आवरण कथाः सेमीकंडक्टर मिशन
अहमदाबाद के पास साणंद इंडस्ट्रियल बेल्ट में बैलगाड़ी और बाइट्स एक साथ चलते दिखते हैं. मगर यहां गांव-देहात के नजारे आपको गुमराह न कर दें, लिहाजा जान लीजिए कि जब टाटा ने 2008 में अपनी नैनो फैक्ट्री रातोरात पश्चिम बंगाल के सिंगूर से यहां शिफ्ट किया था, तभी से साणंद एक मैन्युफैक्चरिंग हब के तौर पर चमक उठा. और अब जब दुनिया की तीन सबसे आधुनिक सेमीकंडक्टर चिप फैक्ट्रियां यहां लग रही हैं, तो साणंद भारत का नया सिलिकॉन आकर्षण बनने के लिए तैयार है.
मुरुगप्पा ग्रुप का सेमीकंडक्टर वेंचर सीजी सेमी इसकी सबसे ताजा और दमदार मिसाल है. साणंद के हरे भरे धान के खेतों के बीच इसका कॉम्पैक्ट फैक्ट्री कॉम्प्लेक्स ऐसे खड़ा हो गया मानो जमीन से उग आया है. सिर्फ आठ महीने पहले, सीजी सेमी ने यहां 7,600 करोड़ रुपए की लागत से अपना आउटसोर्स सेमीकंडक्टर असेंबली ऐंड टेस्ट (ओएसएटी) फैसिलिटी या दूसरे शब्दों में फैक्ट्री स्थापित की थी.
इसमें जापान की रेनेसाज इलेक्ट्रॉनिक कॉर्पोरेशन और थाइलैंड की स्टार्स माइक्रोइलेक्ट्रॉनिक्स उसके पार्टनर हैं. 28 अगस्त को केंद्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव साणंद पहुंचे और उन्होंने सीजी सेमी की नई असेंबली पायलट लाइन का उद्घाटन किया और यहीं से निकले भारत के पहले मेड-इन-इंडिया सेमीकंडक्टर चिप्स.
लंबी छलांग लगाते हुए ये चिप्स अब क्लाइंट्स के पास टेस्टिंग में हैं, ताकि देखा जा सके कि ये ग्लोबल इंडस्ट्री स्टैंडर्ड्स पर खरे उतरते हैं या नहीं. सीजी पावर ऐंड इंडस्ट्रियल सॉल्यूशन्स लिमिटेड, जिसकी सब्सिडियरी सीजी सेमी है, के चेयरमैन एस. वेल्लायन ने इस चुनौती की तुलना ''माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई जितनी कठिन’’ से की. उनके शब्दों में, ''यहां बनने वाली हर चिप भारत की टेक्नोलॉजिकल संप्रभुता की तरफ एक कदम है. यह दिखाता है कि सरकार और उद्योग जब यकीन, पूंजी और स्केल के साथ मिलकर काम करें, तो कितनी तेजी से नतीजे दिए जा सकते हैं.’’
वेल्लायन की यह बात अतिशयोक्ति नहीं है कि भारत को हर साल 19 अरब सेमीकंडक्टर चिप्स चाहिए. ये स्मार्टफोन, वॉशिंग मशीन, फ्रिज, कार, मिसाइल या स्पेसशिप, हर तरह के डिवाइस की धड़कन हैं. लेकिन बड़ी सेमीकंडक्टर फैसिलिटीज न होने से हमें अपनी 95 फीसद जरूरत कुछ चुनिंदा ग्लोबल चिप कंपनियों से आयात करनी पड़ती है.
इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है: सालाना 1.71 लाख करोड़ रुपए. यह रकम जल जीवन मिशन के बजट से ढाई गुना ज्यादा है, जबकि उस योजना से देश के 19 करोड़ ग्रामीण घरों तक नल से पीने का पानी पहुंचता है. मामला और गंभीर इसलिए है क्योंकि भारत का सेमीकंडक्टर बाजार अभी 45-50 अरब डॉलर (करीब 4-4.3 लाख करोड़ रुपए) का है, जो 2030 तक दोगुना होकर 100-110 अरब डॉलर (करीब 8.87-9.75 लाख करोड़ रुपए) तक पहुंच सकता है. जानकार चेतावनी देते हैं कि अगर भारत ने जल्दी अपने चिप्स बनाना शुरू नहीं किया तो चिप्स आयात पर उतना ही खर्च करना पड़ेगा जितना क्रूड ऑयल के आयात पर करते हैं.
