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‘‘भारत एक ग्लोबल ताकत है, उस पर कोई धौंस नहीं जमा सकता’’

अपनी भारत यात्रा की पूर्व संध्या पर व्लादिमीर पुतिन ने इंडिया टुडे टीवी के साथ 100 मिनट के एक लंबे इंटरव्यू में खुलकर बात की. 73 वर्षीय रूसी राष्ट्रपति ने उनसे किए गए हर सवाल का बेबाकी से जवाब दिया

व्लादिमीर पुतिन
व्लादिमीर पुतिन
अपडेटेड 17 दिसंबर , 2025

रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चार साल से टलती आई मुलाकात ऐसे वक्त में हो रही है जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पूरी दुनिया की सियासी शतरंज की बिसात को नए सिरे से बिछाने में लगे हैं. दुनिया युद्ध, पाबंदियों और बदलते पावर सेंटर की वजह से दो हिस्सों में बंटी हुई है, और देश अपनी पुरानी सोच छोड़कर चुपचाप नई रणनीति बना रहे हैं.

ऐसे माहौल में पुतिन की भारत यात्रा सिर्फ एक औपचारिक मुलाकात नहीं है. यह पश्चिम के साथ ही विकासशील देशों को एक संदेश है कि रूस किन देशों को लंबे समय के पार्टनर के तौर पर देखता है. और भारत के लिए यह अमेरिका को बताने का मौका है कि वह दबाव में झुकने वाला देश नहीं. दोनों पक्ष अपने रिश्तों को दोबारा मजबूत करना चाहते हैं.

क्रेमलिन में अपनी भारत यात्रा से एक दिन पहले इंडिया टुडे टीवी की टीम अंजना ओम कश्यप और गीता मोहन को दिए गए इस विरले और एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में पुतिन ने 100 मिनट तक कई मुद्दों पर बात की जो सिर्फ भारत-रूस रिश्तों से परे हैं. कभी उनका लहजा सख्त था, कभी समझाने वाला, और कई बार वे हैरान करने वाले तरीके से नरम भी दिखे, खासकर जब वे भारत और मोदी की बात कर रहे थे.

इंडिया टुडे को इंटरव्यू देते वक्त रूसी राष्ट्रपति पुतिन

वे मोदी को अपना 'दोस्त’ बताते हैं और यह भी कहते हैं कि मोदी देश के लिए 'मुश्किल टास्क’ सेट करते हैं, जो अच्छी बात है. उनके लिए दिल्ली सिर्फ पुराना साथी नहीं बल्कि विकासशील देशों के नए पावर सेंटर्स का अहम हिस्सा है. ब्रिक्स, एससीओ और एशिया-अफ्रीका के वे देश जो अब व्यापार, फाइनेंस और टेक्नोलॉजी की दुनिया बदल रहे हैं.

भारत-रूस रिश्तों पर बात करते हुए पुतिन कहते हैं कि दोनों देशों का भविष्य सिर्फ डिफेंस तक सीमित नहीं. असली संभावना न्यूक्लियर एनर्जी, स्पेस, शिपबिल्डिंग, एविएशन और सबसे अहम आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में है. इसके अलावा व्यापार का असंतुलन ठीक करने का बड़ा प्लान है, वह भी किसी हुक्म से नहीं. पुतिन पश्चिम की इस कोशिश की आलोचना करते हैं कि भारत को रूसी तेल खरीदने पर टोक दिया जाए या पाबंदियों से डराया जाए. उनका कहना है कि कुछ लोग 'भारत की अंतरराष्ट्रीय बाजार में बढ़ती ताकत’ से परेशान हैं और राजनीति का इस्तेमाल करके कारोबारी माहौल को बिगाड़ रहे हैं.

यूक्रेन की जंग को लेकर पूछे गए सवाल पर पुतिन ने इसे रूसी भाषी लोगों, उनकी परंपराओं, उनकी भाषा और ऑर्थोडॉक्स चर्च की रक्षा की लड़ाई बताया. उन्होंने इंडिया टुडे टीवी से कहा कि यह 'स्पेशल मिलिट्री ऑपरेशन’ किसी जंग की शुरुआत नहीं बल्कि उस जंग को खत्म करने की कोशिश है जो 'यूक्रेनी राष्ट्रवादी ताकतों ने शुरू की थी’. उनका कहना है कि यह लड़ाई तब खत्म होगी जब रूस 'इलाके आजाद करवाने’ और अपनी सुरक्षा बढ़ाने वाले अपने लक्ष्यों को हासिल कर लेगा. नाटो (एनएटीओ) का फैलाव उनके हिसाब से सबसे बड़ी रणनीतिक समस्या है.

यह बातचीत इस बात की भी झलक देती है कि पुतिन ट्रंप की वापसी और पश्चिमी देशों को कैसे देखते हैं. वे जी8 में लौटने को लेकर खुश नहीं हैं, जी7 को भी उतना अहम नहीं मानते और ज्यादा दिलचस्पी उन प्लेटफॉर्म में दिखाते हैं जहां भारत और चीन दोनों बड़े खिलाड़ी हैं. भारत-चीन तनाव पर पुतिन ने बहुत संभलकर बात की. वे दोनों देशों को रूस का 'करीबी दोस्त’ बताते हैं और कहते हैं कि उन्हें दखल देने का कोई हक नहीं है. लेकिन वे यह भी कहते हैं कि मोदी और शी जिनपिंग 'पूरी कोशिश’ कर रहे हैं कि विवाद बढ़ने न पाए और उनकी 'समझदारी’ की वजह से एशिया की बड़ी तस्वीर बिगड़ने से बची हुई है.

पूरी बातचीत में पुतिन पूरी तरह आत्मविश्वास में दिखे. उनकी चाल-ढाल और बोलने में एक अलग ही ठसक थी. वे काफी विनम्र और दोस्ताना भी रहे. डेढ़ घंटे से ज्यादा सवाल-जवाब होने के बाद भी उन्होंने इंडिया टुडे ग्रुप की एडिटोरियल टीम के साथ अनौपचारिक चर्चा और उनके सवालों के जवाब देने के लिए हामी भर दी. पेश हैं इस इंटरव्यू के संपादित अंश:

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 4 दिसंबर को नई दिल्ली के पालम हवाई अड्डे पर रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का स्वागत

प्र. इस समय भारत-रूस दोस्ती को आप कैसे देखते हैं? और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में क्या कहना चाहेंगे, जिन्हें आप अपना दोस्त कहते हैं?
देखिए, दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है और बदलाव की यह रफ्तार लगातार बढ़ती जा रही है, यह सबको साफ दिख रहा है. दुनिया की ताकतों का संतुलन बदल रहा है, नए पावर सेंटर उभर रहे हैं और पूरी ग्लोबल तस्वीर बदल रही है. ऐसे में बड़े देशों के बीच स्थिरता कायम रहना बहुत जरूरी है क्योंकि इसी पर दो देशों के रिश्ते और अंतरराष्ट्रीय साझेदारी आगे बढ़ती है. इसी वजह से प्रधानमंत्री मोदी के साथ हमारी साझेदारी की अहमियत बहुत ज्यादा है. यह सिर्फ हमारे आपसी रिश्तों से आगे जाती है.

