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किताब: कितना उपभोग करेंगे?

महान रूसी लेखक लियो तोल्स्तोय अपनी कहानी हाउ मच लैंड डज ए मैन नीड में सवाल करते हैं कि एक इंसान को जिंदा रहने के लिए कितनी जमीन चाहिए. कुछ ऐसे ही सवालों से रू-ब-रू है रामचंद्र गुहा की यह नई किताब- उपभोग की लक्ष्मण रेखा.

अपडेटेड 5 अगस्त , 2013
महान रूसी लेखक लियो तोल्स्तोय की एक कहानी है, हाउ मच लैंड डज ए मैन नीड यानी एक इंसान को कितनी जमीन चाहिए. कहानी का सार यह है कि पाखोम नामक एक रूसी किसान को हमेशा इस बात की फिक्र रहती है कि उसके पास पर्याप्त जमीन नहीं है. एक दिन एक फकीर उससे कहता है कि सूरज उगने से लेकर सूरज ढलने तक वह दौड़कर जितनी जमीन नाप लेगा, उतनी जमीन उसकी हो जाएगी. फकीर के पास इफरात जमीन है.

पाखोम सुबह से दौडऩा शुरू करता है. वह जितनी जमीन नापता जाता है, उतना ही उसके भीतर लालच और बढ़ता जाता है. सूरज ढलने को है और वह दौड़ता जा रहा है. आखिरकार वह सूरज ढलने से पहले अपनी मंजिल पर पहुंच जाता है, लेकिन तब तक थककर इतना चूर हो चुका होता है कि उसकी वहीं मौत हो जाती है और उसे छह फुट के एक गड्ढे में दफना दिया जाता है.

पाखोम को दफनाने के साथ कहानी तो खत्म हो जाती है, लेकिन अपने पीछे छोड़ जाती है यह सवाल कि सैकड़ों एकड़ जमीन के लालच में दौडऩे वाले पाखोम को आखिरकार छह फुट के एक गड्ढे में दफन होना पड़ा. आखिर एक इंसान को जिंदा रहने के लिए कितनी जमीन चाहिए? ऐसे ही सवालों से रू-ब-रू होती है रामचंद्र गुहा की नई और महत्वपूर्ण किताब: उपभोग की लक्ष्मण रेखा.

यह अंग्रेजी में लिखी गर्ई उनकी किताब हाउ मच शुड ए पर्सन कंज्यूम का हिंदी अनुवाद है. यह अनायास नहीं है कि तोल्स्तोय की कहानी के शीर्षक और गुहा की किताब के शीर्षक में भी इतनी समानता है. सवाल दोनों के एक ही हैं: एक इंसान को जिंदा रहने के लिए आखिर कितना चाहिए?

यह किताब भारत और अमेरिका में गुहा के दो दशक से ज्यादा के प्रवास के दौरान किए गए शोध और दोनों देशों के पर्यावरण से जुड़े सवालों पर किया गया तुलनात्मक अध्ययन है. उन्होंने पर्यावरणविद् लुइस ममफोर्ड, चंडीप्रसाद भट्ट और माधव गाडगिल को अपने काम का आधार बनाया है. गुहा विकास विरोधी नहीं हैं, लेकिन उनका सवाल है कि आखिरकार विकास कितना, किसका और किस कीमत पर.

इस किताब में पर्यावरण की वे बात जरूर कर रहे हैं, लेकिन उन्होंने उसकी राजनीति के नजरिए से व्याख्या की है. पर्यावरण की दुर्दशा के लिए पूंजीवाद और ग्लोबलाइजेशन को दोषी ठहराते हुए भी वे समाजवाद को एक विकल्प के रूप में पेश नहीं करते. पर्यावरण को नुकसान से बचाने के लिए विकास को तो रोका नहीं जा सकता, लेकिन उपभोग पर तो लगाम लगाई जा सकती है. लालच को तो नियंत्रित किया जा सकता है.