कोविड-19 महामारी के दौर ने दिखाया कि आयात पर निर्भरता कितनी खतरनाक हो सकती है. दुनिया भर में चिप्स की भारी कमी ने भारत के ऑटो, इलेक्ट्रॉनिक्स और कई अहम सेक्टर्स को बुरी तरह प्रभावित किया, जिसकी वजह से महंगे और लंबे विलंब झेलने पड़े. ऊपर से भू-राजनीतिक हालात भी लगातार बदल रहे हैं.
डोनाल्ड ट्रंप की 'हमारी बात मानो या पीछे रहो’ वाली नीति के दौर में यह चिंता और बढ़ गई कि सिलिकॉन चिप्स की कमी कहीं स्थायी रूप न ले ले. भारत इस हकीकत से आंखें नहीं मूंद सकता, क्योंकि चिप्स अब हमारी जिंदगी के हर पहलू पर हावी हैं, यहां तक कि युद्ध में भी. अप्रैल में पहलगाम आतंकी हमले के जवाब में भारत ने ऑपरेशन सिंदूर चलाया जिसमें ऑटोनॉमस मिसाइलें और ड्रोन निर्णायक भूमिका में थे और ये सब एडवांस सेमीकंडक्टर प्रोसेसर से गाइड हो रहे थे.
चिप्स का चौथी औद्योगिक क्रांति के लिए वही महत्व है जो पहले की औद्योगिक क्रांतियों के लिए स्टील था. कभी इस क्षेत्र का बेताज बादशाह रहा अमेरिका भी अब ताइवान, दक्षिण कोरिया और कुछ हद तक चीन जैसे पूर्वी एशियाई दिग्गजों से पीछे छूटता दिख रहा है. अपनी बढ़त वापस पाने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने 2022 की शुरुआत में चिप्स ऐंड साइंस ऐक्ट तैयार किया. इसके तहत घरेलू निर्माताओं को प्रोत्साहन देने के लिए 52.7 अरब डॉलर (करीब 4.67 लाख करोड़ रुपए) का पैकेज मंजूर किया गया.
भारत का बड़ा दांव
उससे कुछ महीने पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिसंबर 2021 में अपना बहुत बड़ा दांव पेश किया, जब उन्होंने 76,000 करोड़ रुपए का इंडिया सेमीकंडक्टर मिशन (आइएसएम) शुरू करने का ऐलान किया. इस महत्वाकांक्षी योजना का मकसद था भारत को सेमीकंडक्टर डिजाइन और मैन्युफैक्चरिंग का ग्लोबल हब बनाना, मजबूत इकोसिस्टम तैयार करना और चिप निर्माण में आत्मनिर्भरता हासिल करना. जैसा कि अश्विनी वैष्णव ने इंडिया टुडे से बातचीत में कहा, ''पीएम मोदी ने विजन रखा कि भारत को न सिर्फ चिप बनाने में आत्मनिर्भर होना है, बल्कि अब हमें इस अवसर का अगुआ भी बनना है.’’
यह हर लिहाज से बड़ा और हिक्वमत वाला दांव था. भारत भले सॉक्रटवेयर की दुनिया में दिग्गज है, मगर इंडस्ट्री चलाने वाली चिप बनाने में हम बहुत छोटे खिलाड़ी थे. सेमीकंडक्टर चिप्स बनाना कोई आम धंधा नहीं है. इसमें भारी भरकम पूंजी लगती है, बेहद जटिल और सटीक मशीनें और टूल्स चाहिए, एडवांस टेक्नोलॉजी चाहिए और ऐसी स्किल्स भी जिनसे आपकी उंगली के नाखून के चौथाई हिस्से पर अरबों छोटे-छोटे ट्रांजिस्टर उकेरे जा सकें.
