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ट्रंप के टैरिफ से कैसे डूबने के कगार पर पहुंचा भारतीय सी-फूड उद्योग?

अमेरिका भेजे जाने वाले सी-फूड यानी खाने योग्य जलीय जीवों की खेपों में भारी कमी आई है. इस उद्योग से जुड़े लोगों का कहना है कि यह तो तूफान का आगाज भर है, कहर बरपाना अभी बाकी है.

victims of trump tariffs seafood
सी-फूड उद्योग से जुड़ी तस्वीर
अपडेटेड 9 अक्टूबर , 2025

●असर: भारतीय समुद्री खाद्य निर्यात उद्योग संकट से गुजर रहा है. ट्रंप के लगाए 50 फीसद टैरिफ ने अनुमानित 7.45 अरब डॉलर (65,560 करोड़ रुपए) के उद्योग को मुश्किल में डाल दिया है. इसके सबसे बड़े बाजार अमेरिका में करीब 2.8 अरब डॉलर (24,640 करोड़ रुपए) के निर्यात के प्रभावित होने का अंदेशा है.

भारतीय समुद्री खाद्य निर्यात संघ के महासचिव के.एन. राघवन कहते हैं, ''आम तौर पर अमेरिका क्रिसमस और नए साल के मौके पर बड़े पैमाने पर बिक्री की उम्मीद में सितंबर-अक्तूबर में समुद्री खाद्य पदार्थ आयात करता है. लेकिन (इस बार हमारे निर्यातकों से) शिपमेंट रोकने को कहा गया है.’’

निर्यात में फ्रोजन झींगे की हिस्सेदारी लगभग 75 फीसद (2.1 अरब डॉलर या 18,480 करोड़ रुपए) है और अमेरिकी सप्लाइ चेन, खाद्य भंडार और स्थानीय विक्रेता उच्च गुणवत्ता वाले मूल्यवर्धित उत्पाद होने के कारण भारतीय किस्म विशेष तौर पर पसंद करते हैं, क्योंकि इक्वाडोर, इंडोनेशिया और वियतनाम खाद्य तथा औषधि प्रशासन के मानकों पर खरे नहीं उतरते. यही नहीं, पांच दशक पुरानी साझेदारी के कारण भारत के कारखाने पहले से ही निर्यात मानदंडों के अनुरूप हैं.

●प्रतिस्पर्धी: इक्वाडोर (10 फीसद अमेरिकी टैरिफ), वियतनाम (20 फीसद), इंडोनेशिया (19 फीसद) और थाइलैंड (36 फीसद) भारत की तुलना में फायदे की स्थिति में हैं. लेकिन उनके पास झींगे के प्रसंस्करण के लिए आवश्यक कुशल कार्यबल और अमेरिकी खुदरा विक्रेताओं को आपूर्ति करने लायक कारखाने भी नहीं हैं.

●वैकल्पिक बाजार: चीन का विशाल समुद्री खाद्य बाजार 18.2 अरब डॉलर का है, जिसमें 19 फीसद भारत की हिस्सेदारी है. लेकिन चीन ने मूल्यवर्धित समुद्री खाद्य उत्पादों के निर्यात की ओर रुख किया है और अपना आयात कम कर दिया है. यही नहीं, 15 फीसद की वार्षिक वृद्धि दर के साथ मांग बढ़ने के कारण एक दशक से भी ज्यादा समय से भारतीय निर्यात के लिए लाभकारी गंतव्य बने रहे अमेरिकी बाजार की तुलना में यहां अच्छी कीमत भी नहीं मिलती है. जापान एक अन्य बाजार है लेकिन वहां मांग सीमित है. ठ्ठ

कोच्चि के विलिंग्डन द्वीप में 48 साल से कारोबार कर रहे ठाकरन ने पिछले कुछ वर्षों में झींगा और मसालों का निर्यात शुरू किया, फिर केरल और बेंगलूरू स्थित उच्च तकनीक वाले कारखानों की मदद से मूल्यवर्धित खाद्य उत्पादों को भी शामिल किया. उच्च-मूल्य वाले बाजारों में पैठ बना ली और 60 फीसद निर्यात ऑर्डर अमेरिका से मिल रहे थे.

लेकिन अब उनका कहना है, ''इसमें कोई दो-राय नहीं कि ट्रंप का नया टैरिफ अमेरिकी बाजारों से भारतीय समुद्री खाद्य निर्यातकों को खत्म कर देगा...हम प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाएंगे. व्यापार युद्ध हमें दो तरह से प्रभावित करेगा. पहला, इससे अमेरिका में हमारा निर्यात घटेगा क्योंकि कोई भी इतने ज्यादा टैरिफ पर निर्यात नहीं कर पाएगा. दूसरा, हमारे पास कभी कोई वैकल्पिक बाजार नहीं होगा और हमें उत्पादन कम करना होगा.’’

