
रावी नदी की बाढ़ उतरने लगी है, मगर पंजाब के गुरदासपुर जिले के डेरा बाबा नानक इलाके के गुरचक गांव में आम जिंदगी को सामान्य होने में महीनों लगेंगे. गांव की 650 एकड़ खेती वाली जमीन पूरी तरह से डूबी हुई है. 1,100 एकड़ जमीन 27 अगस्त को आई भीषण बाढ़ से बने गड्ढों और गाद से पट गई है.
उस दोपहर पठानकोट के पास माधोपुर बैराज के गेट टूटने के कुछ ही मिनट बाद उफनती रावी नदी ने तटबंधों को तोड़ दिया और हरे-भरे खेत तबाही के तालाब में तब्दील हो गए. दिन खत्म होते-होते नदी दोनों तरफ 3-4 किलोमीटर तक बढ़ गई थी.
दो हफ्ते बाद भी वहां हवा सड़ती फसलों और मरे हुए मवेशियों की बदबू से भरी हुई है. गुरचक इस साल पंजाब में मॉनसून की विभीषिका का प्रतीक है. राज्य भर में करीब 1,900 गांव डूब गए, 56 लोगों की जान चली गई और लगभग 4,80,000 एकड़ खेत बाढ़ में डूब गए.
पंजाब की त्रासदी अगर बाढ़ और डूब की है, तो उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में यह पहाड़ों के ढहने-भरभराने की. दरअसल, इस मॉनसून में उत्तर-पश्चिम भारत में बारिश का सबसे बुरा कहर बरपा है. भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आइएमडी) के आंकड़ों के मुताबिक, इस विशाल इलाके के कुल 208 में से 124 जिलों, यानी करीब 60 फीसद इलाके में 1 जून से 1 सितंबर के बीच अत्यधिक/ज्यादा बारिश का कहर टूटा. आंकड़े डरावने हैं.
पंजाब में कुल बारिश का 612 मिमी (मिलीमीटर) अधिक पानी गिरा (सामान्य मॉनसून के मुकाबले 50 फीसद ज्यादा), तो हिमाचल का आंकड़ा तकरीबन 1,000 मिमी का है और उत्तराखंड में बढ़कर यह 1,342 मिमी हो गया. जम्मू-कश्मीर का हाल भी कोई बेहतर नहीं, जहां 37 फीसद अधिक बारिश पड़ी और 26 अगस्त को जक्वमू में बादल फटने से तो 24 घंटे में ही 380 मिमी पानी गिरा, जिससे समूचा जम्मू डूब ही गया. ऐसे में साफ था कि जलवायु परिवर्तन इन इलाकों में विनाशकारी असर दिखा रहा था. यह भी जाहिर था कि ये राज्य बाढ़ और उसके नतीजों के निबटने के लिए तैयार नहीं थे, जैसा कि इस जमीनी पड़ताल से पता चलता है.
पंजाब की बांध त्रासदी
अप्रैल में मौसम विभाग ने मॉनसून के दौरान सामान्य से 105 फीसद तक बारिश की भविष्यवाणी की थी. इस पर सतलुज और ब्यास के साथ दूसरी नदियों के लिए बने भाखड़ा नांगल बांध की देखरेख करने वाले भाखड़ा ब्यास प्रबंधन बोर्ड (बीबीएमबी) ने जलाशय ओवरफ्लो रोकने के लिए भाखड़ा से नियंत्रित मात्रा में पानी छोड़ने की सिफारिश की थी. मगर पंजाब ने सख्त आवंटन नियमों का हवाला देते हुए उसका विरोध किया और हरियाणा में पानी जाने से रोकने के लिए नांगल बांध पर पुलिस भी तैनात कर दी. अब आइए अगस्त के आखिर में.

