पचासी साल के अभिनेता सईद जाफरी लंदन से फोन पर बात करते समय रहस्यपूर्ण अंदाज में कहते हैं, ‘‘मैं आपको एक राज बताता हूं’’ जब भी डिकी किसी का नाम भूल जाते, वे उसे ‘‘डार्लिंग’’ कहकर बुलाते थे. जाफरी ने रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गांधी में वल्लभ भाई पटेल की भूमिका निभाई थी. 25 अगस्त को अपने 91वें जन्मदिन के चार दिन पहले एटनबरो चल बसे. उनका तकिया कलाम ‘‘सब तुम पर निर्भर करता है डार्लिंग’’ लोगों के बीच इस कदर छाया था कि यही उनके संस्मरण का नाम भी बन गया.
गांधी (1982) फिल्म में जाफरी ने पहली बार एटनबरो को एक निर्देशक के रूप में देखा. इससे पहले वे उन्हें एक ऐक्टर के रूप में पहचानते थे. भारत में उन दिनों आपातकाल लागू था. जाफरी और एटनबरो सत्यजीत रे की फिल्म शतरंज के खिलाड़ी (1977) के सेट पर थे. जाफरी शतरंज के एक जुनूनी खिलाड़ी मीर रोशन अली के किरदार में थे और एटनबरो जनरल जेम्स आउट्रम के. जाफरी याद करते हैं कि किस तरह खुद ऐक्टर होने के बावजूद एटनबरो ने अपनी कास्ट को किस कदर आजादी दे रखी थी, ‘‘वे एक शानदार, खुशमिजाज और हंसमुख इनसान थे. कन्या राशि का होने की वजह से स्वाभाविक तौर पर उन्हें किसी काम में चूक पसंद नहीं थी. उनका मानना था कि डायरेक्शन का मतलब डायरेक्टर की इच्छा थोपना नहीं, बल्कि ऐक्टर को अपनी भूमिका में अपने अंदाज से ढलने की छूट देना है.’’
‘‘सब तुम पर निर्भर करता है डार्लिंग.’’ इस अल्फाज में झलकती बेफिक्री के बावजूद एटनबरो यह अच्छी तरह जानते थे कि उन्हें ऐक्टर से क्या चाहिए और वही उनको मिलता भी था. गांधी की भूमिका निभाने वाले बेन किंग्सले को उन्होंने पुणे के आगा खां पैलेस की सीढिय़ों पर 50 बार चलाया. जब तक कि उनके चलने के अंदाज में एक काठियावाड़ी गुजराती की चाल नहीं दिखाई दी. उन्हें जाफरी को उनकी भूमिका के लिए खिला-खिलाकर मोटा करने और उनके बालों को हर सुबह मुंडवाकर उनका चमकदार गंजा सिर देखने में बड़ा आनंद आता था.
एटनबरो के इसी तपस्या जैसे इरादे ने ही यह ऐतिहासिक फिल्म बनाने के लिए उन्हें 18 साल के लंबे इंतजार का संयम भी दिया. फिल्म में 22 मिलियन डॉलर (17.6 करोड़ रु.) की लागत आई थी और फिल्म में गांधी के अंतिम संस्कार वाले दृश्य में 3,00,000 एक्स्ट्रा कलाकार लगे. ये दृश्य सबसे मशहूर भी हुआ. 1980 में गांधी के सेट पर उन्होंने इंडिया टुडे को बताया था, ‘‘अठारह साल पहले मैं एक समृद्ध अभिनेता और आंशिक तौर पर प्रोड्यूसर था. जिंदगी ऐशोआराम में गुजर रही थी. फिर एक दिन मोतीलाल कोठारी ने लुई फिशर की लिखी गांधी की जीवनी मुझे दी और मैं सच कहता हूं कि इस किताब ने मेरी जिंदगी बदल दी ....उसके बाद से लेकर अब तक मैंने जो भी किया है-फिल्मों का निर्देशन करने से लेकर अभिनय छोडऩे तक, करीब 40 बार भारत का दौरा करने से लेकर इस एक फिल्म को पूरा करने तक. सबकुछ.’’
दोस्तों के लिए यह मुश्किल समय था, जब उन्होंने उस एटनबरो को अंतिम दिनों में व्हीलचेयर में कैद देखा, जो मस्ती और जिंदगी से भरपूर हुआ करता था. जाफरी कहते हैं, ‘‘मैं खुश हूं कि वे चले गए. उनका कष्ट दूर हुआ.’’
एटनबरो ऐसे इनसान थे, जो भारत से वापस जाने के बाद भी क्रिसमस कार्ड भेजना कभी नहीं भूले. कॉस्ट्यूम डिजाइनर भानु अथैया से एटनबरो की मुलाकात कराने वाली सिमी ग्रेवाल कहती हैं कि वह अद्भुत फिल्म निर्माता ट्रेन की छत पर भी नाचता हुआ दिख सकता था, गंदी कहानियां सुना सकता था या अपनी हाजिरजवाबी से सबको लाजवाब कर सकता था. वे एक एक्स्ट्रा को भी उतनी ही बारीकी से भूमिका के बारे में बताते, मानो वह कोई हॉलीवुड स्टार हो. ग्रेवाल कहती हैं, ‘‘मैंने उनके बर्ताव में कभी बदलाव नहीं देखा, चाहे सामने कोई राष्ट्रीय नेता हो या प्रोडक्शन का साधारण कर्मचारी. वे सबके साथ हमेशा सभ्य और शिष्ट रहते.’’
