
भारतीय उपमहाद्वीप में नौजवान मतदाताओं ने अधबीच में सरकारें पलटने की एक अजीब ताकतवर तरकीब ढूंढ निकालकर उसे लागू करना शुरू कर दिया है. अलबत्ता यह लोकतांत्रिक तो कतई नहीं.
पहली मिसाल: श्रीलंका, जुलाई 2022. भारी आर्थिक संकट से मुकाबिल नौजवानों ने अरागालय (संघर्ष) की मशाल थामी और सत्ता के केंद्र राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री के सचिवालयों पर धावा बोल दिया. सत्तारूढ़ राजपक्षे परिवार देश छोड़ भागने पर मजबूर हुआ और अंतरिम सरकार बैठी.
दूसरी मिसाल: बांग्लादेश, अगस्त 2024. सरकारी नौकरी में आरक्षण के खिलाफ विश्वविद्यालय छात्र संघों के आंदोलन पर ढाका पुलिस की अंधाधुंध गोलीबारी में 100 से ज्यादा हताहत हुए, तो नौजवानों का गुस्सा सत्ता के ठिकानों और संसद भवन पर फूटा. गुस्से की आग में झुलसने से बचने के लिए प्रधानमंत्री शेख हसीना को फटाफट सैन्य उड़ान से भारत भागना पड़ा.
तीसरी मिसाल: नेपाल, सितंबर 2025. सोशल मीडिया पर विवादास्पद बंदिश से देश की जेन ज़ी (15 से 25 वर्ष के युवा) पीढ़ी के राजधानी काठमांडो में शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन पर पुलिस की गोलीबारी में 19 नौजवान मारे गए. अगले दिन आक्रोश भड़क उठा. सड़कें लड़ाई का मैदान बन गईं और गुस्से की आग में संसद, राष्ट्रपति भवन, प्रधानमंत्री आवास सब धू-धूकर जल उठे. राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल और प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली को महफूज ठिकाने तलाशने पड़े.
अलबत्ता, नेपाल की यह आग सिर्फ सत्ता के ठिकानों तक सीमित नहीं रही. नौजवानों ने मुख्यधारा के तमाम राजनैतिक दलों के नेताओं को भी निशाना बनाया, खासकर पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा और झालानाथ खनल को. खनल की पत्नी राज्यलक्ष्मी चित्रकार ने घर में लगाई गई आग में झुलसकर दम तोड़ दिया.

आक्रोश की आग सुप्रीम कोर्ट और काठमांडो के मध्य में स्थित एक पांच सितारा होटल को भी झुलसा गई. यानी गुस्सा राजनैतिक प्रतिष्ठान से आगे पहुंच गया. दूसरे शहरों और कस्बों में भी सरकार की तानाशाही के खिलाफ लपटें उठीं. आखिर नेपाली सेना के प्रमुख जनरल अशोक राज सिगडेल ने हिंसा रोकने की अपील की और सैनिकों को शहर में गश्त के लिए उतारा तब अमन लौटा. पर मुश्किल दौर तो अब शुरू होना था.
कैसे बने नई व्यवस्था
यह घटनाक्रम बांग्लादेश या पाकिस्तान में होते रहे तख्तापलटों के मुकाबले संकटग्रस्त श्रीलंका के सिलसिले के ज्यादा करीब था: जहां सेना आजाद नहीं, बल्कि मजबूत नींव की निशानी है. नेपाली सेना के पूर्वी डिविजन के पूर्व कमान प्रमुख मेजर जनरल बिनोज बसन्यात का साफ कहना है कि सशस्त्र बल हमेशा संवैधानिक व्यवस्था के कायल हैं. उनकी कोई राजनैतिक महत्वाकांक्षा नहीं. उनके शब्दों में, ''सेना का एक साफ-सुस्पष्ट चरित्र रहा है, जो इसके गठन और इसकी संस्थागत संस्कृति में गुंथा हुआ है.
जब भी सेना को संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की जिम्मेदारी सौंपी जाती है, वह उस भूमिका को बखूबी निभाती है.’’ नेपाल में भारत के पूर्व राजदूत मंजीव सिंह पुरी की भी यही राय है. वे कहते हैं, ''नेपाली सेना राजशाही को उखाड़ फेंककर स्थापित लोकतंत्र के गौरवपूर्ण संघर्ष को जानती है. वहां की सेना का चरित्र भारतीय सेना जैसा ही है. अगर कोई भारतीय सेना के किसी जनरल से देश की बागडोर संभालने को कहे, तो क्या वह ऐसा करेगा?’’
