एड एजेंसी में काम करने वाली 27 वर्षीया शीतल (बदला हुआ नाम) सेक्स की लत की शिकार है. आज से नहीं बल्कि 12 साल की उम्र से उसका यही हाल है. वह चौबीसों घंटे सेक्स के बारे में सोचती रहती है, चाहे मीटिंग हो, फिल्म देखते हुए या अपने मम्मी-पापा के साथ रात के खाने पर. उसके तमाम रिश्ते इसीलिए नाकाम रहे क्योंकि उसके भीतर यह ‘अपराधबोध’ है कि वह अपने साथी के मुकाबले ज्यादा सेक्स की चाहत रखती है, एक शंका कि कहीं वह ‘‘उस टाइप की लड़की तो नहीं.’’
शीतल की दिक्कत यह है कि वह इस समस्या को लेकर कहीं नहीं जा सकती, कम-से-कम महिलाओं के मामले में तो ऐसा ही है. इस तरह के मामले इतनी तेजी से बढ़ रहे हैं कि मुंबई के जेजे हॉस्पिटल में डीन डॉ. टी.पी. लहाणे ने इस मामले में आंतरिक स्तर पर पड़ताल शुरू कर दी है. सेक्सोलॉजी में प्रशिक्षण प्राप्त तीन साइकिएट्रिस्ट्स को ऐसे मरीजों की काउंसलिंग में लगा दिया गया है. इनमें ऐसे मरीज भी हैं जो सीधे तौर पर किसी यौन अपराध में लिप्त नहीं रहे हैं. अस्पताल जल्द ही सेक्स की लत से मुक्ति दिलवाने वाला केंद्र खोलने की योजना बना रहा है. डॉ. लहाणे कहते हैं, ‘‘आज सेक्स की लत एचआइवी के शुरुआती चरण जैसी हो गई है. लोगों में यह मौजूद है लेकिन या तो उन्हें इसका पता नहीं होता या फिर वे शर्म के कारण खुलकर सामने नहीं आते.’’
सेक्स एडिक्ट्स एनोनिमस इंडिया चैप्टर की शुरुआत आठ साल पहले एक मेडिकल प्रोफेशनल ने की थी जो कभी खुद सेक्स की लत का शिकार रहा था. दिल्ली के ओखला में हर हफ्ते सोमवार को इसकी बैठक में सिर्फ सात-आठ लोग आते हैं. कुछ सदस्य मुंबई में भी हैं. इंडिया चौप्टर के प्रमुख कहते हैं, ‘‘ईरान में इसके 20,000 सदस्य हैं.’’ सदस्यता की यह कमी दिखाती है कि हम अब भी इस समस्या से मुंह मोड़े हुए हैं.
मुंबई के केईएम हॉस्पिटल में सेक्सुअल मेडिसिन विभाग के संस्थापक प्रमुख और मशहूर सेक्सोलॉजिस्ट 71 वर्षीय डॉ. प्रकाश कोठारी की मानें तो हर 20 में से एक व्यक्ति सेक्स की लत का शिकार होता है. आज से 35 साल पहले बना यह विभाग आज भी यौन रोगों के लिए देश की इकलौती ओपीडी है. डॉ. कोठारी के मरीजों में बड़े अफसर, नेताओं से लेकर फिल्मी सितारे और इंटरनेट पर अश्लील साइट्स देखने के आदी छात्र और निचले आय वर्ग के लोग सभी हैं. सामान्य से ज्यादा यौनेच्छा और लत में क्या फर्क है? डॉ. कोठारी कहते हैं, ‘‘जब इच्छा काबू से बाहर हो जाती है, इच्छा पूरी ही नहीं होती है और व्यवहार असंबद्ध होने लगता है, तो यह लत होती है.’’
सेक्स की लत को बहुत गलत तरीके से समझा जाता है. अकसर इसे कई लोगों के साथ सेक्स का पर्याय मान लिया जाता है या फिर निम्न मध्यवर्गीय ‘‘बीमारी’’ मानकर चलता कर दिया जाता है. सेक्स एजुकेशन का अभाव और जागरूकता की कमी इसके लिए जिम्मेदार हैं. मसलन, सेक्स एजुकेशन सीबीएसई और आइसीएसई के सिलेबस का हिस्सा है लेकिन राज्य बोर्ड की बात आते ही हम पाते हैं कि गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक समेत 12 राज्यों ने इसे प्रतिबंधित कर रखा है. इससे होता यह है कि सामान्य यौन व्यवहार के बारे में समझ नहीं बन पाती. इसका सबसे बड़ा उदाहरण ऑनलाइन चौट फोरम हैं जहां किशोर और युवाओं की ओर से बार-बार यह पूछा जाता है कि वे हस्तमैथुन (मैस्टबेट) करते हैं इसलिए क्या वे सेक्स एडिक्ट हैं. डॉ. कोठारी चेताते हैं, ‘‘लोगों को जब पता ही नहीं होगा कि सामान्य यौन व्यवहार है क्या, तो इससे यौन अपराधों का ही रास्ता निकलेगा.’’
