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चूड़ी बाजार में लड़कीः नए मुहावरे में आधी दुनिया की बात

रटे-रटाए ढर्रे से अलग यह किताब स्त्री विमर्श को नई ऊंचाइयों पर ले जाने की कोशिश करती है कृष्ण कुमार की किताब चूड़ी बाजार में लड़की.

अपडेटेड 9 जून , 2014

चूड़ी बाजार में लड़की
लेखकः कृष्ण कुमार
प्रकाशकः  राजकमल प्रकाशन, 1-बी,  नेताजी सुभाष मार्ग,दरिया गंज, नई दिल्ली-02
कीमतः 300 रु.

इस किताब का बीज लेखक की फिरोजाबाद यात्रा के  दौरान पड़ा जो उन्होंने बहैसियत शिक्षक अपनी कुछ छात्राओं के साथ की थी. इस शैक्षिक-भ्रमण का उद्देश्य फिरोजाबाद के चूड़ी उद्योग में कार्यरत बच्चों के जीवन को देखना था क्योंकि यह एक सोद्देश्य यात्रा थी, सो इसकी उपलब्धियों को जानना भी जरूरी था. इस दल ने फिरोजाबाद से वापसी के समय यह काम आगरा में ताज महल के चबूतरे पर बैठक किया. इस यात्रा और तदुपरांत इस ताज की कथा का विस्तृत विवरण इस किताब में है, जिससे पता चलता है वे क्या चीजें थीं जिन्होंने लेखक को इस बात की प्रेरणा दी कि “मैं लड़कियों के मानस का अन्वेषण करूं.”

ताज महल की गोद में बैठकर अपनी छात्राओं से अपने अनुभवों का विश्लेषण सुनते हुए उन्हें जो महसूस हुआ, वही इस किताब का आरंभ बना. “ताज की कक्षा में की जा रही टिप्पणियां सुनते-सुनते आखिर मेरी संज्ञान-क्षमता उस किनारे पर पहुंची जहां मुझे यकायक लगा कि फिरोजाबाद यात्रा से उपजे सवालों में इन लड़कियों के लिए एक ऐसी धार या चुभन है जिसे मैं देख भर सकता हूं, स्वयं महसूस नहीं कर सकता.” और जो चीज उनके एहसास के दायरे से इतनी बाहर थी, वह थी—एक लड़की का उसकी कलाइयों में पड़ी चूडिय़ों से संबंध. उन खूबसूरत चूडिय़ों के निर्माण में, जिन्हें हर लड़की बचपन से ही पहनना चाहने लगती है, इतने मासूम बच्चों का इतना भयावह इस्तेमाल होता है, यह तथ्य उन लड़कियों को चूडिय़ों के मोह से दूर ले जा रहा था. यही वह बिंदु था, जहां से लेखक ने उस मानस को समझने की शुरुआत की जिसकी दैहिक उपस्थिति को हम स्त्री के रूप में चीन्हते हैं. चूड़ी उद्योग में छह-सात साल की उम्र के बच्चों के सफेद बाल देखकर कुछ लड़कियों ने आजीवन चूड़ी के बहिष्कार का इरादा जताया, और “इस विकल्प को भावी जीवन में अपना सकने की शक्ति के विचार से जुड़ा निश्चय इन लड़कियों के मन में उपजा ही इस कारण था कि वे लड़कियां थीं.” इन लड़कियों के साथ चूड़ी का, और उन सभी स्त्रियोचित उपादानों का यह रिश्ता कैसे बनता है, जिनके जरिए हम एक व्यक्ति को स्त्री के रूप में भिन्न ढंग से पहचानते हैं, और इस रिश्ते को बनाने में भारतीय समाज, संस्कृति और शिक्षा तंत्र की क्या भूमिका होती है, यही जानना और बताना इस किताब का उद्देश्य है. कृष्ण कुमार अपने सरोकारों और उनकी भाषागत अभिव्यक्ति में कितने सुलझे हुए रहे हैं, और अपनी चिंता का विश्लेषण वे कितने सूक्ष्म और महीन औजारों से करते हैं, यह किताब पुनरू उसका नमूना है. इस किताब में प्रचलित स्त्री-विमर्श का कोई भी मान्य मुहावरा प्रयोग नहीं कि या गया है, तो भी इसको पढऩे के दौरान ही, हम बहैसियत पुरुष अपने आसपास फैले स्त्री-प्रदेश को एक नई दृष्टि से देखने के लिए लगभग बाध्य हो जाते हैं. हमारे मन में यह कल्पना घर बनाने लगती है कि हम, हमारा समाज, हमारी संस्कृति, शिक्षा और पुरुष की सत्ता अगर चाहती तो यही स्त्री कुछ और तरह की भी हो सकती थी.

इसे पढऩे के बाद यह निश्चित रूप से होता है कि अपनी सत्ता और उसके आभा-वलय में सुरक्षित पुरुष-सत्ता, अगर वह अपने अस्तित्व मंक पिरोए गए नारी-भाव का आमूल दमन नहीं कर चुकी है और क्रूरता को उसने अपना आभूषण नहीं बना लिया है, तो वह अपने सबसे निकट मौजूद स्त्री को देखकर करुणाद्र्र हो उठती है. यह किताब उसे बता चुकी होती है कि इस व्यक्ति को इसी रूप में जड़ीभूत करने की प्रक्रिया कितने नामालूम ढंग से, लेकिन कितने स्वार्थी और परभक्षी इरादों से हमारे समाज में हर समय चलती रहती है.

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