पुरी को उम्मीद है कि नई सत्ता व्यवस्था टेक-सियासतदानों की होगी जिसमें प्रोफेशनल, नौकरशाह, अर्थशास्त्री और न्यायिक विशेषज्ञों के साथ नौजवान राजनैतिक चेहरे शामिल होंगे. शायद इसी सोच के साथ कथित तौर पर सिगडेल ने सुप्रीम कोर्ट की पूर्व प्रधान न्यायाधीश 73 वर्षीया सुशीला कार्की को अंतरिम व्यवस्था का प्रमुख बनने के लिए राजी कर लिया है, जो विरोध प्रदर्शनों के समर्थन में खुलकर बोली थीं.

हालांकि, सिगडेल को इस पर रजामंदी बनाने में फौरन मुश्किल सामने खड़ी हो गई. असल में जेन ज़ी प्रदर्शनकारी किसी एकरूप संगठन के नहीं, बल्कि ढीलेढाले अलग-अलग समूहों से जुड़े हैं, जिसमें कोई बड़ा नेता अग्रणी भूमिका में नहीं. कुछ प्रदर्शनकारी काठमांडो के मेयर बालेंद्र शाह के हिमायती हैं.
35 वर्षीय शाह रैपर हैं और युवाओं में काफी लोकप्रिय हैं. उन्होंने अपने गीतों के जरिए सत्ता प्रतिष्ठान को बदलने की मुहिम चलाई थी. एक दूसरे दावेदार नेपाल विद्युत प्राधिकरण के पूर्व प्रबंध निदेशक 54 वर्षीय कुलमान घीसिंग हैं. उन्हें देश के बिजली के ग्रिड को सुधारने का श्रेय दिया जाता है. हालांकि, 2024 में श्रीलंका की तरह नेपाल में भी अंतरिम सरकार को आखिरकार निर्वाचित लोकतांत्रिक सरकार की दिशा में काम करना होगा, जो युवाओं की आकांक्षाओं को पूरा करे.
आग जो सुलग ही रही थी
इस जेन ज़ी बगावत की फौरी वजह तो फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सऐप, यूट्यूब, एक्स, रेडिट और लिंक्डइन समेत 26 प्रमुख सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर लगाई गई पाबंदी थी. ओली सरकार ने स्थानीय पंजीकरण, शिकायत अधिकारियों की नियुक्ति और संपर्क सूत्र स्थापित करने की हफ्ते भर की मोहलत खत्म होने पर यह बंदिश लगाई, जैसा कि भारत में दो साल पहले किया गया था. नेपाली अधिकारियों की दलील है कि मकसद सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और डिजिटल स्पेस पर देसी अधिकार के अमल का था.
लेकिन लाखों नेपालियों—खासकर नौजवानों—के लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म कोई विलासिता नहीं बल्कि आजीविका, संपर्क-संचार और विदेश में परिवारों तथा अवसरों से जुड़ने का अहम साधन है. नेपाल दक्षिण एशिया में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करने वाले देशों में है. सो, उनके ब्लैकआउट के कुछ ही घंटों के भीतर गुस्सा सड़कों पर उबल पड़ा और आखिरकार समूचा निजाम बदल दिया गया.
यह आग अचानक नहीं भड़की. नेपाल में भारत के एक और पूर्व राजदूत रंजीत राय कहते हैं, ''संकेत अरसे से मिल रहे थे. भ्रष्टाचार और नेताओं को जांच से बचाने की सांठगांठ के खिलाफ गुस्सा सुलग रहा था.’’ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के विवाद ने आग में घी डालने का काम किया. बंदिश से पहले के हफ्तों में नेपाल में #nepobabies और #nepokids जैसे हैशटैग ट्रेंड कर रहे थे.
लोग अपनी तंगहाली के मुकाबले राजनैतिक परिवारों के वारिसों के ऐशोआराम की जिंदगी से ईर्ष्या की आंच में सुलग रहे थे, जो इंस्टाग्राम पोस्ट पर अपनी रोलेक्स घड़ियां और गुच्ची बैग दिखाते मानो उन्हें चिढ़ा रहे थे. बहुत सारे आम नेपालियों के लिए देश में घटते रोजगार के अवसरों के मद्देनजर दूसरे देशों का रुख करना ही इकलौता रास्ता है. गांव खाली हो रहे हैं, मां-बाप बच्चों से दूर हैं, बच्चों के भेजे पैसे से काम चल रहा है पर देश में रोजगार के मौके नहीं बन रहे.