मसलन, सीजी सेमी की अत्याधुनिक असेंबली लाइन अपने आप में इंजीनियरिंग का कमाल है. यहां सफाई का स्तर जुनून जैसा है, क्योंकि जरा सा भी धूल का कण चिप्स की नाजुक सर्किटरी को खराब कर सकता है. कॉम्प्लेक्स में घुसना ऐसा है जैसे कोई सर्जन सैनिटाइज्ड गाउन, ग्लव्ज, कैप और शूज पहनकर ऑपरेशन थिएटर में जा रहा हो. असेंबली लाइन पर रोबोटिक आर्म चमकते इंद्रधनुषी सिलिकॉन वेफर्स को पकड़कर चलाते हैं, जो पुराने जमाने के कॉम्पैक्ट डिस्क की याद दिलाते हैं.
ये डिस्क असल में चिप मैन्युफैन्न्चरिंग की बुनियाद हैं. हर वेफर में हजारों चिप्स होती हैं जो बेहद सावधानी से कतारों में उकेरी जाती हैं. इन्हें विदेशों की फाउंड्रीज में बनाया जाता है जहां 500 से ज्यादा तरह की केमिकल, गैस और इलेक्ट्रिकल प्रोसेस इस्तेमाल होती हैं. एक चिप अपने आप में ट्रांजिस्टरों का छत्ता है जो माइक्रोस्कोपिक लेयर्स में सजे रहते हैं और करीब 40 मीटर लंबी बेहद पतली वायरिंग से आपस में जुड़े होते हैं.
फिर मशीन डायमंड कटर की मदद से वेफर को काटकर अलग-अलग चिप्स बनाती है. फिर इन चिप्स को सख्त टेस्टिंग से गुजारा जाता है, टेंपरेचर, वाइब्रेशन और प्रेशर चेक होते हैं और मटीरियल की खामियों के लिए स्कैन किया जाता है. उसके बाद ही इन्हें पैक करके उनकी मंजिल तक भेजा जाता है. शुरुआत में सीजी सेमी रोजाना पांच लाख चिप्स प्रोसेस करेगी और 2027 में दूसरा कॉक्वप्लेक्स तैयार होने के बाद यह क्षमता बढ़कर 1.5 करोड़ चिप्स रोजाना तक पहुंचेगी.
नाकामियों से सीख
नरेंद्र मोदी का सेमीकंडक्टर मिशन इसलिए और भी मुश्किल है क्योंकि भारत का पिछले छह दशक का रिकॉर्ड ज्यादातर नाकामी से भरा है. 1960 के दशक में इंटीग्रेटेड सर्किट के सह-आविष्कारक और फेयरचाइल्ड सेमीकंडक्टर व इंटेल के को-फाउंडर रॉबर्ट नोयस भारत में एक यूनिट लगाना चाहते थे.
लेकिन लालफीताशाही से तंग आकर उन्होंने हांगकांग का रुख कर लिया. फिर 1983 में इंदिरा गांधी ने चंडीगढ़ में सेमी-कंडक्टर लैबोरेटरी (एससीएल) शुरू करने का ऐलान किया, जिसमें चिप फाउंड्री भी शामिल थी. लेकिन 1989 में लगी भीषण आग ने पूरी फैसिलिटी को तबाह कर दिया और इसके बाद वह कभी उबर नहीं पाई, न ही अपनी खोई हुई विशेषज्ञता वापस पा सकी.
जब मनमोहन सिंह 2000 के दशक में प्रधानमंत्री थे, तब उन्होंने कई बार कोशिश की कि चिप बनाने की विशेषज्ञता भारत लाई जाए, मगर सफलता नहीं मिली. 2005 में इंटेल ने तमिलनाडु में एक अरब डॉलर निवेश कर चिप फैक्ट्री लगाने का प्लान बनाया, मगर उपकरणों के आयात पर लगी पाबंदियों की वजह से उसने चीन का रुख कर लिया.
दो साल बाद मनमोहन सिंह ने फिर कोशिश की और स्पेशल इंसेंटिव पैकेज स्कीम (एसआइपीएस) का ऐलान किया, ताकि इलेक्ट्रॉनिक्स मैन्युफैक्चरिंग, जिसमें सेमीकंडक्टर भी शामिल थे, को भारत में बढ़ावा मिल सके. इसमें 25 फीसद की पूंजी सब्सिडी दी जानी थी. लेकिन 2008 की वैश्विक वित्तीय संकट ने इस सपने को खत्म कर दिया. इस योजना को 2012 में फिर जिंदा किया गया और सरकार ने 39,000 करोड़ रुपए की सब्सिडी रखी ताकि दो चिप फैब्रिकेशन प्लांट बनाए जा सकें. आइबीएम और चीन की बड़ी सेमीकंडक्टर कंपनी एचएसएमसी ने बोली प्रक्रिया में हिस्सा लिया, मगर बाद में दोनों ने पीछे हटते हुए कहा कि बाजार का माहौल इसके लिए अनुकूल नहीं है.
