लिखूंगा ही लेकिन क्या आपके लिए यह संभव नहीं है. मेरी राय यह है कि मुझे उस संक्रांति काल का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं है. आप उस इतिहास के निर्माताओं में हैं.” यह इतिहास, कहना न होगा, नर्मदा की सुबह के माध्यम से लिखा जा रहा था जिसे अज्ञेय ने हाइजैक कर लिया. तार सप्तक के मूलतः वामपंथी रुझान को नई कविता के नाम से प्रस्तुत कर छठे दशक की कविता को सौंदर्यपरक बनाया जा रहा था, नर्मदा की सुबह इस सौंदर्यपरकता वाले रुझान को रोकने का प्रयास था. बीच में मुक्तिबोधजी के सुपुत्र रमेश मुक्तिबोध ने मुझे सूचना दी थी कि वे नर्मदा की सुबह का प्रकाशन करना चाहते हैं. पता नहीं उस विचार का क्या हुआ?
(कांति कुमार जैन, महागुरु मुक्तिबोधः जुम्मा टैंक की सीढिय़ों, पर के लेखक हैं)
अपनी टूटी हुई साइकिल उठाते और न्यू एज की प्रतियां ग्राहकों के यहां पहुंचाने की मुहिम पर निकल पड़ते. ग्राहक कौन उनके घर के आसपास ही रहते? साइकिल भी कैसी? सीट का कवर उखड़ा हुआ, पैडल के नाम पर केवल पैडल का ढांचा. न्यू एज के वितरण से मास्टरी से मिलने वाली तनख्वाह के अलावा थोड़ी-बहुत ऊपरी आमदनी का जुगाड़ हो जाता. तंग दस्ती. मानसिक रूप से वे बेहद बेचैनी का अनुभव करते, शारीरिक रूप से कमजोरी का. सवेरे की कड़क चाय 10 बजते-बजते पेट में ठंडी हो जाती, स्कूल पहुंचने का वक्त हो जाता. न्यू एज बांटकर घर पहुंचते समय रास्ते में कॉलेज जाने वाले प्रोफेसर मिलते, सूट-बूट-टाई या जोधपुरी में. अंचलजी के कॉलेज का रास्ता मुक्तिबोध के मुहल्ले से जाता. वही सीता का मायका, वही रावण की गैल. अंचलजी टूटी साइकिल पर फटे पांयचों वाले मुक्तिबोध को देखते तो टिप्पणी करते—ये देखो, हिंदी का एजरा पाउंड जा रहा है.
अंचलजी मुक्तिबोध को कोई दर्जा देने को तैयार नहीं थे. मुक्तिबोध ‘तार सप्तक’ के पहले कवि थे पर उससे क्या हुआ? “तुम न कॉलेज में हो, न किसी अखबार में. नगर सेठ गोविंद दास की हवेली में भी तुम्हें कभी नहीं देखा. मकान भी तुम्हारा वहां है, ऑब्जर्वेटरी रोड पर. जहां सुभद्रा कुमारी चौहान रहती, उसके पिछवाड़े.” उनके घर के पहले मौसम कार्यालय था, दो-मंजिला इमारत. दूसरी मंजिल पर एक मुर्गा बना था. हवा चलती तो मुर्गा घूमता. उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम. मुक्तिबोध चाहते थे कि मुर्गा सदैव बाईं दिशा बतलाए पर वह कमबख्त कभी दक्षिण का रुख करता, कभी पश्चिम का, क्या उनका न्यू एज बांटना निरर्थक हो रहा है? स्कूल पहुंचने में देर हो रही है. किसी तरह खाना गटको, सिरहाने के नीचे से तह किया पैजामा निकालो, उस पर खूंटी पर टंगा कुर्ता डालो और संकरी गली से डी.एन. जैन स्कूल निकल लो. रास्ता कच्चा, ऊबड़-खाबड़. ऑब्जर्वेटरी रोड पर रहना मुक्तिबोधजी का चुनाव नहीं, लाचारी थी.