दोनों देशों के हितों को देखते हुए जरूरी है कि उन अहम क्षेत्रों में स्थिरता बनी रहे जिन पर हमारा सहयोग टिका है, ताकि हम अपने लक्ष्य पूरे कर सकें. प्रधानमंत्री मोदी देश के लिए बहुत कठिन टास्क तय करते हैं. सबसे पहले खुद के लिए, फिर प्रशासन के लिए और फिर पूरे देश के लिए. उनका 'मेक इन इंडिया’ वाला आइडिया इसकी मिसाल है. इसका एक सीधा असर हमारे रिश्तों पर भी पड़ता है. जब भी हम मिलते हैं, वे कहते हैं, ''यह करें, वह करें, इस सेक्टर पर नजर डालें, उस सेक्टर को आगे बढ़ाएं.’’ मैं इन सबकी लंबी लिस्ट बना सकता हूं. इसलिए हमारे पास काम करने के लिए बहुत सारे ठोस मौके हैं.

हाल में एससीओ (शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन) की बैठक में जब आपकी और मोदी की मुलाकात हुई, तो एक वीडियो सामने आया था जिसमें आप दोनों एक ही कार में बैठे थे. क्या यह पहले से तय था? आपने क्या बात की?
हमने बस मौजूदा मुद्दों पर बात की थी. यह पहले से तय नहीं था. हम बाहर निकले तो मेरी कार सामने थी. मैंने पूछा, ''क्या आप चलना चाहेंगे?’’ बस इतनी-सी बात थी. यह एक इंसानी एकता का जेस्चर था, मेलमिलाप और दोस्ताना था. इसमें कोई छुपी हुई योजना नहीं थी. हम दोनों ऐसे कार में बैठे जैसे पुराने दोस्त बैठते हैं और रास्ते में बात करते रहे. हमारे पास हमेशा बात करने के लिए कुछ न कुछ होता ही है.

आपने कहा कि दोनों नेता उन वादों को मजबूत करेंगे जो आपने एक-दूसरे से किए हैं. हम किस तरह के ऐलान की उम्मीद कर सकते हैं?
हमने कई अहम क्षेत्रों में बड़े सहयोग का प्लान तैयार किया है. सबसे जरूरी और आगे की सोच वाले सेक्टर हाइ टेक्नोलॉजी वाले हैं. भारत के साथ हमारी साझेदारी में स्पेस, एनर्जी, खासकर न्यूक्लियर पावर जैसे कूडनकुलम न्यूक्लियर प्लांट, शिपबिल्डिंग और एविएशन जैसे सेक्टर शामिल हैं. इनके अलावा भी कई दिलचस्प और भविष्य के क्षेत्र हैं. जैसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, जो आने वाले समय की सबसे अहम टेक्नोलॉजी बनने वाली है. यह दुनिया को तेजी से बदल रही है, नए मौके पैदा कर रही है और साथ ही कुछ मुश्किलें भी ला रही है.

भारत को रूसी तेल बेचने को लेकर भारत और रूस दोनों पर भारी पश्चिमी दबाव है. दोनों देश इस दबाव और पाबंदियों से कैसे निबट सकते हैं?
यहां मसला यह है कि यह दबाव असली मुकाबले को बिगाड़ने के लिए सियासी तरीकों का इस्तेमाल करता है. भारत के साथ हमारी एनर्जी पार्टनरशिप मौजूदा हालात, राजनैतिक उतार-चढ़ाव या यूक्रेन में चल रही दुखद घटनाओं से प्रभावित नहीं होती. तेल-गैस के मामले में हमारी कंपनियों और भारत के बीच कई साल पहले ही एक मजबूत और भरोसेमंद कारोबारी रिश्ता बन चुका था. सब जानते हैं कि हमारी एक बड़ी कंपनी ने भारत में एक ऑयल रिफाइनरी खरीदी थी. यह भारत की अर्थव्यवस्था में आने वाले सबसे बड़े विदेशी निवेशों में से एक था, 20 अरब डॉलर से ज्यादा.

हमारी कंपनी लगातार इस रिफाइनरी का काम बढ़ा रही है, अपने पार्टनरों के साथ मिलकर साल-दर-साल अच्छे नतीजे ला रही है. नतीजा यह है कि भारत आज यूरोप को रिफाइंड तेल बेचने वाले बड़े देशों में शामिल हो चुका है. यह सिर्फ इसलिए नहीं है कि भारत हमारा डिस्काउंट वाला तेल खरीदता है. इस रिश्ते को बनाने में कई साल लगे हैं और इसका मौजूदा हालात या पाबंदियों से कोई सीधा लेना-देना नहीं. कुछ लोग भारत की बढ़ती ग्लोबल ताकत से खुश नहीं हैं और रूस के साथ उसकी मजबूत साझेदारी उन्हें और परेशान करती है. इसीलिए वे भारत के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए राजनैतिक दबाव और कृत्रिम रुकावटें पैदा कर रहे हैं.

अमेरिका की पाबंदियों, भारत पर बनाए जा रहे दबाव और जोर-जबरदस्ती जैसी कोशिशों के बीच आप इन सबको कैसे संभालने वाले हैं? पीछे हटेंगे या और जोर लगाएंगे?
मेरा मानना है कि भारत और दुनिया, दोनों समझ चुके हैं कि भारत को अब वैसे नहीं ट्रीट किया जा सकता जैसे 77 साल पहले किया जाता था. भारत एक बड़ा ग्लोबल खिलाड़ी है, कोई ब्रिटिश उपनिवेश नहीं. यह हकीकत हर किसी को माननी होगी. और प्रधानमंत्री मोदी ऐसे इंसान नहीं हैं जो किसी तरह के दबाव में आ जाएं. भारतीय लोग इस बात पर फख्र कर सकते हैं कि उनका नेता दबाव के आगे नहीं झुकता. उनका रवैया साफ और मजबूत है, बेवजह टकराव की भावना के बिना.