पिछली असफलताओं से सबक लेकर मोदी सरकार के अफसरों ने यह सोचना शुरू किया कि आखिर कैसे इन रुकावटों से बचा जाए. आइएसएम के सीईओ अमितेश सिन्हा बताते हैं कि पहले की कोशिशें नाकाम हुईं क्योंकि भारत ने सीधे सबसे ऊंचे पायदान पर पैर रख दिया यानी सेमीकंडक्टर फैब्रिकेशन (फैब) यूनिट. बिना पूरे इकोसिस्टम के यह बहुत बड़ा रिस्क था. इस बार सरकार ने पूरा स्पेक्ट्रम खोला है: डिजाइन से लेकर फैब्रिकेशन, असेंबली, टेस्टिंग और पैकेजिंग तक के प्रोजेक्ट्स बुलाए जा रहे हैं.
फाइनेंशियल इंसेंटिव भी पहले से बेहतर है. लोन या इक्विटी हिस्सेदारी की जगह सरकार सीधे ग्रांट दे रही है. केंद्र सरकार ने बराबरी का रवैया अपनाया है यानी निवेशक जितना रुपया लगाएगा, सरकार भी उतना ही ग्रांट देगी. राज्य सरकारें कह चुकी हैं कि वे 20-30 फीसद तक का और खर्च उठाएंगी. कंपनियों को अपने प्रोडक्ट एक्सपोर्ट करने की पूरी छूट होगी. सिन्हा कहते हैं, ''हमने भरोसे के मामले में छलांग लगाई है, क्योंकि चिप बनाना रणनीतिक और बुनियादी इंडस्ट्री है, जिस पर न्न्वालिटी प्रोडक्ट के अलावा भरोसेमंद सप्लाइ के लिए कई सेक्टर्स निर्भर करते हैं.’’
संदेह करने वाले
अलबत्ता हर कोई सरकार के चिप मिशन से सहमत नहीं है. भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने इसे भारत के लिए ''बर्बादी भरी दौड़’’ कहा है, क्योंकि इसमें बड़ी पूंजी लगती है है, सब्सिडी बहुत ज्यादा है और रोजगार के लिहाज से फिसड्डी है. राजन मानते हैं कि हाइ-एंड चिप मैन्युफैक्चरिंग में पैसा लगाने के बजाए ये ग्रांट वर्कफोर्स को चिप डिजाइन में ट्रेन करने पर खर्च किए जाए तो ज्यादा फायदेमंद रहेगा. इससे भारत का रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट और टैलेंट पूल मजबूत होगा. भारतीय मूल के लोग पहले ही दुनिया की चिप डिजाइन करने वाली वर्कफोर्स का 20 फीसद हिस्सा हैं और मल्टीनेशनल कंपनियों के लिए काम कर रहे हैं.

डेलॉइट साउथ एशिया के पार्टनर कतिर थंडावरायण की राय राजन से अलग है. वे कहते हैं, ''सरकार सही दिशा में कदम बढ़ा रही है. भारत तेजी से बढ़ रहा है और 2035 तक 100 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की राह पर है. ऐसे में सेमीकंडक्टर इकोसिस्टम होना बेहद जरूरी है. बाहरी निर्भरता हमेशा नुक्सानदेह होगी. हमारी इकोनॉमी को तरक्की करनी है, तो हमें सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग खड़ी करके मजबूती और आत्मनिर्भरता बनानी ही होगी.’’
थंडावरायण यह भी मानते हैं कि सरकार को भारत की बड़ी ताकत, चिप डिजाइनरों की भारी संख्या, का पूरा लाभ उठाना चाहिए और ग्लोबल सेमीकंडक्टर कंपनियों को यहां आरऐंडडी यूनिट लगाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए. उनका कहना है, ''नीति-नियंताओं को यह तय करना होगा कि भारत इस मौजूदा ताकत का कितना इस्तेमाल कर सकता है ताकि हम जो मजबूत इकोसिस्टम बना रहे हैं, वह और मजबूत बने.’’