इस तरह नेपाल में जेन ज़ी की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी से बढ़ती आर्थिक तंगी है. एक के बाद एक सरकारें इस ओर ध्यान देने में नाकाम रही हैं. कोविड महामारी ने बेरोजगारी बढ़ा दी और पलायन की रफ्तार तेज कर दी, खासकर 30 वर्ष से कम उम्र के नौजवानों की, जो देश की कुल 2.96 करोड़ की आबादी में करीब 56 फीसद हैं. 2024 में नेपाल की बेरोजगारी दर 10.8 फीसद थी लेकिन 15-24 वर्ष के जेन ज़ी के मामले में यह 20.8 फीसद थी.
रोजगार के लिए करीब 45 लाख लोग भारत, खाड़ी देशों और सुदूर पूर्व की ओर चले गए. विश्व बैंक के मुताबिक, विदेश में काम कर रहे नेपालियों की भेजी गई रकम ही दरअसल घरेलू अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, जो सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 33 फीसद है. 2024 में विदेश से भेजी गई रकम करीब 14 अरब डॉलर थी, और करीब 76 फीसद परिवार उसी पर निर्भर पाए गए.
सियासी बारी का खेल
इधर कुछ दशकों में नेपाली राजनीति बारी-बारी सत्ता का खेल बनकर रह गई थी. सत्ता का सिंहासन तीन प्रमुख राजनैतिक दलों के नेताओं की पुरानी तिकड़ी के बीच बदलता रहा. मसलन, राजशाही के दौर को भी जोड़ लें तो नेपाली कांग्रेस (एनसी) के शेर बहादुर देउबा पांच बार प्रधानमंत्री रहे; नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी-माओवादी केंद्र या सीपीएन (एमसी) के पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड चार बार प्रधानमंत्री रहे.
नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी-एकीकृत मार्क्सवादी लेनिनवादी (सीपीएन-यूएमएल) के के.पी. शर्मा ओली मौजूदा आग उठने के पहले चौथा कार्यकाल पूरा कर रहे थे. यह बिरादरी हाल तक सत्ता के केंद्र में तो थी लेकिन उसका आकर्षण कमजोर पड़ता जा रहा था. युवाओं के बीच उनकी लोकप्रियता भी घटती जा रही थी, क्योंकि वे उनकी आकांक्षाओं के प्रति बेरुखी दिखाने लगे थे. इससे भी बदतर, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद आम बात हो गई थी, और आरोप है कि उसकी जड़ में शीर्ष नेता ही हैं.
इसके अलावा, 2008 में राजशाही के खात्मे और 2015 में नए संविधान के लागू होने के बाद से नेपाल में राजनैतिक अस्थिरता जारी रही है. पिछले 15 साल में 10 बार सरकार बदली है. इस लगातार अस्थिरता की एक वजह नेपाल की मिश्रित चुनाव प्रणाली है, जिसमें आसानी से पूर्ण बहुमत हासिल नहीं हो पाता.

निचले सदन की 275 सीटों में से 165 भारत की तरह 'पहले नंबर’ यानी सबसे ज्यादा संख्या में वोट की प्रणाली के तहत और 110 सीटें पार्टी की वोट हिस्सेदारी के आधार पर आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के तहत भरी जाती हैं. इसके बावजूद, कोई भी प्रमुख राजनैतिक दल 138 सीटों के साधारण बहुमत से आगे बढ़कर अकेले सरकार नहीं बना पाया है. लिहाजा, गठबंधन सरकारों का सिलसिला चलता रहा है.
पीढ़ी का फर्क
समस्याएं नेपाल के भूगोल और सामाजिक बनावट से और जटिल हो जाती हैं. यह तीन प्रमुख जनसंख्या समूहों में बंटा हुआ है जो एक-दूसरे से मेल नहीं खाते. पहाड़ियों (पहाड़ी मूल के जाति समूह) में प्रमुख बाहुन (ब्राह्मण), छेत्री (क्षत्रिय) और ठाकुरी समुदाय हैं, जो कुल आबादी का लगभग 31 फीसद हैं और ज्यादातर राजनैतिक अभिजात वर्ग इन्हीं के बीच का है.
दूसरे हैं जनजाति (आदिवासी या मूलवासी) के जो पहाड़ों और मैदानों में फैले हुए हैं. उनकी संख्या 31 फीसद है और उन्हें वंचित समुदाय बताया जाता है. मधेसी (तराई या मैदानी मूल के लोग) लगभग 28 फीसद हैं. ये भारत की सीमा से लगे जिलों में हैं. इन समुदायों के बीच सत्ता संघर्ष से देश की राजनीति में एकजुटता कम है.