हमारा मकसद लड़ाई भड़काना नहीं है, हम बस अपने हक की रक्षा करना चाहते हैं. भारत भी यही करता है. जहां तक पैसों के लेन-देन में रुकावटों की बात है, हमारा 90 फीसद से ज्यादा ट्रेड राष्ट्रीय मुद्राओं में होता है. जो देश तीसरे देशों के साथ हमारे आर्थिक रिश्ते रोकना चाहते हैं, वे आखिर में खुद मुश्किल में पड़ते हैं और नुक्सान उठाते हैं. मुझे पूरा भरोसा है कि जब यह बात साफ हो जाएगी, तो ऐसे बाहरी दबाव डालने की कोशिशें अपने आप खत्म हो जाएंगी.

क्या पश्चिमी दबाव के बाद भारत ने रूस से तेल खरीदना कम किया है?
देखिए, इस साल के पहले नौ महीनों में कुल ट्रेड में थोड़ी-बहुत गिरावट जरूर दिखी है. यह एक छोटा-सा एडजस्टमेंट है. कुल मिलाकर हमारा व्यापार लगभग पहले जैसा ही है.

ऑपरेशन सिंदूर के दौरान रूस से मिले हथियार भारत की जीत में काफी अहम साबित हुए. भारत ने जो बाकी एस400 सिस्टम खरीदे हैं, वे कब तक मिलेंगे? यह भी चर्चा है कि रूस एस500 और अपने फिक्रथ जेनरेशन फाइटर जेट एसयू-57 की पेशकश भी कर सकता है. क्या आप अपनी भारत यात्रा  में इस पर जोर देने वाले हैं?
अगर हम सही मायनों में बात करें तो भारत इस क्षेत्र में हमारे सबसे भरोसेमंद और खास पार्टनरों में से एक है. यह सिर्फ खरीद-बिक्री का रिश्ता नहीं है. भारत हमसे सिर्फ सामान नहीं खरीद रहा और हम भारत को सिर्फ सामान नहीं बेच रहे. यह एक अलग स्तर का रिश्ता है, जिसकी क्वालिटी बिल्कुल अलग है, और हम इसकी बहुत कद्र करते हैं. हमें यह भी दिखता है कि भारत भी इस रिश्ते को उतनी ही अहमियत देता है. आखिर क्यों?

क्योंकि हम सिर्फ टेक्नोलॉजी बेचते नहीं, हम उसे साझा करते हैं. और सैन्य टेक्नोलॉजी में ऐसा होना बहुत दुर्लभ बात है. यह दोनों देशों और दोनों जनता के बीच के भरोसे को दिखाता है. हमारे पास नेवी, रॉकेट और मिसाइल इंजीनियरिंग, और एयरक्राफ्ट इंजीनियरिंग में बड़ा पोर्टफोलियो है. आपने एसयू-57 का जिक्र किया. भारत आज भी कई रूसी एयरक्राफ्ट उड़ा रहा है. और ब्रह्मोस मिसाइल, जो रूस और भारत का जॉइंट वेंचर है, मुक्चय रूप से भारत में ही बनाई जाती है. इसलिए प्रधानमंत्री मोदी की 'मेक इन इंडिया’ पहल को इस क्षेत्र में भी आगे बढ़ाया जाना चाहिए.

रूस भारत में न्यूक्लियर सुविधाओं के मामले में सबसे बड़े सहयोगियों में रहा है. क्या हम न्यूक्लियर सेक्टर से जुड़ी कुछ बड़ी घोषणाओं की उम्मीद कर सकते हैं?
जी, बिल्कुल. हमारे पास कुछ अहम ऐलान तैयार हैं. और एक बात साफ कर दूं कि हम सिर्फ 'मूवर्स’ नहीं हैं. हम दुनिया के सबसे एडवांस और भरोसेमंद न्यूक्लियर पावर प्लांट उपकरण बनाने वाले हैं. कूडनकुलम प्लांट, जो भारत और रूस की संयुक्त परियोजनाओं में से एक है, इसकी बेहतरीन मिसाल है. रूस शायद दुनिया का इकलौता देश है जो छोटे न्यूक्लियर पावर प्लांट बना सकता है और बना रहा है. ऐसे प्लांट रूस में पहले से चल रहे हैं. ये छोटे मॉड्यूल वाले न्यूक्लियर प्लांट अलग-थलग और मुश्किल इलाकों में भी लगाए जा सकते हैं.

● आपको क्या लगता है, राष्ट्रपति ट्रंप इन सब पर कैसी प्रतिक्रिया देंगे?
देखिए, मैं और प्रधानमंत्री मोदी, जो भले ही बाहर से खासा दबाव झेलते हों, कभी भी अपनी साझेदारी किसी के खिलाफ नहीं बनाते. ट्रंप के अपने मकसद हैं, अपनी प्राथमिकताएं हैं. और हम अपने हितों पर फोकस करते हैं, भारत और रूस के हितों पर. इसमें किसी और को नुक्सान पहुंचाने की कोई कोशिश नहीं होती. मेरा मानना है कि बाकी देशों के नेताओं को इस बात की कद्र करनी चाहिए.

जहां तक भारत के रूसी ऊर्जा संसाधन खरीदने की बात है, मैं एक बात पहले भी सार्वजनिक रूप से कह चुका हूं और वह यह है कि खुद अमेरिका आज भी अपने न्यूक्लियर पावर प्लांट्स के लिए रूस से न्यूक्लियर फ्यूल, यानी यूरेनियम खरीदता है. अगर अमेरिका को हमारा फ्यूल खरीदने का हक है, तो भारत को क्यों नहीं? यह सवाल गंभीर है और इस पर शांत दिमाग से बात होनी चाहिए. राष्ट्रपति ट्रंप समेत सभी से हम इस पर बातचीत करने को तैयार हैं.

आप अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को किस तरह से देखते हैं?
मैं अपने किसी भी साथी नेता के बारे में पर्सनल राय या कैरेक्टर का मूल्यांकन नहीं करता, न उन लोगों का जिनके साथ पहले काम किया है, न ही मौजूदा समय के अलग-अलग मुल्कों के नेताओं का. ऐसा आकलन उनके नागरिकों को करना चाहिए, जो चुनाव में अपने नेता को चुनते हैं.