आइएसएम के सीईओ सिन्हा बताते हैं कि मिशन के तहत सरकार ने डिजाइन लिंक्ड इंसेंटिव (डीएलआइ) स्कीम शुरू की है, जिसके लिए 1,000 करोड़ रुपए रखे गए हैं. इसका मकसद स्टार्टअप और शैक्षणिक संस्थानों को सपोर्ट करना है. इस पहल से उन्हें महंगे इलेक्ट्रॉनिक डिजाइन ऑटोमेशन (ईडीए) टूल्स तक पहुंच मिलती है, जिसका लाभ अब तक 278 शैक्षणिक संस्थानों और 72 स्टार्टअप ने उठाया है.
बड़े खिलाड़ी
इस क्षेत्र के विशेषज्ञ मोदी सरकार को पूरे नंबर देते हैं कि उसने निजी खिलाड़ियों को समझदारी से चुना ताकि भारत का सेमीकंडक्टर इकोसिस्टम खड़ा हो सके. शुरुआती मंजूरियों में सरकार ने पहले असेंबली, टेस्टिंग, मार्किग और पैकेजिंग (एटीएमपी) फैसिलिटीज जैसे आसान लक्ष्यों पर निशाना साधा.
इनमें मुकम्मल फैब प्लांट के मुकाबले निवेश की जरूरत बहुत कम होती है. नतीजा यह रहा कि अब तक जितने 10 सेमीकंडक्टर प्रस्तावों को मंजूरी मिली है, उनमें सिर्फ दो फैब यूनिट के लिए हैं. बाकी आठ एटीएमपी पर केंद्रित हैं. हर बोली को कड़ी जांच-परख से गुजारा गया. सरकार ने यह पक्का किया कि आवेदकों के पास न सिर्फ वित्तीय क्षमता हो बल्कि भरोसेमंद टेक्नोलॉजी पार्टनर भी हों.
अब तक की सबसे बड़ी मंजूरी टाटा ग्रुप को मिली है, जिसने गुजरात के धोलेरा में ताइवान की पावरचिप सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग कॉर्पोरेशन (पीएसएमसी), जो वहां की तीसरी सबसे बड़ी चिपमेकर है, के साथ मिलकर एक फैब्रिकेशन प्लांट का कॉन्ट्रैक्ट हासिल किया है.
इस पूरे प्रोजेक्ट की लागत करीब 91,000 करोड़ रुपए आंकी गई है, जिसमें से 50 फीसद रकम केंद्र सरकार की सब्सिडी से और 20 फीसद गुजरात सरकार से आएगी. टाटा का योगदान होगा 27,000 करोड़ रुपए. टाटा को असम के मोरीगांव में एक असेंबली और टेस्टिंग फैसिलिटी की भी मंजूरी मिली है, जिसमें बॉश उसका टेक्नोलॉजी पार्टनर होगा. इस प्रोजेक्ट की लागत 27,000 करोड़ रुपए है, जिसमें से 70 फीसद खर्च केंद्र और असम सरकार उठाएंगी.
इसी बीच अमेरिकी सेमीकंडक्टर दिग्गज माइक्रॉन साणंद में 75 एकड़ के कैंपस पर 22,516 करोड़ रुपए का विशाल एटीएमपी प्लांट बना रहा है. जब यह पूरी तरह चालू होगा तो हर साल करीब 1.35 अरब मेमोरी चिप्स प्रोसेस करेगा. माइक्रॉन को भी प्रोजेक्ट लागत का 70 फीसद हिस्सा बतौर सरकारी ग्रांट मिलेगा. मैसूरू स्थित केन्स सेमीकॉन ने भी अमेरिकी कंपनी यूएसटी ग्लोबल के साथ हाथ मिलाया है. वह साणंद में 3,300 करोड़ रुपए का अत्याधुनिक ओएसएटी प्लांट बना रहा है, जिसमें इंसेंटिव की शर्तें माइक्रॉन जैसी ही हैं.
