
पटना हवाई अड्डे से 29 अक्तूबर की सुबह तेजस्वी यादव अपनी पार्टी के चुनाव चिह्न लालटेन के छाप वाली बीज शर्ट पहने वीटी-जेएसएफ हेलीकॉप्टर में रवाना होते हैं. उन्हें समस्तीपुर और बाकी जगहों पर सात रैलियों को संबोधित करना है. असल में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के प्रमुख तथा विपक्षी महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की अधिक से अधिक वोटरों तक पहुंचने के लिए मानो वक्त और दूरी को पछाड़ने की जद्दोजहद है.
उनकी रैलियां आम सभाओं जैसी नहीं, बल्कि युवा मतदाताओं की जोरदार और जीवंत भीड़ होती हैं, जो अपने स्मार्टफोन को यूं लहराते हैं, मानो समर्थन में उठा कोई मशाल हो. समस्तीपुर में भी यही नजारा है. मंच के पास पार्टी के निशान हरे रंग के कपड़े पहने युवा आगे पहुंचने के लिए धक्का-मुक्की करते हैं, फोन ऊंचा उठाए अपने नेता के खास-खास तेवरों की तस्वीर कैद करने में मशगूल हैं.
तेजस्वी के भाषण अमूमन फर्राटेदार होते हैं. वे बेरोजगारी, पलायन और सम्मान के मुद्दों को बड़ी चतुराई से भावुक आख्यान में पिरो देते हैं. राजद का चुनावी गीत 'बिहार बदलने वाला है, सरकार बदलने वाली है’ नए बदलाव की बानगी है. तेजस्वी के मुहावरे अपने पिता लालू के सामाजिक न्याय से हटकर आर्थिक उम्मीदों के सपने जगाने लगे हैं. वे लोगों से कहते हैं, ''नौकरी मिलेगी पक्की, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी को करेंगे आउट, और रिश्वतखोरी को करेंगे क्लीन बोल्ड.’’
फिर, 35 वर्षीय तेजस्वी के भाषणों में वही लय बखूबी उभर आती है, जिसमें उनके पिता दशकों से माहिर रहे हैं-यानी आक्रामक हमला, गहरी चुटकी, हास्य और गर्मजोशी. अलबत्ता उनका लहजा खिल्ली उड़ाने वाला कम, गंभीर ज्यादा है. एक दिन पहले वे सारण में मांझी के तपते मैदानों से लेकर अमनौर में उमड़ती भीड़ के बीच छह सभाओं को संबोधित कर आए हैं. अगले कुछ दिनों में उनकी रोजाना रैलियों की संख्या दहाई के अंक को छू सकती है.
राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा भी कुछ रैलियां कर रहे हैं, लेकिन असली महारथी तेजस्वी ही हैं. उन्हें ही मोर्चा संभालना है. लालू प्रसाद उम्र और बीमारी के कारण गैर-मौजूद हैं, तो हर माइक्रोफोन, नारे और सुर्खी में तेजस्वी की आवाज ही गूंजनी होगी. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के पास अपनी सामूहिक ताकत और राजकाज की निरंतरता के भरोसे का तामझाम है, लेकिन जवाब में महागठबंधन के एक शख्स का यकीन और जोश-जज्बा ही अलहदा दिखता है. लिहाजा, 2025 की जंग तो साफ-साफ तेजस्वी बनाम एनडीए ही है.
बाजी पलटना
महज कुछ दिन पहले महागठबंधन का चुनाव अभियान दिशाहीन लग रहा था. सीटों को लेकर खींचतान जारी थी और प्रमुख सहयोगी दल व्यापक परिप्रेक्ष्य देखने को तैयार नहीं लग रहे थे. फिर, 23 अक्तूबर को अहम मोड़ आया. कांग्रेस ऊंचे तेवर से नीचे उतरी और तेजस्वी को महागठबंधन का मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर दिया. लिहाजा, महागठबंधन भारतीय जनता पार्टी और जनता दल (यूनाइटेड) की अगुआई वाले, अपने में उलझे सत्तारूढ़ एनडीए के खिलाफ पूरी तरह मोर्चे पर डट गया.