जरूरी नहीं है कि सेक्स की लत शारीरिक गतिविधि से संबंध रखती हो. इसका भावनात्मक और मानसिक पहलू भी होता है. आजकल बच्चे अपने-अपने मोबाइल और कंप्यूटर के साथ अपने कमरों की प्राइवेसी में कैद रहते हैं जो उनके मां-बाप के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा है. कई मां-बाप खुद उनके व्यवहार की निगरानी न कर पाने की स्थिति में उन्हें परामर्श के लिए ले जा रहे हैं जिसकी मुख्य वजह सेक्स और अंतरंगता को लेकर उनकी तेजी से विकसित होती सोच है. मुंबई के 14 वर्षीय छात्र नितिन सुधाकर (बदला हुआ नाम) के साथ कुछ ऐसा ही हुआ जब उसने अपने कंप्यूटर को ज्यादा वक्त देना शुरू कर दिया. वह अपने कमरे में ही बंद रहता. बंद कमरे के भीतर कंप्यूटर के साथ उसकी ऐसी दोस्ती हुई कि उसने सारे दूसरे काम छोड़ दिए और नतीजतन एग्जाम में नंबर कम आए. उसके मां-बाप को चिंता हुई तो वे उसे लेकर दिशा काउंसलिंग सेंटर गए जिसे 36 वर्षीया शीतल पोलेकर और 36 वर्षीया अनुराधा प्रभुदेसाई चलाती हैं. कम उम्र की वजह से उसे दवा तो नहीं दी गई है लेकिन फिलहाल उसकी काउंसलिंग थेरैपी जारी है.
सेक्स की लत पडऩे की कोई एक वजह नहीं होती, हालांकि सेक्सोलॉजिस्ट्स का मानना है कि ऐसे मामलों में अचानक वृद्धि इसलिए हुई है क्योंकि बढ़ती अश्लील सामग्री और जानकारी के अभाव से भरे माहौल में परिपक्वता (प्यूबर्टी) की उम्र 14-15 साल से घटकर 11-12 साल हो गई है.
अकसर ऐसी भी होता है कि सेक्स की लत अन्य गंभीर बीमारियों के दुष्प्रभावों से भी पैदा हो जाती है, जैसे शिजोफ्रेनिया और ऑब्सेसिव कम्पल्सिव डिसऑर्डर (ओसीडी). हरीन रावत (बदला हुआ नाम) 71 साल के हैं और उनकी दो जवान पोतियां हैं. उनकी निगाह अनजाने ही दोनों पोतियों के स्तनों की ओर चली जाती थी. अपनी इस लत को छिपाने के लिए उन्हें मजबूरन मोतियाबिंद के ऑपरेशन के बाद पहना जाने वाला काला चश्मा लगाना पड़ा. सेक्सोलॉजिस्ट के सामने अपनी यह समस्या बताते हुए वे रो पड़े. बाद में पता चला कि उन्हें ओसीडी की शिकायत थी. लगभग दो हफ्ते तक चली थेरैपी के बाद अब वे बिलकुल ठीक हो गए हैं.
सामान्य और असामान्य यौन व्यवहार के बीच के फर्क की पहचान कर इसका उपचार करवाना ही इकलौता इलाज है. अमेरिका जैसे देश ने भी सेक्स की लत को 2012 में जाकर एक मानसिक विकृति करार दिया है और इस काम को लॉस एंजेलिस की कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने अंजाम दिया. भारत में यह समस्या अब भी अपने शुरुआती दौर में है लेकिन एक ओर मीडिया और इंटरनेट पर मौजूद तमाम उत्तेजना फैलाने वाली सामग्री की मौजूदगी तो दूसरी ओर यौन जागरूकता तथा उपचार की कमी के मद्देनजर वह दिन बहुत दूर नहीं है जब सेक्स की लत महामारी बनकर इस देश के सामने खड़ी होगी. जरूरत इस बात की है कि इसे एक समस्या के रूप में कम-से-कम स्वीकार तो किया जाए.