ट्रंप ने टैरिफ को हथियार की तरह इस्तेमाल किया है, भारत के खिलाफ भी. भारत और रूस को ट्रंप और अमेरिकी प्रशासन को कैसे संभालना चाहिए?
देखिए, ट्रंप अपनी नीति के हिसाब से चलते हैं. उनके सलाहकार हैं जो उन्हें बताते हैं कि ऐसे टैरिफ लगाना, यानी ट्रेड पार्टनरों पर अतिरिक्त शुल्क लगाना, अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए फायदेमंद होगा. मुझे लगता है कि वे भली नीयत से ही सब करते हैं. हम इस तरह की नीति में कभी शामिल नहीं हुए, अभी भी नहीं हैं और आगे भी ऐसा करने का इरादा नहीं है. हमारी अर्थव्यवस्था खुली है. हमें उम्मीद है कि वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन के सारे नियमों का उल्लंघन आखिर में दुरुस्त कर लिया जाएगा.

आपने हाल ही यूक्रेन पर दो अमेरिकी प्रतिनिधियों से एक अहम बैठक की. उसका नतीजा क्या रहा?
अभी उस पर बात करना थोड़ा जल्दबाजी होगी. बैठक पांच घंटे चली. सच कहूं तो मैं खुद भी थक गया था, पांच घंटे बहुत ज्यादा होते हैं. लेकिन यह जरूरी थी क्योंकि बातचीत काफी उपयोगी रही. जो प्रस्ताव अमेरिकी लोग लेकर आए थे, वे किसी न किसी तरह उन शुरुआती बातों से जुड़े थे जो मैंने ट्रंप से अलास्का में मुलाकात के दौरान की थीं. हम ऐंकरेज की बैठक में भी इन मुद्दों पर थोड़ी बात कर चुके थे. लेकिन इस बार जो चीजें वे लेकर आए, उनमें कई नई बातें थीं. हमने इससे पहले उन्हें नहीं देखा था. इसलिए हमें लगभग हर पॉइंट को विस्तार से समझना पड़ा. इसी वजह से इतनी देर लगी. कुल मिलाकर यह एक ठोस, गंभीर और बहुत ही सारगर्भित बातचीत थी.

क्या बैठक में किसी मुद्दे पर गंभीर असहमति हुई?
हां, कुछ मुद्दों पर मतभेद थे. हमने उन पर बात की. यह काम बहुत जटिल है और यह मिशन भी काफी चुनौती भरा है, जिसे राष्ट्रपति ट्रंप ने खुद अपने ऊपर लिया है. मैं यह बिना किसी तंज के कह रहा हूं कि टकराव में फंसे दोनों पक्षों को एक राय पर लाना आसान काम नहीं है लेकिन मुझे सच में लगता है कि राष्ट्रपति ट्रंप ईमानदारी से कोशिश कर रहे हैं. हमने हर पॉइंट को फिर से देखा.

कई बार हमने कहा, ''हां, इस पर हम बात कर सकते हैं, लेकिन उस बात पर हम राजी नहीं हो सकते.’’ बातचीत इसी तरह से हुई. अभी यह बताना जल्दबाजी होगी कि कौन-सी बात हमें ठीक नहीं लगीं या किस पर हम मान सकते थे. इससे ट्रंप जिस तरीके से बातचीत चलाना चाहते हैं, वह गड़बड़ा सकता है. वे लगातार 'शटल डिप्लोमैसी’ में लगे हैं. कभी यूक्रेन वालों से बात, फिर यूरोप वालों से, फिर यहां आकर हमसे. फिर वापस जाकर उनसे बात. मुझे लगता है हमें इस कोशिश में साथ देना चाहिए, न कि इसे रोकना चाहिए.

अलास्का में ट्रंप के साथ क्या हुआ था? क्या वह वाकई शांति समझौते के लिए गंभीर थे?
मुझे बिल्कुल भी शक नहीं है कि ट्रंप की नीयत साफ थी. अमेरिका और खुद ट्रंप के पास भी यह मानने की अपनी वजहें हैं कि इस मसले को जल्दी सुलझाना जरूरी है, मानवीय आधार पर भी. मैं सच में मानता हूं कि यह उनकी कोशिश की बड़ी वजह है, क्योंकि वे बार-बार कहते हैं कि नुक्सान कम से कम होना चाहिए. लेकिन इसके साथ-साथ राजनैतिक और आर्थिक फैक्टर भी आते हैं. इसलिए मुझे लगता है कि अमेरिका इस मसले का हल खोजने के लिए गंभीरता से कोशिश कर रहा है.

राष्ट्रपति जेलेंस्की के बारे में आप क्या सोचते हैं? उन्हें नाटो का वादा किया गया था, यूरोपियन यूनियन ने भी वादा किया लेकिन कुछ नहीं हुआ. क्या यूक्रेन के लिए नाटो कभी सच में विकल्प था?
जब ये महानुभाव सत्ता में आए थे, तो उन्होंने कहा था कि वे हर कीमत पर शांति लाएंगे, चाहे इसके लिए उन्हें अपनी कुर्सी भी क्यों न गंवानी पड़े. लेकिन आज हालात अलग दिखते हैं. वे भी अपने पहले के नेताओं की तरह एक छोटी राष्ट्रवादी—और बेहद कट्टर—लॉबी के हितों को आम लोगों से ऊपर रख रहे हैं. यानी वे देश के लिए नहीं, बल्कि उस ग्रुप के एजेंडे के मुताबिक चल रहे हैं.

इस सोच की वजह से उनका रवैया एक तरह से नियो-नाजी जैसा लगता है क्योंकि कट्टर राष्ट्रवाद और नियो-नाजी सोच में बहुत फर्क नहीं होता. आज उनकी पूरी सोच सैन्य कार्रवाई पर टिकी है. लेकिन इस मोर्चे पर भी उन्हें खास सफलता नहीं मिली. मैं पहले भी कह चुका हूं: असली मुद्दा यह है कि उन्हें समझना चाहिए, समस्या का हल बातचीत में है. हमने 2022 में उनसे बातचीत की कोशिश भी की थी. अब वे आगे क्या करना चाहते हैं, यह उनसे ही पूछा जाना चाहिए.