इस एक फैसले से लड़खड़ाते महागठबंधन को वह फर्राटा रफ्तार मिल गई, जिसकी उसे सख्त जरूरत थी. अब तेजस्वी अपनी सबसे कठिन जंग लड़ रहे हैं, लेकिन यह उनके लिए बेहतरीन मौका है, वे जीत के काफी करीब जो हैं. उनमें वह जोश और तेवर भी दिख रहा है, जो अभी अपना दूसरा ही बड़ा चुनाव लड़ रहे योद्धा में होता है. उसमें उनकी महारत और परिपक्वता भी दिख रही है.
इसकी एक गजब की मिसाल उनका बहुरंगी रथ महागठबंधन ही है. हाल में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने सभी तबके के साथ की एक झलक पेश की. उनके दोनों तरफ मल्लाह नेता तथा नव-घोषित उप-मुख्यमंत्री उम्मीदवार विकासशील इंसान पार्टी (वीआइपी) के मुकेश सहनी और राजद के दलित चेहरे पूर्व मंत्री शिवचंद्र राम थे. उन्हें एहसास है कि एनडीए के खिलाफ सीधी लड़ाई में जातियों का इंद्रधनुषी गठबंधन ही नतीजे तय कर सकता है.
इसलिए उन्होंने ''नाई, कुम्हार, बढ़ई और लोहार जैसे कारीगर समुदायों के लिए एकमुश्त 5 लाख रुपए की ब्याज-मुक्त रकम देने के वादे’’ का ऐलान किया, ताकि उन्हें आर्थिक उत्थान और स्वरोजगार में मदद मिल सके. इस सामाजिक और चुनावी चाल का मकसद महागठबंधन की झोली में अतिरिक्त पांच फीसद वोट लाना है. बिहार में जाति सर्वेक्षण के मुताबिक, राज्य की करीब 13 करोड़ की आबादी में नाई 1.6 फीसद, बढ़ई 1.5 फीसद, कुम्हार 1.4 फीसद और लोहार 0.6 फीसद हैं.
ये छोटे समूह अहम हैं, क्योंकि अक्सर चुनावों में मामूली अंतर से राजनैतिक भाग्य तय होता है. फिर, शिवचंद्र और कांग्रेस के बिहार अध्यक्ष राजेश राम दोनों रविदासी दलित (आबादी 5 फीसद) हैं और इस समुदाय के वोट पर बड़ा असर डाल सकते हैं. वामपंथियों के वोट पर भी गौर करना होगा; खासकर भाकपा (माले) की गरीब वंचित समूहों में पक्की पैठ है.

तेजस्वी से 2020 में मुख्यमंत्री की कुर्सी सिर्फ 12 सीटों या 12,000 वोटों से चूक गई थी ( महागठबंधन और एनडीए की वोट हिस्सेदारी में क्रमश: 37.23 और 37.26 फीसद या महज 0.03 फीसद का अंतर था). अब तेजस्वी व्यवस्थित और सुगठित नजरिए के साथ हैं, जो सभी जमातों को छूता है और राज्य के उन कोनों में भी लालटेन की लौ जगाता है जहां यह लंबे समय से टिमटिमाता तो रहा है लेकिन खुलकर रोशन नहीं होता रहा है.
बिहार में सत्ता की चाबी ईबीसी (आबादी लगभग 36 फीसद) और दलित (19.6 फीसद) वोटरों के पास है. सो, तेजस्वी ने न सिर्फ जातियों का ऐसा गठबंधन तैयार किया है जो राजद के मूल 32 फीसद एम-वाइ (17.7 फीसद मुसलमान और 14.3 फीसद यादव) समूह से व्यापक है, बल्कि नए मुद्दों को जोड़कर चुनावी नैरेटिव को उलट दिया है. उन्होंने खासकर हर परिवार को एक सरकारी नौकरी के वादे से नौकरी और रोजगार को चुनावी अफसाने के केंद्र में ला दिया है. साथ ही उन्होंने ठेके पर या संविदा सरकारी कर्मचारियों के लिए कल्याणकारी लाभ भी बढ़ाए हैं और पंचायत और कचहरी सदस्यों के मानदेय को दोगुना कर दिया है.