ट्रंप टैरिफ के मारेः चमड़ा उद्योग

भुगत रहे खमियाजा

अर्कमय दत्ता मजूमदार और अवनीश मिश्र

●असर: भारत का चमड़ा उद्योग ट्रंप के प्रशासनिक टैरिफ से तगड़े झटके का सामना कर रहा है. वित्त वर्ष 2024-25 में उसने कुल 5.7 अरब डॉलर (50,160 करोड़ रुपए) के निर्यात किए, जिसमें से 21.7 फीसद निर्यात अमेरिका को गया. अब टैरिफ की वजह से अचानक इस बाजार में पहुंचना मुश्किल हो गया. आंकड़ों से जाहिर है कि खरीदार के तौर पर अमेरिका कितना अहम है. 2023-24 में 4.8 अरब डॉलर (42,240 करोड़ रुपए) की चमड़े की वस्तुएं निर्यात की गईं, जिनमें अमेरिका का हिस्सा 19 फीसद से ज्यादा (8,025 करोड़ रुपए) था.

इसका खामियाजा पूर्वी भारत, खासकर पश्चिम बंगाल को भुगतना होगा. इस इलाके से 2024-25 में 5,700 करोड़ रुपए के चमड़े के उत्पाद निर्यात हुए और उनमें से करीब 19 फीसद अमेरिका गए. बंगाल में चमड़े का सामान बनाने वाली 700 इकाइयां हैं, जिनमें 550 निर्यातक इकाइयां हैं, जहां 7,00,000 लोग काम में लगे हैं. यहां करीब 450 चर्मशोधन कारखाने काम कर रहे और 350 निर्माणाधीन हैं. बंगाल को बैग, बटुए और औद्योगिक दस्ताने बनाने में विशेषज्ञता हासिल है.

दूसरा बड़ा केंद्र उत्तर प्रदेश का कानपुर-उन्नाव इलाका है, जहां करीब 2,000 करोड़ रुपए का नुक्सान होने का अनुमान है. इस क्षेत्र में करीब 400 चर्मशोधन कारखाने हैं और चमड़े की वस्तुएं बनाने वाली 600 इकाइयां जूते, काठी, बेल्ट और पर्स बनाती हैं. इनमें से 60 फीसद से ज्यादा इकाइयां अपने उत्पाद अमेरिकी बाजार में बेचती हैं. इनमें दस लाख लोग काम करते हैं. उद्योग के अगुआ आगाह करते हैं कि करीब 2,00,000 नौकरियां पहले ही खतरे में हैं.

काउंसिल फॉर लेदर एक्सपोट्र्स के रीजनल चेयरमैन (सेंट्रल) असद के. इराकी कहते हैं कि सरकार के शुरुआती संकेतों से उन्हें कुछ भरोसा मिला मगर उद्योग में बड़े बदलावों की जरूरत है. इराकी यूपी लेदर इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के सेक्रेटरी भी हैं. वे कहते हैं, ''सरकार (नुक्सान का) 7-8 फीसद भी उठा लेती तो हम मैन्युफैक्चरर और 7-8 फीसद उठा सकते थे और बाकी का हिसाब-किताब हम खरीदारों से कर सकते थे. मगर इससे पहले कि हम ऐसा कर पाते, टैरिफ बढ़कर 50 फीसद हो गए और यह व्यावहारिक नहीं रह गया.’’

●प्रतिस्पर्धी: वियतनाम, बांग्लादेश, चीन और कंबोडिया. कई मैन्युफैक्चरर्स को अपना आधार बदलकर इन देशों में और खासकर वहां जहां ऊंचे टैरिफ नहीं लगाए गए हैं, ले जाने की जरूरत लग रही है. पर यह काफी समय लेने वाली प्रक्रिया है.

●वैकल्पिक बाजार: निर्यातक उत्पादों को यूरोप भेजने की कोशिश कर सकते हैं. भारत के 26 फीसद से ज्यादा चमड़ा निर्यात जर्मनी, ब्रिटेन और इटली जाता है. बंगाल के निर्यात में भी उनका हिस्सा अच्छा-खासा है—जर्मनी का 16.33 फीसद, ब्रिटेन का 11.5 फीसद और इटली का 9.5 फीसद.

