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उड़ गई मीठे दर्द से भरी रेशमा की आवाज

गम और उदासी में डूबी, खनक भरी एक पुरनूर आवाज का नाम हुआ करता था रेशमा.

अपडेटेड 18 दिसंबर , 2013
यह सचमुच बड़ी गहरी जुदाई है. एशियाई सरजमीं पर लोकगायिकी की विधा में पिछली सदी की अहम आवाजों में से एक रेशमा पिछले हफ्ते 3 नवंबर को दुनिया छोड़ गईं. करीब एक महीने से वे लाहौर के एक अस्पताल में बेहोशी की हालत में थीं. पान की शौकीन और भरे स्वर की मालकिन, 66 वर्षीया रेशमा को अरसा पहले गले में कैंसर का पता चला था.

गले में आ बैठा यह दुश्मन अंतत: उन्हें साथ लेकर ही गया. शायद वह भी दीवाना हो गया हो इस बंजारन की पुरनूर आवाज का. हिंदुस्तान में संगीत के खांटी शौकीनों को छोड़ दें तो भी लाखों लोग उन्हें 1983 में आई सुभाष घई की फिल्म हीरो के चार दिना का प्यार ओ रब्बा गाने के लिए याद रखेंगे.

शोमैन राजकपूर की एक पार्टी में बंबई आईं रेशमा की आवाज सुनकर घई बेचैन हो उठे थे. गाना था अंखियां नू रहने दे अंखियां दे कोल कोल. (राज कपूर ने इसी गाने की धुन पर बॉबी में लता मंगेशकर से गवाया था अंखियों को रहने दे अंखियों के आसपास). इस मौजी सूफी गायिका को फिल्म के वास्ते गाने को राजी करने के लिए घई को खासी मिन्नत करनी पड़ी. हिंदी सिनेमा को वैसी आवाज फिर नहीं मिली. लता मंगेशकर को वे अपनी बहन सरीखा आदर देती थीं.

वैसे उनकी पैदाइश तो हिंदुस्तान की ही थी. 1947 में राजस्थान के चूरू जिले के रतनगढ़ इलाके में वे जन्मीं थीं लेकिन महीने भर बाद ही बंटवारे के चलते बंजारों का उनका कुनबा पाकिस्तान चला गया. गायिकी में उन्होंने कोई औपचारिक तालीम नहीं ली थी. उनकी दिलकश आवाज तो बस खुदा की देन थी. 12 साल की रही होंगी, जब उन्हें पाकिस्तान टीवी और रेडियो के रेस्तोताओं ने सिंध प्रांत के सहवान में सूफी फकीर शाहबाज कलंदर (झूलेलाल) की दरगाह पर गाते सुना. सीधे कलेजे में उतर जाने वाली आवाज! वे अवाक् रह गए.

उन्होंने उस किशोरी रेशमा की आवाज में झूलेलाल का मशहूर कलाम लाल मेरी पत रखियो रेकॉर्ड करके प्रसारित किया. रातोंरात वे उस समय की नामी गायिकाओं में शुमार हो गईं. इस पहली रेकॉर्डिंग के बारे में पूछे जाने पर रेशमा ने अपने ठेठ गंवई अंदाज में बताया था कि 'उन लोगों ने मुझे एक डंडे के सामने ले जाके खड़ा कर दिया और कहणे लगे कि गाओ जी’. वे असल में माइक को डंडा कह रही थीं. पूरी जिंदगी उन्होंने अपनी ठेठ जबान में बात की.

उन्होंने पंजाबी, हिंदी और उर्दू के सूफी कलाम गाए. उनकी जिंदगी निहायत सादगी वाली थी और बोलचाल में वे निहायत जिंदादिल थीं. गानों को याद करना उनकी आदत न थी लेकिन यह गायिकी के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ही थी कि वे उन्हें याद करतीं और गातीं. उनमें बच्चों जैसी एक मासूमियत थी, जो उनकी सोहबत/संपर्क में आने वाले हर आदमी को अपना बना लेती. तभी तो पाकिस्तान में उन्हें बड़े नागरिक सम्मान सितारा-ए-इम्तियाज से नवाजा गया.

रेशमा की आवाज गम और उदासी के लहजे में सनी होती थी. और जब वे भरे गले से डूबकर गातीं तो अपने पूरे परिवेश को जैसे उसी उदासी में समेट लेतीं. वे दिल से गाती थीं और अपनी मौसिकी से उन्हें गहरा लगाव था. बुरे दौर से गुजर रहे लोक संगीत के लिए वे सचमुच एक बड़ी ताकत बन गई थीं. वे जैसे धरती से फूटती एक आवाज थीं.

मिट्टी से जुडऩे वाला संगीत गाती थीं. अपनी आवाज में वे एक मीठा दर्द घोलती थीं. उनका गाया साडा चिडिय़ा दा चंबा इसकी मिसाल है. कई बार तो उन्हें सुनते-सुनते श्रोताओं की आंख में आंसू आ जाते. आज भी वे यू-ट्यूब पर सुनी जाने वाली पाकिस्तान की सबसे बड़ी गायिका हैं. वहां उनके बारे में की गईं श्रोताओं की टिप्पणियां भी उनके कद का एहसास दिला देती हैं. उनके माथे पर भौंहों के बीच कटे का एक निशान था, जो किसी शिवालय की घंटी-सा दिखता. और देखिए कि उनकी आवाज में भी घंटी के स्वर की अनुगूंज साफ प्रतीत होती थी.

हिंदुस्तान से उनका दिली लगाव था. संगीत के आयोजनों में जब-तब वे आती ही रहती थीं. दोनों मुल्कों के बीच अमन चाहती थीं. वे अक्सर कहा करतीं, ''मौसिकी के सुरों को हम भला कैसे बांट सकते हैं? सुरों का कोई मजहब नहीं होता, न ही ये कोई सरहदें मानते हैं. इन्हें बांटो मत.” अमन की सच्ची राजदूत थीं वे.

गाने को मचलती उनकी रूह किसी आकाशगंगा में विचरती हुई उदास आवाज में शिकायत कर रही होगी: हाय ओ रब्बा नइयो लगदा दिल मेरा...धरती भी उनके बिना कम उदास नहीं. 
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