
जब ग्रुप कैप्टन शुभांशु शुक्ल 26 जून को क्रू ड्रैगन कैप्सूल से अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (ISS) में तैरते हुए दाखिल हुए, वे बहुत अच्छा महसूस नहीं कर रहे थे. भारतीय वायु सेना में टेस्ट पायलट होने के बावजूद पृथ्वी की कक्षा में अपनी पहली उड़ान पर जाने वाले ज्यादातर एस्ट्रोनॉट या अंतरिक्ष यात्रियों की तरह शुक्ल ने माना कि उनका सिर थोड़ा भारी था और थोड़ा चकरा रहा था.
ऐसा इसलिए था क्योंकि शुक्ल शून्य गुरुत्वाकर्षण की उन परिस्थितियों के हिसाब से अपने को अभी ढाल ही रहे थे जिन्हें उन्होंने 28 घंटे की क्रू ड्रैगन की उड़ान के दौरान झेला था. यही उड़ान उन्हें और उनके तीन साथियों को 400 किमी की ऊंचाई पर पृथ्वी की कक्षा में चक्कर लगा रहे आइएसएस लेकर आई थी.
जैसा कि हाल ही में दिल्ली आईं कोलोन स्थित यूरोपीय एस्ट्रोनॉट सेंटर में स्पेस फ्लाइट सर्जन डॉ. ब्रिगिट गोदार बताती हैं, शुक्ल का सिर भारी होने और चकराने की एक वजह यह थी कि ''गुरुत्वाकर्षण नहीं होने के बावजूद हृदय उसी गति से धड़कता रहता है जिस गति से यह पृथ्वी पर धड़कता है और खून तेज गति से सिर की ओर दौड़ता है जिससे चेहरे और जीभ में सूजन आ जाती है. ये सभी मोशन सिकनेस या गति रुग्णता के संकेत हैं. शरीर को शून्य गुरुत्वाकर्षण के हिसाब से ढलने में 24 से 36 घंटे का वक्त लगता है.’’
अमेरिका के फ्लोरिडा स्थित कैनेडी स्पेस सेंटर से उड़ान भरने के बाद शुक्ल ने भी वही जबरदस्त गुरुत्वाकर्षण बल या जी-फोर्स अनुभव किया, जिसके बारे में भारत के पहले अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा ने बात की थी जब अप्रैल 1984 में सोवियत सोयुज टी-11 अंतरिक्षयान उन्हें अंतरिक्ष में ले गया था.

उस पल को याद करते हुए शर्मा ने कहा, ''आप उड़ान भरने के लिए ऊपर की तरफ देखते हुए अंतरिक्षयान में बैठे होते हैं, तब अपनी पसलियों पर जो गुरुत्वाकर्षण बल आप महसूस करते हैं, वह कमर पर महसूस होने वाले बल से चार गुना ज्यादा होता है. यह रीढ़ पर दबाव डालता है, जिससे फेफड़ों के फैलने के लिए बहुत कम जगह बचती है, इसलिए सांस लेना मुश्किल हो जाता है.’’
प्रक्षेपण के दिन 25 जून को शुक्ल उड़ान के शुरू और कामयाब होने को लेकर बहुत उत्सुक थे, और आखिर क्यों न होते, वे महीने भर क्वारंटीन में इंतजार जो करते आ रहे थे और तकनीकी वजहों से अपने प्रक्षेपण का कई बार स्थगित होना झेल चुके थे. वे कहते हैं, ''जब मैं लॉन्च पैड पर कैप्सूल में बैठा था, मेरे दिमाग में एकमात्र विचार यह आ रहा था कि चलो इस बार तो चलें ही. जब उड़ान शुरू हुई, मैं सीट पर जोर से पीछे की तरफ धकेला जाता रहा.
फिर अचानक मुझे कुछ भी महसूस नहीं हुआ. निपट सन्नाटा था और हम शून्य में तैर रहे थे. क्या उड़ान थी—यह अद्भुत था.’’ बहुत नीचे लॉन्च कॉम्पलेक्स 39ए के कंप्यूटरों की लंबी कतार वाले कंट्रोल रूम में अंतरिक्षयान को व्यग्रता से ऊपर उठता देख रहीं उनकी मां आशा शुक्ला ने अपनी आंखों से बरबस बहते आंसू पोंछे और उनके चेहरे पर अपार खुशी और राहत की शानदार मुस्कान खिल उठी.
