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बिहार: अमित शाह के नेतृत्व में BJP ने कैसे लिखी ऐतिहासिक जीत की पटकथा?

बिहार चुनाव में गृह मंत्री अमित शाह और उनके सहयोगियों ने कैसे वॉर रूम में पांव जमाकर सारे समीकरण सुधारे और महागठबंधन की तैयारियों पर पानी फेर दिया

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7 नवंबर को पटना में गृह मंत्री अमित शाह के साथ विनोद तावड़े (बाएं) और धर्मेंद्र प्रधान.

बिहार में दूसरे चरण के मतदान से कुछ दिन पहले आधी रात ढल चुकी थी और पटना लगभग सो चुका था. लेकिन होटल मौर्या में ऊपरी मंजिल पर एक भारी पर्दे वाले सुइट में खासी हलचल दिख रही थी. एक खाली सोफे पर बैठे केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह बारीक समीक्षा में जुटे थे.

सवाल सीधे थे: ''क्या हर बूथ कमेटी को चुनावी सामग्री मिल गई? मोटरसाइकिल रैली के झंडे इतने छोटे क्यों हैं? आज किन गांवों में घर-घर जाकर संपर्क किया गया?’’ हर मीटिंग में एक ही रूटीन होता था, बॉक्स टिक किए जाते थे, जाना जाता कि कहां कमी रह गई है और अगले 24 घंटों का प्लान बनाया जाता. 

बिहार में एनडीए के सफल चुनावी अभियान में इस तरह के माइक्रोमैनेजमेंट की अहम भूमिका रही है. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की विशाल चुनावी मशीनरी ने कमाल कर दिया, जिसके रणनीतिकार शाह, केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और राष्ट्रीय सचिव विनोद तावड़े हर जगह उपस्थिति दर्ज कराते थे. प्रधान को संगठनात्मक मजबूती और जमीनी स्तर पर टीम जुटाने का जिम्मा सौंपा गया था, जबकि तावड़े  संदेश और सोशल इंजीनियरिंग का मोर्चा संभाल रहे थे.

एनडीए के सीट बंटवारे फॉर्मूले के तहत भाजपा को 101 सीटें मिलीं जो पहली बार गठबंधन सहयोगी जनता दल (यूनाइटेड) के बराबर थीं, जिसने यह बताया कि भगवा पार्टी का दबदबा गठबंधन में अब कहीं ज्यादा बढ़ चुका है. शुरू से ही गठबंधन के बीच समन्वय बेहद जरूरी था. जद (यू) की तरफ से यह जिम्मा कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा ने संभाल रखा था, जिनके तावड़े और प्रधान दोनों के साथ लंबे समय से अच्छे रिश्ते रहे हैं.

शाह के जूनियर मंत्री नित्यानंद राय, जिनका पासवान परिवार के साथ बरसों पुराना रिश्ता रहा है, को चिराग पासवान और उनकी लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के साथ बातचीत का जरिया बनाया गया था. सितंबर में बिहार चुनाव प्रभारी बनाए गए प्रधान के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ रिश्ते काफी अच्छे हैं और सीट बंटवारे के दौरान थोड़ी तनातनी की स्थिति पैदा होने पर यह संबंध काफी काम आए.

कोई कसर न छोड़ने की रणनीति

मतदान से महीनों पहले भाजपा ने बिहार में प्लानिंग, लॉजिस्टिक्स और रियल-टाइम फैसलों के लिए एक समर्पित चुनाव वॉर रूम बना दिया था. दिल्ली के कारोबारी और पार्टी के पदाधिकारी रोहन गप्ता को इसका प्रभारी बनाया गया जो पहले ही हरियाणा, झारखंड और दिल्ली में इसी तरह के अभियान का हिस्सा रहे थे. वॉर रूम नेटवर्क पूरे बिहार में 92,000 बूथ-स्तरीय एजेंटों (बीएलए) तक फैला था. उनकी जरूरतों को पूरा करने के लिए लगभग 150 वॉलंटियर थे, जिन्हें पार्टी ने वॉर रूम में बने कॉल सेंटर के लिए हायर किया था.

