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नंदा देवी यात्रा: विदाई से बंधी आस्था की डोर

उत्तराखंड में 12 वर्ष में एक बार होने वाली ऐतिहासिक नंदा देवी राजजात यात्रा धार्मिक आयोजन से ज्यादा पारिवारिक रिश्तों का उत्सव.

अपडेटेड 16 सितंबर , 2014
पार्वती का ही रूप माना जाता है नंदा देवी को. लोक परंपराओं में नंदा को ऋषि हिमवंत और मैनावती की बेटी माना गया है, जिनका विवाह शिव के साथ हुआ था. नंदादेवी राजजात चमोली जिले की कर्णप्रयाग तहसील में स्थित नौटी गांव के नंदा देवी मंदिर से शुरू होती है. वहां से 280 किलोमीटर की पैदल यात्रा करने के बाद हिमालय की ऊंची शृंखलाओं के बीच स्थित होमकुंड में पूजा के बाद वापस नौटी आकर संपन्न होती है.

मुख्य यात्रा बीस पड़ावों पर रुकती है, जिनमें से अंतिम पांच पड़ाव उच्च हिमालयी क्षेत्र में निर्जन इलाकों में स्थित हैं. परंपराओं के अनुसार यह माना जाता है कि हेमकुंड में नंदा देवी की ससुराल है. वे 12 साल में एक बार अपने मायके आती हैं और फिर धूमधाम के साथ उन्हें वापस ससुराल भेजा जाता है. चार सींगों वाला भेड़ (मेढ़ा) जिसे चौसिंग’’-खाडू कहा जाता है, इस पूरी यात्रा की अगुआई करता है.

अगस्त के आखिरी सप्ताह में जब उत्तराखंड की ऐतिहासिक नंदा देवी राजजात यात्रा वाण गांव पहुंची तो सभी की आंखें नम थीं. नंदा देवी कोई दूर की देवी नहीं थीं, हर किसी का कुछ-न-कुछ रिश्ता था उनके साथ. कोई बुजुर्ग अपनी बेटी को विदा करते हुए रो रहा था तो कोई महिला अपनी सहेली को.

किसी की बहन विदा हो रही थी तो किसी की बुआ. पेड़-पौधे और नदियां भी ऐसे ही उदास थे, जैसे बेटी ससुराल जा रही हो. भारतीय समाज में धार्मिक आयोजनों के ऐसे उदाहरण विरले ही हैं, जहां एक ओर श्रद्घा और विश्वास से भरी धर्मपरायणता हो तो दूसरी ओर रिश्तों की भावनात्मक डोर से बंधे स्त्री-पुरुष, जो देवी-देवताओं से पारिवारिक रिश्ता जोड़ बैठे हों.

उत्तराखंड के चमोली जिले की कर्णप्रयाग तहसील में स्थित नौटी गांव के नंदा देवी मंदिर से 18 अगस्त को इस ऐतिहासिक यात्रा की शुरुआत हुई. इस यात्रा को सांस्कृतिक धरोहर मानने वाले उत्तराखंड के राज्यपाल अजीज कुरैशी उस दिन नौटी गांव में ही मौजूद थे. वे कहते हैं, ‘‘यह केवल धार्मिक यात्रा नहीं, यह राज्य की सांस्कृतिक विरासत है. इसे सजाना-संवारना हम सभी का उत्तरदायित्व है.’’ 

चौदह साल बाद हो रही इस यात्रा के बहाने उत्तराखंड में गढ़वाल से लेकर कुमाऊं तक पूरा इलाका नंदामय हो गया. पहाड़ी बांस से बनी रंग-बिरंगी छतौलियां और देवी-देवताओं के निशान लिए यह यात्रा जब कैलाश की ओर बढ़ रही थी तो नंदा के जयकारे से पहाड़ गूंज रहे थे. नंदा की ससुराल समझे जाने वाले नंदाघुंघुटी पर्वत की तलहटी पर स्थित होमकुंड तक अलग-अलग जगहों पर नंदा के मंदिरों से निकली छोटी यात्राएं मुख्य यात्रा का हिस्सा बन जाती हैं.

इस यात्रा में शामिल होने वालों में महिलाओं की संख्या सबसे ज्यादा थी. सुदूर गांवों से सज-धजकर आई महिलाएं यात्रा की अगुआई कर रही थीं और नंदा को विदा करते हुए अपने सामर्थ्य के अनुसार विदाई में चीजें भी भेंट कर रही थीं. वे खाने-पीने का सामान, शृंगार की चीजें और आभूषणों के साथ विदाई के गीत गाते और रोते-रोते बेटी की विदाई के इस उत्सव में शरीक हुईं.

