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मैहर बैंड: अब आया ख्याल बाबा के बैंड का

तमाम उतार-चढ़ावों से गुजर चुके मैहर बैंड को प्रदेश की सांस्कृतिक धरोहर का दर्जा मिलने से इसके कलाकारों में नया उत्साह. बाबा अलाउद्दीन खां के पौत्र भी अब विरासत संभालने मैहर पहुंचे.

मैहर बैंड
मैहर बैंड
अपडेटेड 8 जनवरी , 2013

दिसंबर के महीने में मैहर कस्बे के बाहर की सुबह बड़ी सुरीली दिखती है. पास के घने जंगलों में झ्रते महुआ, सागौन और बांस के पत्ते, वहां से लकडिय़ां सिर पर लाद कदमताल करती आतीं आदिवासी स्त्रियां और सड़कों पर बतियाते जाते स्कूली बच्चे. और कस्बे के भीतर! घुर्र घुर्र, पों पों, ओए...जरा साइड से, च्च्चूं...बच गए...सब ओर टूटी सड़कों पर सीमेंट फैक्टरियों के बीसियों बल्कि पचासों ट्रकों का काफिला कर्कश भैरवी गाते हुए. साथ में ट्रैक्टरों की अनवरत ठकठक. हवा में चारों ओर गहरा मटमैला गुबार. इसी माहौल के बीच, सतना रोड पर एक छोटे-से चौकोर कमरे में 12-14 कलाकार अपने-अपने साज लेकर रोज रियाज के लिए हाजिर होते हैं. सुबह 8 से 12 बजे तक.

इनका ताल्लुक उस मैहर बैंड से है, जिसकी बुनियाद हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की महामेधावी शख्सियत और अन्वेषक बाबा अलाउद्दीन खां ने रखी थी. पांच वक्त के नमाजी और रोज सुबह चार किमी से ज्यादा की पहाड़ी चढ़कर मैहर की शारदा देवी के दर्शन करने जाने वाले बाबा. पं. रविशंकर और निखिल बनर्जी सरीखे मूर्धन्य सितारवादक देने वाले बाबा. दुनिया में सरोद की अलख जगाने वाले अली अकबर खां तो उनके अपने बेटे थे. संगीत शिह्ना में उनके सख्त अनुशासन की किंवदंतियां आज भी सहमे भाव से सुनाई जाती हैं. ऐसे बाबा का शास्त्रीय साजों वाला यह अकेला-अनूठा बैंड है.

बोलकर लिखवाई अपनी कहानी में इस बैंड के बारे में बाबा ने बताया था, ''राजा (1917 में गद्दी पर बैठे मैहर के तत्कालीन राजा बृजनाथ सिंह) के आदेशानुसार एक बैंड पार्टी भी तैयार की. सारे अनाथ बच्चों को उसमें शामिल किया. डौंडी पिटवाकर सौ-डेढ़ सौ लड़के इकट्ठे किए. वे मेरे ही घर पर रहते, खाते-पीते...राजा को आठ घंटे तक पढ़ाता. चार घंटे बैंड का काम...राजा कहता—मैं कहीं भी बाहर निकलूं, मुझे गाना सुनाई देना चाहिए. कोई कहीं भी बेसुरा न रहे.”

1918 में स्थापित ऐसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाले बैंड की हालत एक अरसे से अच्छी नहीं चल रही थी. साजों और कलाकारों की कोई खोज-खबर लेने वाला नहीं. उनके प्रदर्शन की समीक्षा का कोई इंतजाम नहीं. वैसे तो 1949 में ही आजादी के बाद विंध्य प्रदेश बनने पर बैंड को खत्म करने की नौबत आ गई थी. पर तब केंद्र सरकार ने दखल देकर इसे बचा लिया. 1955 में यहां संगीत का एक कॉलेज खोलकर बैंड को उससे जोड़ दिया गया.

खैर, इस विरासत की दुर्दशा से चिंतित कुछ सुधीजनों ने पिछले दिनों मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से इसका जिक्र किया और बैंड के लिए कुछ करने की गुजारिश की. उसी का नतीजा था कि 1 नवंबर को प्रदेश के स्थापना दिवस समारोह के मौके पर भोपाल में इस बैंड की प्रस्तुति के बाद चौहान ने इसे प्रदेश की सांस्कृतिक धरोहर का दर्जा देने का ऐलान किया.

लंबे अरसे से जुड़े बैंड के दो तबलावादकों में से एक डॉ. अशोक बढ़ोलिया कहते हैं, ''हम कलाकारों के लिए वह सचमुच भावुक कर देने वाला पल था. 50-50 किलो के साज लेकर हम स्लीपर में सफर करते हैं. बड़ा कष्ट होता है.” म्युजिक कॉलेज के कुछ हिस्सों को देखकर लगता है कि दशकों से उसकी सफाई तक नहीं हुई है. असल में राजधानी भोपाल से मैहर (जिला सतना) की दूरी 450 किमी से भी ज्यादा है. प्रदेश में आने वाली सरकारों के सांस्कृतिक सतहीपन ने इस दूरी को कई गुना बढ़ा दिया था.

उस ऐलान के नतीजतन बैंड के कलाकारों में एक नया जोश, नई स्फूर्ति आ गई है. पिछले हफ्ते ग्वालियर के तानसेन समारोह में राग यमन की उनकी प्रस्तुति श्रोताओं को इतनी पसंद आई कि उनके आग्रह पर उन्हें राग बागेश्री कान्हड़ा की एक और बंदिश बजानी पड़ी. अब सारे कलाकार अगले हफ्ते (24-26 दिसंबर) बाबा की ही याद में होने वाले सालाना संगीत समारोह के लिए रियाज में जुट गए हैं.

