बड़ी बाजी खेलने के लिए कलेजा भी बड़ा होना चाहिए. ऐसा ही कुछ ऐक्टर-प्रोड्यूसर अजय देवगन के बारे में भी कह सकते हैं. तभी तो उन्होंने दीवाली के मौके पर अपनी फिल्म सन ऑफ सरदार को यश चोपड़ा के निर्देशन वाली आखिरी फिल्म जब तक है जान की टक्कर में उतारा. बतौर प्रोड्यूसर अजय पर कई दबाव थे. नफा-नुकसान की बातें हो रही थीं. लेकिन अजय ने कदम पीछे नहीं हटाए.
ऐक्शन, कॉमेडी, ड्रामा, रोमांस और कैची म्युजिक के दम पर फिल्म को दर्शकों ने कामयाबी की बुलंदी पर पहुंचा दिया. फिल्म रिलीज के अपने पहले आठ दिनों में भारत में 76.53 करोड़ रु. कमा चुकी है. यह 2,000 स्क्रीन पर रिलीज हुई थी. अब स्क्रीन की संख्या बढ़ाई जा रही है. सिनेमाघरों के मालिकों ने 23 नवंबर से सन ऑफ सरदार को 300 स्क्रीन और देने का फैसला किया है.
यह बॉलीवुड का नया रुझान है, जिसमें ढेर सारे ऐक्टर ही प्रोड्यूसर की भूमिका निभा रहे हैं. प्रोड्यूसर के तौर पर अजय देवगन का शुरुआती सफर अच्छा नहीं रहा. वे कहते हैं, ''मैंने 30 करोड़ रु. के बजट से राजू चाचा बनाई थी, जो आज के हिसाब से करीब 100 करोड़ रु. होते. यह घाटे का प्रोजेक्ट साबित हुआ.” राजू चाचा साल 2000 में रिलीज हुई थी. जबकि सन ऑफ सरदार की कुल लागत 70 करोड़ रु. बताई जा रही है और फिल्म का बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी का सफर जारी है. फिल्म विश्लेषक कोमल नाहटा बताते हैं, ''घरेलू सर्किट में फिल्म के 100 करोड़ रु. का आंकड़ा जल्द छूने के आसार हैं.”
अजय देवगन ऐसे अकेले ऐक्टर नहीं हैं जिन्होंने प्रोडक्शन की फील्ड में कदम रखा है, जॉन अब्राहम, अमिताभ बच्चन, अक्षय कुमार, आमिर खान और शाहरुख खान जैसे ऐक्टर भी प्रोडक्शन में हाथ आजमा रहे हैं. अभिनेता जॉन अब्राहम और उनके डायरेक्टर दोस्त शुजीत सरकार को फिल्म बनाने के लिए जबरदस्त आइडिया मिला—श्रीलंका में आतंकवाद. फिल्म का नाम भी उनके जेहन में था—जाफना. श्रीलंका के उत्तरी प्रांत की राजधानी और लिट्टे की सक्रियता के दौरान सबसे बुरी तरह प्रभावित शहर. दो साल तक उन्होंने इस आइडिया के हर पहलू पर चर्चा की.
इन चर्चाओं के दौरान, कहानी में अचानक मोड़ आ गया, शुजीत स्पर्म डोनेशन जैसे विषय का आइडिया लेकर आए और उन्होंने जॉन को मनाया कि इस पर एक हल्की-फुल्की फिल्म बनाई जाए. इस तरह जॉन की कंपनी जेए एंटरटेनमेंट की पहली फिल्म विकी डोनर का विचार जन्मा. लेकिन जॉन ने बड़े बजट की ऐसी फिल्म नहीं बनाई जो बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचा दे.
विकी डोनर बनाने पर सिर्फ 9 करोड़ रु. की लागत आई और उसने दुनियाभर में बॉक्स ऑफिस पर 44 करोड़ रु. की कमाई की. इसके साथ ही बतौर प्रोड्यूसर जॉन का करियर चल निकला है. विकी डोनर की को-प्रोड्यूसर इरोज इंटरनेशनल मीडिया ने चलो दिल्ली (2011) में भी साझेदारी की थी जो ऐक्ट्रेस लारा दत्ता की कंपनी भीगी बसंती फिल्म्स की पहली फिल्म थी. चलो दिल्ली के निर्माण पर 5 करोड़ रु. की लागत आई थी और इसने इसके दोगुने से ज्यादा कमाई की.
