
कानपुर की फुटवियर कंपनी एकेआइ इंडिया लिमिटेड के सीईओ 58 वर्षीय असद के. इराकी के उस कारोबार को डोनाल्ड ट्रंप की सनक ने उलट दिया है जिसे खड़ा करने में उन्होंने तीन दशक लगाए. कानपुर की भीड़-भाड़ वाली गलियों से निकलकर उन्होंने एकेआइ को सूचीबद्ध कंपनी तक पहुंचा दिया, जिसका पंजीकृत कार्यालय जाजमऊ में है और उन्नाव के अकरमपुर में एक टैनरी और फुटवियर निर्माण इकाई है.
इनमें कुल 300 लोग काम करते हैं. कंपनी देश में मेपलवुड और ब्रिटेन में ट्रेसबन ब्रांड के तहत जूते-चप्पल और चमड़े के सामान बेचती है. वह पुराने ब्रिटिश ब्रांड सोलोवेयर जैसे यूरोपीय लेबल के लिए भी उत्पादन करती है. वित्त वर्ष 24 में एकेआइ कारोबार 75 करोड़ रुपए का था. उसके कुल निर्यात का 10 प्रतिशत अमेरिका जाता था.
वित्त वर्ष 25 में इराकी के पास अमेरिकी बाजार के लिए लगभग 7.5 करोड़ रुपए की खेप भेजने को तैयारी थी. लेकिन अमेरिकी खरीदारों के करार से पीछे हटने के कारण तैयार माल बिना डिलीवरी पड़ा है. उसे खरीदारों का इंतजार है. नए ऑर्डर न मिलने से इराकी को इस साल कारोबार में 20 फीसद की गिरावट का अंदेशा है.
इराकी जैसे हजारों भारतीय निर्यातक सबसे बुरे हालात झेलने की तैयारी कर रहे हैं जिनके अमेरिका में ऊंचे कारोबारी दांव लगे हुए हैं. रूसी तेल की निरंतर खरीद के दंड स्वरूप अमेरिकी प्रशासन ने भारतीय वस्तुओं पर 25 फीसद का जो अतिरिक्त सेस लगाया था, वह 27 अगस्त से लागू हो गया है. यह उस 25 फीसद रेसिप्रोकल या कि बराबरी के शुल्क के अलावा है जो 20 दिन पहले लागू हुए थे और जिन्हें ट्रंप ने भारत के पक्ष में 41.2 अरब डॉलर (3.6 लाख करोड़ रुपए) के व्यापार फायदे को बराबर करने की कोशिशों के तहत लगाया था.
ये आंकड़े जेनेवा में मुख्यालय वाले इंटरनेशनल ट्रेड सेंटर की गणना में कुछ ज्यादा यानी 2024 में 49.5 अरब डॉलर (4.3 लाख करोड़ रुपए) हैं (देखें, वैश्विक तुलना). अपने वाणिज्य मंत्रालय के मुताबिक, वित्त वर्ष 25 में भारत से अमेरिका को निर्यात 86.5 अरब डॉलर (7.6 लाख करोड़ रुपए) था जबकि भारत ने 45.3 अरब डॉलर (करीब 4 लाख करोड़ रुपए) का सामान आयात किया. कुल 50 फीसद शुल्कों के साथ भारत अब ब्राजील के साथ सबसे ज्यादा टैरिफ वाले ब्रैकेट में है.
इसके विपरीत चीन, जो रूसी तेल का सबसे बड़ा खरीदार है, पर महज 30 फीसद शुल्क है. इंडोनेशिया, थाइलैंड और मलेशिया जैसे प्रमुख निर्यात प्रतिद्वंद्वियों पर सिर्फ 19 फीसद टैरिफ लगाया गया है, जबकि बांग्लादेश और वियतनाम पर 20 फीसद टैरिफ है. इससे उन्हें अमेरिकी बाजार में जाने वाले भारतीय सामान की तुलना में 30 फीसद का लाभ शुरुआत में ही मिल रहा है.