क्या नाटो का फैलाव सचमुच खतरा है या सिर्फ बहाना? क्या रूस यूक्रेन का कुछ हिस्सा अपने नियंत्रण में रखना चाहता है?
देखिए, नाटो का मसला बिल्कुल अलग है. रूसी भाषा, रूसी संस्कृति, धर्म और इलाके, ये बहुत अहम मुद्दे हैं, एक ही श्रेणी के. लेकिन नाटो बिल्कुल अलग मुद्दा है. हम अपने लिए कोई खास फायदा नहीं मांग रहे. पहली बात, दुनिया में यह सहमति है कि किसी एक देश की सुरक्षा दूसरों की सुरक्षा को कमजोर करके नहीं बनाई जा सकती. यह बात थोड़ी भारी लग सकती है लेकिन मैं इसे आसान तरीके से समझाता हूं.

हर देश—यूक्रेन भी—अपनी सुरक्षा के लिए अपने तरीके चुन सकता है. यह बिल्कुल ठीक है, इसमें कोई बुराई नहीं. क्या हम यूक्रेन का यह हक छीन रहे हैं? बिल्कुल नहीं. लेकिन यह हक रूस की कीमत पर नहीं होना चाहिए. यूक्रेन सोचता है कि नाटो में जाने से उसकी सुरक्षा बढ़ेगी. और हम कहते हैं कि यह हमारी सुरक्षा के लिए खतरा है. तो चलिए ऐसा तरीका निकालते हैं जिसमें आपकी सुरक्षा भी रहे और हमारे लिए खतरा भी न बने.

दूसरी बात, हम कोई नई चीज तो मांग नहीं रहे. हम तो उन वादों की बात कर रहे हैं जो ’90 के दशक में रूस से किए गए थे कि नाटो पूरब की तरफ नहीं बढ़ेगा. यह बात सबके सामने कही गई थी. लेकिन इसके बाद कई बार नाटो का विस्तार हुआ और अंत में यूक्रेन को भी इसमें घसीटा जाने लगा. यह हमें बिल्कुल मंजूर नहीं है और हमारे लिए बड़ा खतरा है.

नाटो एक सैन्य गठबंधन है, और इसके वाशिंगटन ट्रीटी का आर्टिकल 5 आज भी मौजूद है. यह हमारे लिए खतरा है. कोई हमें गंभीरता से लेता ही नहीं. आखिरी बात, बहुत-से लोग यह भूल जाते हैं कि जब यूक्रेन आजाद हुआ था तो स्वतंत्रता के पहले जिस दस्तावेज को मंजूरी दी गई थी, वह था ''डिक्लेरेशन ऑफ स्टेट सोवरिनिटी ऑफ यूक्रे.’’ यह उनकी आधुनिक राष्ट्र-व्यवस्था का आधार है. उसमें साफ लिखा है कि यूक्रेन एक 'न्यूट्रल’ देश होगा.

क्या आप फिर से जी8 में लौटना चाहते हैं?
नहीं. सच तो यह है कि एक वक्त के बाद मैंने खुद उन बैठकों में जाना बंद कर दिया था. पहली बात. और दूसरी बात यह कि जैसा मैंने पहले भी कहा है, यह साफ नहीं है कि जी7 वाले खुद को 'बिग सेवन’ क्यों कहते हैं. इसमें इतना बड़ा क्या है? खरीद क्षमता के हिसाब से देखें तो भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. और यूनाइटेड किंगडम कहां है? दसवें नंबर के आसपास?

हां, यह सही है कि उन देशों के पास एडवांस, हाइ-टेक अर्थव्यवस्थाएं हैं, उनकी बुनियाद अब भी मजबूत है. लेकिन सच यह भी है कि पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था में उनकी हिस्सेदारी हर साल कम होती जा रही है. यह रुझान साफ दिख रहा है और आगे भी ऐसे ही चलेगा. इसकी वजहों में से एक है, उन देशों के नेताओं की गलत आर्थिक नीतियां. जर्मनी लगातार तीसरे साल मंदी से जूझ रहा है. फ्रांस भी मुश्किल में है, मंदी के कगार पर.

दूसरे यूरोपीय देश भी ऐसी ही हालत में हैं. फिर भी, जी7 एक अहम प्लेटफॉर्म है. वे वहां काम करते हैं, फैसले लेते हैं, आपस में बातें करते हैं, ठीक है, ऊपरवाला उन्हें सलामत रखे. लेकिन एक और बात है. आज रूस और यूरोपीय देशों के रिश्ते सामान्य भी नहीं कहे जा सकते. तो आप सोचते हैं मैं जी8 में जाऊं तो वहां किससे और कैसे बात करूं, जब वे मुझसे बात ही नहीं करना चाहते? वहां जाकर मैं क्या करूंगा? और फिर, आज एससीओ, ब्रिक्स, जी20 जैसे नए अंतरराष्ट्रीय ग्रुप बन रहे हैं. और हमारी सोच टकराव वाली नहीं है.

क्या दुनिया की व्यवस्था बदल रही है? नई बहुध्रुवीय दुनिया में नए पावर सेंटर कौन होंगे?
दुनिया लगातार बदलती रहती है. आज यह बदलाव बहुत तेज है, सचमुच बहुत तेज. यह हम देख भी सकते हैं और महसूस भी कर सकते हैं. सबसे पहले जो बदलाव दिख रहा है वह आर्थिक है. यह बदलाव यूक्रेन या किसी दूसरे संघर्ष से जुड़ा नहीं है, यह वैसे ही स्वाभाविक रूप से हो रहा है. और सच यह है कि नए, तेजी से बढ़ते ग्रोथ सेंटर उभर रहे हैं.

इनमें ग्लोबल साउथ के देश शामिल हैं, खासतौर पर दक्षिण एशिया, भारत और इंडोनेशिया. यह बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा है. फिर अफ्रीका है, जो अब पहले से ज्यादा तेजी से उभर रहा है और आगे और तेज बढ़ेगा, क्योंकि वहां की आबादी बेहद युवा है. ये सारे देश भविष्य हैं. ये बेहतर जिंदगी की तरफ बढ़ेंगे, और यह होना ही है. और आगे आने वाले समय में दुनिया की अर्थव्यवस्था में बदलाव की रफ्तार और बढ़ेगी.

अगर इन वैकल्पिक समूहों (जैसे ब्रिक्स, एससीओ) के सदस्य देशों के बीच आपसी मुद्दे ही सुलझे नहीं हैं तो ये ग्रुप असली ताकत कैसे बन पाएंगे?
देखिए, मतभेद तो हमेशा रहते हैं. बताइए इतिहास का कौन-सा दौर ऐसा था जब कोई टकराव नहीं था? असली बात यह है कि इन मतभेदों के हल कैसे निकाले जाएं, सबसे कारगर तरीका क्या हो सकता है. ब्रिक्स या एससीओ जैसे बड़े ग्रुप में, हम सबकी एक समझ है कि हम कुछ साझा मूल्यों पर खड़े हैं, हमारी सभ्यताओं में सदियों से भरोसा, परंपरा और सांस्कृतिक सोच है. भारत की सभ्यता इसकी बड़ी मिसाल है, जो सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों साल पुरानी है.