मगर ये बाजार न तो अमेरिकी बाजार जितने बड़े पैमाने पर और न ही फैशन के लिहाज से माल खपा सकते हैं. लिहाजा, उम्मीदें वाशिंगटन में नीतिगत बदलाव पर टिकी हैं. काउंसिल फॉर लेदर एक्सपोर्ट्स के वाइस चेयरमैन रमेश कुमार जुनेजा कहते हैं, ''हमारे उत्पाद प्रीमियम क्वालिटी के हैं जो अन्य देशों में उपलब्ध नहीं. अमेरिकी आयातकों को हमारे पास ही आना पड़ेगा. उक्वमीद है, हमारी सरकारें उचित शर्तों पर बातचीत करेंगी.’’ ठ्ठ

दरअसल क्रीसेंट एक्सपोर्ट्स प्राइवेट लिमिटेड के मालिक मोहम्मद अजहर भारत के चमड़ा निर्यात संकट के ऐन बीचोबीच फंस गए हैं. उनका करीब 40 फीसद माल जहाजों पर लादकर अमेरिका भेजा जाता है, जिसका मतलब है कि 26 करोड़ रुपए के ऑर्डर उत्पादन के चरण में ही रुक गए हैं. उनका कहना है कि वैकल्पिक बाजारों की खोज करना व्यावहारिक विकल्प नहीं है. उनके शब्दों में, ''अमेरिका जितने बड़े पैमाने पर खरीद सकता है, दूसरे नहीं खरीद सकते. अमेरिकी फैशन हर जगह कारगर नहीं होते.’’

अजहर ने हमेशा की तरह समुद्र के रास्ते भेजने की बजाए हवाई मार्ग से ढुलाई पर 15 फीसद ज्यादा रकम खर्च की ताकि नए शुल्क लागू होने से पहले उनकी आखिरी खेप अमेरिका पहुंच जाए. उन्हें लगा कि जारा, गुच्ची और ह्यूगो सरीखे ब्रान्ड से अपने कारोबारी रिश्ते बचाए रखने के लिए यह अतिरिक्त ढुलाई भाड़ा वाजिब है.

क्रीसेंट एक्सपोर्ट्स में 1,500 लोग काम करते हैं. अगर गतिरोध बना रहा तो नौकरियों में कटौती करनी पड़ सकती है. एक मुमकिन हल यह है कि वियतनाम या श्रीलंका में कारखाना लगाएं, जहां से माल अमेरिका भेजा जा सके. पर अजहर मानते हैं कि ऐसा कदम रातोरात नहीं उठाया जा सकता. यही नहीं, ये देश मशीनीकरण पर ज्यादा भरोसा करते हैं और वहां ऐसे बेहद हुनरमंद कारीगर खोजने के लिए बहुत हाथ-पैर मारने पड़ते हैं जो भारत में आसानी से इस धंधे में आ जाते हैं.

ट्रंप टैरिफ के मारेः खाद्य और कृषि क्षेत्र

विजय सेतिया करनाल की अपनी राइस एक्सपोर्ट यूनिट में बेटे और कंपनी के निदेशक अंकित सेतिया के साथ

कड़वे विकल्पों की फसल

अनिलेश एस. महाजन

भारत के सबसे तेजी से बढ़ते बासमती निर्यातकों में एक महारानी राइस मिल्स के लिए अमेरिकी सपना अचानक बहुत ज्यादा महंगा हो गया है. मुख्यधारा की सुपरमार्केट शृंखलाओं में प्रवेश से पहले कंपनी ने न्यू जर्सी, कैलिफोर्निया और टेक्सास जैसे प्रवासी बहुल इलाकों में स्थानीय खुदरा स्टोरों में कड़ी मेहनत से अपनी जगह बनाई थी. मगर अब अमेरिकी बाजार में उसकी उपस्थिति पर खतरा मंडरा रहा है.

खरीदारों के रुख ने तात्कालिक झटके का असर थोड़ा घटाया है. निर्यातकों का दावा है कि खरीदारों ने 27 अगस्त को नए शुल्क लागू होने से पहले ही भारी मात्रा में स्टॉक कर लिया. मगर उसके बाद के दिनों में शिपमेंट में कमी आई है. महारानी के लाभ मार्जिन में अनुमानित तौर पर 8-10 फीसद की गिरावट आई है.

कंपनी के संयुक्त प्रबंध निदेशक विजय सेतिया कहते हैं, ''अमेरिकी बाजार में हमारी उपस्थिति रणनीतिक है. बात सिर्फ इतनी नहीं कि हमने कितनी मात्रा में बिक्री की, बल्कि यह महारानी को एक प्रीमियम वैश्विक ब्रान्ड के तौर पर स्थापित करने का हिस्सा है.’’