यहां तक कि जापान और यूरोपीय संघ पर भी मात्र 15 फीसद टैरिफ लगाए गए हैं, जो दोनों अमेरिका के घनिष्ठ सहयोगी हैं. नतीजा: रातोरात भारतीय उत्पाद लगभग हर दूसरे प्रमुख कारोबारी देश के उत्पादों की तुलना में काफी महंगे हो गए हैं. इससे भारतीय कारोबारी जगत में भूचाल आ गया है, कपड़ों से लेकर इंजीनियरिंग सामान, ऑटो कंपोनेंट से लेकर रत्न और आभूषण तक हजारों कंपनियों की कमाई का भारी नुन्न्सान, बड़े पैमाने पर छंटनी, या कारोबार बंद होने का खतरा मंडरा रहा है.
भारतीय निर्यात संगठनों के महासंघ (एफआइईओ) का अनुमान है कि ट्रंप के टैरिफ का असर 47.5 अरब डॉलर (4.2 लाख करोड़ रुपए) के भारी-भरकम स्तर तक पहुंच जाएगा, जिससे अमेरिका में भारत के 55 फीसद निर्यात को झटका लगेगा. नई दिल्ली के थिंक टैंक ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव (जीटीआरआइ) का अनुमान है कि यह नुक्सान 66 फीसद या 5 लाख करोड़ रु. से ज्यादा होगा. कई एजेंसियों के मुताबिक, वित्त वर्ष 26 में भारत की जीडीपी वृद्धि दर 0.5 फीसद से 1 फीसद तक गिर सकती है.
सबसे बेरहम मार
यह दर्द सभी क्षेत्रों में पसरा नजर आता है. भारतीय रत्न और आभूषण निर्यातकों के लिए अमेरिका सबसे बड़ा बाजार है, जिसका सालाना 10 अरब डॉलर (88,000 करोड़ रुपए) का निर्यात अमेरिका जाता है. अब वे तुर्किए (जिस पर मात्र 15 प्रतिशत अमेरिकी टैरिफ है), वियतनाम और थाइलैंड जैसे प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले पिछड़ गए हैं. निर्यातक पहले से ही कर्मचारियों की छंटनी करने लगे हैं, हालांकि उन्हें विशेष आर्थिक क्षेत्रों (एसईजेड) में निर्मित माल को घरेलू बाजार में बेचने के लिए सरकारी मंजूरी का इंतजार है.
रत्न और आभूषण निर्यात संवर्धन परिषद (जीजेईपीसी) के अध्यक्ष किरीट भंसाली कहते हैं, ''अमेरिकी बाजार पर बहुत ज्यादा निर्भरता है क्योंकि मुंबई के एसईईपीजेड एसईजेड से 85 फीसद निर्यात वहीं जाता है. इस सेज से 50,000 नौकरियां मिली हुई हैं.’’ उनका कहना है, ''टैरिफ वृद्धि से पूरा उद्योग ठप हो सकता है जिससे हर हिस्से—छोटे कारीगरों से लेकर बड़े निर्माताओं तक पर भारी दबाव पड़ेगा.’’ सूरत, नवसारी, भावनगर, जूनागढ़, अमरेली, पालनपुर, विसनगर, बोटाद और जसदण तक फैले गुजरात के 'हीरा क्षेत्र’ में लगभग 8,00,000 हीरा कटाई और तराशगर काम करते हैं. अब वे अपने प्राथमिक निर्यात बाजार के हाथ से चले जाने की आशंका से भयभीत हैं.
इंजीनियरिंग सामान भी इसकी आंच महसूस कर रहे हैं. अमेरिका को 20 अरब डॉलर (1.8 लाख करोड़ रुपए) का उनका निर्यात संकट में है क्योंकि उन पर पहले से ही क्षेत्र-विशिष्ट शुल्क—कुछ इस्पात उत्पादों पर 50 फीसद और ऑटोमोटिव पुर्जों पर 25 फीसद—लगा है और अब हाल ही 50 फीसद व्यापक शुल्क और थोप दिए गए हैं. करीब 15 लाख लोगों को रोजगार देने वाले इस उद्योग को अमेरिका से मिलने वाली निर्यात कमाई में आधी गिरावट का सामना करना पड़ सकता है.
दूसरे मुश्किल क्षेत्र
कपड़ा क्षेत्र भी अपने को तार-तार महसूस कर रहा है. भारतीय कपड़ा और परिधान निर्यात का 30 फीसद अमेरिका को जाता है, जिससे 10.8 अरब डॉलर (95,040 करोड़ रुपए) की कमाई हासिल होती है. इसमें 44,000 करोड़ रुपए तिरुपुर के हिस्से के हैं जिसे भारत की निटवियर राजधानी भी कहा जाता है और जो अपने उत्पादन का 40 फीसद अमेरिका को निर्यात करती है और लगभग 10 लाख लोगों को रोजगार देती है.