बांध में पानी खतरे के निशान से ऊपर जाने लगा तो बीबीएमबी हर दिन भाखड़ा से 65,000 क्यूसेक और पोंग बांध से 80,000 क्यूसेक पानी छोड़ने लगा. भविष्यवाणी की दोषपूर्ण प्रणाली ने ऑपरेटरों के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी. बीबीएमबी के चेयरमैन मनोज त्रिपाठी ने माना, ''इस साल भाखड़ा और पोंग बांधों से अब तक के इतिहास में सबसे ज्यादा पानी छोड़ा गया.’’
ब्यास में ही 1 जुलाई से 5 सितंबर तक 11.7 अरब घन मीटर का प्रवाह आया, जो साल 2023 की इसी अवधि में 9.5 अरब क्यूबिक मीटर प्रवाह था (जब पिछली बाढ़ आई थी). नतीजतन, करीब 60 लोग मारे गए और लगभग पांच लाख एकड़ खेती की जमीन बर्बाद हो गई. कपास, धान और गन्ने की फसलें हर-जगह मुरझाई पड़ी हैं.
सुल्तानपुर लोधी में किसान बलदेव सिंह खेत में लेटे पड़े धान के पौधों की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, ''हमने बीज और कीटनाशकों पर हजारों रुपए खर्च किए थे. एक ही रात में सब कुछ खत्म हो गया. पानी उतर जाए तो भी गाद ने खेतों को जकड़ रखा है.’’
गुरदासपुर, तरनतारन, अमृतसर, जालंधर और कपूरथला में सब जगह यही हाल है. लोगों का कहना है कि उनकी जेबें खाली हो गई हैं और खरीफ खरीद सीजन की संभावनाएं धुंधला गई हैं. अधिकारियों के अनुमान के मुताबिक, 12,000 करोड़ रुपए से ज्यादा का नुक्सान हुआ है. मगर, किसान यूनियनों का तर्क है कि लागत और कृषि मशीनरी को हुए नुक्सान को जोड़ने पर यह आंकड़ा तकरीबन दोगुना हो सकता है.
काफी इंतजार के बाद, पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने 8 सितंबर को मोहाली में एक अस्पताल के बिस्तर से बाढ़ राहत पैकेज का ऐलान किया, जहां उन्हें 5 सितंबर को वायरल बुखार के कारण भर्ती किया गया था. कई लोगों को यह अजीब लगा. मुख्यमंत्री स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे और राज्य ने बर्बादी के आकलन के लिए विशेष गिरदावरी (नुक्सान सर्वेक्षण) भी शुरू नहीं की थी. फिर भी, राहत योजना सामने आ गई: फसल के नुक्सान के लिए प्रति एकड़ 20,000 रुपए और कई नीतिगत राहत उपायों के वादे के साथ.
कागज पर तो पंजाब का प्रस्ताव अच्छा लगता है, मगर असल में यह बेहद नाकाफी है. गुरचक के सतवंत सिंह कहते हैं, ''20,000 रुपए से तो बस लागत नुक्सान की भरपाई होती है. हमें कम से कम 40,000 रुपए प्रति एकड़ चाहिए था.’’ पंजाब की कृषि अर्थव्यवस्था का बड़ा मगर ओझल हिस्सा, पट्टे पर खेती करने वाले किसान दोहरी मार झेल रहे हैं. औपचारिक नियमों के बिना वे मुआवजे के हकदार नहीं. अजनाला के बलकार सिंह कहते हैं, ''इस राहत से हमें कोई फायदा नहीं.’’ केंद्र ने पंजाब के लिए 1,600 करोड़ रुपए की राहत की घोषणा की है. दूसरे राज्यों के लिए भी ऐसी ही राशि का ऐलान हुआ है. लेकिन मान सरकार के मुताबिक, यह ऊंट के मुंह में जीरा जैसा है.
