जनता दल (यूनाइटेड) के 74 साल के दिग्गज नीतीश कुमार 20 नवंबर को रिकॉर्ड दसवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के लिए खड़े हुए, तो ऐसे दौर में कदम बढ़ाया जो तरह-तरह के वादों और लोगों की उम्मीदों से बोझिल है.
उन्होंने न सिर्फ राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के तेजस्वी यादव जैसे युवा, जोशीले विरोधी को हराया, बल्कि अपनी दिमागी सेहत और राजनैतिक समझ पर हर तरह के शक-शुबहे को भी बेमानी बना दिया.
एंटी-इन्कंबेंसी की कथाएं तो हवा ही हो गईं. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और छोटे मगर सामाजिक समीकरण में सार्थक आधार वाले दूसरे साथियों के साथ उनकी पार्टी की साझेदारी में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को कुल 243 में 202 सीटों पर भारी जीत मिली. अब बारी है जनादेश पर खरा उतरने की.
पहली नजर में इस लक्ष्य को साधने का तौर-तरीका पुराने से बहुत अलग नहीं दिखता. कुछ दिन पहले तक नीतीश के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने पर थोड़ी शंकाएं थीं. लेकिन न सिर्फ वे वापस आसीन हैं, बल्कि भाजपा के दो उप-मुख्यमंत्री सम्राट चौधरी और विजय कुमार सिन्हा भी बदस्तूर कायम हैं.
नई कैबिनेट में जद (यू) के नौ, भाजपा के 14, चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी से दो और जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा सेक्युलर (हमएस) और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक मोर्चा (रालोमो) से एक-एक मंत्री शामिल हैं. नए चेहरे (नौ) और विदा हुए चेहरे (12) भी गौरतलब हैं, मगर मंत्रिमंडल में कमोबेश वही संतुलन, साझेदारी और एकजुटता दिखती है, जो चुनाव प्रचार में दिखी. उस दौरान मतभेद की संभावना बनी हुई थी, फिर भी रथ के सभी पहिए साथ-साथ चले. क्या यह राजकाज में भी जारी रहेगा?
बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि नीतीश नए तरह के गठबंधन में पुरानी उलझनों को कैसे संभालते हैं. उनका ताज इसलिए बचा रहा क्योंकि विपक्ष ने भाजपा पर उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार औपचारिक तौर पर घोषित न करने का आरोप लगाया तो वह लगभग तय हो गया.
उसके अलावा, यह इसलिए भी कि 101 पर लड़कर 85 सीटों पर जद (यू) की जीत कमोबेश भाजपा के 101 में से 89 सीटों पर जीत के बराबर ही बैठी. लेकिन विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते भाजपा की संख्या का वजन उसे सरकार में ज्यादा मजबूत बना देगा, जिससे गठबंधन में सत्ता-संतुलन थोड़ा बदल जाएगा. इसलिए ऊपरी तौर पर जो मिला-जुला और ठीक-ठाक दिखता है, वह सतह पर ही सीमित है.
पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय के समाजशास्त्री प्रोफेसर ज्ञानेंद्र यादव कहते हैं, ''नई बिहार विधानसभा पिछली बार से काफी अलग है, क्योंकि इसमें भाजपा के बिना सरकार बनाने की कोई भी गुंजाइश नहीं बची है. इस तरह नीतीश को जो हल्का-फुल्का फायदा कभी मिलता था, वह अब काफी कम हो गया है.
हालांकि भाजपा बेशक उनका साथ देगी, लेकिन इस बार पार्टी शायद अपना एजेंडा लागू करेगी. बिहार में अपनी पैठ उस स्तर तक बढ़ाएगी जो वह पहले कभी हासिल नहीं कर पाई, और उन राजनैतिक जगहों पर कब्जा करने की कोशिश करेगी जिन पर पहले से राजद काबिज रहा है.’’ यह राम कृपाल यादव के पार्टी में जुड़ने से साफ है, जिन्होंने 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में लालू प्रसाद की बेटी मीसा भारती को हराया था, लेकिन 2024 में उनसे हार गए थे. उनका शामिल होना यादवों को राजद से आगे बढ़ने का न्योता है.