इनरवियर कंपनी राक्रट गारमेंट्स के संस्थापक और अध्यक्ष आर.के. शिव सुब्रह्मण्यम की बेबसी इस क्षेत्र की बुरी हालत का सबसे सटीक उदाहरण है. सुब्रह्मण्यम की कंपनी को 50 फीसद कारोबार अमेरिका से मिलता है. उनका कहना है कि टैरिफ में बदलाव नहीं हुआ तो उन्हें 25 फीसद कारोबार गंवाना पड़ेगा. वे कहते हैं, ''हम महीने में पांच लाख पीस निकालते हैं. इस महीने शिपमेंट के लिए तैयार माल पर ग्राहक पहले से ही 16 फीसद तक की छूट मांग रहे हैं जो हमारे लिए मुश्किल है क्योंकि परिधान एक अंक में माॢजन वाला कारोबार है. लेकिन हमारे पास कोई विकल्प नहीं है.
हकीकत तो यह है कि खरीदार अगले महीने के लिए नए ऑर्डर देने को भी तैयार नहीं हैं क्योंकि वे शेष 34 फीसद टैरिफ का बोझ नहीं उठा सकते.’’ यह उन 400 कर्मचारियों के लिए अच्छी खबर नहीं है जो उनके दो कारखानों में काम करते हैं. ऑर्डर मिलना फिर से शुरू नहीं हुए तो वे बेकाम हो जाएंगे. हालांकि सुब्रह्मण्यम कोई फैसला लेने से पहले दीवाली तक इंतजार करेंगे. कंपनी ने बुनियादी ढांचे में भी भारी निवेश किया था और नए ऑर्डरों के लिए कच्चा माल खरीदा था. सुब्रह्मण्यम कहते हैं, ''निर्यातकों के सभी निवेश उधार पर होते हैं और जल्द ही हल नहीं निकला तो हमारा वित्तीय चक्र ध्वस्त हो जाएगा.’’
दूसरे क्षेत्र भी लड़खड़ा रहे हैं. समुद्री खाद्य क्षेत्र में मुक्चय रूप से आंध्र प्रदेश और केरल की झींगा शामिल है और यह क्षेत्र 60 फीसद टैरिफ से जूझ रहा है जिसमें 10 फीसद का मौजूदा ऐंटी-डंपिंग सेस भी शामिल है. इससे अमेरिका को 2.8 अरब डॉलर (24,640 करोड़ रुपए) मूल्य के समुद्री खाद्य निर्यात पर भारी असर पड़ेगा जबकि इसके व्यापक प्रभाव से कोई 2.8 करोड़ लोगों की जीविका मुश्किल में पड़ जाएगी. चमड़ा उद्योग का भी कुछ ऐसा ही हाल है जिसने वित्त वर्ष 25 में अमेरिका को 1.2 अरब डॉलर (10,560 करोड़ रुपए) मूल्य का माल निर्यात किया, जो कुल भारतीय चमड़ा निर्यात का 21.7 फीसद है.

दर्द की दवा
अप्रैल में 25 फीसद के टैरिफ के ट्रंप के ऐलान से भारतीय व्यवसायों को इस बात की आशंका हो गई थी. पर जिससे उनकी आंखें फटी रह गईं, वह था जुलाई में घोषित 25 फीसद अतिरिक्त दंडात्मक शुल्क. वर्षों की कड़ी मेहनत से बनाए गए मौजूदा ग्राहकों के साथ संबंध खत्म होना बहुत कष्टकारक है तो नए बाजार में जगह बनाना भी उतना ही तकलीफदेह है क्योंकि कोई देश पहले से ही उस बाजार में जमा होता है. रूस और कई अफ्रीकी देशों में मांग बढ़ रही है. भारत ने पहले इन विकल्पों पर विचार नहीं किया था. लेकिन अब अमेरिकी बाजार में हुए नुक्सान की भरपाई के लिए उन पर गौर कर रहा है.
