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दलाल की बीवी: मौजूदा यथार्थ का रोचक रोजनामचा

हिंदी कथा जगत में अभी तक अछूते विषय को कहानी के जरिए कहने की नई पहल है रवि बुले का उपन्यास दलाल की बीबी.

दलाल की बीवी
दलाल की बीवी
अपडेटेड 27 अगस्त , 2014
यह उपन्यास अपने उप-शीर्षक (मंदी के दिनों में लव सेक्स और धोखे की कहानी) के साथ दिबाकर बनर्जी की चर्चित फिल्म एलएसडी का हवाला देने की जरूरत महसूस करता है, पर किसी पारंपरिक ऐयार-कथा जैसी रोचक और दम थाम देने वाली किस्सागोई के अलावा यह उपन्यास हमारे समय की गंभीर सूचनाओं को हम तक पहुंचाने वाला बहु-संरचनात्मक अर्थपूर्ण वृत्तांत है. एक के ऊपर एक, कई-कई परतों को सतर्कता लेकिन प्रवाह से बिठाकर, ऐसी इमारत की रचना, जो मौजूदा यथार्थ का कथात्मक टाइम-लाइन बनती है.

शीर्षक से बहुतों को यह भ्रम हो सकता है कि यह हिंदी के प्रचलित उपन्यासों की तरह किसी पात्र के जीवन को केंद्र में रखकर, सरल कथा-रेखा में लिखा गया उपन्यास होगा. लेकिन यह उपन्यास हिंदी के उपन्यासों की मान्य अवधारणाओं से अपने रचनात्मक साहस के साथ, जोखिम भरी दूरी, तटस्थता और निस्संगता बरतते हुए अपने बाहरी पाठ में किसी ‘क्राइम बीट’ की दैनिक रिपोर्ट का विन्यास रचता है. यह प्रमुख और कुछ ‘केंद्रीय’ पात्रों के जीवन तक सिमटकर, मध्यवर्ग का महाकाव्य बनने के लालच को निरस्त करता है. यह हम सब तक हर रोज पहुंचती सूचनाओं का दिलकश पर मार्मिक कैलाइडोस्कोप है, जिसके कथा-सूत्र अपनी अचानक-अप्रत्याशित उपस्थिति से हर बार ऐसा किस्सा बुनने लगते हैं, जो अंत में आज की, यानी 1990 के बाद की बदलती हुई मेगा-मेट्रो सेंट्रिक जिंदगियों का गंभीर आख्यान बन जाता है. इसे पढ़ते हुए कभी श्रीलाल शुक्ल का आदमी का जहर, कभी जगदंबा प्रसाद दीक्षित का मुरदा घर, कभी गोपाल राम गहमरी और देवकीनंदन खत्री के ऐयार किस्सों का स्मरण होता है.

कभी तो यह भी लगता है कि जैसे इब्ने सफी हिंदी साहित्य के उपन्यासकार बन गए हों. जो पाठक और आलोचक दलाल की बीवी को, इन बिखरी-उलझी कथाओं के स्थापत्य के बाहरी ढांचे की परछत्ती या सतह पर से, अपनी पुरानी पाठ-प्रणाली की आंख से पढ़ेंगे, उन्हें शुरू में बहुत दुविधा होगी. यह ‘पल्प’ है या ‘साहित्य’? रवि बुले का ताजा उपन्यास पल्प होता साहित्य है? या ‘साहित्य’ होता पल्प? यह उलझन शुरू में मुझे भी हुई, लेकिन यह उपन्यास ‘अन-पुट्डाउनेबल’ है. यानी इसे एक बार पढऩा शुरू किया, तो फिर छोड़ नहीं सकते. यह उपन्यास किसी बॉलीवुड फिल्म की आउट-लाइन स्क्रिप्ट भी हो सकती है, लेकिन मुंबई की गटर की जिंदगी दिखाने वाली सत्या जैसी अनगिनत फिल्में नहीं, हाशिए के बाहर जीते मनुष्यों के जीवन की गंभीर सूचनाओं से भरी किसी मानीखेज थ्रिलर जैसी यथार्थवादी समानांतर फिल्म.