लोक साहित्यकार नंदकिशोर हटवाल इसे धार्मिक यात्रा से ज्यादा रिश्तों से जुड़ी यात्रा का दर्जा देते हुए कहते हैं, ‘‘गरीब से लेकर अमीर हर कोई इस यात्रा के बहाने अपनी बेटी को विदा कर रहा होता है. पहाड़ की कठिन जिंदगी में महिलाओं का संघर्ष नंदा के बहाने हर महिला महसूस करती है.’’
रणकधार में लाता की नंदा की पूजा करते पुजारी
कांसुवा गांव के कुंवर परिवार के मुखिया की ओर से इस यात्रा की घोषणा की जाती है. नौटी से शुरू हुई यात्रा पहले ईड़ा बधाणी गांव में रुकती है. फिर कांसुवा से होते हुए पिंडर के इलाके में जाती है. नौटी से लेकर नारायणबगड़ के बीच के छह पड़ाव नंदा के मायके के पड़ाव कहे जाते हैं.

केवर से आगे फल्दियागांव तक का इलाका नंदा का ननिहाल है और इससे आगे शिवभूमि कैलाश को नंदा की ससुराल का इलाका कहा जाता है. पूरी यात्रा की अगुआई कर रहा चार सींगों वाला एक भेड़ होमकुंड तक जाता है, जहां उसे अकेला छोड़ दिया जाता है. ऐसी मान्यता है कि यह भेड़ ही आगे की यात्रा में नंदा का साथी होता है.

दुनिया भर से पत्रकार और डॉक्युमेंट्री फिल्म निर्माता इस यात्रा में शामिल होते हैं. इस बार होमकुंड तक यात्रा में शामिल हुई पोलैंड से आई पत्रकार और डॉक्युमेंट्री फिल्म निर्माता मारफा कहती हैं, ‘‘मेरे लिए यह बहुत अलग किस्म का सांस्कृतिक अनुभव था. यूं तो यह धार्मिक आयोजन ही था, लेकिन धार्मिक रूढिय़ों या कट्टरता की छाप कहीं नहीं थी. ऐसा लगा कि ढेर सारे सदस्यों वाला एक बड़ा-सा परिवार है और परिवार में शादी के बाद विदाई हो रही है.’’

इस यात्रा के आखिरी पड़ाव तक एक लाख से अधिक यात्री इसमें शामिल हुए. यात्रा के वाण गांव में 29 अगस्त तक 250 देव डोलियां और 20,000 से ज्यादा लोग पहुंचे. 29 अगस्त से तेज बारिश शुरू होने के बावजूद लोगों ने खुले आसमान के नीचे रात गुजारी. पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल ‘‘निशंक’’ और राज्यसभा सांसद तरुण विजय भी यात्रा में शामिल हुए. 

हालांकि सरकार ने उम्दा व्यवस्था का दावा किया था, लेकिन बारिश होने और यात्रियों की संख्या बढऩे के साथ इन दावों की पोल खुलती नजर आई. राज्य सरकार के मुताबिक सिर्फ 2,000 लोगों को उच्च हिमालय की दुर्गम यात्रा पर जाने की अनुमति थी, लेकिन वास्तव में 12,000 से ज्यादा लोग होमकुंड तक गए. इस संख्या को नियंत्रित करने के लिए ही बायोमीट्रिक्स पंजीकरण की व्यवस्था की गई थी, लेकिन आखिरी समय में वह भी नाकाम रही.

इस बार यात्रा में भीड़ बढऩे से उच्च हिमालय के बुग्याली इलाकों में दुर्लभ वनस्पतियों और वन्यजीवों पर सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव पडऩे की संभावना जताई जा रही है. बारहवें पड़ाव के बाद यात्रा वन क्षेत्र में स्थित गैरोली पातल में पहुंची और तेरहवें पड़ाव में देश के सबसे सुंदर बुग्यालों में एक कहे जाने वाले वेदनी बुग्याल में.

यहां एक साथ दस से बीस हजार लोगों के एकत्रित होने से बुग्याल की वनस्पतियों को काफी नुकसान हुआ है, जो इस यात्रा का स्याह चेहरा है. बिना किसी समुचित सरकारी योजना के यह ऐतिहासिक उत्सव पर्यावरण की क्षति का कारण भी बन सकता है. इस बार की नंदा देवी यात्रा से तो यही हकीकत सामने आई है.
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