लेकिन यह तो मौजूदा पटकथा की आगे की बात हो सकती है. अभी तो नई सरकार को उस घोषणा-पत्र पर खरा उतरना होगा जिससे उसे शानदार जीत मिली है. वह ऐसी गारंटियों, वादों से ठसाठस भरा है, जो ग्रामीण घरों से लेकर बिहार के सबसे ज्यादा उम्मीद रखने वाले वोटरों यानी महिलाओं, नौकरी ढूंढने वाले युवाओं और विकास के सफर में पहला कदम बढ़ाने वालों में भारी आकांक्षा जगाता है. 14 नवंबर को नतीजे आए तो अपने नेतृत्व में लोगों के भरोसे से गदगद होकर नीतीश ने एक्स पर पोस्ट किया, ''बिहार और तरक्की करेगा और देश के सबसे विकसित राज्यों में शामिल हो जाएगा.’’ इच्छाशक्ति जाहिर करना एक बात है, मगर यह प्रतिबद्धता बेहद कठिन है.
नीतीश के आगे बड़े काम
वाकई नीतीश के लिए बिहार बदला हुआ और जाना-पहचाना भी लग रहा है. 2011 से राज्य की अर्थव्यवस्था तीन गुना से ज्यादा बढ़ गई है; 2023-24 में उसका सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) 9.2 फीसद बढ़ा है. बिजली अब हर घर तक पहुंचती है, और सड़कें हर गांव को जोड़ती हैं. फिर भी, इस शानदार कहानी की सतह के नीचे लगातार एक तनाव बरकरार है, जो लंबे समय से सुधार चाहने वालों को हैरान-परेशान कर रहा है.
बिहार चाहे बहुआयामी गरीबी (स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर में किल्लत का पैमाना) 2015-16 में 51.9 फीसद से घटकर 2022-23 में 26.59 फीसद पर आधी हो गई हो, लेकिन वह अभी भी सबसे ज्यादा बहुआयामी गरीबी वाले राज्यों की कतार में है. प्रति व्यक्ति आय सालाना 69,300 रुपए है, जो राष्ट्रीय औसत का मुश्किल से एक-तिहाई है. बिहार जाति सर्वेक्षण 2023 में पाया गया कि राज्य की आबादी का लगभग 34 फीसद यानी 94 लाख से ज्यादा परिवार बहुत कम आमदनी पर गुजारा करते हैं, और लगभग इतने ही लोग हर महीने 6,000 रुपए या उससे कम कमाते हैं.
वक्त के साथ, बिहार का प्रति व्यक्ति राज्य सकल घरेलू उत्पाद मौजूदा कीमतों पर 1994-95 में 3,372 रुपए से बढ़कर 2024-25 में 69,321 रुपए हो गया है. सिर्फ तीन दशकों में यह बेशक बड़ी छलांग है, लेकिन यह आंकड़ा राष्ट्रीय औसत के 33 फीसद से ज्यादा ही नीचे है और यह अनुपात करीब 35 साल से एक जैसा बना हुआ है.
यह भारी अंतर किसी भी आंकड़े से ज्यादा यही बताता है कि बिहार का विकास किसी भारी बोझ के नीचे से दबा हुआ है. उसे हटाने के लिए नीतीश को मूल्य-वर्द्धित वृद्धि को आगे बढ़ाना होगा. मतलब यह कि उद्योग और सेवा क्षेत्र की उत्पादकता ज्यादा बढ़ाना, इन्सेंटिव देकर स्थानीय उद्यमशीलता को बढ़ाना और ऐसे कदम उठाने होंगे, जिनसे निजी पूंजी को विविध राजनैतिक चक्रों के दौरान बिहार में सतत निवेश कायम रखने के लिए राजी किया जा सके. लेकिन उससे पहले, नीतीश को चुनावी वादे पूरे करने हैं.
पूरे करने हैं वादे
करीबी लोगों का कहना है कि वोटरों ने नीतीश पर जो भरोसा दिखाया है, उससे वे बेहद खुश हैं और अपने किए वादों को पूरा करना अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझते हैं. उन वादों में मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना भी है, जिसमें हर योग्य महिला उद्यमी को 2.10 लाख रुपए तक की मदद देना भी है. चुनाव से पहले अपनी मंशा का इजहार करने के लिए सरकार ने 1.51 करोड़ महिलाओं के खाते में मूल रकम के तौर पर 10,000 रुपए ट्रांसफर किए.