बैंड प्रमुख और पिछले सात साल से संगीत कॉलेज के भी प्रभारी इसराज वादक सुरेश चतुर्वेदी गद्गद भाव से कहते हैं, ''कॉलेज में शिह्नकों के चार खाली पद भरने को भी अब मंजूरी मिल गई है.” अब जनवरी में आकाशवाणी के लिए दिल्ली में रिकॉर्डिंग का बुलावा है और फरवरी में कोलकाता जाना है. अब तो बैंड के लोग मैहर में भी हर महीने कोई न कोई प्रस्तुति देने की योजना बना रहे हैं.

सरकार कई पहलुओं से सोच रही है. प्रदेश के संस्कृति मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा कहते हैं, ''बैंड के दुर्लभ वाद्ययंत्रों की, और साज बनवाने की, कलाकारों की कमी की और भवन वगैरह सभी तरह की चिंताएं दूर की जाएंगी.” साज सचमुच बड़ी चिंताओं में से एक है. बाबा ने सितार, तबला, हारमोनियम जैसे भारतीय साजों के अलावा चेलो और वायलिन जैसे पश्चिम के वाद्य भी बैंड में शामिल किए थे.

उन्होंने सितार पर प्रयोग के साथ एक नया साज सितार बैंजो और इसके अलावा सरोद, सारंगी और सितार तीनों की खासियतों वाला चंद्र सारंग भी ईजाद किया. पर बैंड का अगुआ साज तो आज भी नाल तरंग ही है, जिसे बाबा ने पुरानी बंदूकों की नालें कटवाकर बनवाया था. चंद्र सारंग बजाने वाला तो अब यहां कोई भी नहीं है. बैंड के प्रभुदयाल द्विवेदी नालतरंग के अकेले जानकार हैं.

बैंड के ज्यादातर कलाकार स्थानीय हैं. उन्हें यह तो एहसास है कि वे एक बड़ी विरासत को सहेजकर चल रहे हैं लेकिन उसके लिए क्या कुछ और नया किया जाना चाहिए, यह उनकी चिंताओं में नहीं आया है. बैंड के लिए बाबा 3 मिनट से 3 घंटे तक बजाने लायक करीब 150 बंदिशें बना गए थे. मौजूदा बैंड उनमें से 30-35 बंदिशें बजाता है. (उन्हीं में से कोई चुगली भी करता है कि 15-20 से ज्यादा नहीं). पर इन लोगों के पास लिखा हुआ एक भी नोटेशन नहीं है. सब कुछ कलाकारों के दिमाग में है. इन लोगों के दिमाग में कभी अपने प्रचार की बात नहीं आई. नतीजा? इतनी समृद्ध विरासत के बावजूद उन्हें कभी विदेश जाने का मौका नहीं मिला. इसका कलाकारों को खासा मलाल है. विभिन्न देशों से सांस्कृतिक समन्वय के तहत कलाकारों को विदेश भेजने और बुलाने वाली भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (आइसीसीआर) को जैसे इस बैंड के अस्तित्व की खबर ही नहीं. इसके महानिदेशक सुरेश गोयल से इस बारे में जानने की कई कोशिशें नाकाम रहीं.

खैर, बैंड ने किसी भी तरह से कुछ नया करने की क्यों नहीं सोची? इस पर 1979 से बैंड में सक्रिय चतुर्वेदी बस घूम-फिरकर इतना ही कहते हैं कि ''हमारे पास बाबा की धरोहर है, उसी को संजोकर चलते हैं.” हाल ही दिवंगत पं. रविशंकर के शिष्य और मैहर होकर आए शुभेंद्र राव यहां एक अहम बात जोड़ते हैं, ''देखिए, बाबा बेहद दूरदर्शी और उदार शख्सियत थे. जब उस वक्त उन्होंने चेलो और वायलिन जैसे साज शामिल कर लिए थे तो आज तो वे और भी आगे की सोचकर कुछ नया करते.”

यही सवाल अब बाबा के पौत्र 62 वर्षीय राजेश खां उठा रहे हैं. विरासत को संभालने की मंशा से पिछली फरवरी में वे सपरिवार दुबई से आकर यहीं बस गए हैं और बाबा के संरक्षित मूल निवास के पास ही घर लेकर उसमें 25-30 छात्रों को संगीत सिखा रहे हैं और यहां गुरुकुल खोलने की योजना है.

बैंड और संगीत विद्यालय की 'बदहाली’ पर वे कुपित हैं और इनका प्रशासन उनके हाथ में देने के लिए मुख्यमंत्री चौहान से आग्रह भी चुके हैं. पर संस्कृति मंत्री शर्मा को इसकी खबर नहीं है. चतुर्वेदी कहते हैं, ''हमें राजेश जी के साथ मिलकर काम करने में कोई आपत्ति नहीं.”

लेकिन कोलकाता से कारीगर बुलवाकर बैंड के साजों की मरम्मत कराने वाले राजेश कहते हैं, ''पुरानी चीजें गायब हो रही हैं. अभी के लोग पर्याप्त योग्य नहीं हैं. मुझे प्रशासनिक अधिकार दिए जाएं, जिससे विरासत को बचाने के लिए मैं कुछ कर सकूं.” इस बार के मैहर उत्सव में उनके बड़े भाई आशीष खां और भतीजे शिराज खां भी आ रहे हैं. उनके अलावा राजेश भी सरोद बजाएंगे. जो भी हो, बैंड का और उसके लिए अपनी उम्र कुर्बान करने वालों का स्वर कायम रहना चाहिए.

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