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राजस्थान में अब बेटी ने बांधी पगड़ी

एक गुर्जर परिवार की बेटी ने पगड़ी पहनकर मचा दी पूरी बिरादरी में खलबली. बराबरी के मुद्दे पर समाज में बहस हुई तेज.

अपडेटेड 19 अगस्त , 2012

बाप की पगड़ी बेटी के सिर! वह भी निहायत परंपरावादी गुर्जर समुदाय में. बूंदी जिले में हिंडौली के पास 40 घरों के छोटे-से बीचड़ी गांव में पिछले रविवार को यह बड़ी घटना हुई. हाल ही दिवंगत रामसिंह कसाणा की 61 वर्षीया पत्नी अमृता सिंह ने बाकायदा प्रशासन की मौजूदगी में अपनी अविवाहित ज्‍येष्ठ पुत्री 36 वर्षीया त्रिशला सिंह को पगड़ी पहनाई.

बिरादरी और खानदान में दूसरे लोगों के विरोध की परवाह न करते हुए इस साहसी गुर्जर युवती ने सामाजिक बदलाव की एक नई इबारत लिख दी. तमाम विरोधों के बावजूद राम सिंह की बेटियों ने उन्हें कंधा भी दिया था और चिता को मुखाग्नि भी. गुर्जर समाज की प्रगतिशीलता का यह शानदार उदाहरण है. इस घटना ने छोटे-से बीचड़ी गांव को सुर्खियों में ला दिया है. कथित तौर पर इस पहल का विरोध करने वाले त्रिशला के ताऊ बालू सिंह के पास देश भर से समाज के लोगों के फोन आ रहे हैं.

एक मां और तीन बेटियों के गुर्जर परिवार की इस साहसिक पहल के पीछे की सबसे बड़ी वजह है परिवार की उच्च शिक्षा. मूलतः झुंझुनूं के चिड़ावा का यह परिवार तीस बरस पहले बीचड़ी आ बसा था. रामसिंह और पत्नी अमृता दोनों ही गोवा के दो बड़े होटलों में मैनेजर थे. कुछेक साल पहले तीन भाइयों में 300 बीघा जमीन का बंटवारा होने के बाद वे यहां आकर खेती करने लगे थे और गोवा आना-जाना लगा रहता था.

सबसे बड़ी बेटी, आइआइटी कानपुर से पीएचडी त्रिशला एक बहुराष्ट्रीय कंपनी फ्रॉस्ट ऐंड सुलेबन की एशिया हेड हैं. दूसरी बेटी तासीन कंप्यूटर इंजीनियर और प्रोफेशनल फोटोग्राफर और तीसरी तारिनी जर्मनी से पीएचडी कर रही है.

पहली अगस्त को राम सिंह की मृत्यु के बाद उनकी बेटियों ने पुलिस में शिकायत की कि परिवार के दूसरे लोग मृत्युभोज कराना चाहते हैं, जबकि बेटियां और मां इसके पक्ष में नहीं हैं. एसडीएम कोर्ट ने इस पर चेतावनी दी. हालांकि बालू सिंह ने सफाई दी, ''गुर्जर आरक्षण संघर्ष समिति का सदस्य होने के नाते मैं खुद मृत्युभोज के खिलाफ हूं.'' पर त्रिशला ने इंडिया टुडे  को बताया कि किराने की दुकान से पता चला, 1,000 लोगों के राशन का ऑर्डर दिया जा चुका था.

खैर, मृत्युभोज रुक गया पर बात अटक गई पगड़ी रस्म पर. बेटियों ने पुलिस अधीक्षक प्रीति चंद्रा से शिकायत की कि ''रिश्तेदार चचेरे भाई को पगड़ी पहनवाने पर दबाव डाल रहे हैं. उनकी मंशा हमारे पिता के हिस्से की 108 बीघा जमीन हड़पने की है.'' चंद्रा ने रिश्तेदारों को खबरदार किया और कहा कि बेटियों को उनके अधिकार से वंचित नहीं होने दिया जाएगा. आखिरकार त्रिशला उत्तराधिकारी बनीं.

बूंदी के गुर्जर विकास संगठन के संरक्षक चौथमल गोचर इसे क्रांतिकारी कदम बताते हुए कहते हैं, ''लक्ष्मीबाई जब उस जमाने में युद्ध लड़ सकती थीं तो इस जमाने में त्रिशला पगड़ी क्यों नहीं पहन सकती?'' पर यहीं वे जोड़ते हैं कि ये संगठन के नहीं, उनके विचार हैं. कोटा के गुर्जर कवि गोविंद हांकला भी इसमें अपनी बात जोड़ते हैं, ''नारी को बराबरी के दर्जे की बातें तो खूब होती हैं, पर सुखद शुरुआत तो अब हुई है.''

त्रिशला के परिवार ने गांव में लड़कियों के लिए अच्छा स्कूल खोलने का फैसला किया है. मां अमृता कहती हैं, ''देश की बेटियां नासा जा सकती हैं, देश-राज्‍य को चला सकती हैं तो पिता की पगड़ी क्यों नहीं पहन सकतीं? हमें पता है कि संकीर्ण मानसिकता वाले लोग खफा हैं पर किसी को तो पहल करनी ही थी.'' त्रिशला कहती हैं, ''रिश्तेदारों ने खूब टोका, लेकिन मैने पक्का इरादा कर लिया था. हमारे कानून ने बेटे-बेटियों को समान दर्जा दिया है, फिर रस्म अदायगी में भेदभाव क्यों? पढे़-लिखे तबके को इन्हें तोड़ने की हिम्मत दिखानी होगी.''

परंपरा रही है कि पिता की मौत के बाद पुत्र न होने पर भतीजा पगड़ी पहनता है. ऐसे में गुर्जर समाज में लड़की के पगड़ी पहनने पर खुसर-फुसर शुरू हो गई है. हर कोई खुलकर बोलने से कतरा रहा है. वैसे गुर्जर समाज के और भाजपा नेता प्रहलाद गुंजल साफगोई से बोले, ''आधुनिकता के नाम पर संस्कृति और परंपराओं से खिलवाड़ नहीं होना चाहिए. क्या हर कोई बेटी को ब्याहने की बजाए घर बैठाए रख सकता है?'' गुंजल बेटियों को हर क्षेत्र में बराबरी का अधिकार देने के हिमायती तो हैं लेकिन पगड़ी बांधने को उचित नहीं मानते.

मुद्दा ऐसा है कि बहस तो छिड़नी ही है. बालू सिंह कहते हैं कि इस मुद्े पर समाज के देश भर के लोग बैठकर मंथन करेंगे. अमृता सिंह और त्रिशला परिवार के साथ 3-4 हफ्ते यहां रहेंगी. वे खेती को बटाई पर देने और यहां की दूसरी व्यवस्थाओं के उचित प्रबंध और कानूनी कार्रवाई के बाद ही लौटेंगी. समय-समय पर गांव आती रहेंगी. इस प्रकरण को लेकर किसी की कुछ भी प्रतिक्रिया हो, लेकिन बूंदी के बीचड़ी गांव ने बड़े बदलाव की इबारत तो लिख ही डाली है.

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