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भारत की जलवायु क्यों हुई अराजक?

मौसम के उग्र तेवरों के कारण बाढ़, सूखा और चक्रवात की बढ़ती घटनाओं ने देश में भारी तबाही मचाई है. इनसे निपटने के लिए आखिर हम खुद को कैसे तैयार करें?

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हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में अचानक आई बाढ़ से मलबे में धंसी गाड़ियां
अपडेटेड 16 अक्टूबर , 2025

हिमाचल प्रदेश में कोटखाई के सेब किसान राजिंदर नेगी बस हैरानी में सिर हिला सकते हैं. उनकी फसल गोदामों में सड़ रही है या टूटी-फूटी सड़कों पर फंसी है. इस हिमालयी राज्य में जिंदगी ही पूरी तरह से बिखर गई है.

वहां इस बरसात में अब तक 45 बार बादल फटने की घटनाओं, 91 बार आई अचानक बाढ़ और 105 बड़े भूस्खलनों से 660 से ज्यादा सड़कें बह गईं. नतीजे नेगी और दूसरे अनगिनत किसानों के लिए बर्बादी लेकर आए.

उनकी 40 फीसद सेब की फसल नष्ट हो गई. यह 5,550 करोड़ रुपए के सेब उद्योग के लिए बड़ा झटका है, 2023 की बाढ़ से वे अभी उबर भी नहीं पाए थे.

नेगी कहते हैं, ''हम किसी तरह फिर से खड़े हुए थे लेकिन इस बार नुक्सान बहुत ज्यादा है.’’ उनके शब्दों से उस पूरे समुदाय की सामूहिक हताशा और बेबसी झलकती है जो जलवायु के तेजी से बदलते तौर-तरीकों से जूझ रहा है. इससे जमीन के साथ उनकी जिंदगियां भी तबाह होती जा रही हैं.

असल में, चरम जलवायु समूचे देश में ही दु:स्वप्न बनती जा रही है. पूरे देश में ताबड़तोड़ बारिश, बेमौसम तूफान, कमरतोड़ सूखे और लू सरीखी मौसम की उग्र घटनाओं की नियमितता और तीव्रता दोनों बढ़ गई हैं. भारत मौसम विज्ञान विभाग (आइएमडी) के पूर्व डायरेक्टर जनरल के.जे. रमेश कहते हैं, ''हर मौसम में उग्र लहर आज की खासियत बन गई है.’’

यह आंकड़ों से जाहिर है. इस साल जनवरी से मार्च तक उग्र मौसम ने 90 में से 87 दिन भारत पर अपना असर डाला. यह पैटर्न कोई इत्तेफाक नहीं था. साल भर ट्रैकर चलाने वाले सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट के मुताबिक, 2024 में भारत ने 366 में से 322 दिन, यानी साल के 88 फीसद दिन, जलवायु के झटके सहे. इसने 2023 के 318 और 2022 के 314 दिनों को पीछे छोड़ दिया.

अंतहीन आपदाएं
जान-माल ही नहीं, बल्कि खेत, फसलें, बुनियादी ढांचा और समूची आजीविकाएं भी अनवरत आपदाओं की भेंट चढ़ रही हैं. संयुक्त राष्ट्र के ऑफिस ऑफ डिजास्टर रिस्क रिडक्शन की एक ताजा रिपोर्ट से पता चला कि जलवायु से जुड़ी आपदाओं की वजह से भारत को 1998 से 2017 तक पिछले 20 साल में 79.5 अरब डॉलर (करीब 7 लाख करोड़ रुपए) का नुक्सान हो चुका है.