यह बिहार के इतिहास में बेमिसाल कदम था, जिससे फौरन सियासी माहौल बदल गया. उसका असर साफ दिखा. बिहार की 35 लाख पंजीकृत महिला वोटरों में से 42 फीसद से ज्यादा महिलाएं इसका फायदा उठा रही हैं. जानकारों का मानना है कि यही एक वजह थी कि इतने बड़े पैमाने पर वोटिंग में महिला वोटरों की संख्या पुरुषों से ज्यादा थी. उनमें 71.77 फीसद ने वोट डाला, जो 1951 के बाद सबसे ज्यादा है, जबकि पुरुषों का वोट 62.72 फीसद था.
अब लोगों ने दिल खोलकर नीतीश को दसवीं बार कुर्सी का तोहफा दे दिया है, तो उन्हें वादे पूरे करने के लिए रकम जुटानी होगी. महिला रोजगार योजना की मूल रकम 15,100 करोड़ रुपए की है. बिहार की 4.89 करोड़ महिला आबादी में से आधी से ज्यादा योग्यता की शर्त पर ठीक बैठती हैं, इसलिए उसे पाने वालों की संख्या 1.2 करोड़ तक बढ़ सकती है.
अगर मौजूदा 1.51 करोड़ लाभार्थियों को ही दो लाख रुपए की अतिरिक्त मदद मिलती है, तो राज्य के खजाने में 3.02 लाख करोड़ रुपए की अतिरिक्त जरूरत होगी. बिहार का पूरा बजट करीब 3.17 लाख करोड़ रुपए का है, जिससे यह हिसाब-किताब बेहद मुश्किल है. हालांकि, पटना विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के रिटायर प्रोफेसर तथा जाने-माने टिप्पणीकार डॉ. एन.के. चौधरी के मुताबिक, राज्य सरकार ने कुछ बचने के रास्ते बनाए हैं कि महिलाओं के बिजनेस के सही पाए जाने पर ही अतिरिक्त दो लाख रुपए की मदद दी जाएगी. सरकार दूसरे तरीके भी अपना सकती है, जैसे बैंकों से सरकारी गारंटी वाले सस्ते कर्ज दिला दे.
एनडीए ने घोषणा-पत्र में एक और बड़ा वादा एक करोड़ नौकरियां देने का है. यह वादा 'पलायन’ से छुटकारा दिलाने के लिए किया गया. इस मुद्दे को विपक्ष ने कुछ हद तक कामयाबी के साथ उठाया था, भले यह वोटों में न बदला हो. 2023 के जाति सर्वेक्षण के मुताबिक, 53 लाख से ज्यादा बिहारी राज्य से बाहर जाते हैं. मुंबई के इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 88 फीसद घरों में गुजारा बाहर से भेजे गए पैसे से होता है. 2017 में हर घर को प्रवासी कमाई से सालाना औसतन 48,662 रुपए भेजे गए.
पांच साल में एक करोड़ रोजगार के मौके बनाने के लिए बिहार में इतना निवेश लाना होगा, जो इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ. सरकार ने विकास और नौकरियों को बढ़ावा देने के लिए 50 लाख करोड़ रुपए के निवेश को आकर्षित करने का वादा किया है. इसके लिए निजी क्षेत्र की भागीदारी की ओर एक बड़ा बदलाव भी जरूरी होगा. मैन्युफैक्चरिंग क्लस्टर, कृषि प्रसंस्करण उद्योग, लॉजिस्टिक्स हब, पर्यटन इन्फ्रास्ट्रक्चर और डिजिटल-सर्विस सेंटर की जरूरत होगी.
लेकिन यह सब स्थायी नीतियों, भरोसेमंद जमीन उपलब्धता और बिजली सप्लाइ, और निजी कंपनियों में भरोसा जगाने वाले निवेश माहौल के बिना संभव नहीं हो सकता. इसके लिए कुटीर, छोटे और मझोले उद्यम (एमएसएमई) के लिए ज्यादा प्रोत्साहन की जरूरत है. महिला रोजगार योजना की तरह सरकार को इस वादे को पूरा करने के लिए भी दूसरे संसाधन ढूंढने होंगे.
दूसरे वादे भी हैं, जिनमें पेंशन में बढ़ोतरी और कमजोर वर्गों के लिए ज्यादा छात्रवृत्तियां/भत्ते शामिल हैं. डॉ. चौधरी कहते हैं, ''बिहार के पास इन वादों को अकेले पूरा करने के लिए अपनी राजस्व क्षमता नहीं है. इन वादों को पूरा करने के लिए भारी केंद्रीय मदद की जरूरत होगी. इसके अलावा, गैर-उत्पादक खर्च में भी कटौती करनी होगी.’’