इस बीच, इंजीनियरिंग एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल (ईईपीसी) के अध्यक्ष पंकज चड्ढा कहते हैं, बाजार में खुद को प्रतिस्पर्धी बनाए रखने के केवल दो ही तरीके हैं—कीमतों में कटौती या ग्राहकों को भुगतान के लिए ज्यादा समय. इनमें किसी भी विकल्प के लिए उद्योग को सरकार की मदद की जरूरत होगी. निर्यातक कम ब्याज पर कर्ज के लिए ब्याज सहायता योजना के विस्तार और मुश्किल बाजारों में एमएसएमई की मदद के लिए निर्यात संवर्धन मिशन तथा बाजार पहुंच पहल निधि भी शुरू करने की मांग कर रहे हैं.
फोर्ब्स मार्शल के सह-अध्यक्ष नौशाद फोर्ब्स इस संकट से निबटने के लिए लघु, मध्यम और दीर्घकालिक पहल की वकालत करते हैं, ''फौरन यह जरूरी है कि ग्राहक बरकरार रखने के लिए परिधान और आभूषण कंपनियों को शीघ्र मदद की जाए. मध्यम अवधि के तहत सभी भारतीय कंपनियों को अमेरिका से इतर दूसरे बाजारों की विविधता के लिए प्रोत्साहित किया जाए और दूसरे देशों के साथ मुन्न्त व्यापार समझौतों के रूप में नीतिगत समर्थन दिया जाए.’’ उनका मानना है कि लंबी अवधि में भारत को इस मौके को ऐसे सुधारों (भूमि, श्रम, नियम-कायदों में छूट) को लागू करने में इस्तेमाल करना चाहिए जो हमारे ''आर्थिक राष्ट्रीय हित में हों—बिना किसी राजनैतिक फायदे के.’’
केंद्र सरकार इस काम में जुटी है और प्रमुख पक्षों से बात कर रही है जिनमें कपड़ा, इंजीनियरिंग और एमएसएमई जैसे सबसे ज्यादा प्रभावित क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाली एसोसिएशनों के प्रमुख पदाधिकारी शामिल हैं. पिछले महीने एफआइईओ ने एक बयान में कहा था कि केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने निर्यातकों को ''व्यापक समर्थन’’ का आश्वासन दिया है. उन्होंने उनसे आजीविका की रक्षा करने का आग्रह किया.
इस बीच केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने 3 सितंबर को कहा कि हो सकता है कि भू-राजनैतिक मुद्दों के कारण अमेरिका के साथ व्यापार वार्ता नेपथ्य में चली गई हो लेकिन उन्हें उक्वमीद है कि चीजें जल्द ही फिर से शुरू हो जाएंगी. उन्होंने कहा, ''मुझे उम्मीद है कि चीजें फिर पटरी पर आ जाएंगी और हमारे दोनों नेताओं की चर्चा के अनुरूप हम बसंत या नवंबर तक द्विपक्षीय व्यापार समझौता कर लेंगे.’’ हालांकि, निर्यातकों को यह भी बताया गया है कि उन्हें ''दीर्घकालिक लाभ के लिए अल्पकालिक दर्द’’ सहना होगा. इससे वे बहुत कम आश्वस्त हुए हैं क्योंकि वे चाहते हैं कि सरकार व्यापक राहत योजना शुरू करे.
अर्थशास्त्री अजित रानाडे की सलाह है कि देखो और इंतजार करो. भारत के पास ऊंचे शुल्कों का जवाब देने की वैसी ताकत नहीं है जैसी दुर्लभ खनिजों के कारण चीन के पास है. इसलिए उसे यह देखना चाहिए कि ट्रंप के व्यापार शुल्क अमेरिकी वस्तुओं की कीमतों पर कैसे असर डालते हैं. वे कहते हैं, ''अंतत: आयातक या आयात कंपनियां ऊंचे शुल्कों का भुगतान करेंगी और आखिर में वे बोझ अमेरिकी उपभोक्ताओं पर ही डालेंगी. कई अध्ययन बता रहे हैं कि भले भारतीय निर्यातकों को नुन्न्सान हो, लेकिन उच्च शुल्कों और लागत का 80 फीसद बोझ आखिरकार अमेरिकी उपभोक्ताओं को ही उठाना पड़ेगा.’’