हिमाचल की आपदा
सबसे ज्यादा कहर इस पहाड़ी प्रदेश पर बरपा है. उसे इस साल बरसात के 1 जून-1 सितंबर के दौर में 76 दिन बेहद खराब मौसम का सामना करना पड़ा. अगस्त के मध्य से पहाड़ों पर हुई मूसलाधार बारिश और बादल फटने की घटनाओं से ब्यास नदी पर पोंग और सतलुज पर भाखड़ा-नांगल बांधों की कड़ी परीक्षा हुई. अगस्त-सितंबर में भूस्खलन के सिलसिले ने खड़ी ढलानों पर बनी इमारतों और ढांचों के बह जाने के पुराने जख्मों को फिर से हरा कर दिया.
कुल्लू, मंडी, चंबा, किन्नौर और शिमला जिलों के गांव कीचड़ और मलबे में दब गए. पर्यटकों का पसंदीदा मनाली बाकी जगहों से कट गया, रणनीतिक मनाली-लेह सड़क बंद हो गई और सैकड़ों पर्यटक फंस गए. चंबा जिले में चंबा-पठानकोट राजमार्ग नाल्दा पुल के पास बंद हो गया, जिससे गांवों का संपर्क टूट गया. वार्षिक मणिमहेश यात्रा स्थगित होने से 5,000 से अधिक तीर्थयात्री फंस गए. शिमला में 828 सड़कें बंद हुईं और तीन पुल बह गए.
फल किसानों का भारी नुक्सान हुआ है. शिमला और कुल्लू में बागवानी में 126 करोड़ रुपए का नुक्सान हुआ. शिमला में 35,121 और कुल्लू में 10,908 किसान प्रभावित हुए. पंजाब की दीर्घकालिक समस्या से उलट, यहां विनाश की विभीषिका औचक आ धमकी और मिनटों में पूरी घाटी को आगोश में ले लिया. ब्यास, सतलुज और पार्वती पूरी तरह उफन पड़ीं. लुंज-पुंज चेतावनी तंत्र की वजह से जलवायु के ये झटके आपदा में बदल गए.
हिमाचल राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने घरों, दुकानों, पशुधन शेड और सार्वजनिक बुनियादी ढांचे को मिलाकर 4,100 करोड़ रुपए से ज्यादा का कुल आर्थिक नुक्सान आंका है. इसके अलावा, 2023 की बाढ़ से उबरने का काम 2,006 करोड़ रुपए की केंद्रीय सहायता और 4,500 करोड़ रुपए के राज्य आवंटन के बावजूद अधूरा रह गया. वह तब 9,500 करोड़ रुपए आंका गया था.

मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने कीचड़ से भरे राहत शिविरों में घूमते हुए हर प्रभावित परिवार को फौरन 10,000 रुपए की नकद सहायता की घोषणा की, और मुआवजा भी बढ़ा दिया. सिर्फ 57,000 करोड़ रुपए के वार्षिक बजट वाले राज्य में सुक्खू ने फौरन केंद्र से 12,000 करोड़ रुपए के विशेष पैकेज की मांग की. शिमला में उन्होंने कहा, ''हम 10 साल पुराने राहत नियमों के जरिए जलवायु परिवर्तन आपदाओं से नहीं निबट सकते.’’
यहीं बात व्यवस्था की कमियों की उठती है. केंद्र सरकार के एनडीआरएफ (राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया कोष) और एसडीआरएफ अभी भी 2015-16 में तय राहत के नियमों पर चलते हैं. उसके मुताबिक, पूरी तरह ढहे घर के लिए 95,100 रुपए, एक गाय के लिए 37,500 रुपए, फसल नुक्सान के लिए 13,500 रुपए प्रति हेक्टेयर (अधिकतम दो हेक्टेयर) वगैरह. परिवार में किसी की मौत होने पर 60,000 रुपए मुआवजे का प्रावधान है.
इसमें खर्च साझा करने के सख्त अनुपात पर भी जोर होता है; मसलन, पंजाब के साथ 75:25 और हिमाचल के साथ 90:10 का अनुपात. मगर, ये आंकड़े आज की हकीकत से बहुत अलग हैं. यहां तक कि ग्रामीण हिमाचल में घर बनाने में 8-10 लाख रुपए लगते हैं; सेब के बागान और पशुधन की कीमत घोषित मुआवजे से कई गुना होती है. हिमाचल एपल ग्रोअर्स एसोसिएशन के राजेश चौहान कहते हैं, ''राहत से नुक्सान की सिर्फ 30 फीसद ही भरपाई होती है. यह मदद का दिखावा भर है.’’
