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यात्रा वृत्तांत: गुमशुदा नदी की तलाश में

जिस टिहरी में गंगा की सबसे प्रबल धारा बहती है, वहां पीने का पानी टैंकरों से क्यों मंगाना पड़ता है, ऐसे सवालों से जूझती किताब.

अपडेटेड 21 अप्रैल , 2013

दर दर गंगे
अभय मिश्र, पंकज रामेन्दु
पेंगुइन बुक्स
11, कम्युनिटी सेंटर, पंचशील पार्क, नई दिल्ली
कीमत 199 रु.
http://www.penguinbooksindia.com/

आधुनिक विकास की दौड़ क्या हमारी परंपरा, संस्कृति और पुरानी चीजों को लील रही है? नदियों को तबाह कर रही है, प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर रही है? आखिर इस विकास का अर्थ क्या है और यह कहां जाकर खत्म होगा? दो पत्रकारों अभय मिश्र और पंकज रामेंदु की किताब दर-दर गंगे इसी तरह के कुछ गंभीर और जरूरी सवाल उठाती है.

यह किताब उस गंगा की खोज है, जो हमारे इतिहास और पुराणों में जीवनदायिनी है. जिसके किनारे हजारों वर्षों से सभ्यता और संस्कृतियां पनपती रही हैं. जो जीवन का मूल आधार है, जो पूज्य है. लेकिन आधुनिकता की दौड़ में यह पूज्य नदी अपना जीवनदायी रूप खोती जा रही है. पहाड़ों की गोद से निकलकर मैदान में आते-आते उसका स्वरूप ही बदल जाता है. शुभ्र, धवल धारा में कालिमा छाने लगती है. विकास की मशीनरी से निकला सारा कचरा गंगा में जाकर गिर रहा है और कभी हर-हर गंगे के नाम से ख्यात गंगा दर-दर गंगे हो रही है.

इस किताब की सबसे बड़ी खासियत इसकी शैली है. गंगा में बढ़ रहा प्रदूषण कोई नई और चौंकाने वाली खबर नहीं है. इस बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है. इसलिए गंगा प्रदूषण के बारे में कोई भी लेखन पहली नजर में शुष्क पत्रकारीय लेखन होने का आभास देता है. लेकिन इस किताब के साथ ऐसा नहीं है. यह पुस्तक गंगा की खोज में की गर्ई एक लंबी यात्रा का विवरण है, इसलिए इसमें यात्रा वृत्तांत से लेकर संस्मरणों तक की झलकियां मिलती हैं.
लेखक द्वय ने गंगा के उद्गम स्थल से शुरू करके उन सभी शहरों का सफर तय किया है, जहां-जहां से होकर यह नदी गुजरती है. लेखकों ने किताब में गंगोत्री, उत्तरकाशी, टिहरी, देवप्रयाग, ऋषिकेश, गढ़मुक्तेश्वर, नरौरा, कानपुर, इलाहाबाद, विंध्याचल, बक्सर, पटना और कोलकाता से लेकर गंगासागर तक का सफर तय किया है. यूं तो गंगा बहुत सारे शहरों से होकर गुजरती है, लेकिन दोनों लेखकों ने बहुत सोच-समझकर तीस शहरों का चुनाव किया है. ये वे शहर हैं, जहां से गुजरते हुए गंगा अपना वास्तविक स्वरूप खोती जाती है. और उसमें सभ्यता के दूषित रंग घुलते जाते हैं.

किताब में इन शहरों में नदी की दशा के साथ-साथ इनके सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश और यात्रा के दौरान हुई रोचक घटनाओं की कहानियां भी हैं. किसी कहानी की तरह इस यात्रा वृत्तांत में चरित्र हैं, किस्से हैं, स्थानीय लोककथाएं और किंवदंतियां हैं. लेखकों ने गंगा के किनारे बसी हुई सभ्यताओं के इतिहास की पड़ताल करने की भी कोशिश की है. यह जानना काफी रोचक है कि जो शहर और गांव नदी के किनारे सदियों से रहते आ रहे हैं, उनका रहन-सहन, संस्कृति और पूजा-अर्चना के तरीके अन्य जगहों की तुलना में किस तरह भिन्न हैं.

दर-दर गंगे के बारे में पर्यावरणविद् और गांधीवादी कार्यकर्ता अनुपम मिश्र कहते हैं, “दर दर गंगे पूरी गंगा दिखा देती है. यह गंगा की गहरार्ई भी बताती है और हमारे आधुनिक विकास का उथलापन भी. यह गंगोत्री से गंगासागर तक की विचार यात्रा का अद्भुत आनंद देती है. साथ ही एक अजीब-सी उदासी भी. उदासी इसलिए क्योंकि पाठक इस यात्रा की समाप्ति को मन से स्वीकार नहीं कर पाता.”

बहुत सरल भाषा में और रोचक ढंग से लिखी गई यह किताब कई गंभीर प्रश्न उठाती है. जैसे कि जिस टिहरी में गंगा की सबसे प्रबल धारा बहती है, वहां पीने का पानी टैंकरों से क्यों मंगाना पड़ता है. जिन मैदानी इलाकों के भूगोल को गंगा इतना सुंदर रूप देती है, वही इलाके अपनी प्यारी नदी के प्रति इतनी क्रूरता और अनुदारता से क्यों भरे हुए हैं. विकास का कोई विरोधी नहीं है, लेकिन क्या हम एक ऐसे देश की कल्पना कर सकते हैं, जहां नदियां नहीं होंगी, जहां गंगा नहीं होगी. यदि नहीं तो अपनी नदियों को बचाने के लिए हम क्या कर रहे हैं?

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