राष्ट्रीय स्तर पर नाटकीयता से भरे अभियान के उलट बिहार 2025 का मिशन दस्तावेज—एसओपी, स्प्रेडशीट्स, डेली कॉल लॉग्स पर केंद्रित था. बूथ स्तर की हर कमेटी ने सात-दिन, दो-दिन और पोलिंग-डे चेकलिस्ट बनाई. हर मंडल ने 'पांच-मतदाता शीट’ तैयार की, जिसमें पांच या उससे ज्यादा वोटर वाले घरों की पहचान की गई. साथ ही फोन नंबर और संभावित पसंद भी बताई गई.

पूर्णिया में एक रैली में प्रधानमंत्री मोदी, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी 15 सितंबर को

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, दिल्ली की सीएम रेखा गुप्ता समेत भाजपा शासित राज्यों के कई मुख्यमंत्रियों ने प्रचार को धार देने, स्टेडियम भरने और निरंतरता का एहसास दिलाने में मदद की. यह सब चुनाव प्रचार के आखिरी दिन तक चलता रहा, जिसमें आरएसएस के स्वयंसेवक मतदाताओं को फोन कर याद दिला रहे थे कि वे अपने वोट का इस्तेमाल करें.
पटना में डेटा टीमों ने हर चुनाव क्षेत्र की जाति-संरचना पर बाकायदा चार्ट तैयार किए.

यही नहीं, उम्मीदवारों की प्रोफाइल के लिहाज से सहयोगी दलों को जरूरी सलाह भी दी. अगर किसी सीट पर कोइरी या कुशवाहा चेहरे की जरूरत होती, तो भाजपा दफ्तर इस पर भी सुझाव देता था. बतौर उदाहरण, जब राष्ट्रीय लोक मोर्चा (आरएलएम) नेता उपेंद्र कुशवाहा ने अपनी पत्नी स्नेहलता को चुनाव मैदान में उतारने का प्रस्ताव रखा तो उन्हें सासाराम भेजने का सुझाव दिया गया.

इस तरह का तालमेल इसलिए मुमकिन हो पाया क्योंकि प्रधान और तावड़े जगह-जगह जाते रहते थे और दिक्कतों को सुलझाने वाले की जिम्मेदारी संभाल रहे थे. वे गया, दरभंगा और पूर्णिया में कई दिनों तक डेरा डाले रहे, मतभेदों को सुलझाया, संसाधन जुटाए और यह सुनिश्चित किया कि आरएसएस पदाधिकारी और पार्टी प्रबंधकों के बीच तालमेल बना रहे. कोई कसर न छोडऩा भाजपा के प्रचार अभियान का अनौपचारिक नारा बन चुका था.

किलों की सुरक्षा
एनडीए नेतृत्व को पता था कि मुकाबला आसान नहीं है और उसे पूरी आक्रामकता के साथ जुटना होगा. भाजपा के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि जून के आखिर में जब पहले चुनावी पोस्टर आए, तब भी एनडीए काफी सशंकित था. नीतीश की व्यक्तिगत छवि को लेकर सवाल उठ रहे थे और सीट-बंटवारे पर बातचीत किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पा रही थी. वहीं, तेजस्वी शहर में चर्चा का विषय बने हुए थे और प्रशांत किशोर की जन सुराज यात्रा में भारी भीड़ उमड़ रही थी.

यह महसूस करते हुए कि अब वक्त बर्बाद नहीं किया जा सकता, एनडीए सहयोगियों ने मिलकर काम करना शुरू कर दिया. जब तक चुनाव की तारीखों का ऐलान हुआ उनकी बातचीत बूथ लॉजिस्टिक्स पर पहुंच चुकी थी और महागठबंधन में सीटों के बंटवारे को लेकर ही सिर-फुटौव्वल जारी था.

