अभी पिछले ही साल एमबीए करने के बाद मुन्नी अब जोधपुर शहर में ही एक मोटर शोरूम में नौकरी कर रही है. इसमें क्या खास बात? भगवान सिंह परिहार बताएंगे. शाम के वक्त उसे ऑफिस से लौटते देखकर नवजीवन संस्था के कर्ताधर्ता परिहार मुस्कराते हुए बोल पड़ते हैं, ''इस बच्ची को 22 साल पहले हमारे यहां बाहर रखे पालने में कोई डाल गया था. हमें भी कहां अंदाजा था कि एक दिन यह एमबीए करके नौकरी करेगी. '' जानते तो मुन्नी के मां-बाप भी नहीं थे, वरना रात के वक्त उसे लाकर वे यहां छोड़ते ही क्यों? शाम का खाना जल्दी खाकर मुन्नी संस्थान के कंप्यूटर पर देर रात तक काम करती है पर थकान महसूस नहीं होती बल्कि अगली सुबह बेसब्री से दफ्तर जाने का इंजतार रहता है.
इसी तरह जन्म के कुछ घंटों बाद पालने की मार्फत नवजीवन में आई ज्योति (24) को भी अब तक पता नहीं चला कि मां-बाप उसे यहां क्यों छोड़ गए? लेकिन बड़ी होने पर उसने यहां अपने को परिवार जैसे माहौल में ही पाया, ऐसा परिवार जहां सपने देखने और उन्हें साकार करने की भी पूरी आजादी है. एनीमिशन की पढ़ाई करने की उसकी इच्छा संस्थान के जरिए साकार हुई.
बीती जून में एक और दिलचस्प काम हुआ संस्थान में. यहां ज्योति समेत 5 उच्च शिक्षित लड़कियों का कन्यादान हुआ. ज्योति ने अपनी पसंद के लड़के से शादी की, जो पाली में व्यवसायी है. परिहार के चेहरे पर गर्व के भाव देखते ही बनते हैं जब वे बताते हैं कि ''हमारी लड़कियों ने दर्जनों लड़कों को रिजेक्ट किया और काबिल लड़कों से ही शादी की. '' अपना खाली वक्त संस्थान के जिम में बिताने वाली अनिता (23) भी पालने की मार्फत ही संस्थान में दाखिल हुई. यहीं पल-बढ़कर इंजीनियर बनी इस युवती की शादी जोधपुर में ही उसकी पसंद के लड़के से हुई है. बचपन से ही फैशन डिजाइनर का सपना पाले मंजू (23) की चाहत भी अब हकीकत बन चुकी है. उसकी शादी उदयपुर के हैंडीक्राफ्ट व्यवसायी के साथ हुई है.
दरअसल ये मिसालें गढ़ी जा रही हैं जोधपुर शहर के पांचवीं रोड क्षेत्र स्थित नवजीवन संस्थान में, जहां अभी 67 बच्चे रह रहे हैं. जिम, स्विमिंग पूल, हरा-भरा मैदान जैसी आम परिवारों के लिए दुर्लभ ढेरों सुविधाओं के बीच यहां के बच्चे पल-बढ़ रहे हैं. छोटे बच्चों की सार-संभाल के लिए मेड, सर्दी के लिए रूम हीटर, ढेरों खिलौनों के साथ यहीं पढऩे का इंतजाम.
बड़ी लड़कियों को स्कूल-कॉलेज या नौकरी पर लाने-ले जाने के लिए हर समय तैयार वाहन. सर्वसुविधायुक्त, 1989 से चल रहा यह संस्थान पहले किराए के मकान में था. बाद में हाउसिंग बोर्ड से जमीन मिल गई और लोगों की मदद से भवन बन गया. तीन दर्जन स्टाफ और संस्थान का खर्च हर महीने कुल ढाई लाख रु., पर 23 साल में कभी आर्थिक संकट नहीं आया.
मदद का तरीका भी अनूठा है यहां. रोज की जरूरत ऑफिस के बोर्ड पर लिख दी जाती है: पापड़, हल्दी, ब्रेड, मक्खन, पेंसिल वगैरह. मददगार ऑफिस आकर पढ़ लेते हैं या फोन पर ही पूछ लेते हैं. परिहार कहते हैं, ''जरूरतें लिखने के कुछ घंटों बाद ही पूरी हो जाती हैं. ''
ज्यादातर बच्चे यहां रात के वक्त ही पालने में आते हैं. उनके जन्मदाता अंधेरे में संस्थान के बाहर रखे पालने में उन्हें डालते हैं. बच्चा पालने में आते ही ऑफिस में बेल बजती है. इस पर आया इस नए मेहमान को लेने तुरंत दौड़ पड़ती है. बच्चे को सबसे पहले अस्पताल ले जाकर पूरी जांच करवाई जाती है. कई बच्चे काफी दिनों तक भर्ती भी रहते हैं और स्वस्थ होने पर उन्हें संस्थान लाया जाता है. नामकरण के बाद बच्चे खिलौने और फिर पढ़ाई के बीच इस संस्थान को ही अपनी दुनिया बना लेते हैं.