इसी विरासत पर भरोसा करके हम साथ काम करते हैं न कि एक-दूसरे को रोकने या नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं. जब अलग-अलग देशों की कोशिशें मिलती हैं, तो उसका असर उक्वमीद से कहीं ज्यादा मजबूत निकलता है. हमने कभी ऐसे तरीकों पर काम नहीं किया जिनसे किसी को धोखा मिले, कोई पीछे रह जाए या किसी के विकास में बाधा आए. ऐसा कुछ कभी नहीं हुआ. हम हमेशा पॉजिटिव एजेंडे पर ध्यान देते हैं. मुझे लगता है, यही सबसे बड़ी बात है.

इसे आर्थिक रूप से कैसे टिकाऊ बनाया जाएगा? क्या हम वैकल्पिक पेमेंट सिस्टम देख रहे हैं? क्या ब्रिक्स की कोई साझा मुद्रा आएगी? यानी डि-डॉलराइजेशन की तरफ बढ़ने की बात है?
अगर आप इस मामले में जल्दबाजी करेंगे, तो बड़ी गलतियां होने का खतरा है. जैसे यूरोप ने यूरो सिस्टम बना दिया और कुछ देशों को उसमें खींच लिया जबकि वे एक मजबूत साझा मुद्रा के लिए तैयार ही नहीं थे. अब वे कई सामाजिक परेशानियों से जूझ रहे हैं.

यह सिर्फ महंगाई को थोड़ा ऊपर-नीचे करने का मामला नहीं है. उनकी पूरी अर्थव्यवस्था एक ही मुद्रा पर टिकी है, और इसलिए सामाजिक तथा बजट संबंधी दिक्कतें खड़ी हो गई हैं. अभी हमारी कोई योजना नहीं है कि ब्रिक्स के लिए एक साझा मुद्रा बनाई जाए. इसमें जल्दी करने की जरूरत नहीं है और हम भी जल्दबाजी नहीं कर रहे. हां, राष्ट्रीय मुद्राओं का इस्तेमाल बढ़ाने की जरूरत है—आपने इस बात का जिक्र किया.

ब्रिक्स के न्यू डेवलपमेंट बैंक की संभावनाओं का बेहतर इस्तेमाल करना चाहिए. मसलन, हमने इलेक्ट्रॉनिक पेमेंट का इस्तेमाल करके एक नया इन्वेस्टमेंट प्लेटफॉर्म बनाने का प्रस्ताव रखा है, जिसका शुरुआती फंड 100 अरब डॉलर होगा. इसका मकसद दोनों देशों और ग्लोबल साउथ के विकासशील देशों में संयुन्न्त निवेश को बढ़ावा देना होगा. मुझे लगता है यह बहुत आकर्षक विकल्प होगा, क्योंकि यह निवेश हमारी भी मदद करेगा और उन देशों की भी जो इस निवेश से सामान बनाएंगे, वह भी अच्छी क्वालिटी का और उचित कीमत पर. इससे वे देश तेजी से आगे बढ़ेंगे और हम भी.

भारत और रूस के बीच रुबल-रुपया पेमेंट जैसे मुद्दों का क्या होगा?
इसमें कोई रुकावट नहीं है. यह पूरी तरह आर्थिक मामला है. हम अच्छी तरह जानते हैं कि हमारे बीच कुछ व्यापार असंतुलन है. लेकिन भारत सरकार ने हमारे व्यापार पर कोई पाबंदी नहीं लगाई. क्यों? क्योंकि भारत को तेल और पेट्रोलियम की जरूरत है. भारत को रूसी खाद भी ज्यादा मात्रा में चाहिए, यह भारतीय किसानों के लिए जरूरी है, और प्रधानमंत्री मोदी खुद इस बात को बार-बार उठाते हैं: ''कृपया सप्लाइ बढ़ाइए.’’

असल बात रुपए की नहीं है, मुद्दा यह है कि हमारी कंपनियां उन रुपयों से क्या खरीद सकती हैं. हम भी इसे गंभीरता से सोच रहे हैं, सिर्फ भारत ही नहीं. और हम मानते हैं कि इस असंतुलन को ठीक करना जरूरी है, लेकिन रोक-टोक से नहीं, बल्कि ऐसे क्षेत्रों को ढूंढकर जहां दोनों देशों का फायदा हो. इसीलिए मेरी विजिट के दौरान, हमारी पहल पर, भारत के निर्यातकों की एक प्रदर्शनी लगाई जाएगी. और मैं आपको बिल्कुल साफ बोलकर बताता हूं, यह मेरी सीधी हिदायत थी रूस सरकार को कि देखें हम भारत से और क्या खरीद सकते हैं. हम इस पर मिलकर काम कर रहे हैं, रूसी फेडरेशन की नजर से भी.

यह साफ दिख रहा है कि आप भारत और चीन, दोनों से अच्छे रिश्ते चाहते हैं. लेकिन हमारे बीच तनाव भी रहता है. आप इसे कैसे संतुलित करते हैं?
हम इस बात को अच्छी तरह समझते हैं. भारत और चीन, दोनों हमारे सबसे करीबी दोस्त हैं. हम इन रिश्तों की बहुत कद्र करते हैं. और मुझे नहीं लगता कि हमें आपके आपसी रिश्तों में किसी तरह का दखल देना चाहिए. लेकिन मैं यह जानता हूं कि प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग, दोनों हर मुश्किल मुद्दे का हल ढूंढने के लिए पूरी कोशिश करते हैं, चाहे मुद्दा कितना भी पेचीदा क्यों न हो. जब भी तनाव थोड़ा बढ़ता है, दोनों नेता इसे संभालने में पूरी मेहनत लगाते हैं. मैं इसे अच्छी तरह जानता हूं. और अगर वे सफल होंगे, तो उसकी सबसे बड़ी वजह यही समझदारी और परिपक्वता होगी, जिसकी हम बहुत इज्जत करते हैं.

