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अमेरिकी टैरिफ से किन सेक्टरों में छंटनी का डर, भारतीय उद्यमियों पर कितना असर पड़ेगा?

व्यापार की बाधाओं ने अमेरिका में भारतीय इंजीनियरिंग सामानों की पहुंच रोकी, जिससे अब निर्यातकों को नए बाजार खोजने होंगे

​टैरिफ से प्रभावित फरीदाबाद के परिधान निर्यातक टोनी उप्पल ​
​टैरिफ से प्रभावित फरीदाबाद के परिधान निर्यातक टोनी उप्पल ​
अपडेटेड 9 अक्टूबर , 2025

● असर: जब मनोज और पंकज चड्ढा ने अनुमान लगाया कि उनकी कंपनी को 44 करोड़ रुपए का झटका लगने वाला है तो यह स्पष्ट था कि यह मुसीबत सिर्फ उन्हीं पर नहीं टूटी है. अमेरिका को भारत का इंजीनियरिंग निर्यात 20 अरब डॉलर (1.8 लाख करोड़ रुपए) का है जबकि इस क्षेत्र का कुल निर्यात 118 अरब डॉलर (10.4 लाख करोड़ रुपए) है. ट्रंप के टैरिफ की सबसे ज्यादा मार इसी क्षेत्र पर पड़ी है.

इसमें से 5 अरब डॉलर (44,000 करोड़ रुपए) मूल्य का निर्यात पहले से ही स्टील और एल्यूमीनियम पर 50 फीसद टैरिफ लगाने के कारण इसकी जद में है. यह शुल्क इस साल की शुरुआत में सभी कारोबारी देशों पर लगाया गया था. शेष निर्यात में से 12.5 अरब डॉलर (1.1 लाख करोड़ रुपए) मूल्य के सामान पर अब 50 फीसद टैरिफ लगेंगे. ऑटो और ऑटो कलपुर्जों का 2.5 अरब डॉलर (22,000 करोड़ रुपए) का निर्यात है जिस पर मार्च की घोषणा के तहत श्रेणी के आधार पर 50 या 25 फीसद टैरिफ लगेगा.

पंकज चड्ढा, जो इंजीनियरिंग निर्यात संवर्धन परिषद (ईईपीसी) के भी अध्यक्ष हैं, कहते हैं, ''अनुमान है कि अमेरिका को इस क्षेत्र के निर्यात में 50 फीसद की गिरावट आएगी. अगले 12 महीनों में 50 फीसद टैरिफ से इस क्षेत्र को 6 अरब डॉलर (52,888 करोड़ रुपए) का झटका लगेगा. नौकरियों का जाना तय लग रहा है.’’

निर्यातकों को इसका खटका था. अगस्त तक इस क्षेत्र से अमेरिका को निर्यात में तेजी देखी गई क्योंकि निर्यातकों ने टैरिफ बढ़ने की आशंका में अपनी खेप पहले ही भेज दीं. हालांकि, अक्तूबर-मार्च की अवधि में निर्यात में गिरावट की संभावना रहेगी. ईईपीसी के लगभग 9,000 सदस्य हैं जिनमें से 70 फीसद सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्यम (एमएसएमई) हैं. इनमें से लगभग 5,000 कंपनियों का अमेरिकी बाजार में 20 फीसद से अधिक का कारोबार है. 

●प्रतिस्पर्धी: भारतीय निर्यातकों को वियतनाम (20 फीसद जवाबी शुल्क), इंडोनेशिया, मलेशिया और थाइलैंड (सभी 19 फीसद) और दक्षिण कोरिया और जापान (दोनों 15 फीसद) जैसे प्रतिस्पर्धियों के हाथों अपना कारोबार गंवाने का जोखिम है. एक और प्रमुख प्रतिद्वंद्वी यूरोपीय संघ के 15 सदस्यों देशों पर 15 फीसद शुल्क है. कार्बन स्टील के क्षेत्र में तुर्की, चीन, वियतनाम और मेक्सिको भी कड़ी प्रतिस्पर्धा की चुनौती देते हैं.