कच्चा मकान, अभावग्रस्तों का मुहल्ला, पानी के लिए चौरस्ते पर नल. पर किराया कम था. स्कूल भी पास था, पैदल पहुंचने में पांच मिनट लगते. वे अपनी साहित्यिक अकर्मण्यता से ऊब अनुभव कर रहे थे, जबलपुर के साहित्यकारों के व्यवहार से उनके भीतर एक ग्रंथि बन गई थी. जबलपुर से वे इतने ऊबे हुए थे कि किसी भी अन्य नगर जाने के लिए छटपटा रहे थे. वे कभी उज्जैन की नौकरी के लिए आवेदन भेजते, कभी बनारस की प्रेस में मैनेजरी के लिए लिखा-पढ़ी करते. अमृत राय हंस के लिए एक सहायक चाहते थे. वे मोहन सिंह सेंगर को बुला चुके थे पर सेंगर नहीं गए. उन्होंने नरोत्तम नागर को भी बुलाने की सोची थी. अमृतजी ने मुक्तिबोध को लिखा, “नागर को भी काम की सख्त जरूरत है मगर तुमको भी तो है पर आने की सबसे बड़ी शर्त यह होगी कि काम के समय हमारे संबंध स्ट्रिक्टली बिजनेस लाइक हों. मैं इस शर्त पर इसलिए जोर दे रहा हूं कि दोस्ती पर आंच न आए. ऐसी स्थिति में जब दोस्त ही एम्प्लॉयर हो इस तरह की साफगोई कुछ कटु भी लग सकती है पर अभी तुम बच्चे ही हो.” ’47 में मुक्तिबोध बच्चे नहीं रह गए थे. घाट-घाट का पानी पी चुके थे. दोस्त जब मालिक बन जाए तब वह दुलत्ती नहीं झड़ेगा, इसका क्या भरोसा? वे बनारस नहीं गए. चलो, नागपुर के तिवारीजी को लिखते हैं. उन्होंने 28.06.1948 को 550, ऑब्जर्वेटरी रोड, राइट टाउन, जबलपुर से मॉरिस कॉलेज, नागपुर के हिंदी प्राध्यापक पं. शुकदेव प्रसाद तिवारी को पत्र लिखा. मुक्तिबोधजी की 1948 की मानसिक, शारीरिक, आर्थिक और साहित्यिक हालत को जानने के लिए यह पत्र बहुत काम का है. मुक्तिबोध ने लिखाः
आदरणीय तिवारीजी,
आशा है आप प्रसन्न होंगे और आपका स्वास्थ्य ठीक होगा. इधर कई दिनों से मैं सोच रहा था कि आपसे मिलूं पर अवसर न आया. आज पत्र लिख रहा हूं. अत्यंत संकोच का अनुभव करते हुए ही यह साहस कर रहा हूं.
मैं जबलपुर में करीबन दो साल से हूं. जिस हाइस्कूल में हूं वह बेहद सडिय़ल है. तनख्वाह बहुत कम होते हुए भी कभी समय से न मिल पाई. ऐसी फिजूलियात में पड़ा हुआ हूं कि कुछ लिख-पढ़ नहीं पाता. इस साल मैं हिंदी से एमए की भी तैयारी कर रहा हूं. यदि आप मुझे नागपुर में किसी अच्छी नौकरी में बुला सकें. शायद रेडियो भी वहां खुल रहा है. स्पेशल एजुकेशन में भी, सुना, जगह खाली है. मैं इस प्रांत में बिल्कुल नया हूं. साधारणतः यहां के लोगों से जान-पहचान भी अल्प है. इसलिए कोई ‘सिप्पा’ नहीं भिड़ा सकता. दूसरे, स्वभाव ऐसा है कि इस प्रकार की चीजें कर नहीं पाता. यदि आपकी सुविधा के अनुकूल हो तो मुझे कहां, कैसे और क्या करना चाहिए—कौन-सी नौकरी के लिए एप्लीकेशन डालनी चाहिए. यह बतलाएं अत्यंत कृतज्ञ रहूंगा.
सस्नेह आपका
गजानन माधव मुक्तिबोध
(तिवारीजी ने आदत के अनुसार मुक्तिबोध को तत्काल पत्र लिखा. अपनी लगभग अपाठ्य लिखावट में. बताया, कहां, कैसे और क्या करना है.)