एनडीए ने इस बार एक बड़े बदलाव के तहत 'संरचनात्मक पुनर्व्यवस्था’ की, जिसमें बेहतर माइक्रो-मैनेजमेंट के लिए राज्य को पांच संगठनात्मक क्षेत्रों में बांटा गया. कोसी, सीमांचल और अंग (पूर्णिया, कटिहार और भागलपुर); सारण और चंपारण (सारण, सीवान, पूर्वी व पश्चिमी चंपारण); और मिथिलांचल. हर संगठनात्मक क्षेत्र में एक समर्पित प्रवासी प्रभारी (बाहरी नेता) तैनात था, जिसे संगठन निर्माण के साथ-साथ रियल-टाइम फीडबैक लूप बनाने का जिम्मा सौंपा गया था ताकि पार्टी की आंतरिक समस्याओं को समय रहते दूर किया जा सके.

अलग-अलग क्षेत्र में बंटवारे का यह फैसला प्रचार अभियान की पूरी रणनीति को ध्यान में रखकर किया गया था. भाजपा थिंक-टैंक ने इस बात को गंभीरता से समझा कि सीमांचल की चिंताएं उसके सीमावर्ती इलाकों की जनसांख्यिकी, सीमा पार पलायन और अल्पसंख्यक आबादी के इर्द-गिर्द केंद्रित हैं, जो मगध में खेती-किसानी से जुड़े मुद्दों या फिर शाहाबाद के जातिगत ढांचे से बिल्कुल अलग हैं. शाह जानते थे कि इन्हें एक ही खांचे में रखना पिछली बार प्रचार अभियान की एक गलती थी. जैसा भाजपा के एक सूत्र ने कहा, पांच-जोन प्लान ने यह सुनिश्चित किया कि पार्टी पहले से बनी धारणा के बजाए जमीनी हकीकत को समझने वाली राजनैतिक प्रतिक्रिया दे.

फीडबैक लूप की जरूरत
फीडबैक लूप ने दरअसल दो मामलों में साबित कर दिया कि आखिर यह कितना जरूरी था. इसकी वजह से ही सबसे पहले यह फीडबैक मिल पाया कि नीतीश की लोकप्रियता फिर बढ़ रही है, शायद यही वजह है कि भाजपा ने उन्हें एनडीए के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश न करने के अपने शुरुआती फैसले को बदल दिया. शाह ने 29 अक्तूबर को घोषणा की, ''भारत के पीएम और बिहार के सीएम पद के लिए कोई वैकेंसी नहीं है.’’

इससे मतदाताओं को स्पष्ट हो गया कि नीतीश ही फिर से मुख्यमंत्री होंगे. जुलाई के आखिर में फीडबैक लूप ने गरीब महिलाओं को लक्षित कर सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं पर खर्च बढ़ाने की जरूरत को इंगित किया और इसके बाद ही 10,000 रुपए खाते में भेजने वाली योजना को अमलीजामा पहनाया गया. घोषणा के समय को लेकर विवादों के बावजूद, आचार संहिता लागू होने से ठीक पहले लाई गई यह योजना एक गेम-चेंजर साबित हुई.

महिलाओं के खाते में पहुंचे पैसे सरकार की प्रतिबद्धता के सबूत बन गए और महिलाओं को बूथ तक लाने में कारगर भी साबित हुए. एनडीए ने मुफ्त के बजाए इस राशि के हस्तांतरण को छोटे व्यवसाय शुरू करने से जोड़कर विकास की अपनी प्रतिबद्धता को मजबूती से लोगों के सामने रखा. इसने महिलाओं की आत्मनिर्भरता की भावना को बढ़ावा दिया. बिहार के लिए स्पेशल छठ पूजा ट्रेनें चलाने से भी भाजपा को मदद मिली होगी क्योंकि पार्टी के विभिन्न मोर्चे अलग-अलग राज्यों में पूर्वांचली समुदायों के बीच सक्रिय थे.

फिर संकेतों की राजनीति भी कम कारगर नहीं थी. जब भाजपा ने जुलूस के दौरान अनावश्यक नारेबाजी या गुटका-खैनी चबाने के खिलाफ निर्देश जारी किए तो संघ कैडर ने इस पर अमल में कोई चूक नहीं होने दी. प्रचार अभियान को काफी सोच-समझकर सुव्यवस्थित, विनम्र, संयमित रखा गया जो राजद की हुड़दंग भरी रैलियों से बिल्कुल अलग था. गठबंधन के झंडे लगाकर सुबह-शाम गांव से मोटरसाइकिल रैलियां भी इसी अंदाज में निकलीं.