करेंसी और फाइनेंस पर आरबीआइ की 2023-24 की रिपोर्ट का अनुमान है कि अत्यधिक गर्मी और बरसात से गंवाए गए काम के घंटों से देश को 2030 तक जीडीपी के 4.5 फीसद तक का नुक्सान उठाना पड़ सकता है. जान-माल का नुक्सान भी इतना ही भीषण है. 2024-25 में जलवायु से जुड़ी 3,080 मौतें हुईं, जो एक दशक में सबसे ज्यादा थीं, जबकि इससे पहले के साल यह आंकड़ा 2,616 था.

जलवायु परिवर्तन के प्रति अतिसंवेदनशील देशों में भारत अब शीर्ष 10 में है. आइएमडी ने तस्दीक की है कि बीते दो दशक में देश का औसत तापमान  2001 में 25.05 डिग्री सेल्सियस से बढ़कर 2024 में 25.74 डिग्री सेल्सियस हो गया है. 0.69 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी भले मामूली लगे लेकिन जलवायु विज्ञान में आधी डिग्री का मतलब सहने लायक और बर्बादी के बीच का फर्क हो सकता है. आइपीई ग्लोबल और एसरी इंडिया की जून 2025 की रिपोर्ट 'वेदरिंग द स्टॉर्म’ से पता चला कि देश के शहरों में 2030 तक लू के दिनों में दोगुना और बारिश की तीव्रता में 43 फीसद का इजाफा होगा. 

आइपीई ग्लोबल के क्लाइमेट ऐंड सस्टेनेबिलिटी प्रमुख अबिनाश मोहंती बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन से कैसे कई सारे मौसमी व्यवधान पैदा हो रहे हैं. पूरे मॉनसून की बारिश अब एक या दो दिनों में हो जाती है, जो केरल, चेन्नै, मुंबई और बेंगलूरू में बाढ़ की मुख्य वजह है. वे यह भी कहते हैं कि  देश के 738 जिलों में से 85 फीसद मौसम की उग्र घटनाओं के ज्वलंत स्थल हैं, जिनमें 45 फीसद में वह देखा जा रहा है जिसे जलवायु की बोलचाल में 'स्वैपिंग ट्रेंड’ कहा जाता है.

इसका मतलब है कि पारंपरिक रूप से बाढ़ की बहुलता वाले क्षेत्रों में बार-बार और तीव्र सूखे पड़ रहे हैं और सूखे की बहुलता वाले क्षेत्रों में बार-बार और तीव्र वर्षा हो रही है. इसीलिए राजस्थान में अगस्त 2025 में अचानक बाढ़ आती देखी गई, जबकि पूर्वोत्तर के हरे-भरे इलाके सूखे की मार झेल रहे हैं. उधर, देश की 11,098 किमी लंबी तटरेखा पर तूफान और चक्रवात तेज से तेजतर हो रहे हैं और ऊपर उठता समुद्र तल मुंबई, चेन्नै और कोलकाता सरीखे शहरों के लिए खतरा पैदा कर रहा है.

दुनिया में भी हालात खतरे के निशान से ऊपर हैं. विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने 2024 को पहला ऐसा साल घोषित किया जब औसत वैश्विक तापमान औद्योगिक युग से पहले के स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस ऊपर पहुंच गया, जो पेरिस जलवायु समझौते में तय सीमा है. रिकॉर्ड रखे जाने के 175 साल में यह सबसे गर्म साल भी था.

पिछले 10 साल में हरेक साल सबसे गर्म साल दर्ज हुआ है. भारत में पिछले 120 साल के 10 सबसे गर्म साल सभी पिछले 15 साल दर्ज हुए हैं. धरती तेज रफ्तार से गर्म हो रही है और भारत उसका दंश झेल रहे देशों में है. मोहंती आगाह करते हैं, ''हमारे लिए 2 डिग्री सेल्सियस के नतीजों पर विचार करना जरूरी हो गया है क्योंकि मौजूदा रफ्तार से देश पर्याप्त तेजी से अपने को उसके अनुरूप नहीं ढाल पाएगा.’’