आइएसएस पहुंचते ही शुक्ल ने अपनी मोशन सिकनेस को झटक दिया और खुलकर मुस्कराए. एक्जियॉम मिशन-4 मिशन पर अपनी टीम के तीनों साथियों के साथ उन्होंने उन सात अंतरिक्षयात्रियों को गले लगाया जो अंतरिक्ष स्टेशन पर पहले से मौजूद थे. शुक्ल ने चुहल करते हुए कहा, ''मैं बच्चे की तरह सीख रहा हूं कि अंतरिक्ष में कैसे चलूं, बोलूं और खाऊं.’’ एएक्स-4 मिशन के कमांडर पेगी व्हिटसन ने उनके गहरे नीले रंग के चोगे के गिरेबान पर चांदी का पिन खोस दिया था, जिसमें शुक्ल को आइएसएस पर आने वाला एस्ट्रोनॉट नंबर 634 बताया गया था.
यानी अंतरिक्ष की कक्षा में वे 634वें मनुष्य हैं. आइएसएस बहुराष्ट्रीय सहकारी प्रयास है, जिसमें अमेरिका, रूस, यूरोप, जापान और कनाडा शामिल हैं. इसे 1998 से 2011 तक अलग-अलग चरणों में बनाया गया. अब यह पृथ्वी की कक्षा में चक्कर लगा रही अंतरिक्ष प्रयोगशाला है, जिसका आकार चार टेनिस कोर्ट के बराबर है. अभी तक 23 देशों के 280 अंतरिक्ष यात्री आइएसएस में वक्त गुजार चुके हैं.
शुक्ल आइएसएस में रहने वाले पहले भारतीय अंतरिक्षयात्री हैं और 41 साल पहले राकेश शर्मा की ऐतिहासिक उपलब्धि के बाद पृथ्वी की कक्षा में जाने वाले मात्र दूसरे भारतीय. इस पल की अहमियत से वाकिफ शुक्ल ने कहा, ''उन कुछेक लोगों में होना सौभाग्य की बात है जिन्हें इस बेहद माकूल जगह से पृथ्वी को देखने का मौका मिला.’’
दो दिन बाद जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्ल से बात की तो उन्हें अपने पैरों को हिलने-डुलने से रोकने के लिए नीचे बांधना पड़ा था. मोदी ने पूछा, आइएसएस से कैसा दिखाई देता है, तो शुक्ल के शब्दों में 1984 में शर्मा के कहे की गूंज सुनाई दी. उन्होंने कहा, ''पहला विचार पृथ्वी के एक होने का एहसास था—देशों की कोई सीमा रेखा या सरहद नहीं थी.
दूसरे, जब मेरी पहली नजर भारत पर पड़ी, तो बहुत बड़ा और भव्य दिखाई दिया, अपने 2-डी कागजी नक्शे की तरह नहीं.’’ फिर मोदी ने मुस्कराते हुए शुक्ल को बताया कि वे उन्हें कुछ होमवर्क दे रहे हैं, और कहा, ''हमें मिशन गगनयान (भारत का स्वदेशी मानव अंतरिक्ष अन्वेषण कार्यक्रम) को आगे ले जाना है, हमें अपना अंतरिक्ष स्टेशन बनाना ही है और हमें चांद पर पहला भारतीय अंतरिक्षयात्री भी उतारना है. इन अभियानों में आपके अनुभव काफी मददगार होंगे.’’
उड़ान इतनी भी सस्ती नहीं
शुक्ल की 500 करोड़ रुपए लागत की यह यात्रा प्रायोजित करने वाले भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) को मोदी यह समझा रहे थे कि मुफ्त में कुछ नहीं मिलता, या इस मामले में मुफ्त की सवारी तो नहीं ही. पिछले पांच दशकों में इसरो ने विकास के मकसदों के लिए स्वदेश में ही रॉकेट लॉन्चर और उपग्रह बनाने के अपने उद्देश्य बहुत कम लागत में पूरे किए हैं.
उनमें दूरसंचार, रिमोट सेंसिंग या सुदूर संवेदन, नौवहन और यहां तक कि प्रतिरक्षा के लिए प्रक्षेपित उपग्रह शामिल हैं. अब प्रधानमंत्री चाहते हैं कि भारत अंतरिक्ष में मानव अन्वेषण करने वाले बड़े देशों में शामिल हो, जिसे मानव जाति का अंतिम सीमांत माना जाता है.