अक्सर इन पर भगवा रंग नहीं होता था बल्कि छोटे सहयोगी दलों—लोजपा, हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (सेक्युलर) या आरएलएम के झंडों को प्रमुखता से प्रदर्शित किया जाता था. प्रत्याशी से ज्यादा पहचान मायने रखती थी; लक्ष्य वोटर के दिमाग में एक चुनाव चिह्न को बैठाना था. जब कम जाने-पहचाने आरएलएम उम्मीदवार माधव आनंद मधुबनी में 'गैस सिलेंडर’ सिंबल पर लगभग 98,000 वोट पाकर जीते तो भाजपा के प्रबंधकों ने इसे 'साझे चिह्न’ वाली रणनीति का नतीजा बताया. छोटे सहयोगी दलों ने उन्हें मिली 41 सीटों में से 28 पर जीत दर्ज की है.

2024 के लोकसभा चुनाव में मिली हार ने भाजपा की मध्य वर्ग नेतृत्व की कमजोरियां उजागर कर दी थीं. जिला अध्यक्षों ने शिकायत की कि बूथ कार्यकर्ता कुछ और काम करने चले गए थे. संगठन को फिर से खड़ा करने के लिए आरएसएस ने घर-घर जाकर संपर्क किया. 2025 की शुरुआत तक एक साल पहले की तुलना में 2,800 शाखाओं के मुकाबले 4,000 से ज्यादा दैनिक शाखाएं आयोजित की जाने लगीं.

इसके साथ ही छोटे-मोटे वेलफेयर ईवेंट आयोजित करने में भी तेजी आई—घर के कागजात बनवाने, पीएम-किसान पंजीकरण में सहायता देना, आंखों के चेक-अप कैंप लगाना आदि. कई गांव वालों के लिए संघ के स्वयंसेवक 'सोशल वर्कर’ का पर्याय बन गए थे. इस तरह जमीनी स्तर पर की गई मेहनत ने उस फीडबैक डेटा को भरोसेमंद बनाया, जिसकी शाह रात-रात भर बैठकर समीक्षा करते थे. इसलिए, जब सीमांचल से अलग-थलग पड़े अल्पसंख्यक मतदाताओं के बारे में, या रोहतास से ज्यादा युवा वॉलंटियर्स के बारे में रिपोर्ट आईं, तो उन्हें पता था कि वे सही हैं. भाजपा के एक कैंपेन मैनेजर के मुताबिक, ''संघ के मजबूत तंत्र ने हमारी डेटा शीट में कमियों को पूरा किया.’’
 

प्रधानमंत्री मोदी, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, लोजपा (रामविलास) प्रमुख चिराग पासवान और (एकदम दाएं) आरएलएम प्रमुख उ

सामाजिक गठजोड़
भाजपा ने शुरू में ही दो बुनियादी मुद्दों पर स्थिति स्पष्ट कर दी थी. पहला, जाति गणना पर अपना रुख स्पष्ट रखा, जिससे अगड़ी जातियों के बीच पकड़ बनाए रखने में मदद मिली. वहीं, आगामी राष्ट्रीय जनगणना में जातियों की गिनती का इरादा जताकर पार्टी ने महागठबंधन के इस आरोप की धार कुंद कर दी कि वह जाति-आधारित आरक्षण के खिलाफ है. पार्टी ने राजपूत नेताओं, खासकर राजीव प्रताप रूडी की नाराजगी दूर करने में प्रभावी तरीके से काम किया और अभिनेता-राजनेता पवन सिंह को अपने पाले में कर लिया. पार्टी ने अगड़ी जातियों से 49 और पिछड़ी जातियों से 40 प्रत्याशी खड़े किए. बाकी 12 उम्मीदवार दलित थे. और चुनाव के दौरान आरोप लगाने वाले पूर्व केंद्रीय मंत्री आर.के. सिंह जैसे जो लोग साथ नहीं आए, उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.