इस झटके से उबरने के लिए कंपनी पश्चिम एशिया पर दोगुना जोर दे रही है. मगर सेतिया मानते हैं कि यह बदलाव सहज नहीं होगा. वे कहते हैं, ''इन बाजारों में अमेरिका जैसी अच्छी कीमत हासिल करने में वर्षों लगेंगे.’’ 

ट्रंप टैरिफ के मारे खिलौने

सब्र की परीक्षा

सोनल खेत्रपाल

●असर: भारत ने वित्त वर्ष 2025 में अमेरिका को 7.9 करोड़ डॉलर (695 करोड़ रुपए) मूल्य के खिलौने निर्यात किए. यह भारत के वैश्विक खिलौना निर्यात का 47 फीसद है. इसलिए 50 फीसद टैरिफ ने इस निर्यात को अनिश्चितता में डाल दिया है. इससे इस उद्योग में लगे अनुमानित 30 लाख लोगों पर असर पड़ सकता है.

टॉय एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष अजय अग्रवाल कहते हैं कि कंपनियों के लिए व्यावसायिक योजनाएं बनाना मुश्किल हो जाएगा. वे बताते हैं, ''25 फीसद अतिरिक्त शुल्क (25 फीसद के अलावा) सभी संबंधित पक्षों में बांटा जाएगा—इनमें निर्माता भी शामिल हैं, जिनका मार्जिन कम हो जाएगा, अमेरिकी उपभोक्ताओं को ज्यादा भुगतान करना होगा और संभवत: कुछ सरकारी सब्सिडी भी होगी.’’ इस साल के ज्यादातर ऑर्डर, जो अमूमन क्रिसमस और नए साल के दौरान सबसे ज्यादा होते हैं, भेजे जा चुके हैं. अग्रवाल कहते हैं कि पिछले दो महीने से मांग आनी बंद हो गई है, इसलिए सितंबर के बाद नए ऑर्डरों पर असर पड़ेगा. 

●प्रतिस्पर्धी: ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव के संस्थापक अजय श्रीवास्तव कहते हैं, ''अमेरिका को भारत से जाने वाले खिलौनों की संक्चया में गिरावट की पूर्ति चीनी खिलौनों से हो जाएगी. 80 फीसद हिस्सेदारी के साथ चीन का वैश्विक खिलौना व्यापार पर दबदबा है—इसकी मुख्य वजह साधारण बिल्डिंग ब्लॉक्स और गुड़ियों से लेकर जटिल और आधुनिक शैक्षिक खिलौनों तक सब कुछ बनाने की उसकी क्षमता है.’’ वे कहते हैं, ''भारत का खिलौना क्षेत्र अभी शैशव अवस्था में है और नवाचार सीमित है. भारत में सॉफ्ट टॉयज, लकड़ी के खिलौने और शैक्षिक पहेलियों जैसे कम कीमत वाले खिलौनों पर जोर है, उसमें डिजाइन-आधारित खिलौने गायब हैं.’’

●वैकल्पिक बाजार: अग्रवाल कहते हैं कि अमेरिका से व्यापार एकदम खत्म नहीं होगा और भारतीय खिलौना निर्यात का 20-30 फीसद हिस्सा इसमें रहेगा. खिलौना निर्माता ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, पश्चिम एशिया, रूस और इंडोनेशिया जैसे देशों में मौके तलाशेंगे. इन बाजारों का भारतीय कंपनियों ने अभी तक दोहन नहीं किया है.

दरअसल, शैक्षिक खिलौने और गेक्वस कंपनी स्किलमैटिन्न्स के संस्थापक और सीईओ ध्वनिल सेठ कहते हैं, ''भारतीय खिलौने अब अमेरिकी खरीदारों के लिए प्रतिस्पर्धी नहीं रहेंगे. मगर हम उम्मीद कर रहे हैं कि यह महज कुछ ही समय की बात है.’’ फर्म की लगभग 50 फीसद कमाई अमेरिका से होती है. इसलिए वह उसके उन 30 देशों में शीर्ष बाजार है जहां फर्म की मौजूदगी है.

टैरिफ मैन्युफैक्चरिंग लागत पर लगते हैं, जिससे अमेरिकी खरीदारों की लागत भी बढ़ जाएगी. सेठ बताते हैं, ''मौजूदा संबंधों को बनाए रखने के लिए हमें भी उस लागत का कुछ हिस्सा उठाना होगा.’’ वे कहते हैं कि स्किलमैटिक्स अनूठे उत्पाद बनाती है, सो सामान्य खिलौना निर्माताओं की तुलना में उनके पास बेहतर मार्जिन है. वे कहते हैं कि स्किलमैटिक्स की कमाई पर असर पडऩे की उम्मीद नहीं है. उसका मार्जिन कम हो सकता है. 

