सोनाजोरी के तट से
अन्ना माधुरी तिर्की
एकेडमिक बुक हाउस,
यू-7, एम.पी. नगर, भोपाल, कीमत: 150 रु.
हम हिंदी में निर्मला पुतुल और अनुज लुगुन की कविताओं में आदिवासियों की व्यथा का निरूपण देख चुके हैं. इसी क्रम में छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले के मेंडेरबहार गांव की कवयित्री अन्ना माधुरी तिर्की का पहला कविता संग्रह सोनाजोरी के तट से कविता के सुकोमल कलरव के बीच कुछ चुभने वाले सवालों के साथ आया है. उरांव परिवार की यह कवयित्री अपनी कविताओं को दुख का राग कहती है. इन कविताओं के जरिए उसका मकसद अपने जनपद को वाणी देना है.
सोनाजोरी के माध्यम से तिर्की ने भूमंडलीकरण की फलश्रुति, जीवन में घुस आए छल-छद्म और प्रलोभनों की बानगी पेश की है. आलोचक लक्ष्मी नारायण पयोधि ने भूमिका में ठीक ही लिखा है कि ''इन कविताओं में पोटोंग, बेमता, नौर, महुआ, जटंगी जैसे असंख्य ठेठ आंचलिक शब्द फैशन की तरह जड़े नहीं गए हैं, ये अपने पूरे व्यक्तित्व, धज, धाक और अर्थवत्ता के साथ कविता की ताकत बन कर आए हैं.”
जाने-माने कवियों की कविताएं तो हम प्राय: पढ़ते ही हैं पर कभी-कभी नए कवियों की कविताओं में जो ताजगी और नयापन मिलता है, उसका आह्लाद ही अलग होता है. पहली ही कविता सोनाजोरी के तट से में तिर्की कहती हैं: अब सोनाजोरी के केशों में जटंगी के फूल नहीं खिलते, उसकी छाती पर सागौन के वन रोप दिए गए हैं. आम का पेड़, बेमता और बच्चे कविता में कवयित्री ने पेड़ और मनुष्य के रिश्तों को निकट से महसूस किया है: पेड़ को नहीं याद/किसने बोया/धरती की कोख में/उसका बीज/किसने सींचा स्नेहजल से/किसने दी खाद/जबसे होश संभाला/खुद को अकेला पाया/जबसे शाखों में बौर आया/लोगों को उसके लिए/लड़ते पाया. यह है तिर्की का सघन निरीक्षण.
इसी तरह हुकुड़पंप (नल) में विकास के नाम पर सारी खुशहाली सरपंच के दरवाजे नजर आती है. पर इस कविता की अज्जीपच्चो (बूढ़ी दादी) जानती है कि अगले चुनाव में सब हिसाब बराबर हो जाएगा. उसकी तो केवल यही ख्वाहिश है कि यह हुकड़पंप गांव के बीचोबीच लगे, जिसे/सब लगा सकें/हाथ/जिसके हत्थे को/हिलाएं तो/करे नहीं महज/हुकुड़-हुकुड़.../मुंह से उगले/पानी/और/गांव को करे/निहाल.
कवयित्री को इस बात की फिक्र है कि मानवता के इस महावन में वसंत कब आएगा? वह इन कविताओं में सुंदरता की नई परिभाषा गढ़ती है. उसे पीले डहेलिया का आकर्षण बांध लेता है, तो धूप में सिंकी चमकीली देहें भी, बशर्ते, श्रम की लुनाई की परख हममें हो. पर जिस तरह सपनों को रौंदने की साजिशें चल रही हैं, वह कहती है: ख्वाहिशें पैदा ही न होतीं/अगर मालूम होता/अंजाम इतना भयावह होगा. वह प्रचलित वर्णमाला से बाहर निकल कर कहती है: मुझे पढ़ाओ वर्णमाला कुछ ऐसी/मेरी जानी-पहचानी यानी 'ए फार एप्पल’ नहीं, क्योंकि न तो उसे जाना-पहचाना है, न उसके स्वाद से परिचय है. 'न’ से नल भी नहीं बल्कि 'नदी’ सिखाइए क्योंकि नदी करीब है मेरी समझ के.
मां पर यहां कई कविताएं हैं प्यार, संवेदना और उसकी विशालहृदयता के लिए कृतज्ञता ज्ञापित करती हुईं. इनमें अनुरागमयता से भरी कविताएं भी हैं, नियति और सत्य के स्वीकार की भी—पर पूरे संग्रह को पढ़ कर प्राय: लोक जीवन में रचे-बसे उदास जीवन-संगीत का साक्षात्कार होता है.
तिर्की का यह पहला संग्रह है, भले ही सिद्ध युवा कवियों से थोड़ा कमतर किंतु जिसकी कविता में आत्मा के उस स्वच्छ तलघर के दर्शन होते हैं, जहां जनजातीय संवेदना की सचाई सांस लेती है. इतने नाना प्रकार के पेड़ों, वनस्पतियों का जिक्र इनमें है जो यह जताता है कि अन्ना ने अपनी संवेदना को शहरी जीवन से नहीं, 'सोनाजोरी के तट’ की नमी और आबोहवा से सींचा है.