इस तरह का तालमेल महागठबंधन में समन्वय की कमी के एकदम उलट था, जिसने आखिर में 11 सीटों पर एक-दूसरे के खिलाफ ही प्रत्याशी उतार दिए थे. विपक्ष ने चुनाव क्षेत्रों की सामाजिक संरचना के लिहाज से उम्मीदवार चुनने में बहुत कम दिलचस्पी दिखाई, और अपना प्रत्याशी तय करते वक्त इस पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया कि किस के कहां से जीतने की संभावना ज्यादा बेहतर है. नतीजा जमीनी स्तर पर तालमेल नहीं था और यह स्थिति एनडीए की मजबूत चुनावी मशीनरी के एकदम विपरीत थे. ऐसे माहौल में कांग्रेस का 'वोट चोरी’ का आरोप भी पूरी तरह बेमानी साबित हुआ.

एनडीए की रणनीति यह रही कि विपक्ष के मुद्दों पर ध्यान देने की जगह अपनी बात जनता तक पहुंचाएं, जिससे भी विपक्ष के आरोप ज्यादा असरदार साबित नहीं हुए. भाजपा के एक बड़े नेता ने बिहार की चार-स्तरीय चुनावी रणनीति के बारे में बताया—सहयोगियों के साथ बातचीत बढ़ाना और उसे गहराई प्रदान करना; सामाजिक समीकरणों का दायरा बढ़ाने के लिए नए जनाधार तक पैठ बनाना; सिर्फ पार्टी उम्मीदवारों के लिए ही नहीं बल्कि सहयोगियों के पक्ष में भी अधिकतम मतदान पक्का करना; और विरोधियों के कथित कुशासन को दिखाने के लिए पीएम मोदी की इमेज का इस्तेमाल, साथ ही बेहतर, कुशल प्रशासन का वादा करना.

एनडीए की चुनावी रणनीति का बेहतरीन नमूना मगध-शाहाबाद इलाके में नजर भी आया, जो लंबे समय से गठबंधन की कमजोरी रहा है. इस बार एनडीए ने दशकों तक राजद-वामदलों का गढ़ रहे इस इलाके की 48 विधानसभा सीटों में से 39 पर जीत हासिल की जो 81.2 फीसद का स्ट्राइक रेट है, जबकि 2020 में इसे आठ सीटें ही मिली थीं. महगठबंधन के 110 से 35 सीटों पर सीटों पर सिमटने का एक कारण उसे यहां 33 सीटों पर मिली हार भी है.

दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में प्रोफेसर स्वदेशी सिंह के मुताबिक, ''हर संदेश, हर फैसले के जरिए इस धारणा को मजबूत किया गया कि अनुशासन और अपने वादों पर अमल में एनडीए खरा उतरेगा. इससे भाजपा को शासन आधारित सामाजिक गठजोड़ स्थापित करने में मदद मिली. नतीजे दर्शाते हैं कि यह गठजोड़ कैसे जाति और समुदाय आधारित समीकरणों पर भारी पड़ा.’’

रचा इतिहास
नतीजा बेहद परिवर्तनकारी साबित हुआ. पहली बार भाजपा एक ऐसे राज्य में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, जहां उसने सीधे तौर पर कभी शासन नहीं किया था. एनडीए ने बिहार की 243 सीटों में से 202 सीटों पर जीत हासिल की. भाजपा राज्य में विकास और मोदी-नीतीश की 'डबल इंजन’ सरकार की निरंतरता वाले नैरेटिव को गढ़ने में सफल रही, जिसने राज्य के लोगों को राजद के समय के 'जंगलराज’ के दौर को लेकर चिंताग्रस्त कर दिया. सामने दो विकल्प रखे गए—एक भले ही कुछ कमियों वाला लेकिन जाना-परखा प्रशासन, और दूसरा जोशीला मगर बाहरी—जो बड़े पैमाने पर बदलाव का वादा करता है, तो मतदाताओं के एक वर्ग ने जाना-पहचाना विकल्प ही चुना.