महागठबंधन को नशाबंदी कानून की समीक्षा के वादे का भी फायदा मिल सकता है. शराब के मामलों में बंदी 12.7 लाख लोगों में करीब 85 फीसद दलित ईबीसी ओबीसी समुदायों से हैं और घोषणा-पत्र उन्हें 'फौरन राहत’ देने का वादा करता है.
बिहार में महिलाएं दूसरा अहम वोट बैंक हैं और नीतीश की जीत का मुख्य आधार रही हैं. राजद ने इस बार 23 महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है (सभी दलों में सबसे ज्यादा), और 'तेजस्वी प्रण’ के वादों में सभी महिलाओं को 2,500 रुपए मासिक भुगतान और राज्य की 1.4 करोड़ जीविका दीदियों (सामुदायिक कार्यकर्ताओं) को 30,000 रुपए वेतन देना शामिल है.
समाजशास्त्री तथा पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ज्ञानेंद्र यादव कहते हैं, ''एम-वाइ समीकरण के अलावा महत्वाकांक्षी युवा मतदाताओं का एक बड़ा समूह आज तेजस्वी के नौकरियों के वादे की ओर आकर्षित होता दिख रहा है.’’ फिर भी, बकौल प्रोफेसर, उनके लिए ईबीसी और दूसरे जाति समूहों का दिल जीतना अहम चुनौती होगी. इसी के मद्देनजर कई वादे बुने गए हैं. मसलन, सभी भूमिहीनों के लिए शहरों में तीन डिसमिल और गांवों में पांच डिसमिल जमीन, आरक्षण पर 50 फीसद की सीमा हटाना, दलितों (और महिलाओं) के खिलाफ उत्पीड़न के लिए अलग न्यायिक व्यवस्था का गठन.
करीने से तैयार अभियान
इस बार तेजस्वी का चुनाव प्रचार भी 2020 से एकदम अलग दिख रहा है. तब उन्होंने आंकड़ों में जो रंच मात्र अंतर से खोया था, उसे जन धारणा में हासिल कर लिया था. बिहार के युवाओं ने उन्हें विश्वसनीय विकल्प के रूप में देखा. पांच साल बाद वे उस धारणा को हकीकत में बदलने में लगे हैं. उनका चुनावी नारा, 'नई सोच, नया बिहार’, राजद को शिकायतों की नहीं, आकांक्षाओं की पार्टी के रूप में स्थापित करने का प्रयास है.
इसके अलावा, तेजस्वी महागठबंधन में मुख्यमंत्री पद की अपनी उम्मीदवारी सुरक्षित करने के बाद सभाओं में कह रहे हैं कि एनडीए ने अभी तक ''चाचा (नीतीश)’’ को अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित नहीं किया है, इसलिए सत्तारूढ़ गठबंधन के जीतने पर उन्हें नहीं बनाया जाएगा. ऐसी असमंजस का असर भांपकर भाजपा के नेता—प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर उप-मुख्यमंत्री सम्राट चौधरी तक चुनावी सभाओं में कहने लगे हैं कि जद(यू) प्रमुख मुख्यमंत्री के लिए एनडीए की पसंद बने हुए हैं.
29 अक्तूबर को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने एक सभा में कहा, ''न सीएम पद, न पीएम पद पर कोई वैकेंसी है.’’ इस बयान को नीतीश के मुख्यमंत्री बने रहने के समर्थन के रूप में देखा गया. एक वरिष्ठ भाजपा नेता स्वीकार करते हैं, ''हर कोई समझता है कि गठबंधन एक स्वर में नहीं बोलता है तो नीतीश के समर्थन आधार ईबीसी और महिलाओं के बीच उलझन हो सकती है.’’