एक के बाद दूसरे और दूसरे के बाद तीसरे और फिर इस तरह कई कई किस्सों-सूचनाओं-खबरों को एक पर एक, कौशल के साथ, परत-दर-परत बिठाते, किसी उलझे हुए धागों की गठरी को खोलते-सुलझते हुए यह उपन्यास कई कथावृत्तों को अंत में इस दौर के प्रकट महानगरीय यथार्थ में विसर्जित कर देता है. अगर ‘आधुनिकता’ की क्लासिक-अकादमिक व्याख्या को याद करें, तो यह ऐसा यथार्थ है, जिसमें हर व्यक्ति ठगा गया है, और हर व्यक्ति दूसरे को ठग रहा है. यह दलालों, अपराधियों, हत्यारों और फरेबियों के बीच जन्म लेते और बुझते-मिटते प्रेम और तमाम मानवीय संवेदनाओं के त्रासद अंत की अवसन्न और बेचैन करने वाली किस्सागोई है.

माना जाता है कि सूचना-क्रांति के बाद, बाहर की खबरें और सूचनाएं पहुंचाने वाले असंख्य तकनीकी माध्यमों के सार्वभौमिक मकडज़ाल या ‘ग्लोबल-नेक्सस’ ने हम सबके जीवन को कहानियों से घेर दिया है. यह समय हजारों रोजाना कहानियों की घेरेबंदी का अनोखा एब्सर्ड समय है. हर रोज सुबह के अखबार, टीवी चैनल्स, इंटरनेट और सोशल नेटवर्किंग साइट्स जैसे किसी बादल के फट जाने से अकूत कहानियों की मूसलाधार बरसात कर रहे हैं. यह समय सूचना और घटनाओं, यानी न्यूज, इन्फॉर्मेशन, फोन-काल्स, ट्वीट्स और एसएमएस  के ‘स्टोरी’ बन जाने का कोलाहल भरा एब्सर्ड दौर है. और ऐसे समय में, एक दूसरे से विच्छिन्न या अलग-थलग लगती सूचनाओं को एकसूत्र में बांध कर कोई किस्सा कहना या उपन्यास लिखना सरल नहीं रह गया है. रवि ने इन बिखरे-विच्छिन्न सूत्रों को गांठ लगा-लगाकर एक उपन्यास में बदलने के लिए जिस ‘युक्त’ का सहारा लिया है, वह रोचक है. इन कथाओं को एक कथा की एक-सूत्रता में बदलने वाला ‘सूत्रधार’ बिल्लियों का एक परिवार है.

एक मां और उसके चार छौने. उनकी आपसी बातचीत और फुसफुसाहट इस उपन्यास को साकार में बदलती समानांतर उपकथा है. और महत्वपूर्ण यह है कि यह संभवतः किसी रूपक या एलिगरी की भूमिका उसी तरह निभाता है, जैसा हम पुरानी लोककथाओं या नाट्य में देखते थे. दलाल की बीवी की बिल्लियां उसी तरह परस्पर संवाद में ‘मंत्रणाएं’ करती प्रकट होती हैं, जैसा पुराने कथाकाव्य में कागभुसुंडी, नारद, शिव-पार्वती आदि. यह रवि का रोचक ‘डिवाइस है.

कोई भी रचना, कला, संगीत या सिनेमा अपने अंत के बाद अपना अर्थ व्यक्त करता है, तो यह रवि का महानगरों के सीमांत में जीने-मरने वाली जिंदगियों की अदम्य जिजीविषा का उपन्यास है. यह मध्यवर्ग का महाकाव्य नहीं, समकालीन हिंदी कथा में वंचित जीवन की मार्मिक श्धारावी्य है. यह कहानी के लिए नई जगहों, विषयों और संभावनाओं के दरवाजे खोलता है.
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