गजानन नागपुर आ गए. 1949 में नागपुर आने पर काफी अर्से तक वे इलाहाबाद, बनारस और फिर जबलपुर के अपने अनुभवों के कारण बेहद आशंकाग्रस्त रहते थे. उन्हें हवा में तलवारें दिखाई देतीं. रात को सपने में मोटी-मोटी छिपकलियां उनके ऊपर गिरतीं, वे पसीने -पसीने हो जाते. यदि कोई आदमी उनके पीछे आ रहा होता तो उन्हें लगता कि वह सीआइडी का आदमी है और उनकी जासूसी के इरादे से पीछा कर रहा है. कहते, साले, सरकारी कुत्ते. ‘परसिक्यूशन मेनिया’ शायद इसी को कहते हैं. जुम्मा टैंक की सीढिय़ां नागपुर में नए-नए आए मुक्तिबोध का प्रिय स्थान था. वे रात देर तक इन सीढिय़ों पर बैठे रहते, कभी अकेले, कभी मित्रों के साथ. इन सीढिय़ों पर बैठने वालों में जीवन लाल वर्मा ‘विद्रोही’ उनके अनन्य सहचर थे. विद्रोहीजी मुक्तिबोध को महागुरु कहते. नागपुर ने मुक्तिबोध के अस्तित्व पर छाई हुई असुरक्षा, आशंका और अविश्वास की धुंध को छांटने का काम किया, लेकिन इसमें काफी समय लगा. असुरक्षा, आशंका और आतंक के भूत को झाडऩे के लिए किसी ओझ, किसी औलिया की दरकार थी.
‘विद्रोही’ ऐसे ही औलिया थे. जबलपुर से डरा-डरा, सहमा-सहमा जो गजानन नागपुर आया था, उसे भारतीय राजनीति के चाणक्य पं. द्वारका प्रसाद मिश्र के रू-ब-रू बैठकर अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर बहस करने लायक नागपुर के जिन मित्रों ने बनाया, उनमें ‘विद्रोही’ अव्वल थे, ‘विद्रोही’ की देखादेखी मित्र-मंडली के अन्य सदस्यों ने भी मुक्तिबोध को महागुरु कहना शुरू किया. ये वे दिन थे जब, जैसा कि प्रमोद वर्मा ने लिखा है, “दोस्त मुक्तिबोध की अहम जरूरत थे. इन दोस्तों का साहचर्य मुक्तिबोध को भावदीप्त करता, विचार दीप्त और रचनादीप्त भी.” मुक्तिबोध को संतोष था कि उनका साहित्यिक जीवन बिल्कुल परती नहीं है. वे जीवन के प्रश्नों से जूझ रहे हैं. उन्हें कलात्मक रूपों में ढाल रहे हैं. वे कामायनीः एक पुनर्विचार का अंतिम प्रारूप तैयार कर चुके थे, एक साहित्यिक की डायरी के प्रश्नों पर रात भर जुम्मा टैंक की सीढिय़ों पर बैठकर, हाथ और पैरों का एग्जिमा खुजलाते हुए मंथन कर रहे थे. नया खून के लिए यौगंधरायण और अवंतिलाल गुप्त के साथ दुनिया-जहान के विषयों पर लंबे उत्तेजक लेख लिख रहे थे, अपनी लंबी कविताएं रच रहे थे, टिन के बक्से में बंद अपनी अधूरी कविताओं को पूरा करने में जुटे थे.
दूसरा सप्तक छप चुका था. मुक्तिबोध को यह देखकर हैरानी हो रही थी कि नई कविता के नाम से प्रस्तुत छठे दशक की हिंदी कविता तार सप्तक के मूलतः वामपंथी रुझान को काट-छांटकर सौंदर्यपरक बनती जा रही है. प्रसिद्ध कवि और मुक्तिबोध के अनन्य मित्र प्रमोद वर्मा ने गजानन माधव मुक्तिबोध नामक अपने निबंध में लिखा है कि “ऐसा तो छायावाद के जमाने में भी नहीं हुआ था. तो क्या यह सब उनके नव-स्वाधीन देश का अंतरराष्ट्रीय पूंजीवाद की गिरफ्त में रहे चले आने के लिए किया जा रहा है. उन्हें लगा कि लड़ाई मात्र कला मूल्यों की नहीं है. इस परिवर्तित रुझान को राजनैतिक शीत युद्ध की साहित्यिक शाखा नाम देते हुए विरोधियों से जूझने के लिए मुक्तिबोध खुले मैदान में उतर आए. एकदम नए और अपरिचित कवियों के अटपटे किंतु तेजस्वी स्वर उनके आसपास हवा में लहरा रहे थे, जिससे उनकी यह धारणा और पुष्ट हुई कि प्रगतिशील कविता मरी नहीं है, सिर्फ भूमिस्थ है. इन कवियों से हिंदी संसार को परिचित कराने के ख्याल से उन्होंने नर्मदा की सुबह नाम से कविता संकलन प्रकाशित करने की योजना बनाई थी.”