साथ ही, एनडीए वहां चोट कर रहा है, जो सबसे मारक है. मोदी और नीतीश समेत अनेक नेता लगातार ''जंगल राज’’ की वापसी का पुराना हौवा खड़ा कर रहे हैं, जो 2005 से पहले उनके पिता लालू और मां राबड़ी देवी के राज में कथित अराजक दशकों के लिए कहा जाता है. इस राजनैतिक विरासत के अफसाने को बेअसर करने के लिए तेजस्वी अपने को सामने कर देते हैं. वे कहते हैं, ''मैंने कभी किसी को नुक्सान नहीं पहुंचाया. किसी को मुझसे कोई शिकायत नहीं है,’’ और इशारा करते हैं कि पहले जो कुछ भी हुआ, उसके लिए उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता.
रणनीति सोची-समझी है—बिना नाम लिए अतीत के दागदार बोझ से खुद को अलग करना. यह चुनाव कई मायनों में तेजस्वी के लिए राजद की पटकथा को अपनी छवि में फिर से ढालने की कोशिश है. आज पार्टी उसी तरह उनके इर्द-गिर्द है, जैसे उनके पिता के वक्त समाजवादी सोच और वंचितों को सत्ता दिलाने के लिए थी. वे अकेले ही परिवार की चुनावी मशाल थामे हुए हैं; इस बार उनके परिवार से कोई और राजद के टिकट पर नहीं है (अलग हुए बड़े भाई तेज प्रताप अपनी ही पार्टी से चुनाव लड़ रहे हैं).
वे कहते हैं, ''तेजस्वी आपसे एक मौका मांग रहा है. आपने एनडीए को 20 साल दिए—मुझे बस 20 महीने दीजिए. हम साथ मिलकर नया बिहार बनाएंगे.’’ वे खुद को पीढ़ीगत बदलाव के चेहरे के रूप में पेश करते हैं; ऐसे शख्स के रूप में जो पिता के साए और बिहार की राजनैतिक थकान दोनों से खुद को मुक्त करना चाह रहा है.
तेजस्वी का नेता अवतार
राज्य की राजनीति में प्रथम दंपती के बेटे तेजस्वी ऐसे परिवेश में पले-बढ़े हैं, जहां सत्ता और मिथक के बीच की लकीरें बहुत पहले ही धुंधली हो चुकी थीं. नौवीं कक्षा तक पढ़े तेजस्वी पेशेवर क्रिकेट से जुड़े—आइपीएल टीम दिल्ली डेयरडेविल्स का हिस्सा भी रहे. फिर सब कुछ छोड़कर अपना सर्वस्व राजनैतिक रैलियों में झोंक दिया.
तेजस्वी चुनावी राजनीति में पहली बार 2010 में रू-ब-रू हुए. वे विधानसभा चुनाव के दौरान पिता के साथ एक रैली में पहुंचे. वह चुनावी अग्निपरीक्षा राजद के लिए बहुत बुरी साबित हुई. वे क्रिकेट खेलने के लिए फिर दिल्ली लौट आए लेकिन 2013 में पारिवारिक संकट गहराया, जब लालू को चारा घोटाले में दोषी ठहराया गया. उन्हें फिर पटना लौटना पड़ा. मां राबड़ी ने उन्हें घर बुलाया, और इस क्रिकेटर को राजनीति का खिलाड़ी बनाने का निर्णय लिया गया.

दो साल के भीतर ही उनमें बदलाव साफ नजर आने लगा. बेहद संयम के साथ मीडिया से उनकी बातचीत देखकर तमाम लोग हैरान रह गए और फिर 2015 में राघोपुर सीट से चुनावी सफलता हासिल की. नीतीश के नेतृत्व वाली महागठबंधन सरकार में उन्हें उप-मुख्यमंत्री का पद भी मिल गया लेकिन 2017 में जद(यू) की एनडीए में वापसी से सरकार बिखर गई.
अगस्त 2022 में फिर नए समीकरण बने, जब नीतीश राजद-कांग्रेस गठबंधन के साथ आए और तेजस्वी फिर उनकी सरकार में उप-मुख्यमंत्री बने. लेकिन जनवरी 2024 में गठबंधन टूट गया. तेजस्वी के लिए नीतीश के साथ सियासी गठबंधन अभिशाप बने तो उन्हें राज्य की राजनीति के बारे में बहुत कुछ सिखाने वाले भी साबित हुए. उन्होंने हाल में मुख्यमंत्री पर तीखा कटाक्ष किया, ''बिहार में राजनीति सिर्फ आंकड़ों की ही नहीं भरोसे की भी होती है.’’