अमिताभ बच्चन की कंपनी अमिताभ बच्चन कॉर्पोरेशन लि. (एबीसीएल) ने तेरे मेरे सपने (1996), मृत्युदाता (1997) और अक्स (2001) जैसी फिल्में बनाई हैं, लेकिन खराब फाइनेंशियल मैनेजमेंट, मार्केटिंग और डिस्ट्रिब्यूशन की वजह से उसे नाकामी का मुंह देखना पड़ा. लेकिन 2009 के बाद इस ट्रेंड में बदलाव आया. एबीसीएल के नए अवतार एबी कॉर्पोरेशन लि. ने रिलायंस बिग पिक्चर्स के साथ मिलकर पा बनाई. बिग बी और उनके बेटे अभिषेक के अभिनय वाली 15 करोड़ रु. में बनी इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर करीब 60 करोड़ रु. की कमाई की.
जॉन ने मैनेजमेंट की डिग्री हासिल की है और ऐक्टर बनने से पहले वे मीडिया प्लानर थे. उन्होंने विकी डोनर को इंडियन प्रीमियर लीग (आइपीएल) सीजन के बीच में रिलीज करने का जोखिम भी लिया. परंपरागत समझ के आधार पर तो ऐसे टाइमिंग को आत्मघाती ही माना जा सकता है. इस बारे में जॉन कहते हैं, ''इस दौरान दूसरे फिल्म निर्माताओं ने किसी बड़ी फिल्म को रिलीज न करने का फैसला किया था, जिससे हमें मैदान खाली मिल गया.” वे यह भी मानते हैं कि ''क्रिकेट से लोग थक चुके थे.”
जोखिम में साझेदारी
कई ऐक्टर-प्रोड्यूसर बड़े स्टुडियो बैनर से हाथ मिला रहे हैं. जैसे वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स ने अक्षय कुमार की नई कंपनी ग्रेजिंग गोट पिक्चर्स के साथ मिलकर हाल में रिलीज फिल्म ओ माइ गॉड यानी ओएमजी का निर्माण किया है. डिज्नी यूटीवी ने आमिर खान प्रोडक्शंस के साथ पीपली लाइव (2010) और डेहली बेली (2011) बनाई थी. अब वह शाहरुख की रेड चिलीज एंटरटेनमेंट के साथ चेन्नै एक्सप्रेस बना रही है. बतौर को-प्रोड्यूसर स्टुडियो न सिर्फ फिल्म निर्माण की लागत उठाते हैं, बल्कि इसकी मार्केटिंग और डिस्ट्रिब्यूशन का जिम्मा भी संभालते हैं. वे ऐक्टर के प्रोडक्शन हाउस को प्रोडक्शन फीस देते हैं और इन सबके बदले उन्हें फिल्म का बौद्धिक संपदा अधिकार (आइपीआर) मिल सकता है.
ऐक्टिंग के लिए भारी फीस लेने की बजाए ऐक्टर-प्रोड्यूसर फिल्म से हुए मुनाफे में हिस्सा लेते हैं. इस तरह अगर अक्षय कुमार, शाहरुख खान या आमिर खान किसी फिल्म में ऐक्टिंग के लिए 20 से 25 करोड़ रु. लेते हैं तो को-प्रोड्यूसर के रूप में वे मुनाफे में 50 फीसदी का हिस्सा लेने पर राजी हो सकते हैं. फिल्म बढिय़ा चल जाती है तो ऐक्टर और स्टुडियो, दोनों को फायदा होता है. अगर प्रदर्शन ठीक नहीं रहता तो स्टुडियो को भारी-भरकम ऐक्टिंग फीस देने से राहत मिल जाती है.
फिल्म निर्माण का गणित
भारत में फिल्म निर्माण लागत का करीब 35 फीसदी हिस्सा लीड ऐक्टर को फीस देने में ही चला जाता है. वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स के सीईओ विक्रम मल्होत्रा बताते हैं, ''जब लागत का एक हिस्सा इतना ज्यादा हो, तो जोखिम से बचना जरूरी हो जाता है और इसका एक अच्छा तरीका यह है कि ऐक्टर को जोखिम में हिस्सेदार बनाकर प्रोजेक्ट के लिए अग्रिम वित्तीय देनदारी को कम किया जाए.”
अर्नस्ट ऐंड यंग में फिल्म एंटरटेनमेंट के एक्सपर्ट राकेश जरीवाला ने बताया कि पुराने बिजनेस मॉडल (जिसमें प्रोड्यूसर सिर्फ ऐक्टिंग के लिए ऐक्टर की सेवा लेता था) में ऐक्टिंग की भारी फीस की वजह से ही मुनाफा कम होता था. उनके शब्दों में, ''कम फिल्में 100 करोड़ रु. की कमाई के आंकड़े तक पहुंच पाती हैं, इसलिए मुनाफा नहीं होता. कमाई पर भी दबाव बना रहता था, जिससे लोगों को यह समझ में आने लगा कि अगर पैसा बनाना है तो संभवत: हमें हॉलीवुड से सीख लेनी होगी और पार्टनरशिप वाले मॉडल को अपनाना होगा.”