मौजूदा युवा विद्रोह की खास बात यह है कि उसके भूचाल का केंद्र काठमांडो ही है, जिसे ताकतवर पहाड़ी समुदायों का गढ़ माना जाता है. उसकी नाराजगी के लक्ष्य भी एक गहरी दरार को उजागर करते हैं. प्रदर्शनकारियों ने न सिर्फ संसद और सुप्रीम कोर्ट जैसी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर हमला किया, बल्कि मुक्चयधारा के राजनैतिक दलों के नेताओं के घरों को भी निशाना बनाया.
मेजर जनरल बसन्यात बताते हैं कि बढ़ते वैश्विक संपर्क, आर्थिक अनिश्चितता और राजनैतिक गतिरोध के दौर में पले-बढ़े जेन ज़ी नौजवानों का मौजूदा व्यवस्था से विश्वास उठ चुका है. वे कहते हैं, ''उनका जुटान एक ऐसी लुंजपुंज राजनैतिक व्यवस्था के प्रति इनकार को दर्शाता है जो स्थिरता, न्याय या अवसर मुहैया करने में नाकाम रही है. उसके बजाए, नौजवान राजकाज और सुरक्षा की नई व्यवस्था पर जोर दे रहे हैं, जहां भ्रष्टाचार, कदाचार और पुरानी संस्थाओं की जगह जवाबदेह नेतृत्व और दूरदर्शी रणनीतियां बनें.’’
राजशाही का साया
जब सेना प्रमुख सिगडेल ने 18वीं सदी के आधुनिक नेपाल के संस्थापक पृथ्वीनारायण शाह का चित्र अपने पीछे रख राष्ट्र को संबोधित किया, तो प्रतीकात्मकता स्पष्ट थी. तमाम लोगों के जेहन में बात गूंज उठी कि क्या आक्रोश की ताजा लहर पर सवार होकर राजशाही ताकतें सत्ता में लौटेंगी?
राजभक्ति की भावना वर्षों दबी रही थी लेकिन नवंबर 2023 में इसने हिलोरें मारना शुरू किया और राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी (आरएसपी) के बैनर तले हजारों लोगों ने काठमांडो में राजशाही और हिंदू राष्ट्र की बहाली के लिए रैली निकाली. नेपाल पर 2001 से 2008 तक शासन करने वाले 78 वर्षीय ज्ञानेंद्र शाह को राजशाही विरोधी आंदोलन में अपनी सत्ता गंवानी पड़ी थी. फिलहाल काठमांडो के निर्मल निवास पैलेस में रह रहे शाह सत्ता में वापसी की उम्मीदें पाले बैठे हैं.
मौजूदा उथल-पुथल ने राजशाही के जिन्न को एक बार फिर बोतल से बाहर ला दिया है. जेएनयू स्थित चीनी और दक्षिण पूर्व एशियाई अध्ययन केंद्र की वरिष्ठ सहायक प्रोफेसर डॉ. गीता कोचर का मानना है, ''नेपाली जेन ज़ी को सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट गठबंधन पर भरोसा नहीं रहा. इससे राजशाही की भागीदारी के साथ एक नए राजनैतिक गठबंधन के सत्ता में आने की राह खुल सकती है.’’
कुछ लोगों का मानना है कि राजभक्तों की रुचि राजशाही समाप्त करने वाले संविधान के पतन में हैं पर अन्य का कहना है कि हाल में उमड़ी राजशाही समर्थक भीड़ मुख्यधारा की पार्टी लामबंदी का एक मामूली हिस्सा भर थी. एक विशेषज्ञ कहते हैं, ''निजी स्तर पर कुछ लोग जरूर शामिल थे. लेकिन एक ताकत के तौर पर नहीं. राजशाही बीती बात हो चुकी. हो सकता है कि कुछ लोग इसकी मंशा पाले हों लेकिन मौजूदा विद्रोह इसके लिए नहीं था.’’
अभी जो कुछ चल रहा है, वह दर्शाता है कि विरासत के प्रति वफादारी के बजाए लोग पहचान, जवाबदेही और कुछ कर दिखाने की उम्मीद कर रहे हैं. नेपाल की अशांति को राजशाही की साजिश, वामपंथी चाल, चीन के दखल या भारतीय गलती तक सीमित करना एक सहज निष्कर्ष हो सकता है. वास्तविकता कहीं ज्यादा उलझी हुई है. एक वार्ताकार के मुताबिक, ''हर कोई इसे अपने भू-राजनीतिक नजरिए से देख रहा है पर यह एक आंतरिक मामला है.’’