बहरहाल, बतौर उप-मुख्यमंत्री दूसरी पारी के महज दो वर्ष में तेजस्वी अपनी छाप छोडऩे में सफल रहे. उन्होंने स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्रों में लंबे समय से खाली पड़े पदों को भरने पर ध्यान केंद्रित किया और भर्ती अभियान को बढ़ाया, जिसने उनके इरादों का संकेत दिया. वे राज्य के युवा वोटरों के बीच अपनी शांत, कर्मठ और मिलनसार व्यक्तित्व की छवि बनाने में कामयाब रहे. अब, चुनाव प्रचार में वे अपने उस समय के काम को अपनी प्रशासनिक परिपक्वता का प्रमाण बताते हैं. जैसा, उन्होंने एक सभा में कहा भी, ''मैंने सिस्टम को अंदर से देखा है. मुझे पता है कि क्या काम करता है और क्या नहीं.’’
एनडीए का पलटवार
यह जग जाहिर है कि तेजस्वी अपना सामाजिक आधार व्यापक करने की कोशिश में लगे हैं. सो, 24 अक्टूबर को प्रधानमंत्री मोदी ने एनडीए के प्रचार अभियान का आगाज समस्तीपुर से किया. यह पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की समाजवादी विरासत को अपनाने की कोशिश है, जिन्हें पिछले साल मरणोपरांत भारत रत्न दिया गया. कर्पूरी बिहार में अति पिछड़े वर्गों के मसीहा कहे जाते हैं और उनकी स्वीकार्यता हर तबके में है.
उनके गृह क्षेत्र में एक रैली में प्रधानमंत्री मोदी ने नीतीश की मौजूदगी में ''नए दौर के लिए नीतीश की मेहनत’’ और राजद के ''जंगल राज’’ के फर्क की ओर इशारा किया. रैली में मोदी ने भीड़ से मोबाइल फोन की टॉर्च जलाने को कहा और मुस्कुराते हुए पूछा, ''हर हाथ में रोशनी है, क्या बिहार को अब भी लालटेन की जरूरत है?’’
अपनी गिरती सेहत को लेकर तमाम अटकलों के बावजूद नीतीश के बाजी पलटने के तेवर बरकरार हैं. वे जानते हैं कि मतदाताओं का एक पुराना वर्ग—व्यापारी, सरकारी कर्मचारी और कुछ ओबीसी—राजद राज को असुरक्षा की भावना के साथ जोड़कर ही देखता है. एनडीए की हर रैली में मुख्यमंत्री ''उन बुरे दिनों’’ की याद दिलाते हैं, और अमित शाह भी मतदाताओं को ''गुंडा राज’’ की याद दिलाकर आगाह करते हैं, ''एक चूक से वर्षों की स्थिरता खत्म हो सकती है.’’
सीवान में उन्होंने दिवंगत बाहुबली मोहम्मद शहाबुद्दीन के बेटे ओसामा को मैदान में उतारने को राजद की अपराध और राजनीति के मेल की विरासत का सबूत बताया. दरभंगा में महागठबंधन को ठगबंधन बताया. वैसे, एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स और बिहार इलेक्शन वॉच की एक रिपोर्ट कहती है कि भाजपा के 65 फीसद उम्मीदवारों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं; राजद के मामले में आंकड़ा 76 फीसद है.

एनडीए तेजस्वी के 'हर परिवार में एक सरकारी नौकरी’ के वादे पर भी निशाना साध रहा है. शाह ने कहा, ''यह वादा बेबुनियाद है, किसी भी हिसाब-किताब पर खरा नहीं उतरता.’’ शाह के मुताबिक, 2.5 करोड़ परिवारों के एक सदस्य को सरकारी नौकरी मिलती है, तो वार्षिक वेतन बिल कम से कम 11.7 लाख करोड़ रुपए होगा, जो बिहार के मौजूदा बजट 3.17 लाख करोड़ रुपए से लगभग चार गुना ज्यादा है.