●वैकल्पिक बाजार: दक्षिण अमेरिका—मेक्सिको, पेरू, चिली और कोलंबिया—भारतीय इंजीनियरिंग सामान निर्यात के प्रमुख लक्ष्य के रूप में उभर रहा है. वहां अच्छी-खासी मांग है और बढ़ रही है. यह मांग खनन, बुनियादी ढांचे और उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे क्षेत्रों से आ रही है. रूस पहले से ही एक बड़ा बाजार बना हुआ है, हालांकि भू-राजनीतिक जोखिमों के कारण उसमें अनिश्चितता है. थोड़ा और नजदीक आएं तो पश्चिम एशिया और उत्तर अफ्रीका (डब्लूएएनए) कहीं ज्यादा संभावनाओं वाला इलाका है. दिसंबर 2024 तक भारत से इंजीनियरिंग सामानों का इस क्षेत्र को निर्यात 20 फीसदी तक पहले ही पहुंच चुका था.

ट्रंप टैरिफ के मारेः स्टील इंडस्ट्रीज

मुंबई से करीब 70 किमी दूर स्थित औद्योगिक कस्बे खोपोली के 10 एकड़ में फैले एक प्लांट में निर्यात  के निमित्त सरियों की कतारें यहां से वहां तक फैली हैं. पर अब उन्हें शायद ही कोई मंगाए. लघु और मझोले इंजीनियरिंग क्षेत्र की सबसे बड़ी निर्यातक चड्ढ़ा बंधुओं की ज्योति स्टील इंडस्ट्रीज समेत कई उपक्रम ट्रंप टैरिफ के चलते कराह रहे हैं.

1973 में स्थापित ज्योति स्टील कई ग्रेड के कार्बन मिश्रित धातु के सरिए और स्टेनलेस स्टील बनाती है. पिछले एक दशक में इसने अमेरिका में अपनी पहुंच एक करोड़ डॉलर (88 करोड़ रु.) तक बना ली. वहां वह राउंड बार, एंगल बार और फ्लैट बार का निर्यात करती है. अब वह निर्यात घटकर 50 लाख डॉलर (44 करोड़ रु.) पर आ सकता है. को-पार्टनर पंकज चड्ढा कहते हैं, ''अमेरिका में पुरानी मीट्रिक प्रणाली चलन में है. जिन डाई और टूल्स का हम अपने संयंत्र में प्रयोग करते हैं, वे सब उसी हिसाब से बने हैं. उन्हें रातोरात नहीं बदला जा सकता.’’

पंकज कहते हैं कि नए बाजार ढूंढना आसान नहीं है. भारतीय कंपनियों को पैर जमाने के लिए कीमत और गुणवत्ता दोनों मोर्चे पर प्रतिस्पर्धा करनी होगी. कइयों को विस्तार रोकना पड़ सकता है. वे नए बाजारों में पहुंच गए तो रीस्किल कर कर्मचारियों को बनाए रख सकते हैं वरना उन्हें अपने कुछ ठेका कर्मचारियों को हटाना पड़ सकता है.

ट्रंप टैरिफ के मारेः टेक्सटाइल

सोनल खेत्रपाल

● असर: श्रम बहुल भारत के परिधान उद्योग के ट्रंप टैरिफ से सबसे ज्यादा हलकान होने का अंदेशा है. अमेरिका भारतीय वस्त्रों का सबसे बड़ा बाजार है और देश के कुल कपड़ा और परिधान निर्यात का लगभग 30 फीसद हिस्सा वहां जाता है, जिसका मूल्य 10.8 अरब डॉलर (95,040 करोड़ रुपए) है. रेडीमेड परिधान और होम टेक्सटाइल का हिस्सा क्रम से 45.7 और 36 फीसद है और इन दोनों का निर्यात बास्केट में दबदबा है.  लेकिन टैरिफ अनिश्चितताओं के कारण इस पर काले बादल मंडरा रहे हैं, अप्रैल के बाद से नए ऑर्डर लगभग सूख गए हैं.