तीन सितंबर बाढ़ में डूबा दिल्ली का एक इलाका

आखिर जलवायु चक्र और उसके पैटर्न में बड़े फेरबदल की क्या वजह है? पृथ्वी की कक्षा और झुकाव में बदलाव के कारण धरती की जलवायु हजारों साल में बदलती रही है, गर्म और ठंडी होती रही है. लेकिन इंसानी गतिविधियों ने इस प्राकृतिक रफ्तार को तेज कर दिया है. कोयला, तेल और गैस के जलने से होने वाले कार्बन उत्सर्जन, वनों की कटाई और शहरीकरण के विस्तार ने मिलकर ग्रीनहाउस असर को और बढ़ा दिया है.

पुणे के भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान के जलवायु वैज्ञानिक रॉक्सी मैथ्यू कोल कहते हैं कि इससे पहले हजारों साल में पूरा होने वाला जलवायु परिवर्तन चक्र अब कुछ दशकों में होने लगा है. दरअसल, जलवायु परिवर्तन के पीछे का विज्ञान गंभीर है. धरती के औसत तापमान में हर 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से वायुमंडल में सात फीसद अधिक नमी हो सकती है.

महासागर पहले से कहीं ज्यादा तेजी से गर्म हो रहे हैं, और ज्यादा पानी भाप बनकर उड़ रहा है, जिससे चक्रवात और बादल फटने की घटनाएं बढ़ रही हैं. ये तूफान भारी बारिश लेकर आते हैं और तबाही लाते हैं. ज्यादा गर्म महासागरों की वजह से धरती के बर्फीले ध्रुव तेजी से पिघलने लगे हैं, जिससे समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है.

जलवायु क्यों हुई अराजक 
अलबत्ता, औसत सिर्फ आधी कहानी बताते हैं. उतना ही अहम यह है कि गर्मी कब और कहां पैदा होती है. मसलन, रेगिस्तान में बढ़ती गर्मी की वजह से पश्चिम एशिया और भूमध्य क्षेत्र बेहद तेजी से गर्म हो रहे हैं. इससे सतह पर वायु का दबाव घट जाता है, जिससे ताकतवर निम्न-स्तरीय धारा उत्तर की ओर बढ़ जाती है. इस बदलाव की वजह से मॉनसून-पूर्व झुलसा देने वाली गर्मी उत्तर-पश्चिम भारत और हिमालय की तराई की ओर चली जाती है.

इसी वजह से मॉनसून के महीनों में उन्हीं क्षेत्रों में अतिरिक्त पानी बरसता है. लिहाजा, यह दोहरे जानलेवा झटके की तरह है, जिसमें लगातार दो मौसमों में एक ही क्षेत्र में जानलेवा लू और भयावह बाढ़ आती है. फिलहाल मैरीलैंड विश्वविद्यालय में एमेरिटस प्रोफेसर तथा आइआइटी कानपुर में विजिटिंग प्रोफेसर, जलवायु विशेषज्ञ रघुनाथ मुर्तुगुड्डे कहते हैं, ''शुष्क और अर्ध-शुष्क जलवायु वाले उत्तर-पश्चिम और संवेदनशील हिमालय की तराई में इस कारण लू के साथ-साथ बरसात भी अब अधिक धाराधार होती है.’’

इसी तरह बढ़ता तापमान समुद्री लहरों की प्रमुख व्यवस्था अटलांटिक मेरिडौनल ओवरटर्निंग सर्कुलेशन को पिघलती ध्रुवीय बर्फ के ताजा पानी से जोड़कर कमजोर कर रहा है. इससे समुद्र का पानी पतला हो जाता है और गर्म पानी का उत्तर की ओर प्रवाह कम हो जाता है. इस फेरबदल से भारी वर्षा वाले इलाके बदल सकते हैं और भारतीय मॉनसून को कमजोर कर सकते हैं. इससे पूरे उपमहाद्वीप में लू और सूखे में तेजी आ सकती है.