जीत के आंकड़ों पर गौर करें तो पता चलता है कि एनडीए का वोट शेयर 46.5 फीसद पर पहुंच चुका है—जो 2020 में 37.2 फीसद था. इसमें भाजपा के वोट शेयर में तो मामूली बढ़ोतरी (19.5 से 20.1 फीसद) हुई, लेकिन जद (यू) के आंकड़े में करीब चार अंक (15.4 से 19.3 फीसद) का उछाल आया. असल में जद (यू) ने अपनी रणनीति अच्छी तरह लागू की और अपने शासन की कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन पर जोर दिया.

राजनैतिक विश्लेषक और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) में फेलो राहुल वर्मा कहते हैं, ''भाजपा अब गठबंधन में बड़ा भाई है, जिसने न सिर्फ अभियान संचालन की जिम्मेदारी संभाली, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि सहयोगी दलों का स्ट्राइक रेट बढ़े. क्रिकेट की मिसाल लें तो क्रीज पर मौजूद दोनों बल्लेबाजों को बड़ा स्कोर खड़ा करना है. आप एक छोर पर सहवाग और दूसरे छोर पर किसी ऐसे खिलाड़ी को खड़ा कर सकते हैं जो स्ट्राइक रोटेट न करे.’’ एक ऐतिहासिक जीत के लिए जरूरी है कि एक टीम के तौर पर खेलें, न कि अकेले स्टार के तौर पर और लक्ष्य पर अपनी नजरें हमेशा टिकाकर रखें. ऐसा ही एनडीए ने कर दिखाया है.

मतदान वाले दिन भी पूरा कवरेज था. आरएसएस के लोग टर्नआउट लिस्ट देख रहे थे और कई जगह वोटरों को फोन करके याद दिला रहे थे कि बाहर निकलकर वोट करें

पांच-क्षेत्रीय ग्रिड से आने वाला फीडबैक दो मामलों में सबसे अहम साबित हुआ: नीतीश की फिर से बढ़ती लोकप्रियता और महिलाओं की योजनाओं पर खर्च बढ़ाने की जरूरत

एनडीए के कैंपेन की सधी हुई, शांत और संयमित टोन जान-बूझकर चुनी गई थी, ताकि उसकी साफ तुलना राजद की शोर-शराबे वाली रैलियों से हो सके

भाजपा की बु‌नियादी रणनीति
पांच जोन: हर जोन में एक तय प्रभारी, जो धरातल पर अमल, दिक्कतों का हल और स्थानीय हिसाब से अनुकूलन तय करे
रात में समीक्षा: बंद कमरे की मीटिंग, जहां अमित शाह हर जोन प्रमुख से सख्त सवाल-जवाब करते
एसओपी-चलित कैंपेन: प्री-पोल चेकलिस्ट, हर दिन बूथ-लेवल रिपोर्टिंग वगैरह
मोटरबाइक रैलियां: हर सुबह और शाम, ताकि दूर-दराज इलाकों में भी एनडीए के सिंबल और उम्मीदवारों की पहचान मजबूत रहे
आचार प्रोटोकॉल: न गुटखा, न फिजूल बातें, न ही बिना जांचे सोशल मीडिया पोस्ट

एनडीए की चौतरफा रणनीति

...जैसा कि भाजपा के अभियान से जुड़े एक शीर्ष नेता ने बताया
कम्युनिकेशन: सहयोगियों के साथ भरोसा और तालमेल मजबूत करना
सोशल बेस बढ़ाना: ज्यादा से ज्यादा समाजिक समूहों तक पहुंच बनाना
वोटर टर्नआउट: यह सुनिश्चित करना कि सपोर्टर घरों से निकलकर वोट डालें—सिर्फ भाजपा के लिए नहीं, सहयोगियों के लिए भी
स्टार कैंपेनर: पीएम मोदी की छवि का इस्तेमाल करके विपक्ष के 'कुशासन’ के मुकाबले अपनी बेहतर डि‌लिवरी का भरोसा दिखाना.

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