गांधी में जवाहरलाल नेहरू की भूमिका निभाने वाले रोशन सेठ कहते हैं, ‘‘वे ब्रिटिश फिल्म निर्माताओं की वह नस्ल थी, जो अब नहीं रही. वे हॉलीवुड से प्रभावित थे. वे अमेरिकियों की तरह बात करते और उन्हीं की तरह फिल्म बनाते. एटनबरो एक कमांडर-इन-चीफ की तरह थे, जिन्होंने प्रतिभाशाली लोगों को साथ मिलाया था. सेट पर प्रतिभा की कमी नहीं थी.’’
गांधी ने सर्वश्रेष्ठ मूवी, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक और सर्वश्रेष्ठ अभिनेता समेत आठ ऑस्कर जीते थे. बेशक विवादों के गुबार भी उठे. एटनबरो को 1983 में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था. इस फैसले पर मोरारजी देसाई, जो उस समय गांधी नेशनल मेमोरियल सोसायटी के अध्यक्ष थे, सहित कई लोगों ने आपत्ति जताई थी कि राष्ट्रपिता के जीवन पर फिल्म बनाने में एक भारतीय का काम किसी अंग्रेज से बेहतर होगा.
कस्तूरबा का किरदार निभाने वाली रोहिणी हट्टंगड़ी और सेठ का कहना है कि एटनबरो ने कहानी को निष्पक्ष भाव से परखा और उसमें अपनी कल्पना पिरोकर पेश किया. हट्टंगड़ी कहती हैं, ‘‘स्क्रिप्ट गांधी के महात्मा बनने पर केंद्रित थी. इसमें उन लोगों के लिए कोई जगह नहीं थी जो भारत निर्माण में मायने रखते थे.’’
सेठ कहते हैं कि फिल्म गांधी की खासियत यह है कि वह अपने दर्शकों से बात करती है और इतिहास से रू-ब-रू होती है. वे कहते हैं, ‘‘एक विदेशी ने ऐसी फिल्म बनाई है, जिसे भारतीय देख सकते हैं और गर्व कर सकते हैं. ऐसा न तो पहले हुआ, न उसके बाद. 30 साल से इस फिल्म का जादू बरकरार है और अगले 30 साल तक भी कोई उसे फीका नहीं कर सकता और कौन जाने अगले 300 सालों तक भी?’’
-साथ में चार्मी हरिकृशन
गांधी (1982) फिल्म में जाफरी ने पहली बार एटनबरो को एक निर्देशक के रूप में देखा. इससे पहले वे उन्हें एक ऐक्टर के रूप में पहचानते थे. भारत में उन दिनों आपातकाल लागू था. जाफरी और एटनबरो सत्यजीत रे की फिल्म शतरंज के खिलाड़ी (1977) के सेट पर थे. जाफरी शतरंज के एक जुनूनी खिलाड़ी मीर रोशन अली के किरदार में थे और एटनबरो जनरल जेम्स आउट्रम के. जाफरी याद करते हैं कि किस तरह खुद ऐक्टर होने के बावजूद एटनबरो ने अपनी कास्ट को किस कदर आजादी दे रखी थी, ‘‘वे एक शानदार, खुशमिजाज और हंसमुख इनसान थे. कन्या राशि का होने की वजह से स्वाभाविक तौर पर उन्हें किसी काम में चूक पसंद नहीं थी. उनका मानना था कि डायरेक्शन का मतलब डायरेक्टर की इच्छा थोपना नहीं, बल्कि ऐक्टर को अपनी भूमिका में अपने अंदाज से ढलने की छूट देना है.’’
‘‘सब तुम पर निर्भर करता है डार्लिंग.’’ इस अल्फाज में झलकती बेफिक्री के बावजूद एटनबरो यह अच्छी तरह जानते थे कि उन्हें ऐक्टर से क्या चाहिए और वही उनको मिलता भी था. गांधी की भूमिका निभाने वाले बेन किंग्सले को उन्होंने पुणे के आगा खां पैलेस की सीढिय़ों पर 50 बार चलाया. जब तक कि उनके चलने के अंदाज में एक काठियावाड़ी गुजराती की चाल नहीं दिखाई दी. उन्हें जाफरी को उनकी भूमिका के लिए खिला-खिलाकर मोटा करने और उनके बालों को हर सुबह मुंडवाकर उनका चमकदार गंजा सिर देखने में बड़ा आनंद आता था.