जम्मू-कश्मीर का दुखड़ा कम नहीं
दरअसल, 2014 की भयावह बाढ़ के बाद इस साल जम्मू-कश्मीर ने सबसे बड़ा कुदरती कहर झेला. 130 लोगों की जान गई और 33 लापता हैं. झेलम अपने पूरे उफान पर आ गई जिसके चलते अनंतनाग, पुलवामा और श्रीनगर में कई लोगों को दूसरी जगह ले जाना पड़ा.
बारामूला और कुपवाड़ा में पुल बह गए, जिससे गांव अलग-थलग पड़ गए. रामबन जिले में भूस्खलन की वजह से काफी अहम श्रीनगर-जम्मू राष्ट्रीय राजमार्ग को अस्थायी तौर पर बंद करना पड़ा, जिससे सैकड़ों वाहन फंस गए. यहां तक कि लद्दाख का बर्फीला रेगिस्तान भी इस साल लगभग 434 फीसद अधिक वर्षा के बाद कीचड़ से भर गया है.
सरकारी आकलन बताते हैं कि राज्य भर में 13,000 हेक्टेयर (32,000 एकड़) जमीन चपेट में आई है, जिसमें धान के खेत और फलों के बाग तबाह हो गए हैं. इन्फ्रास्ट्रक्चर के बड़े पैमाने पर टूटने से कृषि संकट ज्यादा बढ़ गया है. लगभग 12,000 किलोमीटर सड़कें बर्बाद हो गई हैं. ढहे हुए तवी पुल को फिर से बनाने में ही 100 करोड़ रुपए खर्च होंगे.
अनंतनाग के सेब किसान बशीर अहमद की इस सीजन की आधी फसल बर्बाद हो गई. वे कहते हैं, ''कनेक्टिविटी हमारी जीवन रेखा है; सड़कों के बिना फल मंडियों तक नहीं पहुंच सकते.’’ पखवाड़े भर तक ट्रैफिक रुकने और जम्मू-श्रीनगर राजमार्ग के बार-बार बंद होने से कश्मीर के फल उद्योग को 5,000 करोड़ रु. का नुक्सान होने का अनुमान है.
पारिस्थितिक रूप से नाजुक यह क्षेत्र प्राकृतिक आपदाओं का शिकार रहा है, मगर नदी तटबंधों तथा बाढ़ वाले मैदानों पर कारोबारी और आवासीय मकसद के लिए लगातार हो रहे अतिक्रमण ने हालिया बाढ़ को और भी बदतर बना दिया. साल 2019 के बाद, जम्मू-कश्मीर सरकार ने पर्यटन और बुनियादी ढांचे के विकास पर जोर दिया है. इस मकसद के लिए अब आसानी से या बिना किसी ईआइए (पर्यावरणीय प्रभाव आकलन) के कृषि भूमि और वन भूमि को परिवर्तित किया जा सकता है. जाहिर है, इससे समस्या और भी अधिक बढ़ गई है.
बिखरने लगा उत्तराखंड का नाजुक भूगोल
अगस्त की 5 तारीख को एक वायरल वीडियो में यह देखकर पूरा देश दहशत में था कि उत्तरकाशी जिले के भागीरथी इको-सेंसिटिव जोन में स्थित धराली गांव का बड़ा हिस्सा पानी और कीचड़ के तेज बहाव में बह गया. मौसम विभाग के आंकड़े बताते हैं कि कुछ ही घंटों में 400 मिमी बारिश हुई, जिससे भूस्खलन हुआ. वह बहाव वहां से नीचे सेना के एक शिविर और हर्सिल गांव को भी बहा ले गया. इस प्रलय में बचे लोगों ने उसे तेज बहाव वाली मलबे की 'काली दीवार’ सरीखा बताया जिसने उन्हें संभलने का मौका ही नहीं दिया. लगभग 60 लोग अभी भी लापता हैं. जैसे यही पर्याप्त न था.