भारतीय वस्त्र उद्योग परिसंघ (सीआइटीआइ) की महासचिव चंद्रिमा चटर्जी कहती हैं, ''अमेरिका को हमारे प्रमुख निर्यात में परिधान, बेडशीट और टेरी टॉवल जैसे मूल्यवर्धित उत्पाद शामिल हैं. इसका असर सिर्फ निर्माताओं पर ही नहीं बल्कि पूरी अपस्ट्रीम वैल्यू चेन (मूल्यवर्धन करने वालों) पर पड़ेगा.’’ इसका असर दोनों ओर पड़ सकता है. भारत अपनी जरूरत का 64 फीसद कपास अमेरिका से आयात करता है, जो चटर्जी के शब्दों में ''पूरक व्यापार रिश्तों’’ का आईना है. हालांकि हितधारक इसके नतीजों का आकलन करने में जुटे हैं, लेकिन एक बात साफ है कि इस साझेदारी के धागे में खिंचाव आ गया है और कोई नहीं जानता कि यह कितना खिंच सकता है.  

● प्रतिस्पर्धी: पचास फीसद की टैरिफ वृद्धि ने चीन, बांग्लादेश, वियतनाम, तुर्की और यहां तक कि पाकिस्तान और कंबोडिया जैसे प्रतिस्पर्धियों की तुलना में भारत को 30 फीसद के नुक्सान में धकेल दिया है. लिहाजा, अमेरिकी खरीदार कम टैरिफ वाले बाजारों की ओर जाने को प्रवृत्त हुए हैं और भारत के कपड़ा केंद्रों में खतरे की घंटियां बज रही हैं.

तिरुपुर एक्सपोर्टर्स एसोसिएशन के महासचिव एन. तिरुकुमारन का अनुमान है कि मासिक राजस्व घाटा 1,300 करोड़ रुपए है और देश भर में संभावित घाटा 4,000 करोड़ रुपए तक हो सकता है. वे इसे कोविड के बाद दूसरी अप्रत्याशित घटना मानते हैं और कहते हैं कि अगर सरकार ने सही प्रोत्साहनों के साथ उपाय नहीं किए तो इसके नतीजे चिंतित करने वाले हो सकते हैं. वे कहते हैं, ''बहुत ज्यादा परेशानी होगी, नौकरियां जाएंगी और एमएसएमई इकाइयां बंद हो जाएंगी.’’ 

● वैकल्पिक बाजार: अगर ट्रंप ने अपना इरादा नहीं बदला तो भारतीय निर्यातकों को अमेरिका से इतर यूरोपीय यूनियन, जापान और रूस जैसे बाजारों की ओर देखना होगा. लेकिन यह बदलाव रातोरात नहीं होगा; इन क्षेत्रों में आपूर्ति शृंखलाएं खड़ी करने और खरीदारों से संबंध बनाने में कम से कम एक-दो साल लगेंगे. तब तक भारत का सबसे बड़ा रोजगार प्रदाता क्षेत्र, जिस पर 4.5 करोड़ से ज्यादा लोग निर्भर हैं, अनिश्चित भविष्य में झूलता रहेगा.

फरीदाबाद में पांच परिधान कारखानों के मालिक टोनी उप्पल के लिए ट्रंप के टैरिफ पूरी तरह से बर्बादी का सबब हैं. वे सिर्फ अमेरिका को निर्यात करते हैं और टैरिफ के कारण भारतीय परिधानों के प्रतिस्पर्धा से बाहर होने का खतरा है. अमेरिकी उपभोक्ताओं को बांग्लादेश और वियतनाम के परिधानों की 20 फीसद ही अधिक कीमत चुकानी पड़ेगी जबकि भारतीय परिधान उनसे 30 फीसद और महंगे पड़ेंगे. उप्पल का व्यवसाय 5-6 फीसद के मार्जिन पर चलता है, वे कहते हैं, ''अगर हम 30 फीसद लागत का अंतर उठा लें तो हम तीन महीने में ही दिवालिया हो जाएंगे.’’