हालांकि, अंदेशे गहरा रहे हैं कि नई सरकार यह कहते हुए संविधान में बदलाव की कोशिश कर सकती है कि वह उद्देश्यों पर खरा नहीं उतरा. इसे लेकर भी दुविधा है कि चूंकि संविधान के तहत केवल निचले सदन का सदस्य ही प्रधानमंत्री बन सकता है तो क्या एक गैर-निर्वाचित प्रधानमंत्री अंतरिम सरकार का नेतृत्व कर सकता है? नेपाल मामलों के एक विशेषज्ञ चेताते हैं, ''संविधान को त्यागा गया तो सब कुछ हवा में होगा. विभिन्न जाति और सामाजिक समूहों के बीच पुरानी दरारें सतह पर आ सकती हैं.
संविधान भले अपूर्ण हो पर उसे इन खामियों को दूर करने के लिए ही गढ़ा गया था जिन्हें हिंसक राजनीति फिर से उभार सकती है. फिर चाहे वह संघवाद हो, सक्रिय कार्रवाई या फिर भाषा या नागरिकता का मुद्दा.’’ बेहतर है कि संविधान के दायरे में काम किया जाए और संसदीय निगरानी को अंतरिम अवधि के लिए बनाए रखा जाए, भले उसे सीमित कर दिया जाए. एक सूत्र ने कहा, ''वे संविधान के दायरे में काम करेंगे तो चीजें बेहतर ढंग से आकार लेंगी.’’
भारत के लिए इसके निहितार्थ
पड़ोस में कोई भी उथल-पुथल निश्चित तौर पर पांच भारतीय राज्यों—उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, सिक्किम और पश्चिम बंगाल—से लगी 1,770 किलोमीटर लंबी खुली सीमा के लिए चुनौती खड़ी करती है. अब तक दिल्ली का रुख संयमित रहा है. सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति की बैठक के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अंग्रेजी, हिंदी और नेपाली में बेहद सावधानी के साथ लिखा गया एक संदेश जारी किया.
जिसमें उन्होंने हिंसा को 'हृदयविदारक’ बताया, युवाओं की मौत पर शोक जताया और शांति की अपील की. लक्ष्य स्पष्ट है—शांति से बात करें, 'हमने सब ठीक कर दिया’ जैसे विचारों से बचें जो भारत विरोधी बयानों को हवा देते हैं, और व्यापार, ऊर्जा, कनेक्टिविटी जैसे सहयोग को पटरी पर बनाए रखें. रंजीत राय कहते हैं, ''भारत को शांति, सहयोग, व्यापार जैसे मुद्दों पर शांति से विचार-विमर्श करना चाहिए और दिखावे से बचना चाहिए.’’
भारत, नेपाल और चीन तीनों को जोड़ने वाले लिपुलेख, कालापानी, लिपियाधुरा के क्षेत्रीय अधिकारों पर सीमा मानचित्र विवाद काठमांडो के 2020 के मानचित्र के दावे और दिल्ली की अस्वीकृति के बाद से एक स्थायी अड़चन बना हुआ है. इस मुद्दे पर विवाद 2020 में बढ़ा जब नेपाल ने 1816 की सुगौली संधि का हवाला देते हुए इन क्षेत्रों पर दावा जताया और एक नया राजनैतिक मानचित्र प्रकाशित किया.
इसमें काली नदी को पश्चिमी सीमा के तौर पर परिभाषित किया गया था. नेपाल का दावा है कि यह नदी कालापानी के पश्चिम में निकलती है, जिससे विवादित भूमि उसके क्षेत्र में आती है. हालांकि, भारत का कहना है कि नदी का उद्गम पूर्व में है, इसलिए यह उत्तराखंड का हिस्सा है. मई 2020 में भारत के लिपुलेख दर्रे तक एक सड़क के उद्घाटन के बाद तनाव बढ़ गया. नेपाल ने इसे संप्रभुता का उल्लंघन बताया, जबकि भारत ने उसके दावों को खारिज करते हुए इसे अपना क्षेत्र बताया.
बहरहाल, लंबे समय से भारत की छत्रछाया में राष्ट्रवादी सुर अलापने और चीन को भी साधने की कोशिश करने के लिए क्चयात ओली के लिए सीमा विवाद घरेलू स्तर पर लामबंदी का एक बेहतरीन मौका बन गया. पुरी कहते हैं, ''एक बार जब आप मानचित्र आदि के जरिए किसी चीज को रेखांकित कर लेते हैं तो उनका वजूद लंबे समय तक बना रहता है. नक्शे और नोट्स स्थायी एजेंडे में शामिल हो जाते हैं और उनका समाधान निकालना जरूरी हो जाता है.’’