भारत और रूस दोनों आतंकवाद के खतरे का सामना करते हैं, लेकिन कुछ देश आतंकवाद को 'आजादी की लड़ाई’ बताकर सही ठहराते हैं. आप इसे कैसे देखते हैं?
यह तो बहुत सीधी-साफ बात है. आजादी पाने के लिए सिर्फ कानूनी और सही तरीके इस्तेमाल किए जाने चाहिए. कोई भी हिंसा या अपराध वाली कार्रवाई, जिससे लोगों को नुक्सान पहुंचे, उसे समर्थन नहीं दिया जा सकता. यह बात बहुत पहले तय हो चुकी है. जैसा आपने सही कहा, रूस ने अपने हाल के इतिहास में कई बार चरमपंथी आतंकवाद का सामना किया है. और इस मामले में भारत हमारा पूरा साथी है. हम भारत की आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का पूरा समर्थन करते हैं.

अफगानिस्तान भारत और रूस दोनों के लिए अहम देश है. रूस उन चंद देशों में से है जिसने तालिबान को मान्यता दी है, जबकि वहां महिलाओं और मानवाधिकारों के हालात को लेकर कई चिंता हैं. आपने ऐसा क्यों किया?
हर देश की अपनी परेशानियां होती हैं. अफगानिस्तान भी कोई अपवाद नहीं. वह दशकों से गृहयुद्ध में फंसा रहा है, और यह बेहद दुखद है. लेकिन सच यह है कि आज तालिबान पूरे अफगानिस्तान पर नियंत्रण रखता है. यह मान लेना ही होगा क्योंकि हकीकत यही है.

दूसरी बात यह कि अफगान सरकार आतंकवाद और कई आतंकी संगठनों, जैसे आइएसआइएल वगैरह, के खिलाफ काफी सख्त कार्रवाई कर रही है. हमें यह अच्छी तरह पता है. उन्होंने अपने देश में अफीम की खेती भी काफी कम कर दी है और ड्रग्स की समस्या पर भी काम किया है. सबसे जरूरी बात यह है कि अगर आपको किसी देश में चल रही घटनाओं पर असर डालना है, तो आपको वहां की मौजूदा सत्ता से बात करनी ही होगी. और हम यही कर रहे हैं.

दुनिया भर में हाल में जेन ज़ी के कई विरोध-प्रदर्शन हुए हैं. रूस में आप युवा पीढ़ी से कैसे जुड़ते हैं?
यह कोई नई बात नहीं है. पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के बीच टकराव साहित्य और कला में हमेशा से एक थीम रहा है. 'बाप-बेटे’ वाली खींचतान. इसमें नया क्या है? टेक्नोलॉजी. मैसेंजर ऐप, टेलीग्राम वगैरह. इन्हें युवाओं को प्रभावित करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. आज की युवा पीढ़ी वैसे ही है जैसी हर दौर में थी. युवा हमेशा ज्यादा तेज, ज्यादा ऐक्टिव और कई बार ज्यादा कट्टर होते हैं.

वे सोचते हैं कि उन्होंने दुनिया में पहली बार कोई बड़ी नाइंसाफी देखी है और अब वे इसे सबको दिखाएंगे और तुरंत ठीक कर देंगे. लेकिन जब इंसान बड़ा होता है, तो समझता है कि हां, हल तो मिलता है, लेकिन जितना आसान पहले लगा था, उतना आसान नहीं होता. इसलिए हमें युवाओं के साथ लगातार काम करना पड़ता है. यह कहकर नहीं चल सकता कि 'तुम बच्चे हो, तुम्हें कुछ समझ नहीं आता.’ ऐसा नहीं चलता. हमें हमेशा युवाओं के साथ जुड़कर चलना होता है और उनकी भाषा, उनकी डिवाइस, उनके सोशल नेटवर्क का इस्तेमाल करना होता है—जानकारी लेने के लिए भी और उनसे फीडबैक लेने के लिए भी.

सोवियत संघ के टूटने ने आपको निजी तौर पर कैसे प्रभावित किया?
इसका असर जरूर हुआ. इससे मैंने यह सीखा कि हर कदम बहुत सोच-समझकर रखना चाहिए और उसके नतीजों को भी समझना चाहिए. यह पहली सीख है. दूसरी बात, यह सिर्फ सोवियत संघ पर नहीं, रूस पर भी लागू होती है. मैंने यह नतीजा निकाला कि सोवियत संघ एक समय ऐसी हालत में था जब उसके नेता और शायद आम लोग भी यह मान बैठे थे कि यह इतना बड़ा है, इतना मजबूत है कि इसके साथ कभी कुछ नहीं हो सकता.

यही सोच किसी भी देश को गलती पर गलती करवाती है. ''यह गलती छोटी है, वह कमी भी चल जाएगी, हम इतने बड़े हैं कि संभाल लेंगे.’’ और इसी तरह गलतियां बढ़ती जाती हैं. फिर उसे रोक पाना मुश्किल होता है. मैं आज भी कुछ देशों में यही होते देख रहा हूं. इसलिए मैं ध्यान से देख रहा हूं कि हमें ऐसा सिस्टम बनाना चाहिए जो सिर्फ खुद को बचाए नहीं, बल्कि आगे भी बढ़े. अगर ऐसा सिस्टम बन गया तो वह खुद ही मजबूत, आत्मनिर्भर और असरदार होगा.

क्या आप सोवियत संघ को फिर से एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं?
नहीं, बिल्कुल नहीं. ऐसा कुछ हमारी योजना में नहीं है. और इसका आज कोई मतलब भी नहीं निकलता. आज की स्थितियों में ऐसा करना समझदारी नहीं होगी. इससे रूस की आबादी का राष्ट्रीय और धार्मिक संतुलन पूरी तरह बदल जाएगा.

एक बार आपकी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग की बातचीत वायरल हुई थी, जिसमें आप लंबी उम्र, मेडिकल तरक्की और बायोहैकिंग पर बात कर रहे थे. क्या आपको लगता है कि अमरता संभव है?
हर चीज का एक अंत होता है. सिर्फ ईश्वर हमेशा है. जिंदगी की अवधि बढ़ाई जा सकती है, इस पर मुझे पूरा यकीन है. देखिए, 77 साल पहले भारत में औसत उम्र 31 साल थी. आज 70 के आसपास है. यह सब बेहतर हेल्थकेयर की वजह से हुआ है. अगर हम हेल्थकेयर में एआइ का इस्तेमाल करें, नई दवाइयां बनाएं, जेनेटिक इंजीनियरिंग वगैरह का इस्तेमाल करें, तो इसके नतीजे बहुत बड़े होंगे. पर फिर भी, अंत तो हर चीज का आता ही है.