अब तक यही कोई 1,200 बच्चे यहां आ चुके हैं. इनमें से 700 को तो गोद ले लिया गया. 300 जिंदा न रह सके. वजह? यहां लाए जाने वाले बजाय: सभी बच्चे वक्त से पहले पैदा हुए होते हैं. उनके अविवाहित मां-बाप में से बहुत-से पहले तो उन्हें पेट में ही मारने की कोशिश करते हैं. नाकाम रहने पर उन्हें बेमन से जन्म दिया जाता है. कह सकते हैं कि इनमें से कुछ किस्मत वाले इस संस्थान में आ जाते हैं.
संस्थान से ही जुड़े बच्चों के डॉक्टर बी.डी. गुप्ता स्पष्ट करते हैं, ''सौ में से एकाध बच्चा ही ऐसा होता है जिसे मारने के लिए दवा का प्रयोग न हुआ हो. '' संस्थान में एक दर्जन से ज्यादा बच्चे विकलांग हैं. यह शायद उन दवाओं का ही असर हो.
संस्थान बच्चों को गोद देने से पहले कानूनी प्रक्रिया के अलावा पूरी जांच-पड़ताल भी करता है. आवेदन के महीनों बाद जाकर बच्चे को गोद दिया जाता है. 8 महीने के इंतजार के बाद मुंबई से रूपाली और उसके पति दिनेश यहां बच्चा गोद लेने आए. मां बनने की खुशी से उत्साहित रूपाली बच्ची का नाम तक सोच कर आई थीं. लड़की को वरीयता क्यों?
रूपाली के शब्दों में, ''हम दोनों को लड़की ही पसंद है. '' बेटी का नाम उन्होंने रूहानी रखा है. उन्हीं के साथ जोधपुर के टीकमचंद पंडित को भी बच्चा गोद मिला. इसके लिए उन्हें दो साल इंतजार करना पड़ा. यहां समाज में लड़के-लड़की के भेद वाली मानसिकता की बानगी दिख जाती है. संस्थान के पदाधिकारियों की मानें तो यहां लड़के कम ही दिनों तक टिकते हैं. उन्हें गोद लेने वालों की लाइन जो लगी रहती है. रूपाली-दिनेश जैसे दंपती तो अपवाद हैं.
अनिता, ज्योति और मंजू की तरह उच्च शिक्षा तो मुन्नी ने भी हासिल की लेकिन वह अभी शादी नहीं करना चाहती. एक पैर से थोड़ी कमजोर मुन्नी पहले अपने पैरों पर पूरी तरह खड़ा होना चाहती है. उसे अपनी प्रेरणा मानने वाली दीपाली (17) कॉमर्स में बारहवीं में पढ़ रही है और साथ में कंप्यूटर भी सीख रही है. वह बताती है, ''मुन्नी दीदी ने एमबीए किया है और मैं सीए बनना चाहती. '' उसके चेहरे पर झलकते आत्मविश्वास को देखकर लगता है कि मंजिल दूर जरूर है पर मुश्किल नहीं.
दीपाली की ही क्लासमेट 17 वर्षीया गीता की मंजिल थोड़ी हटकर है. वह बीसीए करके बैंक में नौकरी करना चाहती है. इन दोनों की ही उम्र की, ग्यारहवीं में बायोलॉजी पढ़ रही पूजा का सपना डॉक्टर बनने का है. पर डॉक्टर बनने के लिए तो पैसा बहुत खर्च होता है, कहां से आएगा?
पूजा का जवाब सुनिए, ''बाउजी हैं ना! मुझे तो बस पढ़ाई पर ध्यान देना है. '' यहां के बच्चे संस्थान को परिवार और परिहार को पिता की तरह मानते हैं. आत्मविश्वास से लबालब हिमांशी अनीता दीदी की तरह इंजीनियर और रेखा पायलट बनना चाहती है. यानी यह संस्थान समाज के एक तबके के अनचाहे बच्चों को न केवल पाल-पोस कर बड़ा कर रहा है बल्कि उनकी आंखों को सपने देखने और उन्हें पूरा करने की जगह भी मुहैया कर रहा है.
दरअसल बड़ी लड़कियों को एक मां की तरह सीख-संस्कार देने और उनके रिश्ते करने के लिए यहां एक महिला यूनिट भी है, जो उम्र के साथ बढ़ती लड़कियों को रहन-सहन के तरीके और उन्हें दुनियादारी सिखाती है. यही यूनिट उनके रिश्ते करने के लिए बाकायदा लड़की वालों की तरफ से जाती है और लड़के के हर पहलू का पता लगाती है. वह देखती है कि इस लड़के के परिवार के माहौल में लड़की ढल पाएगी या नहीं? यह भी कि लड़की को लड़का पसंद है या नहीं.
महिला यूनिट से जुड़ी स्नेहलता व्यास बताती हैं, ''बड़ी लड़कियों के साथ हम दोस्ताना बर्ताव रखते हैं जिससे कि वे अपने दिल की बात हमें बता सकें. '' शादी के बाद भी यही यूनिट लड़कियों की खैर-खबर लेती है.
नवजीवन को शहर के लोगों की मदद तो मिल रही है, पर सरकार से? कोषाध्यक्ष महेंद्र लोढ़ा बताते हैं, ''पिछले 5 साल में 4 लाख रु. दिए हैं सरकार ने जबकि संस्थान का महीने का खर्च ही ढाई लाख रु. है. '' सरकार से मामूली मदद लेकर नवजीवन ने सेवा का ऐसा पैमाना खड़ा कर दिया है, जो दूसरों के लिए प्रेरणा है.