कहां तक कहें युगों की बात
मिथिलेश्वर
नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया,
नेहरू भवन, बसंत कुंज, नई दिल्ली-70,
कीमतः 185 रु.
कहां तक कहें युगों की बात हिंदी के मशहूर कथाकार मिथिलेश्वर की आत्मकथा है. इसमें सोलह उपाख्यान हैं. हर उपाख्यान एक सघन उपन्यासिका की तरह पठनीय. लेकिन समग्रता में फिर भी अपूर्ण, गांधी के सत्य के प्रयोग की तरह. गांधी ज्यादा बड़े गद्यकार थे. उन्हें वाचिक शैली का अच्छा अभ्यास था. मिथिलेश्वर कथाकार होने के अतिरिक्त हिंदी के अध्यापक भी हैं. उनकी आत्मकथा में दोनों दखल देते हैं. यद्यपि आत्मश्लाघा कम है. अपनी प्रतिभा और उपलब्धियों को लेकर वे अभिभूत नहीं हैं पर उम्मीद जगाते हैं. कहीं लेखक काम आता है, कहीं प्राध्यापक. गाढ़े समय में संकटमोचन की तरह.
मिथिलेश्वर प्रेमचंद की परंपरा के सहज किस्सागो हैं. वे यथार्थवादी हैं और उनकी कहानियों के प्रमुख पात्र और घटनाएं रेणु के आख्यानों में आए पात्रों और घटनाओं की तरह ही वास्तविक हैं. उनकी लोकप्रियता का एक रहस्य यह भी है कि उनकी कहानियां धर्मयुग, सारिका आदि में प्रकाशित 'ईं. इससे उन्हें बड़ी संख्या में पाठक मिले, पुरस्कार भी. उन्हें प्रकाशक की किल्लत कभी नहीं हुई. फिर भी जीविकोपार्जन के लिए मिथिलेश्वर को हिंदी का प्राध्यापक बनना पड़ा.
पहले रांची विश्वविद्यालय में, फिर मगध में, कालांतर में उनका कॉलेज वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय बन गया. लेखक होने के गुमान या स्वाभिमान ने उन्हें विशिष्टता की व्याधि से बचा लिया. इस किताब में उन्होंने अपने बारे में उतने विस्तार से नहीं लिखा है, जितने विस्तार से उपनी रचनाओं के बारे में. इससे उन पर रिसर्च करने वालों को सहयोग होगा. शिक्षा-क्षेत्र में जो गिरावट आई है, वह समाज के अन्य क्षेत्रों की गिरावट का प्रतिबिंबन है.
राजनीति ने किसी को नहीं बख्शा. लेखक और अध्यापक होने के साथ-साथ मिथिलेश्वर चार पुत्रियों के पिता भी हैं. इस रूप में भी उनका हर्ष-विषाद वर्णित है. पुत्रियों की शिक्षा-दीक्षा और विवाह आदि के प्रसंग हैं. सामाजिक बुराइयों पर बिना किसी उत्तेजना के लिखते हैं मिथिलेश्वर. पत्नी रेणु की नौकरी के प्रसंग में स्कूली शिक्षण व्यवस्था बेनकाब होती है. ट्रांसफर और पोस्टिंग के निराले खेल, दलालों की भूमिका.
हम इस आत्मकथा से जान पाते हैं कि सुदूर कस्बों और ग्रामांचलों में रहकर राष्ट्रीय स्तर का लेखन कितना दुष्कर है. मिथिलेश्वर कर्मयोगी हैं, इसलिए अकेले नहीं हुए. इसमें परिवार समेत मां की भूमिका सर्वोपरि है. शुरुआत हुई है रांची में अध्यापक जीवन से और समापन हुआ है मां के चिता-भस्म में परिणत हो जाने में. यह एक दुखद आख्यान है, पाठक के लिए अवसाद से उबर पाने के अवसर ज्यादा नहीं.
इसमें शिक्षा, चिकित्सा और सामाजिक संदर्भ बिना किसी उत्तेजना के आलोच्य हुए हैं. एक प्रसंग अलग से ध्यानाकर्षण करता है, लेखक के लुट जाने का. रेल हो या परिवहन, अंधेरे में लूट मची है. मिथिलेश्वर को अपने ही क्षेत्र में लुट जाने का अनोखा अनुभव है. लेकिन ऐसे व्यक्ति भी हैं, जो आपदा में आगे आते हैं, बचाते हैं. कहानियां काम आती हैं, मनोयोग से किया गया अध्यापन काम आता है.
इस आत्मकथा में आत्म का अंतःकरण जैसे-जैसे और जहां-जहां फैलता-फूलता है, कथा-गति मंथर, अति मंथर होती है. पर भाषा सहज बनी रहती है. इसमें यात्रे आदि प्रयोग स्थानीय लगते हैं. पूरी संरचना अवसाद के अधीन होने को जैसे अभिशप्त है, मानो काफ्का की अंतर्वस्तु को भारतीय संस्कार देने का प्रयोजन हो. जीवन के जारी रहने के खंडित दृश्यालेखों के बावजूद मिथिलेश्वर पाठकों को थकाते भी खूब हैं.