एटनबरो के इसी तपस्या जैसे इरादे ने ही यह ऐतिहासिक फिल्म बनाने के लिए उन्हें 18 साल के लंबे इंतजार का संयम भी दिया. फिल्म में 22 मिलियन डॉलर (17.6 करोड़ रु.) की लागत आई थी और फिल्म में गांधी के अंतिम संस्कार वाले दृश्य में 3,00,000 एक्स्ट्रा कलाकार लगे. ये दृश्य सबसे मशहूर भी हुआ. 1980 में गांधी के सेट पर उन्होंने इंडिया टुडे को बताया था, ‘‘अठारह साल पहले मैं एक समृद्ध अभिनेता और आंशिक तौर पर प्रोड्यूसर था. जिंदगी ऐशोआराम में गुजर रही थी. फिर एक दिन मोतीलाल कोठारी ने लुई फिशर की लिखी गांधी की जीवनी मुझे दी और मैं सच कहता हूं कि इस किताब ने मेरी जिंदगी बदल दी ....उसके बाद से लेकर अब तक मैंने जो भी किया है-फिल्मों का निर्देशन करने से लेकर अभिनय छोडऩे तक, करीब 40 बार भारत का दौरा करने से लेकर इस एक फिल्म को पूरा करने तक. सबकुछ.’’
दोस्तों के लिए यह मुश्किल समय था, जब उन्होंने उस एटनबरो को अंतिम दिनों में व्हीलचेयर में कैद देखा, जो मस्ती और जिंदगी से भरपूर हुआ करता था. जाफरी कहते हैं, ‘‘मैं खुश हूं कि वे चले गए. उनका कष्ट दूर हुआ.’’
एटनबरो ऐसे इनसान थे, जो भारत से वापस जाने के बाद भी क्रिसमस कार्ड भेजना कभी नहीं भूले. कॉस्ट्यूम डिजाइनर भानु अथैया से एटनबरो की मुलाकात कराने वाली सिमी ग्रेवाल कहती हैं कि वह अद्भुत फिल्म निर्माता ट्रेन की छत पर भी नाचता हुआ दिख सकता था, गंदी कहानियां सुना सकता था या अपनी हाजिरजवाबी से सबको लाजवाब कर सकता था. वे एक एक्स्ट्रा को भी उतनी ही बारीकी से भूमिका के बारे में बताते, मानो वह कोई हॉलीवुड स्टार हो. ग्रेवाल कहती हैं, ‘‘मैंने उनके बर्ताव में कभी बदलाव नहीं देखा, चाहे सामने कोई राष्ट्रीय नेता हो या प्रोडक्शन का साधारण कर्मचारी. वे सबके साथ हमेशा सभ्य और शिष्ट रहते.’’
गांधी में जवाहरलाल नेहरू की भूमिका निभाने वाले रोशन सेठ कहते हैं, ‘‘वे ब्रिटिश फिल्म निर्माताओं की वह नस्ल थी, जो अब नहीं रही. वे हॉलीवुड से प्रभावित थे. वे अमेरिकियों की तरह बात करते और उन्हीं की तरह फिल्म बनाते. एटनबरो एक कमांडर-इन-चीफ की तरह थे, जिन्होंने प्रतिभाशाली लोगों को साथ मिलाया था. सेट पर प्रतिभा की कमी नहीं थी.’’
गांधी ने सर्वश्रेष्ठ मूवी, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक और सर्वश्रेष्ठ अभिनेता समेत आठ ऑस्कर जीते थे. बेशक विवादों के गुबार भी उठे. एटनबरो को 1983 में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था. इस फैसले पर मोरारजी देसाई, जो उस समय गांधी नेशनल मेमोरियल सोसायटी के अध्यक्ष थे, सहित कई लोगों ने आपत्ति जताई थी कि राष्ट्रपिता के जीवन पर फिल्म बनाने में एक भारतीय का काम किसी अंग्रेज से बेहतर होगा.
कस्तूरबा का किरदार निभाने वाली रोहिणी हट्टंगड़ी और सेठ का कहना है कि एटनबरो ने कहानी को निष्पक्ष भाव से परखा और उसमें अपनी कल्पना पिरोकर पेश किया. हट्टंगड़ी कहती हैं, ‘‘स्क्रिप्ट गांधी के महात्मा बनने पर केंद्रित थी. इसमें उन लोगों के लिए कोई जगह नहीं थी जो भारत निर्माण में मायने रखते थे.’’
सेठ कहते हैं कि फिल्म गांधी की खासियत यह है कि वह अपने दर्शकों से बात करती है और इतिहास से रू-ब-रू होती है. वे कहते हैं, ‘‘एक विदेशी ने ऐसी फिल्म बनाई है, जिसे भारतीय देख सकते हैं और गर्व कर सकते हैं. ऐसा न तो पहले हुआ, न उसके बाद. 30 साल से इस फिल्म का जादू बरकरार है और अगले 30 साल तक भी कोई उसे फीका नहीं कर सकता और कौन जाने अगले 300 सालों तक भी?’’
-साथ में चार्मी हरिकृशन