सोवियत वोस्तॉक 1 में 12 अप्रैल 1961 को यूरी गागरिन की ऐतिहासिक पहली अंतरिक्ष उड़ान के बाद केवल तीन देशों—अमेरिका, रूस और चीन—के पास इनसान को अंतरिक्ष में ले जाने वाले अपने अंतरिक्षयान हैं. अमेरिका और रूस तो इस मामले में अनुभवी और दिग्गज हैं ही, चीन भी इस विशिष्ट क्लब में 15 अक्तूबर 2003 को शामिल हो गया, जब उसने अपना पहला मानव अंतरिक्षयान शेन्जोउ-5 अंतरिक्ष में भेजा.
तब से चीन ने चार और मानव मिशन लॉन्च किए और 2011 में स्थायी मानव अनुसंधान प्लेटफॉर्म तियांगोंग-1 अंतरिक्ष स्टेशन भी स्थापित कर लिया. 2022 में जब उसने इसके तीन मॉड्यूल पूरे किए, चीनी अंतरिक्ष स्टेशन का आकार आइएसएस से आधा था. चीन ने 2030 तक चांद पर अपने अंतरिक्षयात्री उतारने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य भी तय किया है.
भारत ने शुरुआत में अपना ध्यान चंद्रमा और मंगल ग्रह पर मानवरहित मिशन भेजने पर लगाया. अलबत्ता मोदी ने अपने पहले कार्यकाल में भारत के अपने मानव अंतरिक्ष उड़ान और अन्वेषण कार्यक्रम की दिशा में बड़ी छलांग लगाने का फैसला किया. दिसंबर 2018 में उन्होंने 2027 की पहली तिमाही तक मानव कक्षीय मिशन भेजने के लिए गगनयान परियोजना को मंजूरी दी.
साथ ही प्रधानमंत्री ने 2028 तक पृथ्वी की कक्षा में चक्कर लगाने वाले अंतरिक्ष केंद्र भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन या बीएएस-1 के पहले मॉड्यूल के निर्माण को हरी झंडी दिखा दी. इन दोनों मकसदों के लिए 20,193 करोड़ रुपए की मिली-जुली लागत इसरो के किसी एक कार्यक्रम के लिए अलग रखे गए सबसे बड़े बजट में से एक है.
प्रधानमंत्री यहीं नहीं रुके. उन्होंने एक ऐसी परियोजना का ज्यादा लंबे वक्त का विजन प्रस्तुत किया जो 2040 तक चांद पर भारतीय अंतरिक्षयान उतारने की सहूलियत देगा. इस लिहाज से शुक्ल भारत के नए अंतरिक्ष भ्रमण के पहले गगनयात्री हैं. जैसा कि मोदी ने शुक्ल से कहा, ''आज मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूं कि आपका अध्याय भारत के गगनयान अभियान की सफलता का पहला अध्याय है. भारत दुनिया के लिए अंतरिक्ष की नई संभावनाओं के दरवाजे खोल रहा है. भारत केवल उड़ेगा ही नहीं, बल्कि भविष्य की नई उड़ानों के लिए मंच भी तैयार करेगा.’’
इसरो से देश की जबरदस्त उम्मीदों को लेकर चौकस उसके चेयरमैन डॉ. वी. नारायणन ने, जो एएक्स-4 मिशन के प्रक्षेपण में भाग लेने के बाद बेंगलूरू स्थित अंतरिक्ष मुख्यालय में अभी लौटे ही थे, इंडिया टुडे से कहा, ''गगनयान राष्ट्रीय परियोजना है जिसमें केवल इसरो ही नहीं, बल्कि भारतीय नौसेना और वायु सेना और साथ ही सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के कई उद्योग भी शामिल हैं.’’
इसरो के सामने बड़ी चुनौती
शुभांशु शुक्ल की अंतरिक्ष यात्रा से भारत को ह्यूमन इंटरफेस प्रक्रियाओं को जानने-समझने का अनुभव हासिल हुआ है, जो महत्वपूर्ण है. हालांकि, यह पूरे कार्यक्रम का केवल एक हिस्सा भर है. भारत को न केवल सभी मानकों पर खरा एक उपयुक्त प्रक्षेपण वाहन बनाना है बल्कि कक्षीय और चालक दल मॉड्यूल भी बनाने हैं.