बुरा दौर पहले ही आ चुका है. भारत की विशेषज्ञता वसंत और गर्मियों के परिधानों में है जिसके ऑर्डर सितंबर तक मिल जाते हैं और मार्च में डिलीवरी हो जाती है. लेकिन इस साल अभी तक सन्नाटा है. 

उप्पल अफसोस के साथ कहते हैं, ''कोई कुछ भी कहे, कोई वैकल्पिक बाजार नहीं है.’’ उपभोक्ताओं की पसंद, डिजाइन की समझ और खुदरा चक्र अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में अलग-अलग होते हैं. किसी नए बाजार में प्रवेश करने और जमने में सालों लग जाते हैं. उप्पल कहते हैं, अगर हालात जल्द नहीं बदले तो सबसे पहले उन्हें कर्मचारियों की संख्या कम करनी होगी. ''इसके बाद तो हमें एक महीने में ही बंद करना पड़ सकता है.’’ 


ट्रंप टैरिफ के मारेः रत्न और आभूषण

विजय मंगुकिया, सूरत के हीरा व्यापारी

हीरे की चमक पर टैरिफ की धूल 

जुमाना शाह

●असर: पॉलिशिंग, आभूषण गढ़ाई और खरीद-फरोख्त से जुड़े भारतीय हीरा उद्योग पर अमेरिका के नए टैरिफ की तगड़ी मार पड़ी है. हीरों के लिए भारत का सबसे बड़ा बाजार अमेरिका है, जहां इनका निर्यात 10 अरब डॉलर (88,000 करोड़ रुपए) से ज्यादा है और यह वित्त वर्ष 25 में भारत के कटे और तराशे हुए प्राकृतिक हीरों के लगभग 16 अरब डॉलर (1.4 लाख करोड़ रुपए) के निर्यात का 63 फीसद है. उद्योग जगत के अगुआ आगाह करते हैं कि केवल रुकी हुई शिपमेंट से ही हजारों करोड़ रुपए का नुक्सान हो सकता है.

रत्न एवं आभूषण निर्यात संवर्धन परिषद (जीजेईपीसी) ने टैरिफ को ''एकदम अवास्तविक’’ करार दिया है. रूस के कच्चे हीरे पर प्रतिबंध, कोविड के बाद मंदी और लैब में बने सस्ते हीरों के कारण यह उद्योग पिछले पांच साल से गिरावट की चोट खा रहा है. वित्त वर्ष 26 में अमेरिका को होने वाले निर्यात में 75 फीसद से ज्यादा गिरावट का अंदेशा है.

●प्रतिस्पर्धी: वैश्विक हीरा व्यापार में भारत उन देशों के प्रतिस्पर्धियों के हाथों लगातार अपना हिस्सा गंवा रहा है जहां टैरिफ बहुत कम हैं. जीजेईपीसी के अध्यक्ष किरीट भंसाली कहते हैं, ''तुर्की, वियतनाम और थाइलैंड के प्रतिस्पर्धियों पर जवाबी टैरिफ क्रमश: महज 15 फीसद, 20 फीसद और 19 फीसद हैं और वे पहले से हमारे खरीदारों से संपर्क कर रहे हैं.’’ उन्होंने कहा, ''जोखिम केवल खराब सीजन (क्रिसमस) का नहीं है—यह भारत की अधबीच में ताकत घटने, कौशल और पूंजी के धीरे-धीरे अनुकूल देशों की चले जाने का है.’’  

●वैकल्पिक बाजार: निर्यातक ऑस्ट्रेलिया, यूरोप, कनाडा और मेक्सिको के बाजारों में सक्रियता से संभावनाएं तलाश रहे हैं, साथ ही भू-राजनीतिक संबंधों में सुधार के बाद चीन और हांगकांग के फिर से खुलने की उम्मीद कर रहे हैं. यूरोप और अन्य जगहों पर संभावनाओं का अभी तक पूरा दोहन नहीं हो पाया है क्योंकि अमेरिका महंगे माल की खपत और स्थापित खुदरा तंत्र के कारण आसान बाजार था. अब व्यापारियों को नए बाजारों में गहरी पैठ बनाने की जरूरत होगी. 