बतौर प्रधानमंत्री अपने पहले कार्यकाल के दौरान ओली ने सबसे पहले 2016 में बीजिंग के साथ एक पारगमन समझौते पर हस्ताक्षर किए और फिर 2017 में बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव के कागजात पर हस्ताक्षर कर भारत को नाराज कर दिया था. उन्होंने 2024 में नया दृष्टिकोण अपनाने पर जोर दिया, जबकि कई बीआरआइ परियोजनाएं ठप पड़ी थीं. नई दिल्ली ने ओली के बदले रुख को गंभीरता से लिया; काठमांडो ने इसे एक लाभ के तौर पर देखा.
नेपाल की बिजली खरीद, बंदरगाह, पाइप, चिकित्सा, शिक्षा जैसी अधिकांश तात्कालिक जरूरतें भारत ही अच्छी तरह पूरी कर सकता है. फिर, पड़ोसी देशों के संबंध सिर्फ नक्शे पर नहीं, बल्कि वहां रहने वाले लोगों से भी निर्धारित होते हैं. अनुमानत: बीस लाख नेपाली भारत में रहते और काम करते, रोजाना सीमा पार करते हैं और दोनों देशों की सेनाएं गोरखा रेजिमेंट के तहत एक जैसी वर्दी में नजर आती हैं. ये मानवीय संपर्क भू-राजनीतिक अवसरवाद के खिलाफ सबसे अच्छा सुरक्षा कवच है.
रिश्तों में जमी मौजूदा बर्फ का एक कारण ऐतिहासिक गोरखा संबंधों में लगा झटका भी है. भारत की अग्निवीर योजना में भागीदार न बनने के नेपाल के फैसले ने एक गहरे रिश्ते को तोड़ दिया. एक विशेषज्ञ के मुताबिक, ''यह बड़ा झटका है...यह हमारे रिश्तों में बेहद अहम स्तंभ रहा है.’’
चीन की भूमिका भले उतनी तात्कालिक न हो लेकिन वह परिदृश्य से कभी पूरी तरह बाहर नहीं रहता. एक विश्लेषक कहते हैं, ''याद रखें पैसा बोलता है—और चीन के पास यह है, इसलिए सरकारें सुनती हैं.’’ वे आगाह करते हैं कि अब जब एकदम शून्यता की स्थिति पैदा हो गई है, चेकबुक शब्दों से ज्यादा बढ़-चढ़कर असर दिखा सकती है. फिर भी, मौजूदा तूफान कोई भू-राजनीतिक मुद्दा नहीं; यह आंतरिक स्तर पर सत्ता की वैधता का संकट है, जो डिजिटल स्क्रीन और जली इमारतों पर साफ झलकता है.
हालांकि, भौगोलिक स्थिति की बात करें तो यह जरूरी है कि नेपाल भारत के साथ सकारात्मक संबंध बनाए रखे. भारत और नेपाल के बीच व्यापार करीब 8.5 अरब डॉलर का रहा है, जिसमें 6.1 अरब डॉलर के अधिशेष के साथ संतुलन भारत के पक्ष में था. भारत के लिए नेपाल जलविद्युत का आपूर्तिकर्ता है, भारत ने नेपाल को तेल सप्लाइ के लिए पाइपलाइन बिछाई है जिससे परिवहन पर करोड़ों रुपए की बचत हुई. वह शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य सेवाओं तक कई विकास परियोजनाओं में सहायता देता है.
विशेषज्ञों के मुताबिक, भारत के लिए सबसे जरूरी है कि धैर्यपूर्वक सहयोग करे, खुली सीमा पर प्रबंधन और मानवीय तत्परता के अलावा नई राजनैतिक ताकतों और नागरिक समाज तक बेहतर संपर्क सुनिश्चित करे. बिजली एवं बुनियादी ढांचे से जुड़ी प्रतिबद्धताओं पर निरंतर अमल हो.
आगे का रास्ता
अब नेपाल के लिए आगे क्या? संकट से उबरने का सबसे यथार्थवादी तरीका यही है कि सामान्य आम सहमति से कार्यवाहक सरकार बने, जो कानून-व्यवस्था को स्थिर करे, सेवाओं को बहाल करे, व्यापक डिजिटल प्रतिबंधों को हटाकर वैध, पारदर्शी सहयोग स्थापित करे. चुनाव के लिए एक विश्वसनीय समयसीमा तय करे. और उस बल प्रयोग की गहन जांच भी होनी चाहिए जिसने इतने लोगों की जान ली.