हालांकि जलवायु परिवर्तन दुनिया भर में मौसम की चरम स्थितियों की वजह है, लेकिन हर देश की विकास गतिविधियां स्थानीय वजह बनती हैं. शहरीकरण, इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास और पहाड़ी ढलानों पर बस्तियां तथा कंक्रीट निर्माण बढ़ते भूस्खलन और अचानक बाढ़ की आपदा को और बढ़ा देते हैं. इसके नजारे आज भारत में खुलकर दिखाई देते हैं. हिमाचल और उत्तराखंड में राजमार्गों, सुरंगों और बांधों के कारण नाजुक ढलानें और भी कमजोर हो गई हैं, जो अत्यधिक वर्षा के कारण ढह रही हैं, पूरे के पूरे गांवों को दफना रही हैं (देखें, साथ की रिपोर्ट, जल बला).

इस साल अगस्त में उत्तराखंड के धराली में एक बरसाती धारा प्रचंड बाढ़ में बदल गई, जो नदी के किनारे बनी दुकानों और घरों को बहा ले गई. पर्यावरण एक्टिविस्ट, शोधकर्ता तथा हिमाचल स्थित हिमधारा कलेक्टिव की सह-संस्थापक मानषी आशेर कहती हैं, ''नदी के पेटे में मकान वगैरह बनाए गए तो नदी ने अपनी जगह वापस ले ली.’’ राजस्थान, पंजाब और हरियाणा एक महीने प्रचंड लू तो दूसरे में बाढ़ से पस्त हैं. मुर्तुगुड्डो कहते हैं, ''जलवायु परिवर्तन मौसम की चरम घटनाओं की अवधि, बारंबारता, पैमाने और तीव्रता को बढ़ाकर मामला संगीन बना रहा है.’’

भारत क्या करे
जलवायु परिवर्तन से निबटने और उसके नुक्सान को सीमित करने के लिए मोदी सरकार ने महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय किए हैं. ये लक्ष्य 2070 तक कार्बन उत्सर्जन को शून्य करना, 2030 तक सीओ2 उत्सर्जन में एक अरब टन की कमी लाना और इसी अवधि में अक्षय ऊर्जा स्रोतों से भारत की आधी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करना है. मौसम की प्रचंड स्थितियों में लगातार वृद्धि के मद्देनजर विशेषज्ञ और सरकारी एजेंसियां बेहतर पूर्वानुमान, पूर्व चेतावनी और कमजोरियों की पहचान के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी की ओर रुख कर रही हैं.

आइएमडी ने चक्रवातों के पूर्वानुमान में सराहनीय काम किया है, जिससे काफी लोगों की जान बची है. मौसम का उसका पूर्वानुमान बेहतर हो रहा है लेकिन विशेषज्ञ चाहते हैं कि ये और भी सटीक हों, ताकि बचाव के उपायों की पहले से योजना बनाई जा सके. इसी तरह, अगले 10-20 वर्षों के दशकीय पूर्वानुमान बिल्कुल स्थानीय न भी सही तो कम से कम स्थानीय स्तर पर होने चाहिए, जो यह अनुमान लगाते हैं कि मॉनसून कब क्या शक्ल लेगा.

प्रयागराज में 27 अगस्त को यमुना के जल में डूबा संगम तट

दूसरे, बचाव का प्रमुख उपाय जोखिम का विस्तृत और बारीक जानकारियों का नक्शा तैयार करना है. फिलहाल जोखिम वाले नक्शे में हर जिले में संभावित खतरों, उसके दायरे के लोगों और जमीन-जायदाद की जानकारी होती है. इसके साथ ही लोगों को इन खतरों से निबटने की क्षमता का आकलन करने की जानकारी भी जुटाई जाती है.