इससे ही अंतरिक्ष यात्रियों का प्रशिक्षण और लॉन्च के दौरान उनका सफलतापूर्वक अंतरिक्ष में जाना और पृथ्वी पर सुरक्षित लौटना संभव हो पाएगा. नारायणन कहते हैं, ''यह यकीनन हमारे लिए एकदम नया और विशाल चुनौतीपूर्ण अनुभव साबित होने वाला है. लेकिन हमारे वैज्ञानिक और सहयोगी संस्थान इसके लिए तैयार हैं.’’
इसरो ने सबसे पहले लॉन्च व्हीकल मार्क-3 या एलवीएम-3 का निर्माण किया, जो 10 टन के भारी पेलोड को पृथ्वी की निचली कक्षा तक पहुंचाने में सक्षम है. मानव स्तरीय प्रक्षेपण वाहनों का कई दौर का परीक्षण किया गया और अनुपयोगी साबित होने पर उन्हें हटाने की दर को बढ़ाकर तीन गुना कर दिया गया. ताकि अगर एक उपकरण नाकाम हो जाए तो भी किसी आपात स्थिति से बचने के लिए पर्याप्त बैक-अप हो.
नारायणन कहते हैं, ''जब सवाल मानव जीवन का हो तो हमें तीन गुना सावधान रहना पड़ता है. सुरक्षा प्रोटोकॉल की बात करें तो हमें 100 में से 100 अंक हासिल करने होते हैं.’’ दरअसल, शुक्ल की अंतरिक्ष यात्रा से जुड़े एएक्स-4 मिशन में मिशन कंट्रोल की तरफ से जब मामूली गड़बड़ी की रिपोर्ट दी गई तो नारायणन ने ही लॉन्च के लिए अपनी मंजूरी देने से इनकार कर दिया था.
नारायणन कहते हैं, उनके जोर देने पर ही एक्सिओम के तकनीशियनों ने इंजन की पड़ताल की और उसमें एक छोटी-सी दरार देखी जो उड़ान के दौरान विनाशकारी साबित हो सकती थी. इसे ठीक किए जाने के बाद ही नारायणन ने अपनी सहमति दी.
इसरो का काम था एक क्रू मॉड्यूल बनाना जो उपयुक्त पर्यावरण नियंत्रण और जीवन समर्थन प्रणाली (ईसीएलएसएस) के साथ तीन-चार अंतरिक्ष यात्रियों को ले जा सके.
यह भोजन, रहने की व्यवस्था और अपशिष्ट निबटान के अलावा कमरे का तापमान आरामदायक बनाए रखने, सही केबिन दबाव और पर्याप्त ऑक्सीजन स्तर आश्वस्त करने में सक्षम हो. इसरो के पूर्व अध्यक्ष एस. सोमनाथ कहते हैं, ''ये मूलत: 'खुद आजमाओ’ या डीआइवाइ तकनीकें हैं. शुरू में हमने सोचा कि हम उन्हें खरीद सकते हैं और बाद में विकसित कर लेंगे. लेकिन यह संभव नहीं हो पाया क्योंकि उनकी कीमत बहुत ज्यादा थी और वह हमारे शेड्यूल के अनुरूप भी नहीं थी.’’
इसरो को क्रू व्हीकल के पृथ्वी पर लौटने, फिर पैराशूट इस्तेमाल करके समुद्र में सॉफ्ट लैंडिंग कराने और सशस्त्र बलों की मदद से उन्हें फिर हासिल करने की तकनीक विकसित करनी पड़ी. इसने क्रू एस्केप यानी अंतरिक्ष यात्रियों के बाहर आने की प्रणाली का भी परीक्षण किया है, जिसमें लॉन्चपैड या लिफ्ट-ऑफ पर रॉकेट के विफल होने की स्थिति में क्रू मॉड्यूल को सुरक्षित दूरी पर बाहर निकाल दिया जाता है.
दूसरे, इसरो को संचार, नेविगेशन और उच्च स्तर की स्वचालन प्रणाली में सुधार करना है. अंतरिक्ष यात्रियों के प्रशिक्षण का चयन भी उतना ही ज्यादा महत्वपूर्ण है. एक्सिओम मिशन का हिस्सा बने शुभांशु समेत गगनयान के लिए चुने गए सभी चार अंतरिक्ष यात्री भारतीय वायु सेना के पायलट हैं, जिन्हें कई कठिन परीक्षणों के बाद चुना गया है.
