scorecardresearch

यूं न होता तो क्या होता: मसाला पूरा फिल्मी है

सेक्स रवि की कहानियों का अभिन्न हिस्सा रहा है और मजबूत कथानक के सहारे सेक्स के वर्जित रूप इन कहानियों को सामान्य से विशिष्टता की ओर ले जाते हैं.

यूं न होता तो क्या होता: मसाला पूरा फिल्मी है किताब
यूं न होता तो क्या होता: मसाला पूरा फिल्मी है किताब
अपडेटेड 12 अगस्त , 2013
सत्यजीत रे ने कहा था, ‘‘मैंने अभी तक 17-18 फिल्में बनाई हैं, जिनमें से सिर्फ दो ही ओरिजनल स्क्रीनप्ले हैं बाकी सब कहानियों या फिर उपन्यासों पर आधारित हैं. और मुझे लगता है कि लंबी कहानी फिल्म में तब्दील करने के लिए आदर्श होती है.’’ रवि बुले की कहानियां भी कुछ ऐसा ही एहसास समेटे हुए हैं. उनमें फिल्म में तब्दील होने का मसाला मौजूद है. सेक्स है. टर्निंग पॉइंट्स है. रियलिटी है. कोर्ट रूम ड्रामा है. हीरो है. हीरोइन है.

विलेन है. कसावट है. लेकिन इस वजह से उनकी कहानियों का महत्व साहित्यिक मायनों में कम कर के नहीं आंका जा सकता. वे जीवन की  विडंबनाओं, आधुनिकता की नई बीमारियों और समाज की तलहटी में चल रही उठा-पटक को बखूबी बयान करते हैं. उनकी कहानियां कहीं भी जबरदस्ती दिमाग में घुसने की कोशिश नहीं करती हैं बल्कि आप उन पर मक्खन की तरह फिसलते जाते हैं और अनजाने एहसास से तरबतर हो जाते हैं. वैसे भी आज का सिनेमा सच्ची जिंदगी के करीब पहुंच रहा है, ऐसी ही आवाज इन कहानियों से भी आती हैं.

यूं न होता तो क्या होता? रवि का दूसरा कहानी संग्रह है. इससे पहले 2008 में उनका कहानी संग्रह सपने आईने और वसंतसेना आया था. इस ताजा कहानी संग्रह में उनकी चार लंबी कहानियां हैं. संग्रह की पहली कहानी मैं एक बयान सारी रूढिय़ों को ध्वस्त करती नजर आती है. कहानी की मुख्य किरदार चंदा मासोचिस्ट है.

इसका अंदाज इन लाइनों से बखूबी लग जाता है, ‘‘...वह अपनी पीड़ा और दुख को किसी ईवेंट की तरह मैनेज करती थी...वह विक्टिम होती थी और मैं एक्यूज्ड. वह पेशेंट, मैं डॉक्टर. वह सेक्रेटरी, मैं बॉस. वह स्ट्रगलर, मैं प्रोड्यूसर. कभी यूं होता कि वह हाउस वाइफ होती और मैं पिज्जा डिलिवरी बॉय की तरह फ्लैट में एंट्री करता.’’ इस तरह की पात्र हिंदी साहित्य में विलक्षण है. कहानी की टोन भी हटकर है.

एक्सक्लूसिव स्टोरी के दीनदयाल पाराशर मौजूदा पत्रकारिता की जबरदस्त मिसाल हैं. यह बताती है कि किस तरह पत्रकारिता में कारोबार हावी हो रहा है और बदलते मालिक तथा बॉस के साथ किस कद्र पूरे ऑफिस की हवा ही बदल जाती है. कहानी के उम्रदराज दीनदयाल पर नए माहौल से तालमेल बिठाने का दबाव है तो बाजारवाद के शिकार संपादक के हाथों रोज की छीछालेदारी भी है.