वैश्विक हीरा उद्योग में भारत का दबदबा है लेकिन नए क्षेत्रों में सुरक्षा प्रणालियां और वितरण नेटवर्क बनाना या मजबूत करना बड़ी चुनौती है. मार्केटिंग और ब्रांडिंग में निवेश करने की भी जरूरत है. हीरा व्यापार भारत में अंगड़िया प्रणाली जैसे सुरक्षित तरीके से एक से दूसरी जगह पहुंचाने के माध्यमों पर निर्भर है.

इसके लिए भरोसेमंद मानव नेटवर्क के जरिए बड़ी नकदी इधर से उधर ले जाने की जरूरत होती है. यह भरोसा कायम करने में किसी मशीनरी या वर्कशॉप स्थापित करने के मुकाबले काफी अधिक समय लगता है. गैलेंट ज्वेलरी के प्रबंध निदेशक अरविंद गुप्ता का मानना है कि निर्यातकों को विविधता लानी होगी, यूएई या मेक्सिको जैसे कम शुल्क वाले देशों में कारोबार, ब्रांडिंग और डिजाइन नवाचार में भारी निवेश करना होगा.

विजय मंगुकिया कहते हैं कि अब उन्हें ठीक-ठीक पता चल गया है कि जब आपके पैरों तले जमीन खिसक जाती है तो कैसा लगता है. भावनगर से सूरत आए पहली पीढ़ी के कारोबारी मंगुकिया का 80 फीसद व्यापार अमेरिका से आता है, बाकी भारत से मिलता है. मुंबई के सीप्ज विशेष आर्थिक क्षेत्र में उनकी यूनिट में 22 लोग हैं. और यहां से अमेरिका को निर्यात होता है. इस महीने से निर्यात का 98 फीसद हिस्सा खत्म हो जाने से कर्मचारियों को निकाल दिया जाएगा. 

मंगुकिया के पास प्रशिक्षित कर्मचारियों को निकालने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. अमेरिका में उन्होंने दो कार्यालय—टेक्सास और न्यूयॉर्क में—खोल रखे हैं. मंगुकिया कहते हैं, ''स्थिति ऐसी है कि कारोबार पर चोट के बावजूद हमें अक्तूबर में मियामी ज्वेलरी शो में भाग लेना होगा क्योंकि उसके लिए भुगतान किया जा चुका है.  हम वहां प्रदर्शन के लिए हीरे भी नहीं भेज पाएंगे.’’ ठ्ठ

ट्रंप टैरिफ के मारेः रसायन

रसायन का बिगड़ा संतुलन

सोनल खेत्रपाल

●असर: भारत अपने 42 अरब डॉलर (3.7 लाख करोड़ रुपए) के रसायन निर्यात का 14-15 फीसद यानी 6-7 अरब डॉलर (52,888-61,703 करोड़ रुपए) के रसायन अमेरिका भेजता है. इसमें करीब 7-8 फीसद यानी करीब 3 अरब डॉलर (26,444 करोड़ रुपए) के निर्यातों को भारी-भरकम 50 फीसद आयात शुल्क झेलना पड़ेगा.

इंडिया रेटिंग्स ऐंड रिसर्च के मुताबिक, फार्मा इंटरमीडिएट (सहायक सामग्री) समेत एक बड़े हिस्से को छूट मिली है. अमेरिका 200 से ज्यादा श्रेणियों के भारतीय रसायन खरीदता है जिनमें बेंजीन और पी-जाइलीन जैसे कार्बनिक यौगिकों से लेकर उर्वरक, कीटनाशक जैसे कृषि रसायन और सिलिकॉन डाइऑक्साइड और कार्बन ब्लैक जैसे अकार्बनिक रसायन शामिल हैं. रंग और पिगमेंट भी प्रमुख हैं. यह उद्योग ज्यादातर महाराष्ट्र और गुजरात में है.