लेकिन विशेषज्ञ चाहते हैं कि सूखे, लू, आग, बारिश से लेकर बाढ़ तक हर आपदा के लिए किलोमीटर-स्केल पर बारीक जानकारी जुटाई जाए. इन सभी जानकारियों को लगातार अपडेट भी किया जाना भी उतना ही महत्वपूर्ण है क्योंकि जलवायु परिवर्तन के बदलते तेवर से मौजूदा जोखिमों में नए खतरे जुड़ जाते हैं. रमेश कहते हैं कि इसलिए, हर साल जोखिमों का पुनर्मूल्यांकन किया जाना जरूरी है, ताकि यह तय किया जा सके कि कैसे इन जोखिमों के हल के लिए विकास योजनाओं में तब्दीली की जा सके.

कई राज्यों ने लू, बाढ़, बिजली गिरने और वज्रपात से निबटने के लिए कार्ययोजनाएं बनाई हैं. लेकिन कागजों पर दिखने वाली योजनाएं जमीनी स्तर पर अमल में नहीं दिख रही हैं. केंद्र, राज्य और स्थानीय निकायों के बीच तालमेल न के बराबर है और अमूमन अमल लड़खड़ा जाता है.

क्लाइमेट रेजिलिएंट ऑब्जर्विग सिस्टम्स प्रमोशन काउंसिल (सीआरओपीसी) के अध्यक्ष प्रो. संजय श्रीवास्तव बताते हैं कि पंजाब को अप्रैल में ही बाढ़ के खतरे के बारे में चेतावनी दी गई थी, फिर भी उसके पास कोई कार्ययोजना नहीं थी. वे कहते हैं, ''यह मानसिकता ही देश की सबसे बड़ी सामाजिक-व्यावहारिक समस्या है कि कुछ नहीं होगा. स्थानीय निकायों और लोगों के बीच सुरक्षा की संस्कृति युद्धस्तर पर विकसित की जानी चाहिए. पूर्व चेतावनियों के बावजूद समस्या स्थानीय अधिकारियों के क्रियान्वयन और लोगों के जरिए अमल करने में आती है.’’

आपदाओं के नुक्सान को कम करने को ध्यान में रखकर शहरी योजनाओं में निर्माण, भवन, जल निकासी और बिजली आपूर्ति के नियमों को डिजाइन किया जाना चाहिए. लेकिन यह बड़ी चुनौती बनी हुई है. स्थानीय निकायों को अमूमन नो-बिल्ड जोन और संवेदनशील क्षेत्रों की जानकारी होती है, फिर भी असुरक्षित निर्माण को मंजूरी मिल जाती है या संबंधित लोगों के साथ मिलीभगत से सुरक्षा मानदंडों के उल्लंघन पर आंखें मूंद ली जाती हैं.

श्रीवास्तव बताते हैं, ''सबसे बड़ी समस्या यह है कि स्थानीय निकाय पर्यावरण नियमों के कार्यान्वयन पर जोर नहीं देते और आम लोग अमल नहीं करते. यह स्थानीय निकायों, ठेकेदारों और नेताओं की मिलीभगत के कारण संभव हो रहा है. इसे रोकना होगा.’’ शहरों को भी नया रूप देना होगा. विशेषज्ञ 'शहरी स्पंज’ की बात करते हैं, जिसमें पार्क, फुटपाथ, वर्षा उद्यान और जल निकासी प्रणालियां हों, जो बारिश के पानी को सोख लें. मुर्तुगुड्डे कहते हैं, ''इसका उद्देश्य यह तय करना है कि गिरता पानी बहता रहे और बहता पानी ठहरे.’’

उतना ही महत्वपूर्ण राज्य आपदा प्रतिक्रिया बलों (एसडीआरएफ) को मजबूत करना भी है. उनकी प्राथमिक भूमिका आपदाओं के दौरान राहत और बचाव कार्य करना है, लेकिन आपदा के अलावा उनके कार्यों में लोगों को आपदा प्रबंधन के बारे में जागरूक करना और निकासी रणनीतियों, वैकल्पिक आश्रयों और बचाव मार्ग तैयार करना शामिल है.

उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बिहार जैसे राज्यों ने अपने एसडीआरएफ के जरिए अपनी तैयारियों में सुधार किया है और बाढ़-संभावना वाले क्षेत्रों में लोगों के साथ मॉक ड्रिल भी की हैं. हालांकि, सभी मौसम की भारी मार वाली घटनाओं के लिए लोगों को वहां से निकालने की रणनीतियां होनी चाहिए. रमेश कहते हैं, ''ऐसी रणनीति फिलहाल भारत में सिर्फ चक्रवात के दौरान समुद्री तटों के लिए है. बाढ़ के मामले में ऐसी कोई रणनीति नहीं है. एकमात्र रणनीति सुरक्षित क्षेत्रों में तंबू लगाना है, जो तात्कालिक उपाय ही है. इसके लिए रणनीतियां तैयार की जानी चाहिए.’’ 

पर्यावरण अनुकूलन ही अहम
जानकार चेतावनी देते हैं कि बचाव के उपाय समस्या के हल की दिशा में कदम हैं, लेकिन मौसम और पर्यावरण के अनुकूल रवैया ही जिंदगियां और रहन-सहन तय करेगा. सौभाग्य से, वित्त वर्ष 16 से वित्त वर्ष 22 के बीच अनुकूलन व्यय सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 3.7 फीसद से बढ़कर 5.6 फीसद हो गया है. भारत की चक्रवात पूर्व चेतावनी प्रणालियों ने हजारों लोगों की जान बचाई है, खासकर ओडिशा में, लेकिन बाढ़, भूस्खलन और बिजली गिरने के पूर्वानुमान अभी भी इतने खास नहीं हैं.

मुर्तुगुड्डे जोर देकर कहते हैं, ''ये पूर्वानुमान पर्याप्त समय से पहले और बेहद इलाकई स्तर पर होने चाहिए, ताकि फैसले लिए जा सकें.’’ मसलन, बिजली गिरने की घटनाएं बढ़ रही हैं. 2019 और 2025 के बीच देश भर में बिजली गिरने की घटनाओं में 400 फीसद की वृद्धि हुई है. आपदाओं में बिजली गिरने से मौतें सबसे अधिक हैं.

2018 में बिजली गिरने से 2,357 लोगों और 2022 में 2,887 की मौत दर्ज हुई. इसकी रोकथाम के लिए क्या संभव है, यह राजस्थान ने दिखाया है. 2021 में आमेर किले में बिजली गिरने से हुई मौतों के बाद वहां गांवों में चेतावनी प्रणालियां शुरू की गईं, बिजली से सुरक्षित आश्रय स्थल बनाए और स्कूलों तथा अस्पतालों में सुरक्षा उपकरण लगाए गए. तब से इस वह से राज्य में मृत्यु दर में कमी आई है. 

यह भी बेहद जरूरी है कि प्रमुख इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं की योजना बनाते और उन पर अमल करते समय जलवायु मानदंडों का विशेष क्चयाल रखा जाए. रमेश कहते हैं, ''हर इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास से पर्यावरण पर जोखिम कम होना चाहिए, तभी जलवायु परिवर्तन के भविष्य के खतरों को कम किया जा सकता है. बुनियादी ढांचे को न सिर्फ वर्तमान जोखिमों का समाधान करना चाहिए, बल्कि उभरते जोखिमों के लिए भी तैयार रहना चाहिए. दुर्भाग्य से, ऐसा नहीं हो रहा है.’’