खेती से लेकर उद्योग तक
हालांकि खेती के परे दूसरे क्षेत्रों में अवसर पैदा करना बड़ी जरूरत है, लेकिन खेती अब भी बिहार की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है. यहां 54.2 फीसद लोग खेती से जुड़े हैं, जबकि पूरे देश में यह हिस्सा 46.1 फीसद है. खेती बिहार की ग्रॉस वैल्यू ऐडेड का 23 फीसद से ज्यादा देती है. लेकिन दिक्कत यह है कि यहां खेती बहुत बंटी-बंटी सी है. 97 फीसद जमीन के जोत बहुत छोटे हैं. 15वें वित्त आयोग के पूर्व चेयरमैन एन.के. सिंह ने हाल में एक लेख में लिखा कि बिहार का चौथा खेती रोडमैप अब जरूरी बदलाव की तरफ इशारा कर रहा है.
इसमें सिंचाई बढ़ाने, मिट्टी की सेहत पर ध्यान देने और दाल, मोटा अनाज और तिलहन जैसी फसलों की तरफ बढ़ने की बात है. एनडीए सरकार को अब इस योजना को हकीकत में तब्दील करना होगा. इसका मतलब है कि सरकार को इन वैकल्पिक फसलों की खरीद की गारंटी देनी होगी, डेयरी, पोल्ट्री और फिशरी को बढ़ावा देना होगा—जो पहले ही खेती के आउटपुट का करीब एक-तिहाई हैं—और मक्का, मखाना और लीची के लिए प्रोसेसिंग सिस्टम बनाना होगा.
साथ ही कोल्ड-चेन और लॉजिस्टिक्स का ढांचा खड़ा करना होगा ताकि खेती फायदे का कारोबार बने, मजबूरी नहीं. आइसीआरआइईआर के प्रोफेसर अशोक गुलाटी का भी मानना है कि बिहार को अब मुफ्तखोरी और सब्सिडी से हटकर ग्रामीण विद्युतीकरण, सोलर और फीडर सेपरेशन में निवेश करना चाहिए.
इसके साथ ही नीतीश को मैन्युफैक्चरिंग और सर्विस की तरफ भी रास्ता बनाना होगा. बिहार की जीएसडीपी में सर्विस सेक्टर 58 फीसद और उद्योग करीब 21.5 फीसद है. बिहार इंडस्ट्रियल इन्वेस्टमेंट प्रमोशन पैकेज 2025 और सिंगल विंडो सिस्टम कागजों पर तो हैं, लेकिन असली चुनौती भरोसेमंद माहौल बनाने की है.
औद्योगिक क्षेत्र विकास प्राधिकरण या इंडस्ट्रियल एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी के तहत जमीन के बैंक बनाने के लिए सिर्फ अधिग्रहण नहीं, बल्कि सख्त टाइमलाइन और आसान प्रक्रिया की जरूरत है. बिहार 2030 तक सर्विस और इंडस्ट्री का शेयर कुल जीएसडीपी में एक-चौथाई तक बढ़ाने का लक्ष्य रख सकता है. इसके इंजन होंगे फूड प्रोसेसिंग, टेक्सटाइल, एथेनॉल, रिन्यूएबल एनर्जी क्लस्टर, आइटी-एनेबल्ड सर्विस और पर्यटन.
इन सारी चीजों से निबटने के लिए सबसे जरूरी है मानव पूंजी. बिहार की साक्षरता दर बढ़कर 74.3 फीसद हो गई है, लेकिन सीखने के नतीजे कमजोर हैं. एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (एएसईआर) 2024 में सामने आया कि सिर्फ 39.4 फीसद बच्चे क्लास 3 में रहते हुए क्लास 2 का पाठ पढ़ सकते हैं और सिर्फ 19.5 फीसद आसान डिविजन या भाग कर सकते हैं.
पढ़ाई-लिखाई की यह कमी उम्रभर असर दिखाती है. इसलिए नीतीश को बुनियादी पढ़ाई और टीचर ट्रेनिंग को पेशेवर बनाने पर सबसे ज्यादा जोर देना होगा. हर साल करीब 10 लाख युवा नौकरी की मंडी में आते हैं. अगर इनमें से आधे को भी मार्केट-रेडी स्किल दी जाए, तो आबादी का बोझ एक ताकत बन सकता है. इसके लिए हर जिले में स्किल मिशन, इंडस्ट्री से जुड़ी अप्रेंटिसशिप और असली प्लेसमेंट के नतीजे, सिर्फ सर्टिफिकेट नहीं, जरूरी होंगे.