ये वे दिन थे जब मुक्तिबोध हिंदी कविता में राजनैतिक स्वरों की पहचान कर रहे थे. उन कवियों को रेखांकित कर रहे थे जिनकी कविता में राजनैतिक स्वर प्रच्छन्न अथवा प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान थे. अपने स्वयं के काव्य में विद्यमान राजनैतिक स्वरों से वे अनभिज्ञ नहीं थे पर अभी तक इस स्वर को नाम नहीं दिया गया था. नई कविता में जिस प्रकार राजनैतिक स्वर वाली कविता को पीछे धकेला जा रहा था, उससे वे दुखी थे. मुक्तिबोध पर एमआरए वाले तो आक्रमण कर ही रहे थे, हमारे सौष्ठववादी आलोचक भी उन्हें भाव नहीं दे रहे थे. विश्वंभरनाथ उपाध्याय हिंदी के माक्र्सवादी आलोचकों में काफी ऊंचे पायदान पर थे. उनके लेखे मुक्तिबोध गजा है, शायद गधा. डॉ. रामविलास शर्मा मुक्तिबोध की फैंटसी को डिस्पेप्सिया की उपज मानते थे.
मुक्तिबोध की पब्लिक रिलेशनिंग अच्छी नहीं थी. वे अच्छे संगठनकर्ता भी नहीं थे. उनके पास न तो किसी धनपति का संरक्षण था, न ही कोई प्रकाशक. उनकी अपनी कविता पुस्तक भी उनके जीवनकाल में नहीं निकल पाई. वे नर्मदा की सुबह निकालना चाहते थे पर चाहने भर से क्या होता है? नर्मदा की सुबह निकल सकी होती तो हिंदी कविता का इतिहास दूसरा होता. वे अज्ञेय नहीं थे. सप्तकों के माध्यम से अज्ञेय ने स्वतंत्रता परवर्ती हिंदी काव्य को हाइजैक कर लिया. उसे सौंदर्य और सौष्ठव की ओर ‘टिल्ट’ कर दिया पर मुक्तिबोध अपने मोर्चे पर सामाजिक प्रगतिशील कविता के लिए निरंतर संघर्षरत रहे.
15.09.1960 को लोलार्क कुंड, भदैनी, वाराणसी से डॉ. नामवर सिंह ने आदरणीय भाई मुक्तिबोधजी को लिखा, “मुझे बार-बार लगता है कि अज्ञेय के नेतृत्व ने तार सप्तक के विराट काव्यांदोलन को आगे गलत दिशा में मोड़ दिया, फलस्वरूप प्रारंभिक प्रयोगों के जीवंत तत्व क्रमशः उपेक्षित होकर बैकग्राउंड में चले गए. तत्कालीन प्रगतिशील आंदोलन की कमनिगाही कहिए कि उससे भी उस जीवंत प्रवृत्ति को प्रोत्साहन या मार्गदर्शन नहीं मिल सका. जो हो, अब वह समय आ गया है कि पूरी बात सामने रखी जाए, क्योंकि नई पीढ़ी ने अज्ञेय वाली प्रवृत्ति को दरकिनार करके नए स्रोतों की खोज शुरू कर दी है. मैं तो खैर लिखूंगा ही लेकिन क्या आपके लिए यह संभव नहीं है. मेरी राय यह है कि मुझे उस संक्रांति काल का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं है. आप उस इतिहास के निर्माताओं में हैं.” यह इतिहास, कहना न होगा, नर्मदा की सुबह के माध्यम से लिखा जा रहा था जिसे अज्ञेय ने हाइजैक कर लिया. तार सप्तक के मूलतः वामपंथी रुझान को नई कविता के नाम से प्रस्तुत कर छठे दशक की कविता को सौंदर्यपरक बनाया जा रहा था, नर्मदा की सुबह इस सौंदर्यपरकता वाले रुझान को रोकने का प्रयास था. बीच में मुक्तिबोधजी के सुपुत्र रमेश मुक्तिबोध ने मुझे सूचना दी थी कि वे नर्मदा की सुबह का प्रकाशन करना चाहते हैं. पता नहीं उस विचार का क्या हुआ?
(कांति कुमार जैन, महागुरु मुक्तिबोधः जुम्मा टैंक की सीढिय़ों, पर के लेखक हैं)