सरकारी मदद सिर्फ गुजरात तक सीमित नहीं है. उत्तर प्रदेश के जेवर इलाके में, जहां इस महीने इंटरनेशनल एयरपोर्ट शुरू हो रहा है, एचसीएल दुनिया की सबसे बड़ी इलेक्ट्रॉनिक्स कॉन्ट्रैक्ट मैन्युफैक्चरिंग कंपनी फॉक्सकॉन के साथ मिलकर 3,700 करोड़ रुपए का डिस्प्ले ड्राइवर चिप यूनिट बना रहा है. ओडिशा में अमेरिकी कंपनी 3डी ग्लास सॉल्यूशन्स 1,943 करोड़ रुपए का एडवांस पैकेजिंग और ग्लास सब्सट्रेट कॉम्पोनेंट प्लांट बना रही है.

वहीं चेन्नै स्थित सिकसेम ने ब्रिटेन की क्लास-सिक वेफर फैब के साथ मिलकर 2,066 करोड़ रुपए का सेमीकंडक्टर फैब शुरू किया है. ये दोनों यूनिट खासकर डिफेंस और ऑटोमोबाइल सेक्टर को सप्लाइ करेंगी. आंध्र प्रदेश में हैदराबाद की एएसआइपी टेक्नोलॉजीज ने दक्षिण कोरिया की कंपनी एपीएसीटी के साथ मिलकर इलेक्ट्रॉनिक्स सेक्टर के लिए पैकेजिंग और असेंबली फैसिलिटी शुरू करने का ऐलान किया है. पंजाब के मोहाली में सीडीआइएल को भी हरी झंडी मिल चुकी है, जहां वह अपने हाइ-पावर सिलिकॉन और एसआइसी डिवाइस मैन्युफैक्चरिंग का विस्तार कर रही है, जो इलेक्ट्रिक व्हीकल्स पर केंद्रित होगी.
अगला कदम
दरअसल, बीसीजी के मैनेजिंग डायरेक्टर और सेमीकंडक्टर्स के इंडिया प्रैक्टिस लीडर अंकुश वढेरा का कहना है कि अब तक सरकार ने इस मिशन को जिस तरह से अंजाम दिया है, उसे डबल टिक मिलना चाहिए. पहले की तुलना में इस बार सरकार ने जितना पैसा लगाया है, उससे कहीं ज्यादा मजबूत और भरोसेमंद ऐप्लिकेशन आए हैं.
वढेरा कहते हैं, ''इससे दुनिया भर की चिप कंपनियों के बोर्डरूम में यह सवाल उठ रहा है कि क्या हमें इंडिया स्ट्रैटेजी चाहिए? क्या हम इंडिया में बड़े मौके से चूक रहे हैं?’’ इंडस्ट्री के अनुभवी और सीडीआइएल के प्रेसिडेंट पंकज गुलाटी भी इस जोश को लगभग पूरी तरह साझा करते हैं. उनका कहना है, ''हममें से किसी के लिए नाकाम होना विकल्प ही नहीं है. हमें दुनिया को दिखाना होगा कि इंडिया यह कर सकता है और करेगा भी. लेकिन यह भी जरूरी है कि सरकार अगले चार साल तक लगातार हमारा साथ देती रहे.’’
वढेरा का कहना है कि भले आइएसएम 1.0 को पूरी तरह नतीजे देने में एक दशक लग सकता है, मगर भारत को अपनी गति नहीं खोनी चाहिए और अभी से आइएसएम 2.0 की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए जिसमें तीन बड़े फोकस होने चाहिए: केमिकल्स, गैस और सब्सट्रेट जैसे जरूरी इनपुट्स का घरेलू इकोसिस्टम बनाना, कंपाउंड सेमीकंडक्टर फैब्स का विस्तार करना ताकि अलग-अलग भारतीय उद्योगों की जरूरतें पूरी हों और एडवांस्ड फैब्स की स्थापना करना ताकि घरेलू आरऐंडडी मजबूत हो और हम टीएसएमसी जैसे वैश्विक दिग्गजों के साथ बराबरी कर सकें.