उद्योग पर परोक्ष असर भी पड़ेगा. भारत रंगों और पिगमेंट का अव्वल मैन्युफैक्चरर है जिनका प्रयोग कपड़ा उद्योग में होता है. एमएसएमई एसोसिएशन, एफआइएसएमई के पूर्व अध्यक्ष प्रशांत पटेल का कहना है कि कपड़ा और परिधान क्षेत्र में सुस्ती का असर रंगों और पिगमेंट उद्योग सहित पूरी मूल्य शृंखला पर पड़ेगा.

●प्रतिस्पर्धी: इंडिया रेटिंग्स ऐंड रिसर्च की डायरेक्टर खुशबू लखोटिया का कहना है कि आयरलैंड, चीन और यूरोपीय देशों जैसे प्रतिस्पर्धी देशों में टैरिफ कम होने से अमेरिकी बाजार में भारतीय उत्पादों की प्रतिस्पर्धा की क्षमता पर असर पड़ेगा.

●वैकल्पिक बाजार: पटेल कहते हैं, ''हमारे उत्पाद बी2बी हैं, और इनके मानक फॉर्मूलेशन दुनिया भर में इस्तेमाल होते हैं, इसलिए लंबे वक्त में अफ्रीका, यूरोपीय यूनियन, इंडोनेशिया और वियतनाम में वैकल्पिक बाजारों की तलाश की जाएगी.’’ लखोटिया कहती हैं कि भारतीय फर्म उन देशों में हिस्सेदारी बढ़ा सकती हैं जहां उनकी पहले से मौजूदगी है.

अमेरिका के बाद भारत के कृषि रसायनों के बड़े खरीदारों में ब्राजील, जापान और संयुक्त अरब अमीरात शामिल हैं, वहीं कार्बनिक रसायनों के लिए यूरोपीय यूनियन प्रबल संभावना है. उनका कहना है कि बढ़ती घरेलू मांग पर भी कंपनियों की नजर है, वैसे इससे प्रतिस्पर्धा और कड़ी हो जाती है तथा मुनाफे पर दबाव आ जाता है.

पटेल ने 1995 में मैकसन प्रोडक्ट्स की शुरुआत करते हुए दवाइयों, सौंदर्य प्रसाधनों और खाद्य पदार्थों के लिए खाने लायक रंग बनाने में इस्तेमाल होने वाले प्रीमियम डाइ इंटरमीडिएट्स और विशेष रसायनों पर दांव लगाया. तीन दशक में वह जमा-जमाया कारोबार बन गया.

अब पटेल तीव्र गिरावट के लिए कमर कस रहे हैं. वे कहते हैं, ''हम अपने राजस्व पर 20-40 फीसद की चोट की उम्मीद कर रहे हैं. मैंने इस वित्त वर्ष में 40 करोड़ रुपए का कारोबार किया है, और मुझे नहीं लगता हम 100 करोड़ रुपए पर भी पहुंच पाएंगे.’’ उनके मौजूदा ऑर्डर पहले से तय कीमत पर सुरक्षित हैं, मगर खरीदार अब उन्हें देर से माल भेजने के लिए कह रहे हैं जिससे उनका वित्तीय चक्र पटरी से उतर रहा है.

अमेरिकी खरीदार विकल्पों की तलाश कर रहे हैं. पटेल कहते हैं, ''उन्होंने नए सप्लायर खोजने के लिए वियतनाम, फिलीपींस और सिंगापुर के व्यापार मेलों की यात्राएं करने की योजना बनाई हैं.’’ 

चीन बड़ा खतरा बनकर उभरा है. सरकार से 14-15 फीसद सब्सिडी के साथ चीनी मैन्युफैक्चरर इस मौके को झपट सकते हैं. अनिश्चितता ने पटेल को इस व्यापार के ही भविष्य पर सवाल उठाने के मजबूर कर दिया.

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