आर्थिक मोर्चे पर बात करें तो कार्यवाहक सरकार को जलविद्युत परियोजनाओं में तेजी लानी चाहिए; सीमा पार बिजली व्यापार तेज करना चाहिए; व्यावसायिक पाइपलाइनों का विस्तार करना चाहिए; और पूंजी या कौशल के साथ लौटने वालों के लिए प्रवासी-अनुकूल सुविधाएं बढ़ाए. अभिजात वर्ग ने जो ज्यादतियां की थीं, उनके जवाब में प्रतिशोधात्मक गिरफ्तारियों के बजाए संस्थागत सुधारों को बढ़ावा देना होगा. भ्रष्टाचार पर कड़ाई से नकेल कसना और सजा को कड़ी करके व्यावहारिक तौर पर जवाबदेही स्थापित करनी होगी.
मौजूदा समय में स्थिरता के लिए हर स्तर पर संयम की दरकार है: चाहे सेना हो (जिसने अब तक ऐसे संकेत दिए), सड़क पर प्रदर्शनकारी (जिन्होंने अपनी आवाज उठाई) या राजनैतिक पार्टियां (जिन्हें अराजकता का लाभ उठाकर वापसी के बजाए अपनी जगह बनानी चाहिए). ये बातें पड़ोसियों पर भी लागू होती हैं (जिन्हें नेपाल को फिर से शतरंज की बिसात बनाने से बचना चाहिए). एक विशेषज्ञ कहते हैं, ''इस बर्बादी से अब कुछ मजबूत और बेहतर उभरेगा, जो ज्यादा लोकतांत्रिक होगा.’’ यह जितना पूर्वानुमान है, उससे कहीं ज्यादा नए नेपाल के निर्माण की उम्मीद का प्रतीक भी.
उथल-पुथल भरा इतिहास
कुर्सी हथियाने की होड़
1950: नेपाली कांग्रेस और तत्कालीन औपचारिक राजा त्रिभुवन देव से समर्थित जनता की राणा शासन के खिलाफ बगावत
1959: बी.पी. कोइराला नेपाल के लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित पहले प्रधानमंत्री बने
1960: राजा महेंद्र के नेतृत्व में शाही तख्तापलट, संसद भंग और प्रधानमंत्री कोइराला गिरफ्तार
1990: राजा बीरेंद्र के शासन के खिलाफ बहुदलीय जन आंदोलन के बाद निरंकुश राजतंत्र खत्म, संवैधानिक राजतंत्र की स्थापना
2001: हिमालयी देश में हुए शाही नरसंहार ने स्तब्ध कर दिया. युवराज दीपेंद्र ने अपने पिता राजा बीरेंद्र और परिवार के 7 अन्य सदस्यों को गोली मार दी, फिर खुद को भी मार डाला. चाचा ज्ञानेंद्र ने खुद को राजा घोषित कर लिया
2006: नेपाल में एक दशक से चला आ रहा कम्युनिस्ट आंदोलन और गृहयुद्ध उस समय खत्म हो गया, जब राजा ज्ञानेंद्र अपनी अधिकांश शक्तियां छोड़ने और 2002 में भंग संसद को बहाल करने पर तैयार हो गए
2008: नेपाल की संविधान सभा ने राजशाही खत्म करने के लिए मतदान किया, देश को संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया; तब से 14 सरकारें बन चुकी हैं, किसी ने कार्यकाल पूरा नहीं किया
2015: नया संविधान अपनाया गया
2025: युवाओं के नेतृत्व में जन विद्रोह ने ओली सरकार को उखाड़ फेंका
नेपाल में अहम किरदार जिन्हें गद्दी से हटाया गया और नए उभरते नेता
के.पी. शर्मा ओली, 73 वर्ष
सीपीएन (यूएमएल) से चार बार के पूर्व प्रधानमंत्री (2015, 2018, 2021 और जुलाई 2024 से). भारी विरोध प्रदर्शनों के कारण 9 सितंबर को इस्तीफा दे दिया. सत्ता पर कब्जा मजबूत किया, विरोधियों पर जांच एजेंसियों का इस्तेमाल किया. चाय बागान को व्यावसायिक प्लॉटों में बदलने के खिलाफ अदालती आदेश रोका, अवमानना का केस झेल रहे. उनका आवास फूंका गया, वे छिपे हुए हैं.
शेर बहादुर देउबा, 79 वर्ष
नेपाली कांग्रेस से पांच बार के (1995, 2001, 2004, 2017 और 2021) पूर्व प्रधानमंत्री. प्रदर्शनकारियों ने उन पर और उनकी पत्नी विदेश मंत्री आरजू देउबा राणा पर हमला किया. विमान खरीद में कमिशन लेने का आरोप. राणा का नाम भूटानी शरणार्थी घोटाले से भी जुड़ा है.
