1921-2012
वर्गीज़ कुरियन उस शख्स का नाम है जिन्होंने सोचने के तरीके को बदलकर रख दिया. उनके लिए संसाधनविहीन गरीब, बेरोजगार किसान कभी समस्या नहीं रहे. उनका मानना था कि अगर किसान की पहुंच बाजार और तकनीक तक हो जाए तो वह बहुमूल्य थाती बन सकता है. सपना देखने के बाद वे उसे साकार करने से पहले दम नहीं लेते थे. अपनी किस्म के हर इंसान की तरह वे जूझने को तैयार थे लेकिन खुद को बदलना उन्हें मंजूर नहीं था.
फिर अमूल भारत की मूल भावना का प्रतीक बन गया. अगर कोई विचार उनके आगे रखा जाता और वे अपने नजरिए में उसे पिरो लेते तो वे उसके लिए जान लगा देते. पिछले रविवार से अब तक उन पर लिखे गए तमाम शब्दों में से कुछ को याद करना सार्थक होगा. मसलन, पहला शब्द है भैंस. एशियाई किसानों की खेती में भैंस को एक ‘जंगी घोड़े की पहचान दिलवाने का श्रेय कुरियन को ही जाता है.
भैंस को दुनियाभर के लोग नहीं जानते थे क्योंकि यूरोप और अमेरिका में भैंसें नहीं पाई जातीं. पहली बार उन्होंने मुझे अपने काम से जुडऩे के लिए जहां बुलाया, वह भैंस पर एक अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस थी. भले हम इस दिशा में ज्यादा कुछ नहीं कर पा रहे हों, लेकिन हम दुनिया के कुछ उन देशों में से हैं जो भैंस के जैव-संवद्र्धन पर पैसा खर्च करते हैं. और यह सब दूधवाला और उनके जुझारू लोगों के कारण मुमकिन हो सका है.
हम भूल जाते हैं कि कई मामलों में एक औरत भी किसान हो सकती है. देवकी जैन ने इस बारे में यादों को ताजा करने वाला लेख लिखा है कि कैसे कुरियन की दिलचस्पी इसमें पैदा हुई. और एक बार के बाद यह बात उनके मानस का हिस्सा बन गई. जो नॉलेज वे गांव स्तर पर बांटते थे, उससे महिलाएं सशक्त होती थीं. वे कहते थे कि महिलाएं प्रजनन के बारे में सीख सकती हैं और खुद इस प्रक्रिया पर काबू भी कर सकेंगी. उनके विज्ञान और प्रतिबद्धता ने उन्हें सेकुलर और तार्किक बनाए रखा. इला भट्ट ने यूं ही उनकी तारीफ के पुल नहीं बांधे हैं.
कुरियन कोई खुले दिमाग के नौसिखुआ बहसबाज भर नहीं थे. वे जिससे सहमत नहीं होते उसे छका कर छोड़ते थे. एक बार एक खोजी शख्स ने, जो बाद में काफी मशहूर हुआ, यह दिखा दिया कि दूध का उत्पादन बढऩे से कुछ परिवारों में दूध का उपभोग कम हो जाता है. वे इस बात पर उखड़ गए थे. जब मैंने उन्हें बताया कि इस बात में दम है क्योंकि कोई भी परिवार दूध की बिक्री से बढ़ी आय का इस्तेमाल दूसरी जरूरतों को पूरा करने में लगाना चाहेगा. उनका जवाब था कि सारे अर्थशास्त्री सिर्फ जबान चलाते हैं.
वे मानते थे कि सहकारी संस्था में नियमित चुनाव होने चाहिए. हर साल उसके एकाउंट्स की जांच होनी चाहिए. उन्हें भ्रष्ट और कपटी लोगों से सख्त नफरत थी. आखिरी बार वे आणंद डिक्लेरेशन नाम के बड़े आयोजन में आए थे, जहां नई पीढ़ी के सहकारी संस्थानों पर बात हुई थी. उन्होंने साफ कहा थाः सुधार या विनाश.
ग्रामीण लोगों की आय का एक-तिहाई हिस्सा दूध से आता है और कुरियन इस बात को समझते हुए इकलौता कामयाब मॉडल खड़ा करने वाले शख्स थे. 30 साल पहले उन्हें एहसास हो गया था कि सिर्फ मशीनें, टेक्नोलॉजी और सहकारिता से काम नहीं बनेगा, इस काम के लिए मैनेजरों की भी जरूरत होगी. इरमा (इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल मैनेजमेंट, आणंद) से निकले उन शुरुआती स्नातकों को सुनना काफी दिलचस्प है जिन्हें कुरियन ने प्रेरित किया था. सोढ़ी, शिव कुमार और जाने कितने ऐसे नाम हैं. वे युवाओं को कुछ अलग करने की सीख देते थे.
वे कहते हैं, “आप एमबीए के दौरान गांव में चार महीने से ज्यादा वक्त बिताते हैं. हमारी तरह अगर आप अपने शुरुआती कुछ साल गांव में बिता लें और ग्रामीण समस्याओं को हल करने में वक्त लगाएं, तो आपको कोई टक्कर नहीं दे सकता.” जाहिर है इरमा में प्लेसमेंट के दौरान सिर्फ अच्छे वेतन को ही तरजीह नहीं दी जाती, चुनौतीपूर्ण नौकरियां भी एक समस्या है. यह देश का इकलौता मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट है जहां से निकलकर अगर आप बहुराष्ट्रीय कंपनी में चले गए, तो उसे खुशी नहीं होती.
लोग मुझसे पूछते हैं, अब आगे क्या. दरअसल, इस किस्म के दौर का कभी अंत नहीं होता. कुरियन के दिखाए रास्ते पर चलकर राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड भी सहकारी संस्थानों, स्व सहायता समूहों और उत्पादक कंपनियों की बात कर रहा है. कई एनजीओ भी ऐसे ही मॉडल पर काम कर रहे हैं.
नाबार्ड इनके लिए वित्तीय उत्पाद तैयार कर रहा है. लेकिन इन सबसे ऊपर, वर्गीज़ कुरियन हमारे लिए सबसे बड़ी विरासत यह छोड़ गए हैं कि हमारे आथिर्क सुधार स्वदेशी के रास्ते होने चाहिए और हमें अपनी शर्तों पर वैश्वीकरण का हिस्सा बनना चाहिए, बशर्ते हम ऐसा करने की ताकत अजिर्त करें. जो इसे नहीं समझ्ते, वे न सिर्फ कुरियन बल्कि भारतीय इतिहास की ओर पीठ कर के खड़े हैं.
लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल मैनेजमेंट के चेयरमैन हैं.