पहले टाटा इलेक्ट्रॉनिक्स ओएसएटई के सीईओ रहे और अब आइवीपी सेमी के फाउंडर और सीईओ राजा मणिक्कम कहते हैं कि सरकार को सेमीकंडक्टर स्टार्टअप को सही मार्केट स्ट्रैटेजी बनाने और सेल्स साइड पर भी मदद करनी चाहिए. वे कहते हैं, ''कई चिप कंपनियां अभी ज्यादा भारतीय मांग को पूरा करने के लिए नहीं बल्कि वैश्विक जरूरतों को देखते हुए बन रही हैं. हम इन और बाकी कंपनियों से कह सकते हैं कि वे भारत में बन रहे इकोसिस्टम का प्रयोग करें और यहीं पर चिप्स बनाएं.’’ सीडीआइएल के गुलाटी भी फोकस की जरूरत पर जोर देते हैं. वे कहते हैं कि भारत को ऑटोमोबाइल और पावर जैसे एंड-प्रोडक्ट मार्केट पर ध्यान देना चाहिए और इन क्षेत्रों में वर्ल्ड लीडरशिप हासिल करनी चाहिए.
टैलेंट की कमी
इन फैक्ट्रियों के तेजी से बढ़ते नेटवर्क ने तो पहिये घुमा दिए हैं, लेकिन अगर लगातार प्रशिक्षित मैनपावर न मिल पाए, खासकर मिड-लेवल मैनेजर, तो यह रफ्तार थम भी सकती है. बीसीजी के वढेरा को शक है कि स्किल डेवलपमेंट का कोई भी सामान्य 'स्प्रे ऐंड प्ले’ अप्रोच काम आएगा. उनका कहना है कि असल जरूरत है इंडिया-ताइवान या इंडिया-जापान के बीच टैलेंट कॉरिडोर बनाने की, ताकि वर्कफोर्स का एक्सचेंज आसानी से हो सके.
डेलॉइट के थंडावरायण मानते हैं कि एडवांस्ड सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग को यूनिवर्सिटी और टेक्निकल इंस्टीट्यूट्स के करिकुलम में शामिल किया जा सकता है, मगर सरकार को चाहिए कि वह ग्लोबल यूनिवर्सिटी और चिप कंपनियों के साथ मिलकर सेंटर ऑफ एक्सीलेंस भी बनाए. उक्वमीद जगाने वाली बात यह है कि सरकार नई प्रतिभा को बढ़ावा देने के लिए पब्लिक सेक्टर की एससीएल का इस्तेमाल कर रही है. यहां स्टार्टअप्स और यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट डिजाइन किए हुए चिप्स को एससीएल फैब्रिकेट करता है ताकि उन्हें प्रूफ ऑफ कॉन्सेप्ट के तौर पर टेस्ट और वैलिडेट किया जा सके.
एससीएल खुद भारत के रणनीतिक क्षेत्रों, खासकर अंतरिक्ष, रक्षा और परमाणु ऊर्जा, की रीढ़ बनने की तैयारी में है. एससीएल के डायरेक्टर-जनरल डॉ. कमलजीत सिंह कहते हैं, ''रणनीतिक सेक्टर को भरोसेमंद चिप्स चाहिए, क्योंकि अभी चिप वॉर चल रहा है और हम संवेदनशील हो सकते हैं. हम इसरो के लिए जो चिप बनाते हैं वे पूरी तरह देसी हैं, फैब्रिकेशन से लेकर पैकेजिंग तक. हमें जिसकी जरूरत है, भारत को उसका साफ रोडमैप बनाना चाहिए और बहुत बड़े दायरे में एक्सपर्ट बनने की कोशिश की बजाए उन्हीं सेगमेंट्स में लीडर बनना चाहिए. हमें सयाना बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, बल्कि एक-एक कदम आगे बढ़ाना चाहिए.’’
यह वाकई अच्छी सलाह है. अगर मोदी सरकार का चिप्स वाला बड़ा दांव कामयाब हो गया तो अगले एक दशक में भारत अपनी 35 फीसद जरूरत खुद पूरी कर लेगा. वह बहुत बड़ी कामयाबी होगी. जैसे-जैसे इकोसिस्टम मजबूत होगा, देसी उत्पादन की रक्रतार और बढ़ेगी. मिशन लॉन्च करते वन्न्त मोदी ने कहा था, ''हमारा सपना है कि दुनिया के हर डिवाइस में इंडियन-मेड चिप हो.’’ यह सपना साकार करने लायक है.