सितंबर में, राजधानी देहरादून और तीर्थस्थल ऋषिकेश भी तबाही से घिर गए. 15 सितंबर की देर रात सहस्रधारा इलाके में फटे बादलों ने अचानक बाढ़ ला दी, जिससे राजधानी देहरादून और आसपास के इलाके डूब गए. घर और होटलों के अलावा स्थानीय धार्मिक आकर्षण का केंद्र टपकेश्वर महादेव मंदिर भी जलमग्न हो गया. विशालकाय हनुमान की प्रतिमा का ऊपर का आधा हिस्सा दिखने से अनुमान भर लग रहा था कि मंदिर है कहां.
पर्यटकों का स्वर्ग माने जाने वाले मसूरी पर भी असर पड़ा. वहां स्थानीय होटल एसोसिएशन ने आगे आकर फंसे पर्यटकों को मुफ्त रिहाइश की पेशकश की. एसोसिएशन के सदस्य संजय अग्रवाल बताते हैं, ''देहरादून और मसूरी को जोडऩे वाली सभी तीन सड़कें आंशिक रूप से बह गईं जिससे करीब 3,000 पर्यटक यहां फंस गए.’’ दशकों से कटते जंगलों, अनियोजित रोड-कटिंग और नदियों के किनारे बेरोकटोक होने वाले निर्माण ने नुक्सान को कई गुना बढ़ा दिया है.
उदासीनता और अनियंत्रित विकास की कहानियां इन उत्तरी राज्यों के लिए आम बात हैं. इसके साथ ही, 2025 की इस बाढ़ ने देश की राहत व्यवस्था की भी पोल खोल दी है. राज्य सरकारें सहानुभूति बटोरने की होड़ में लगी हुई हैं; केंद्र बस एकरूपता पर जोर दे रहा है. विशेषज्ञ लंबे समय से राहत को महंगाई से जोड़ने और मदद को बाजार मूल्यों से जोड़ने की वकालत करते रहे हैं.
नीति आयोग के 2023 के एक अध्ययन-पत्र में तो भारतीय मौसम विभाग से प्रमाणित बारिश की विसंगतियों से भी राहत को जोडऩे का प्रस्ताव था. लेकिन कुछ नहीं हुआ. फिलहाल, प्रभावित परिवार मदद की आस में चेक मिलने का इंतजार कर रहे हैं. फसलें, घर और जिंदगियां कुछ ही घंटों में बह जाती हैं. राहत मिलने में हफ्तों—कभी-कभी महीनों—लग जाते हैं, बशर्ते मिले.
उत्तर को आखिर क्या है दरकार
अगस्त के आखिरी हफ्ते में बाढ़ के दौरान कई वायरल वीडियो में देखा गया कि ब्यास और पार्वती नदियों में लकड़ी के कुंदे बड़े पैमाने पर बह रहे हैं. इन तस्वीरों से हिमाचल के एक्टिविस्टों का लंबे समय से लगाया जा रहा यह आरोप सच साबित हुआ कि हिमालयी राज्य में अवैध रूप से बड़े पैमाने पर पेड़ काटे जा रहे हैं. 4 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने इस पर संज्ञान लिया और कहा कि इतनी मात्रा में लकड़ी ''सिर्फ प्राकृतिक कारणों से नहीं आ सकतीं.’’
उन विजुअल्स का हवाला देकर अदालत की पीठ ने चेतावनी दी कि बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई से नुक्सान और बढ़ गया है. केंद्र सरकार, संबंधिक मंत्रालयों और विभागों नोटिस भेजे गए, मगर कोई कार्रवाई नहीं हुई. सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों ने जता दिया कि इस बाढ़ ने जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में तबाही से निबटने की तैयारियां हमेशा की तरह कितनी लचर हैं.