वह अपनी ऑफिस कलीग प्रीति की बातों से उत्तेजना महसूस करके उसका फल अपनी पत्नी के साथ चखते हैं. जो सेक्स के रोल प्ले करने वाले पक्ष को उजागर करता है. बाकी दो कहानियां यूं न होता तो क्या होता और भी बांधे रखती है. रवि की कहानियों के कैरेक्टर आपको अपने में इनवॉल्व कर लेते हैं. हालांकि अत्यधिक नाटकीयता का पुट रवि की सभी कहानियों में हावी रहता है-कहानी का ऐसा अंत जो सोच और समझ से परे हो.

उनकी कहानियों में ऐसा यथार्थ है जिससे उनकी पीढ़ी के कई कहानीकार अछूते हैं. उनकी कहानियों को पढ़कर कहीं से भी गढ़े होने का एहसास नहीं होता है. वह सहज भाव से चलती हैं. उनमें देखे हुए यथार्थ की गंध है और कहानी के हर तत्व एक्सप्रेस रफ्तार से दौड़ते हैं. किसी मसाला फिल्म की तरह हर संवाद और हर दृश्य समझ में आते हैं. कहानी में वे कहीं भी आत्मुग्धता की ओर नहीं बढ़ते हैं और तथाकथित बौद्धिकता को थोपते नहीं हैं. कहानियां गहन रिसर्च पर आधारित लगती हैं और आसानी से कनेक्ट करना उनकी यूएसपी है.

कहानी संग्रह

यूं न होता तो क्या होता?
रवि बुले,
हार्परकॉलिंस पब्लिशर्स इंडिया
ए-53, सेक्टर-57,
नोएडा-201301,
कीमत: 199 रु.
www.harpercollins.co.in

ग़ज़ल संग्रह

गुलशन है जिनके दम से
अह्ले कलाम
असलम अली खां ‘गुलशन’
बोधि प्रकाशन, करतार पुरा, जयपुर-6,    कीमत: 70 रु.
bodhiprakashan@gmail.com

उनकी शायरी इतनी दिलकश है कि यकीन नहीं होता कि वे पेशे से फौजी हैं. यही नहीं, ग़ज़ल कहने का शौक पैदा होने के बाद उन्होंने उर्दू सीखी लेकिन अब भी हिंदी में ही लिखते हैं. उर्दू-हिंदी की समझ की वजह से असलम अली खां ‘गुलशन’ की शायरी में रवानगी है. सरहद के वीरान इलाके में उनकी कल्पना के घोड़े दौड़ते रहते हैं, और जज्बात शब्दों में ढलते रहते हैं. 30 साल की उम्र में ही ऐसे शेर लिखते हैं कि ‘गुलशन’ तुझे हर कोई कहता है, तू कोई पुराना शायर लगता है.
‘गुलशन’ की शायरी देखकर यह एहसास हो जाएगा कि हर मिलिट्री मैन के भीतर एक सिविलियन रहता है, भले ही ये दोनों शब्द एक दूसरे के विलोम हों. जयपुर निवासी इस शायर के वालिद भी फौज में रह चुके हैं, यानी घर में भी सख्त अनुशासन का माहौल रहा होगा. हालांकि वे इंटरमीडिएट तक ही पढ़े हैं, लेकिन समाज और इर्दगिर्द के माहौल को बहुत बारीकी से देखते हैं, तभी तो लगभग हर विषय पर शायरी कर लेते हैं. वे कहते हैं: सनम तुम ही बताओ, ज़माना हमें क्या कहेगा/जेब में क़लम भी है और हाथ में हथियार भी है. गालिब की तरह फौजी खानदान के हैं लेकिन इस अह्ले कलाम का कहना है: मैं ‘गुलशन’ हूं फ़क़त ‘गुलशन’ हूं/मैं न कोई ‘‘गालिब’’ हूं ना कोई ‘मीर’ हूं.    -मोहम्मद वक़ास

Advertisement
Advertisement