स्टुडियो से जुड़े लोगों का कहना है कि ऐक्टर-प्रोड्यूसर बिजनेस मॉडल से जोखिम कम होता है. डिज्नी यूटीवी के सीईओ सिद्धार्थ राय कपूर कहते हैं, ''स्टुडियो वित्तीय जोखिम उठा सकते हैं. वे निश्चित रूप से डिस्ट्रिब्यूशन पर कमीशन कमाने में दक्ष होते हैं. इसके बाद मुनाफे का पूर्व निर्धारित हिस्सा ऐक्टर-प्रोड्यूसर को दे सकते हैं.” इरोज़ इंटरनेशनल मीडिया के चीफ फाइनेंशियल ऑफिसर कमल जैन कहते हैं, ''यह प्रोडक्शन हाउस और स्टुडियो, दोनों के लिए फायदे की बात होती है क्योंकि दोनों को एक-दूसरे की ताकत का सहारा मिलता है.”
कारोबारी समझ से लैस ऐक्टर
दक्षिण मुंबई स्थित वाटसंस होटल में 1896 में पहला चलचित्र दिखाए जाने के बाद से बॉलीवुड काफी लंबा रास्ता तय कर चुका है. भारत में न सिर्फ किसी और देश के मुकाबले ज्यादा फिल्में बन रही हैं, बल्कि यहां फिल्मों के दर्शकों की संख्या भी सबसे ज्यादा है. भारतीय दर्शक हर साल तीन अरब सिनेमा टिकट खरीदते हैं, जिससे यहां की सिनेमा इंडस्ट्री 10.000 करोड़ रु. तक पहुंच चुकी है और यहां हर साल 20 भाषाओं में करीब 1,000 फिल्मों का निर्माण होता है.
1990 के दशक में मल्टीप्लेक्स की संख्या बढऩे के साथ ही फिल्मों के डिस्ट्रिब्यूशन और प्रदर्शन का नया दौर आया. अब नए स्टुडियो सिस्टम से फिल्मों के निर्माण का तरीका बदल रहा है. हालांकि, स्टुडियो और ऐक्टर-प्रोड्यूसर बॉलीवुड में नया चलन नहीं है. इससे पहले 1950 और 1960 के दशक में भी कई अभिनेताओं ने स्टुडियो स्थापित किए और फिल्में बनाई हैं. उदाहरण के लिए गुरुदत्त ने अपने गुरु दत्त मूवीज प्राइवेट लि. के बैनर तले आर पार (1954), सीआइडी (1956) और प्यासा (1957) जैसी सफल फिल्में बनाई थीं.
वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स के मल्होत्रा कहते हैं, ''उनके लिए मुनाफा पहली प्राथमिकता नहीं होता था. फिल्में ऐक्टर की साख और नाम के भरोसे चलती थीं. उन फिल्मों की कभी भी उस तरह से मार्केटिंग नहीं की गई जैसी आज की फिल्मों की हो रही है.” उनके मुताबिक सप्लाई और डिमांड का गणित भी आज काफी बदल चुका है. उस समय आज के मुकाबले एक साल में बनने वाली फिल्मों के मुकाबले 20 फीसदी फिल्में ही बनती थीं और हिट फिल्में महीनों सिनेमाघरों में लगी रहती थीं.
पिछली सदी के पांचवें दशक के विपरीत आज अभिनेत्रियां भी प्रोड्यूसर बनने की राह पर चल पड़ी हैं. लारा दत्ता, दिया मिर्जा और सुष्मिता सेन ने फिल्में बनाई हैं. लारा दत्ता कहती हैं, ''फिल्म इंडस्ट्री में 10 साल गुजारने के बाद मुझे लगा कि मैंने इस इंडस्ट्री को समझ लिया है. मेरे जरूरी संपर्क बन गए हैं. प्रोड्यूसर बनना लॉजिकल स्टेप था.”