इसके नतीजे दिखाई देने लगे हैं. कई बेहतर मानी जाने वाली बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाएं मौसम की भारी मार के कारण नाकाम हो गई हैं. मंडी और मनाली के बीच तथाकथित ऑल-वेदर हाइवे को इस साल बाढ़ के कारण काफी नुक्सान हुआ है. उत्तराखंड में तपोवन जलाशय 2021 में ढह गया और अक्तूबर 2023 में सिक्किम में तीस्ता तृतीय बांध बह गया. इसलिए इन परियोजनाओं में बदलाव होना चाहिए. आइपीई ग्लोबल के मोहंती का सुझाव है कि पर्यावरण अनुकूल उपायों के अलावा जलवायु जोखिम मूल्यांकन सभी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए अनिवार्य बनाया जाना चाहिए.

हर समाधान में लोगों की भागीदारी भी जरूरी है. आशेर सरकारी योजनाओं में लोगों की शिरकत की जरूरत पर जोर देती हैं, चाहे वह भूमि उपयोग का मामला हो या बुनियादी ढांचे का. वे जलवायु संबंधी आंकड़ों को विकेंद्रीकृत करने और उन्हें आम लोगों और योजनाकारों, दोनों के साथ साझा करने की जरूरत पर भी जोर देती हैं. कौन-सी नदियां हर साल उफनती हैं या कौन-सी ढलानें नियमित रूप से खिसकती हैं, इसकी जानकारी अमूल्य है. आशेर कहती हैं, ''हिमाचल में जिला स्तर पर भूस्खलन के आंकड़े तो हैं लेकिन उनका इस्तेमाल विकास या शहरी नियोजन की नीतियों में नहीं होता. ये बुनियादी ढांचा विभाग, स्थानीय निकायों या पंचायतों तक नहीं पहुंचते.’’

विज्ञान दो-टूक है, चेतावनियां स्पष्ट हैं और नुक्सान की मिसालें भी हैं. देश के पास संस्थान, आंकड़े और विशेषज्ञता सब कुछ है. लेकिन अभाव लगातार अमल और राजनैतिक इच्छाशक्ति का है. इसे जलवायु मानदंडों का उल्लंघन और स्थानीय लोगों को दूर रखना घातक बना देता है. उभरते जलवायु परिवर्तन खतरों के आकलन की भी अनदेखी की जाती है.

ये कमियां मिलकर आपदा की असली रोकथाम में बाधा बन रही हैं. इनका युद्धस्तर पर समाधान किया जाना चाहिए. इसके बिना, देश आपदा के चक्र में फंसा रहेगा. जुगाड़ की संस्कृति जलवायु को नहीं सुधार सकती. दरकार फौरी उपायों की नहीं, बल्कि रोकथाम की राष्ट्रीय मानसिकता की है. अब खड़े हो जाने का समय है, क्योंकि जलवायु परिवर्तन इंतजार नहीं करेगा.

यूनिवर्सिटी ऑफ मेरीलैंड के प्रोफेसर रघुनाथ मुर्तुगुड्डे के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन वैसे तो दुनिया भर में मौसम के उग्र रूप की वजह है लेकिन इंसानी गतिविधियां स्थानीय स्तर पर उसकी रफ्तार और तेज करने का काम करती हैं.

सीआरओपीसी के चेयरमैन संजय श्रीवास्तव के मुताबिक, देश में सबसे बड़ी समस्या हमारे व्यवहार से जुड़ी यह सामाजिक मानसिकता है कि कुछ नहीं होता जी. सुरक्षा की संस्कृति को लेकर स्थानीय निकायों और लोगों युद्धस्तर पर कायम करने की दरकार है.
 

भारत मौसम विज्ञान विभाग पूर्व महानिदेशक के. जे. रमेश ने कहा कि हमारे पास हर मौसमी आपदा के दौरान लोगों को निकालने की रणनीति होनी चाहिए. फिलहाल हमारे यहां चक्रवात के दौरान समुद्री तटों से लोगों को निकालने की रणनीति है पर बाढ़ के मामले में नहीं. हम सुरक्षित जगहों पर टेंट लगा देते हैं बस.

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