शहरीकरण अगली बड़ी चुनौती है. बिहार की सिर्फ 11 फीसद आबादी ही शहरों में रहती है. शहरों का फैलाव भी बेतरतीब है. एन.के. सिंह के मुताबिक, इसका हल पटना, मुजफ्फरपुर और भागलपुर के लिए मास्टर प्लान बनाना है, ताकि व्यस्थित विस्तार हो, इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार हो और भूमि इस्तेमाल को तर्कसंगत बनाया जाए. अगर कुछ नगरपालिकाएं इतनी सक्षम बन जाएं कि बाजार से कर्ज ले सकें, तो यह शहरी फाइनेंस का नया मॉडल बन सकता है. नीतीश को प्रोफेशनल स्टाफ वाली, जीआइएस-आधारित प्लानिंग करने वाली और अपनी कमाई खुद बढ़ाने वाली नगर निकाय व्यवस्था बनानी होगी.
पर्यटन और हॉस्पिटैलिटी को अक्सर आसान रोजगार का जरिया बताया जाता है, लेकिन बिहार की विरासत को सिर्फ नारे से आगे ले जाना होगा. नालंदा, बोधगया और कई कम-देखे गए स्थल मिलकर एक ऐसा ब्रांड बना सकते हैं जो होटलों, गाइडों, ट्रांसपोर्ट, खाने-पीने और कारीगरों के छोटे कारोबारों को खड़ा कर सके.
इन सबके लिए प्रशासन को नए तरीके से काम करना होगा. बड़े प्रोजेक्ट को ट्रैक करने वाले ग्रुप, विभागों के बीच आपसी संवाद बनाने और बाधाओं को दूर करने वाली कमेटियां और अधिकारियों को साफ-साफ लक्ष्यों के लिए जवाबदेह बनाना होगा. नीतीश को अब टाइमलाइन तय करनी होगी, मंजूरियों को डिजिटल बनाना होगा, देरी का ऑडिट करना होगा और विभागों को सार्वजनिक रूप से जिम्मेदार ठहराना होगा.
इसके लिए बेहतर पब्लिक फाइनेंस मैनेजमेंट जरूरी है. कई विभाग हर साल पैसा खर्च नहीं कर पाते, जिससे प्लानिंग और काम में कमजोरी साफ दिखती है. एन.के. सिंह कहते हैं कि इसमें राजकोषीय यथार्थवाद चाहिए. 2025-26 के बजट में बिहार की अपनी टैक्स कमाई जीएसडीपी का सिर्फ 5.4 फीसद है. अगर जीएसडीपी तेजी से बढ़े, तो टैक्स में भी उछाल आना चाहिए, वरना बिहार केंद्र की मदद पर निर्भर रहेगा.
बिहार को बदलना मुश्किल है, लेकिन नीतीश और एनडीए को जनता ने इसी काम के लिए जनादेश दिया है. अब उसी भरोसे पर खरा उतरकर बिहार को बीमारू राज्य के टैग से निकालना होगा.
अगर नीतीश उन 1.51 करोड़ महिला रोजगार योजना के लाभार्थियों को बाकी दो लाख रुपए देते हैं, जिन्हें पहली खेप में 10,000 रुपए दिए गए तो इसके लिए राज्य को 3.02 लाख करोड़ रुपए खर्च करने होंगे. यह बिहार के 3.17 लाख करोड़ रुपए के बजट का 95 फीसद बैठेगा
इस जनादेश के बाद भाजपा को शामिल किए बिना किसी की भी सरकार बनाने की संभावना खत्म हो गई. लिहाजा, पार्टी अपना एजेंडा लागू कर सकती है, अपनी पैठ बढ़ा सकती है और राजद की जगह ले सकती है
पांच साल में एक करोड़ नौकरियों के अवसर पैदा करने के लिए उद्योग और सेवाओं को अधिक उत्पादकता वाले क्षेत्रों में बदलने की जरूरत होगी. स्थानीय उद्यमियों को पोषित करना होगा और निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन देना होगा
नीतीश कुमार को कृषि क्षेत्र में विविधीकरण को बढ़ावा देना होगा. इसके लिए वैकल्पिक फसलों की खरीद की गारंटी देनी होगी. डेयरी, मुर्गीपालन और मत्स्य पालन के विस्तार की सुविधाओं को बढ़ाना होगा.