पंजाब में खराब ड्रेनेज इन्फ्रास्ट्रक्चर, अंधाधुंध रेत की खुदाई और चलताऊ ढंग से बांधों के संचालन ने भारी बारिश को खेती की बड़ी तबाही में तब्दील कर दिया. इसके बावजूद रंजीत सागर बांध और केंद्र नियंत्रित बीबीएमबी ने रियल-टाइम मॉनिटरिंग के लिए ऑटोमेटेड टेलीमेट्री बेस्ड रिवर गेज पर निवेश नहीं किया, न ही डायनेमिक रिजर्वायर ऑपरेशन प्रोटोकॉल को तवज्जो दी जो कि मौसम की भविष्यवाणी के अनुसार पानी छोड़ने की इजाजत देता है.
हिमाचल प्रदेश का संकट दशकों तक नाजुक ढलानों पर बेतरतीब निर्माण, जंगलों की कटाई और अपर्याप्त सुरक्षा के साथ बनाई गई पनबिजली परियोजनाओं से उपजा है. राज्य ने अभी तक बायोइंजीनियरिंग के जरिए ढलान-स्थिरीकरण को नहीं अपनाया है, नदी के किनारे निर्माण निषेध क्षेत्र को सख्ती से लागू नहीं किया है, या उच्च जोखिम वाली घाटियों में स्वचालित वर्षा-भूस्खलन पूर्व-चेतावनी सेंसर स्थापित नहीं किए हैं. कोएलिशन फॉर डिजास्टर रेजिलिएंट इन्फ्रास्ट्रक्चर (सीडीआरआइ) के महानिदेशक अमित प्रोथी कहते हैं, ''आज की चुनौती खतरे का बेहतर ढंग से आकलन करने की और उसी अनुरूप मजबूत इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाने की है.’’
उत्तराखंड के लिए यह सलाह मानना बेहतर होगा. इसरो लैंडस्लाइड एटलस ने रुद्रप्रयाग को भूस्खलन को लेकर देश का सबसे अधिक जोखिम वाला जिला बताया है. उसके बाद टिहरी गढ़वाल का नंबर आता है, जबकि चमोली, उत्तरकाशी और पौड़ी गढ़वाल भी देश के ऐसे टॉप 25 हॉटस्पॉट में शामिल हैं. यह राज्य मुख्य सेंट्रल थ्रस्ट में शामिल है, जो हिमालय का सबसे संवेदनशील टेक्टोनिक जोन है.

पश्चिमी विक्षोभ की वजह से अक्सर तेज होने वाली मॉनसूनी बारिश, संकरी घाटियों में ढलानों के टूटने और बादल फटने का कारण बनती है. जब ये सब नदियों के तल और बाढ़ के मैदानों पर अनियोजित निर्माण के साथ मिल जाते हैं, तो नुक्सान कई गुना बढ़ जाता है. कुमाऊं विश्वविद्यालय के भूविज्ञान के रिटायर्ड प्रोफेसर चारु सी. पंत कहते हैं, ''हिमालयी क्षेत्र में अब ज्यादा इमारतें हैं, आबादी ज्यादा है, नदियों के तटों पर ज्यादा अवैध निर्माण है. इससे बहुत ज्यादा नुक्सान होगा.’’
विशेषज्ञ जोर देते हैं कि दीर्घकालिक उपायों में अतिरिक्त पानी को सोखने के लिए आर्दभूमि का पुनरुद्धार, तटबंधों को मजबूत करना और नदियों की रियल टाइम निगरानी शामिल होनी चाहिए. अधिकतम जल बहाव के दौरान बांधों और राज्य सरकारों के बीच समन्वय बेहद अहम है. रुड़की स्थित राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान का कहना है कि अगर पूरे उत्तरी राज्यों में एकीकृत जलग्रहण प्रबंधन को व्यवस्थित तरीके से लागू किया जाए, तो वह बाढ़ की तीव्रता को 30 फीसद तक कम कर सकता है.