भारत एक बड़ी ग्लोबल ताकत है, कोई ब्रिटिश उपनिवेश नहीं. हर किसी को यह हकीकत स्वीकार करनी होगी. और यह भी तो देखिए कि प्रधानमंत्री मोदी ऐसे नेता नहीं हैं जो किसी तरह के दबाव में इतनी आसानी से आ जाएं.
दुस्तान के लोग बेशक अपने नेता पर फख्र कर सकते हैं. प्रधानमंत्री मोदी का रवैया बिना किसी टकराव के एकदम सीधा-साफ और बेलाग है.

 पीएम मोदी देश के लिए, प्रशासन के लिए और खुद के लिए खासे चुनौतीपूर्ण लक्ष्य सामने रखते हैं. मेक इन इंडिया की उनकी चर्चित घोषणा के अपने व्यावहारिक आयाम हैं जिसमें हमारे द्विपक्षीय संबंध भी शामिल हैं.

अमेरिका अब भी रूस से एटमी ईंधन यूरेनियम खरीद रहा है. अगर उसको हमारा ईंधन खरीदने का अधिकार है तो वही अधिकार भारत का क्यों नहीं होना चाहिए भला?

भारत के साथ हमारे ईंधन सहयोग पर यूक्रेन की घटनाओं का कोई असर नहीं पड़ा है. हमारी कारोबारी इकाइयों ने इससे काफी पहले आपसी विश्वास के आधार पर ठोस कमर्शियल रिश्ते कायम कर लिए थे.

 रक्षा क्षेत्र में हम महज टेक्नोलॉजी नहीं बेच रहे, हम इसे साझा कर रहे हैं. सैन्य-तकनीकी सहयोग के क्षेत्र में यह कम ही देखने को मिलता है. यह खुद ही हम दो मुल्कों और उसके लोगों के बीच आपसी विश्वास की गवाही दे देता है.

 पीएम मोदी और मैंने भविष्य के कई क्षेत्रों खासकर ऊंचे दर्जे की टेक्नोलॉजी में साझेदारी के लिए महत्वाकांक्षी योजनाएं तैयार की हैं. मिसाल के तौर पर एआइ जो कि दुनिया का चेहरा ही बदले दे रहा है.
 भारत आज भी कई रूसी एयरक्राफ्ट उड़ा रहा है. और ब्रह्मोस, जो रूस और भारत का जॉइंट वेंचर है, मुख्य रूप से भारत में ही बनाई जाती है. इसलिए प्रधानमंत्री मोदी की मेक इन इंडिया पहल को इस क्षेत्र में भी आगे बढ़ाया जाना चाहिए.

 हम हमारे साथ नब्बे के दशक में किए वादे पूरे करवाने पर जोर दे रहे हैं: पूरब में नाटो का और विस्तार नहीं होगा. यूक्रेन मानता है कि नाटो में जाना उसके लिए फायदेमंद होगा. हम कहते हैं कि सैन्य-सियासी गठजोड़ हमारी सुरक्षा के लिए खतरा है.

 (यूक्रेन में) लड़ाई हमने शुरू नहीं की. पश्चिम यूक्रेन के पीछे आ खड़ा हुआ और वहां की घटनाओं को शह देने लगा. उसने वहां तक्चतापलट की साजिश रची.
 राष्ट्रपति जेलेंस्की अपने से पहले के राष्ट्रपतियों वाला ही ढर्रा अक्चितयार किए हुए हैं, यानी कि आम जनता की बजाए कट्टïर राष्ट्रवादियों के हितों को ऊपर रखना.


 यूक्रेन समेत हर मुल्क को अपनी रक्षा के उपाय चुनने का अधिकार है. लेकिन अगर वह रूस की कीमत पर चुना जाता है तो इसे बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं किया जाएगा.

 ट्रंप अपनी नीतियों के हिसाब से चल रहे हैं. वे ऐसे ही कोई हवा में फैसले नहीं लेते आ रहे हैं. उनके अपने सलाहकार हैं जिनका मानना है कि टैरिफ लागू करने से आखिर में अमेरिकी अर्थव्यवस्था को ही फायदा होगा.

 ये जी7 मुल्क खुद को बिग7 न्न्यों कहते हैं भला? खरीद की ताकत के पैमाने पर भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. ब्रिटेन जैसे मुल्क आखिर कहां खड़े हैं? दसवें पायदान पर?

 ग्लोबल ग्रोथ के नए केंद्र तेजी से उभर रहे हैं. इनमें दक्षिण एशिया, भारत, इंडोनेशिया और अफ्रीका जैसे ग्लोबल साउथ के मुल्क शामिल हैं.

 रूस और यूरोपीय मुल्कों के बीच रिश्ते इस समय सामान्य बिल्कुल नहीं हैं. लेकिन ब्रिक्स (बीआरआइसीएस) और एससीओ सरीखे दूसरे बड़े गठजोड़ तेजी से शक्ल ले रहे हैं. उसमें हर जगह हमारी मौजूदगी है.
 भारत और चीन हमारे सबसे गहरे दोस्त हैं—वह रिश्ता हमारे लिए यकीनन खासा अनमोल है.और मेरा मानना है कि आपके द्विपक्षीय संबंधों में हस्तक्षेप का हमें कोई अधिकार नहीं...

...पर मुझे पता है कि पीएम मोदी और राष्ट्रपति शी जिनिंपग बेहद जटिल मसलों का भीसमाधान तलाश लेने को प्रतिबद्ध हैं. मैं इसलिए ऐसा कह रहा हूं क्योंकि वे जैसे ही किसी तरह का तनाव बनता देखते हैं, उसे सुलझाने को वे पूरी ताकत लगा देते हैं.

 आजादी हासिल करने को हमें सिर्फ कानूनी उपाय इस्तेमाल करने चाहिए. किसी भी तरह के आपराधिक या फिर लोगों को नुक्सान पहुंचाने वाले उपायों का समर्थन नहीं किया जा सकता. आतंकवाद के खिलाफ भारत की लड़ाई का हम पूरा समर्थन करते हैं.

 हर मुल्क की अपनी मुश्किलें हैं और अफगानिस्तान इसमें कोई अपवाद नहीं. वहां आप किसी तरह का असर डाल सकें, इसके लिए वहां के मौजूदा नेतृत्व के साथ संपर्क में रहना ही पड़ेगा. फिलहाल वहां हालात पर पूरी तरह से तालिबान का नियंत्रण है.

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