इस बीच, भारत को घरेलू प्रतिस्पर्धा बढ़ाने और अपने बाजार को व्यापक बनाने की जरूरत है. इसके साथ-साथ उसे कृषि और उद्योग दोनों में उत्पादकता भी बढ़ानी होगी. रानाडे कहते हैं, ''हमें अपनी घरेलू क्षमता बढ़ानी चाहिए. हमें अंतरराष्ट्रीय भू-राजनीति में रणनीतिक धैर्य का तरीका अपनाना चाहिए और रणनीतिक स्वायत्तता विकसित करनी चाहिए—पूरी तरह किसी एक खेमे में शामिल नहीं हो जाना चाहिए.’’ दूसरे शब्दों में, भारत को अपने हितों का ध्यान रखना चाहिए और साझा हितों वाले विभिन्न गठबंधनों में भागीदार बनना चाहिए.
मदद सबसे कमजोर की
सरकार को सबसे नाजुक श्रेणियों, खासकर कुटीर, लघु और मझोले उद्यमों (एमएसएमई) पर ध्यान देना चाहिए. अकेले इंजीनियरिंग क्षेत्र में लगभग 6,300 एमएसएमई हैं जिनमें से लगभग 5,000 का अमेरिकी बाजार में 20 फीसद का कारोबार है. फेडरेशन ऑफ इंडियन माइक्रो, स्मॉल ऐंड मीडियम एंटरप्राइजेज (फिस्मे) के महासचिव अनिल भारद्वाज के अनुसार, अमेरिका में भारत और उसके कारोबारी प्रतिद्वंद्वियों की कीमतों में अंतर 25-30 फीसद है तो ब्याज सहायता जैसी योजना से काम नहीं चलेगा. ऐसी कंपनियों को आसियान समूह, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, यूरोपीय संघ, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे नए बाजारों में पहुंच के लिए मदद की जरूरत होगी.
यूरोपीय संघ और ब्रिटेन जैसे बाजारों में निर्यातकों की एक समस्या गुणवत्ता मानकों से जुड़ी गैर-टैरिफ बाधाओं की है. भारद्वाज कहते हैं, ''दो पहलुओं से हम उन मानकों को पूरा करने में असमर्थ रहते हैं—मानकों के अनुसार गुणवत्तापूर्ण वस्तुओं का उत्पादन करने की तकनीक का अभाव या उन देशों में स्वीकार्य लैबोरेटरी जांचों के जरिए इसे साबित करने के साधन. भारत में ऐसी प्रयोगशालाएं स्थापित करने के लिए सरकारी समर्थन की आवश्यकता है.’’
कई भारतीय निर्यातकों के लिए अमेरिका ऐसा देश था जहां उम्मीदें और सपने पूरे होते थे, एक उच्च-मूल्य वाला, निश्चित-सा हमेशा बना रहने वाला बाजार. वह निश्चितता अब गायब हो गई है. ट्रंप के टैरिफ ने जो बिजली गिराई है, उसमें कुछ नष्ट हो सकते हैं तो कुछ बच सकते हैं. खुद ट्रंप के भी विचार बदल सकते हैं. लेकिन सबक हमेशा रहेंगे. एक ही घोड़े पर सारे दांव मत लगाइए. आफत आने का इंतजार न करें, अभी से उसके लिए तैयारी करें. आत्मनिर्भरता बढ़ाएं, उत्पादकता और दक्षता में सुधार करें और नए बाजारों की तलाश करें.
भारतीय निर्यात संगठनों के महासंघ (एफआइईओ) का अनुमान है कि ट्रंप के टैरिफ का असर 47.5 अरब डॉलर (4.2 लाख करोड़ रुपए) के भारी-भरकम स्तर तक पहुंच जाएगा. इससे अमेरिका को होने वाले भारत से निर्यात पर 55 फीसद तक झटका लग सकता है.
फिलहाल विशेषज्ञों को बाजार में खुद को प्रतिस्पर्धी बनाए रखने के लिए दो ही तरीके दिखाई देते हैं: कीमतों में कटौती या ग्राहकों को भुगतान के लिए ज्यादा समय की पेशकश. दोनों ही में सरकार की मदद की दरकार होगी.
मध्यम अवधि के तहत सभी भारतीय कंपनियों को अमेरिका से इतर दूसरे बाजारों में संभावनाएं तलाशनी चाहिए और सरकार को दूसरे देशों के साथ मुन्न्त व्यापार समझौतों के रूप में उन्हें नीतिगत समर्थन देना चाहिए. तभी इस मौके का कोई ठोस विकल्प तैयार हो सकेगा.