ट्रंप टैरिफ के मारेः हैंडीक्राफ्ट और फर्नीचर
 

लड़खड़ाते पैरों के सहारे

रोहित परिहार

●असर: इंडिया ब्रांड इ‌क्विटी फाउंडेशन के मुताबिक, देश में 744 हैंडीक्राफ्ट क्लस्टर हैं और इनमें सीधे तौर पर 2.12 लाख कारीगर काम करते हैं. ये 35,000 तरह के प्रोडक्ट बनाते हैं. सिर्फ एक्सपोर्ट की ही वैल्यू वित्त वर्ष 25 में 3.48 अरब डॉलर (30,624 करोड़ रुपए) रही. पिछले वित्तीय वर्ष में इसका 41 फीसद एक्सपोर्ट—सबसे बड़ा हिस्सा—अमेरिका गया, जिसकी वैल्यू 1.72 अरब डॉलर (15,160 करोड़ रुपए) थी.

सिर्फ राजस्थान से ही हैंडीक्रॉफ्ट एक्सपोर्ट 1.2 अरब डॉलर (10,578 करोड़ रुपए) का है, जिसमें 60 फीसद यानी 6,346 करोड़ रुपए का माल अमेरिका जाता है. इस कारोबार से राजस्थान में सीधे और परोक्ष तौर पर 1.5 लाख लोग जुड़े हुए हैं. कुल फर्नीचर एक्सपोर्ट का वित्त वर्ष 25 में का तकरीबन आधा—53.2 करोड़ डॉलर (4,689 करोड़ रुपए)—भी अमेरिका गया.

●प्रतिस्पर्धी: फर्नीचर एक्सपोर्ट में वॉल्यूम के लिहाज से भारत से ऊपर चीन और वियतनाम हैं. चीन सबसे बड़ा निर्यातक है क्योंकि वहां मेगा फैक्ट्रियां हैं, मजदूरी सस्ती है और प्रोडक्ट की बहुत बड़ी रेंज है. वियतनाम में भी मजदूरी सस्ती है और वहां से जाने वाली लकड़ी का फायदा यह है कि वह अक्सर इको-फ्रेंड्ली होती है.

वैकल्पिक बाजार: अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा फर्नीचर आयातक है लेकिन भारत खुद दुनिया का चौथा सबसे बड़ा फर्नीचर उपभोक्ता है. ऐसे में मैन्युफैक्चरर्स अब उम्मीद कर रहे हैं कि वे घरेलू मार्केट में पकड़ मजबूत करें और अपने प्रोडक्ट को 'एक्सपोर्ट क्वलिटी’ के नाम पर बेचें.

पिछले 25 साल से अमेरिका के फर्नीचर मार्केट को सप्लाइ करने वाले नीरज सेठिया मानते हैं कि वे अमेरिका पर बहुत ज्यादा निर्भर हो गए थे. उनकी कैबिनेट और टेबल की सप्लाइ के कॉन्ट्रैक्ट कम से कम तीन साल और कभी-कभी 16 साल तक चलते थे. यानी मजबूत साझेदारी थी. लेकिन ट्रंप टैरिफ से उनका माल उस मार्केट में महंगा और गैर-प्रतिस्पर्धी हो जाएगा. सेठिया कहते हैं, ''हमने घरेलू बाजार को नजरअंदाज किया. सिर्फ मुझे नहीं, ऐसे कई और एक्सपोर्टर हैं जिन्हें अब जल्दी से जल्दी रुख बदलना होगा.’’ 
उनके मुताबिक, सिर्फ निर्यातक ही नहीं, बल्कि कस्टमर भी मुश्किल में होंगे क्योंकि भारत जो लकड़ी देता है—अकासिया और आम के पेड़ की—वह दूसरे देशों में आसानी से नहीं मिलती. पिछले तीन महीनों में उन्होंने और बाकी निर्यातकों ने पुराना स्टॉक क्लियर कर लिया है लेकिन अनिश्चित माहौल से कोई नया ऑर्डर नहीं मिला. जल्द ही उन्हें स्टाफ का 20-30 फीसद कम करना पड़ सकता है.
यूरोप में उन्होंने थोड़ी कोशिश की लेकिन डिमांड और उसके लिए लगने वाली मेहनत की जरूरत ने उन्हें हताश कर दिया. अब उनके पास यही चारा है कि बी2बी मॉडल से हटकर बिजनेस-टू-कंज्यूमर मॉडल की तरफ बढ़ें. 

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