अपने विश्लेषण में गुहा संयम और संतुलन के सिद्घांत की ओर जाते हैं. उनका मानना है कि यह प्रकृति को बचाने से ज्यादा मनुष्य को बचाने के लिए जरूरी है क्योंकि प्रकृति का अत्यधिक दोहन मनुष्य के विनाश के रूप में ही सामने आएगा. अतीत में आईं बहुत-सी भयानक प्राकृतिक आपदाएं इस बात का प्रमाण हैं. वे प्रकृति के उपयोग की बात करते हैं, उपभोग की नहीं और वे प्रकृति के उस संरक्षणशील स्वभाव को बचाकर रखने के हिमायती हैं, जहां मनुष्यों के साथ सभी जीव-जंतुओं का शांतिपूर्ण सहअस्तित्व हो.

इस किताब में काफी तकनीकी जानकारियां हैं. अर्थशास्त्र और दर्शन की समझ इसे पढऩे की प्रक्रिया को आसान बनाती है. अनुवाद में प्रवाह है, लेकिन पुस्तक सरल पाठ नहीं है. यह चिंतन-मनन की मांग करती है.

उपभोग की लक्ष्मण रेखा
रामचंद्र गुहा,
पेंगुइन बुक्स, 11, कम्युनिटी सेंटर, पंचशील पार्क,
नई दिल्ली-17,
कीमत: 350 रु.
www.penguinbooksindia.com
रामचंद्र गुहा

लब्बोलुबाब
तोल्स्तोय की कहानी में जमीन की लालच में शाम तक दौड़े पाखोम की कहानी उसे छह फुट के गड्ढे में दफनाने के साथ खत्म हो जाती है, पीछे छोड़ जाती है सवाल कि आखिर एक इंसान को जिंदा रहने के लिए कितनी जमीन चाहिए. कुछ ऐसे ही सवालों से रू-ब-रू है रामचंद्र गुहा की यह नई किताब
पत्रिका/दोआबा

इजाडोरा और कुछ सबूत
पटना से जाबिर हुसैन के संपादन में निकलने वाली विशिष्ट साहित्यिक पत्रिका दोआबा का जून, 2013 का अंक कई मायनों में संग्रहणीय है. यह अंक कहानी, संस्मरण और डायरियों का कोलाज है, जहां फंतासी और यथार्थ मिलकर एक हो गए हैं. जाबिर हुसैन की कथा-डायरी जिंदा होने का सबूत पर लिखी शंभू गुप्त, प्रेम कुमार, श्यामसुंदर घोष और पल्लव की रचनाएं पठनीय हैं.

इसके अलावा मनमोहन सरल, मीरा कांत, सत्यम श्रीवास्तव और विनोद कुमार की कहानियां जीवन और सृजन के कुछ अनदेखे पृष्ठों को खोलने का काम करती हैं. चक्रवर्ती अशोक प्रियदर्शी का संस्मरण युग बदला प्रस्तुत अंक की एक लंबी रचना है जो ध्यान खींचती है.

कविताएं भी 'देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर’ की तरह अपने शिल्प और वैचारिक गहराई से चौंकाती हैं. कई कविताओं का कथानक इतिहास से उठाया गया है, जैसे कर्मानंद आर्य की कविता नाचो न इजाडोरा उन्नीसवीं सदी की महान अमेरिकी नृत्यांगना इजाडोरा डंकन के बहाने स्त्री जीवन और स्वतंत्रता के कई अनछुए सवालों को खोलती है. राजेंद्र उपाध्याय के अनुवाद और टिप्पणियों के साथ नोबेल विजेता पोलिश कवियत्री विस्सावा शिंबोस्र्का की पांच कविताएं भी हैं.

दोआबा
समय से संगत
संपादक: जाबिर हुसैन,
संपर्क: 247, एमआइजी लोहियानगर, पटना- 20
doabapatna@gmail.com

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