आज ऐक्टर-प्रोड्यूसर अपनी फिल्मों में भरोसा जरूर रखते हैं, लेकिन वे फिल्म निर्माण को कारोबारी पहलू से भी देखते हैं. हाल के ऐक्टर-प्रोड्यूसर्स पर गौर करें तो शाहरुख और आमिर (जो 2000 के दशक के शुरुआती दौर में प्रोड्यूसर बने) इस तरह के गुणा-भाग में सफल रहे हैं. आमिर के 11 साल पुराने आमिर खान प्रोडक्शंस ने छह फिल्में बनाई हैं, लेकिन ये सभी बॉक्स ऑफिस पर सफल रही हैं. शाहरुख खान भी मार्केटिंग और प्रमोशन को महत्वपूर्ण मानते हैं. उनकी कंपनी रेड चिलीज एंटरटेनमेंट ने 10 फिल्में बनाई हैं जिनमें रा.वन सबसे बड़ी फिल्म है. रा.वन की को-प्रोड्यूसर इरोज इंटरनेशनल मीडिया के जैन कहते हैं, ''इस फिल्म ने रिलीज से पहले ही 102 करोड़ रु. का बंदोबस्त कर लिया था.” उदाहरण के लिए फिल्म के सैटेलाइट अधिकार की पूर्व में ही 35 करोड़ रु. में बिक्री की गई थी. इस फिल्म से 25 ब्रांड जुड़े थे और बताया जाता है कि म्युजिक लॉन्च प्रसारण अधिकार के लिए ही स्टार वन ने 10 करोड़ रु. दिए थे.
गुरुदत्त और राज कपूर की विरासत
मार्केटिंग पर जोर देने का यह चलन गुरुदत्त और राज कपूर के दौर से काफी अलग है जो पूरी तरह फिल्म निर्माण पर ध्यान देते हुए बस अपना पैसा लगा देते थे और बाकी अपनी लोकप्रियता के भरोसे पर छोड़ देते थे. आज अपनी ब्रांड इमेज के बारे में सचेत ऐक्टर फिल्में ज्यादा सोच-समझकर चुनते हैं.
अजय देवगन कहते हैं, ''पहले तो हमने फिल्मों का निर्माण बीते दिनों की तरह जुनून के साथ ही किया. लेकिन अब यह एक कारोबारी नुस्खा बन चुका है क्योंकि अगर सही ढंग से खेला जाए तो यह आकर्षक है. लेकिन इसमें जोखिम भी होते हैं. इन सबसे ऊपर बात यह है कि हमारी ब्रांड इक्विटी दांव पर लगी होती है.” अब देवगन और अक्षय कुमार सिर्फ बड़े स्टुडियो के साथ ही फिल्म निर्माण के लिए हाथ मिला रहे हैं.
ऐक्टर-प्रोड्यूसर न सिर्फ प्रोडक्शन का काम देख रहे हैं बल्कि उनमें क्रिएटिव इनपुट भी डालते हैं. फिल्मों को निश्चित रूप से न केवल उनके अनुभव बल्कि उनकी ब्रांड इक्विटी का फायदा मिलता है. ऐक्टरों के प्रोडक्शन हाउस में आम तौर पर उनकी अपनी क्रिएटिव टीम होती है. वायकॉम 18 के कलर्स चैनल की पूर्व प्रोग्रामिंग हेड अश्विनी यार्डी बताती हैं, ''हमारे अधिकतर कॉन्सेप्ट का विकास हमारी खुद की क्रिएटिव टीम करती है.’’ उन्होंने अक्षय के साथ मिलकर ग्रेजिंग गोट पिक्चर्स की स्थापना की है.
ऐक्टर्स से सबक लेते डायरेक्टर
अभिनेताओं की तरह डायरेक्टर भी फिल्म निर्माण के लिए स्टुडियो से हाथ मिला रहे हैं और उन्होंने फीस की जगह मुनाफे में हिस्सा लेना शुरू कर दिया है. अनुराग कश्यप इसके उदाहरण हैं. उनकी कंपनी अनुराग कश्यप फिल्म्स प्रा. लि. ने वायकॉम 18 मोशन पिक्चर्स के साथ मिलकर गैंग्स ऑफ वासेपुर बनाई है. वायकॉम के मल्होत्रा बताते हैं, ''अनुराग ने इस फिल्म के लिए एक पैसा नहीं लिया, उनकी हर चीज में वायकॉम 18 के साथ निश्चित हिस्सेदारी थी.’’
गैंग्स ऑफ वासेपुर 1 और 2 ने बॉक्स ऑफिस पर 75 करोड़ रु. की कमाई की. ऐक्टर-प्रोड्यूसर्स के हाथ में काफी नियंत्रण है: वह स्क्रिप्ट में बदलाव ला सकता है, को-स्टार चुन सकता है और डायरेक्टर भी बदल सकता है. बदलाव यह आया है कि फिल्म जितनी ज्यादा सफल होती है वह उतना ही ज्यादा पैसा बनाता है.
—साथ में नरेंद्र सैनी