हालांकि, तेजस्वी का कहना है कि उन्होंने विशेषज्ञों के साथ मिलकर इसका खाका तैयार किया है और जल्द ही इसे लोगों के सामने रखेंगे. राजकोषीय स्थिति की बात छोड़ दें तो सच्चाई यही है कि इस वादे ने नौकरियों, या उनकी कमी को चुनाव में एक प्रमुख भावनात्मक मुद्दा बना दिया है. यह पिछले 20 वर्षों के एनडीए राज की कमजोर नस भी है.
दूसरी रुकावटें
भाजपा की दुर्जेय चुनावी मशीनरी के अलावा तेजस्वी को दो अन्य ताकतों से भी निपटना होगा. एक उभरते दलित नेता चिराग पासवान, जो खुद को 'बिहार के युवा चेहरे’ के तौर पर स्थापित करने में लगे हैं, और चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी, जिसके नए होने के बावजूद दोनों गठबंधनों के वोटबैंक में सेंध लगाने की आशंका है. मुख्यमंत्री पद की महत्वाकांक्षा पाले चिराग ने एनडीए के साथ गठबंधन किया है और उसे 5 फीसद पासवान वोटों का भरोसा भी दिलाया है.
जन सुराज पार्टी ने युवाओं में दिलचस्पी जगाई है और उसके पक्ष में मामूली मतदान भी दोनों गठबंधनों का गणित बिगाड़ सकता है. 2020 के विधानसभा चुनावों में एनडीए और महागठबंधन ने कुल मिलाकर 74.5 फीसद वोट हासिल किए थे. इससे 25.5 फीसद वोट निर्दलीय और छोटे दलों के बीच बंट गया.
प्रशांत किशोर की नजर उसी बिखरे वोट के कुछ हिस्से पर है, ताकि सत्ता का समीकरण बदले. राज्य में अमूमन 50 सीटों का फैसला 5,000 से कम वोटों से होता रहा है, ऐसे में जन सुराज के पक्ष में इकाई अंक का भी वोट शेयर समीकरणों को उलझा सकता है.
कांग्रेस और वामपंथी सहयोगियों के लिए तेजस्वी अब महागठबंधन का निर्विवाद चेहरा हैं. कांग्रेस के अशोक गहलोत ने साफ किया, ''तेजस्वी हमारी सामूहिक पसंद हैं क्योंकि वे निरंतरता और बदलाव का प्रतिनिधित्व करते हैं—जिन दोनों की बिहार में जरूरत है.’’
यह उनके लिए सबसे अच्छा मौका भी है, क्योंकि नीतीश कुमार की सेहत नासाज है और भाजपा के पास कोई स्पष्ट चेहरा नहीं है. तेजस्वी हारते हैं, तो बिहार के भविष्य के नेतृत्व पर तेजस्वी का दावा कमजोर पड़ सकता है. और, उन्हें जीत मिली तो न सिर्फ राज्य का नया चेहरा बनेंगे, बल्कि हिंदी पट्टी में विपक्ष के सबसे विश्वसनीय युवा नेता के तौर पर भी उभरेंगे.
लेकिन यह आसान नहीं होगा. अक्तूबर में जैसे ही चुनाव अभियान शुरू हुआ, दिल्ली की एक अदालत ने अक्तूबर 2024 में सीबीआइ की तरफ से दाखिल आरोपपत्र के आधार पर लालू और उनके परिवार के खिलाफ जमीन के बदले नौकरी घोटाले में आरोप तय कर दिए. कथित तौर पर यह मामला उनके केंद्रीय रेल मंत्री (2004-09) रहने के दौरान का है.
इसमें तेजस्वी का भी नाम है, जिसे वे ''प्रतिशोध की राजनीति’ कह रहे हैं. उनका दावा है कि चुनाव से कुछ हफ्ते पहले यह ''कोई संयोग नहीं’’ है. तो, यह एक और मोर्चा है, लेकिन तेजस्वी भाजपा और जद(यू) की साझा ताकत के खिलाफ डटकर खड़े हैं. बिहार की इस जंग में वे अकेले खड़े हैं, और महागठबंधन के इकलौते महारथी हैं.