सुशीला कार्की, 73 वर्ष
नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश (2016-17). कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में अंतरिम सरकार का नेतृत्व करने के लिए वे कई जेन-ज़ी प्रदर्शनकारियों की पसंद. अपने भ्रष्टाचार विरोधी रुख के लिए चर्चित.
पुष्प कमल दहल प्रचंड, 70 वर्ष
सीपीएन (एमसी) से चार बार के पूर्व प्रधानमंत्री (2008, 2016, 2022, 2024). सशस्त्र माओवादी संघर्ष के नेता जिन्होंने बाबूराम भट्टाराई के साथ इसका नेतृत्व किया, वे भारत विरोधी रुख के लिए जाने जाते हैं. पुराने गुरिल्लों के पुनर्वास के लिए मिले संयुक्त राष्ट्र के धन का दुरुपयोग करने का आरोप. उनका कोई अता-पता नहीं है.
बालेंद्र शाह, 35 वर्ष
काठमांडो के मेयर और पूर्व रैपर. इंजीनियर के रूप में प्रशिक्षित. वे ओली के विरोधी हैं और उनको सार्वजनिक रूप से भ्रष्ट बताया है. जेन ज़ी आंदोलन का समर्थन किया. आंदोलन का नेतृत्व करने या उनके द्वारा स्थापित शासन चलाने के लिए पसंदीदा नेता.
राम चंद्र पौडेल, 80 वर्ष
मार्च 2023 से नेपाल के राष्ट्रपति. विरोध प्रदर्शनों के हिंसक होने पर शांति और स्थिरता की अपील की. फिलहाल छिपे हुए हैं. उनका कार्यालय सिंह दरबार सचिवालय में है जिसे विरोध प्रदर्शनकारियों ने जला दिया.
रबी लामिछाने, 51 वर्ष
पूर्व उप-प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी के प्रमुख. कथित भ्रष्टाचार के आरोप में नक्खू जेल में बंद थे लेकिन जेन ज़ी प्रदर्शनकारियों ने छुड़ा लिया. उन्हें 'भ्रष्ट’ वरिष्ठ नेताओं के स्वच्छ विकल्प के रूप में देखा जाता है. आरएसपी के सभी 21 सांसदों ने इस्तीफा दे दिया है.
जनरल अशोक राज सिगडेल, 58 वर्ष
सितंबर 2024 से नेपाली सेना के प्रमुख. उन्होंने विरोध प्रदर्शनों की अराजकता और तबाही के बाद सेना तैनात की और हवाई अड्डे, संसद और सचिवालय की सुरक्षा सुनिश्चित की. 9 सितंबर के बाद जान-माल का नुक्सान रोकने में बड़ी भूमिका. जेन ज़ी के कई समूहों के साथ कई दौर की वार्ता की.
कुलमान घिसिंग, 54 वर्ष
नेपाल विद्युत प्राधिकरण के पूर्व प्रबंध निदेशक. उन्हें देश में भीषण बिजली कटौती खत्म करने का श्रेय दिया जाता है. वे एक और लोकप्रिय, 'स्वच्छ’ छवि वाले पेशेवर हैं जो अब अंतरिम प्रधानमंत्री पद की दौड़ में सबसे आगे हैं.
एक विशेषज्ञ की राय में, नेपाली सेना के मूल्य भी भारतीय सेना के जैसे ही हैं. ''अगर कोई एक भारतीय सेनाध्यक्ष से सत्ता पर कब्जा करने को कहे तो क्या वह ऐसा करेगा?’’
सोशल मीडिया पर पाबंदी ने तो बस पलीते में आग लगाने का काम किया. उससे काफी पहले से #नेपोबेबीज जैसे हैशटैग ट्रेंड कर रहे थे. इसमें नेताओं की औलादों और आम आदमी की जीवनशैली के बीच के फर्क को दिखाया जा रहा था.
हालांकि नेताओं की पुरानी तिकड़ी अभी हाल तक सत्ता पर काबिज रही लेकिन धीरे-धीरे वे कमजोर और निष्प्रभावी होते गए. और युवाओं का तो जैसे उनसे मोहभंग ही हो गया था.
भारत के लिए लक्ष्य एकदम स्पष्ट है: चुपचाप संवाद-संपर्क बनाया-बढ़ाया जाए. 'ठीक कर दिया ना!’ वाले भारत विरोध को हवा देने वाले तेवरों से बचा जाए. व्यापार और ईंधन के मामले में संबंधों को ढर्रे पर कायम रखा जाए.