बेंगलूरू में शारीरिक और मानसिक फिटनेस पर पूरी तरह ध्यान देने वाला अंतरिक्ष यात्री प्रशिक्षण केंद्र विकसित करने के अलावा अंतरिक्ष यात्रियों को कठोर परीक्षणों के लिए मॉस्को के कॉस्मोड्रोम भेजा गया, जिसमें कुछ समय के लिए शून्य गुरुत्वाकर्षण का अनुभव करने के उद्देश्य से एक उप-कक्षीय उड़ान भी हुई. इस परीक्षण को वॉमिट-कॉमेट कहा जाता है, क्योंकि हमेशा की तरह, प्रशिक्षु अपने पहले प्रयास में ही उल्टी कर देते हैं. इन सब परीक्षणों में खरा उतरने के बाद ही चयन किया जाता है, ताकि मामूली भी ढील न रह जाए.
शुभांशु की यात्रा से सीखेंगे सबक
राकेश शर्मा अपने अनुभवों के आधार पर कहते हैं कि धरती पर कोई भी प्रशिक्षण आपको कक्षा में होने वाली घटनाओं के लिए तैयार नहीं करता, जिसमें जी-फोर्स या मोशन सिकनेस झेलना शामिल है. इसलिए आइएसएस पर शुभांशु जिन स्थितियों का सामना कर रहे हैं वे गगनयान अभियान की कुछ चुनौतियों को समझने के लिहाज से मूल्यवान साबित होंगी.
यही नहीं, इससे मानव अंतरिक्ष उड़ान के दौरान कठोर प्रोटोकॉल पालन की अहमियत भी समझ आएगी. इसरो अपने पहले मानव अंतरिक्ष अभियान के साथ कोई जोखिम नहीं लेना चाहता. इसके तीन मानवरहित परीक्षण हैं जो सभी महत्वपूर्ण प्रणालियों को पूरी तरह पुष्ट करते हैं. इसमें व्योममित्र नामक रोबो भी एक विकल्प के तौर पर शामिल है, जो यह तय करेगा कि चयनित अंतरिक्ष यात्रियों के साथ प्रयास से पहले सभी उड़ानें पूरी तरह त्रुटि-मुक्त हों.
शुभांशु का अनुभव भारत के पहले अंतरिक्ष स्टेशन बीएएस-1 के निर्माण में अहम भूमिका निभाएगा. बीएएस-1 के पहले मॉड्यूल को गगनयान परियोजना के साथ मंजूरी दी गई थी. इसका अंतिम लक्ष्य अंतरिक्ष में पांच मॉड्यूल रखना है, जिसमें अंतरिक्ष यात्रियों के रहने और परिक्रमा के लिए प्रयोगशालाएं स्थापित करना शामिल है. बीएएस-1 के साथ अंतरिक्ष यान को डॉक करने की तकनीक को इस साल के शुरू में पहले ही दो उपग्रहों के साथ स्पेस डॉकिंग एक्सपेरिमेंट (स्पेडेक्स) के जरिए मान्यता मिल चुकी है.
डॉकिंग-अनडॉकिं ग क्षमताओं के अलावा स्वतंत्र रूप से जुड़ने की तकनीक भी मान्यता हासिल कर चुकी है. इनका इस्तेमाल बीएएस-1 के अलावा भविष्य के अंतरिक्ष अभियानों में भी किया जाएगा. जाहिर है, अभी इस तकनीक के मानव अभियानों के अनुकूल होने की पुष्टि पर अंतिम मुहर लगनी बाकी है और इसके लिए कई और स्पेडेक्स परीक्षणों की जरूरत पड़ेगी. नारायणन कहते हैं, ''यह किसी पांच सितारा होटल जैसा नहीं होगा. हमारा लक्ष्य इसे सीमित जगह में आरामदायक और उपयोगी बनाना है ताकि यह किफायती हो.’’
भारत अपना खुद का अंतरिक्ष स्टेशन बनाने और उसका इस्तेमाल कई अत्याधुनिक प्रयोगों के लिए करने का इच्छुक है, जिनमें से कुछ शुभांशु दो सप्ताह के आइएसएस प्रवास के दौरान पहले ही कर रहे हैं. इनमें माइक्रोग्रैविटी में इलेक्ट्रॉनिक डिस्प्ले के साथ मानवीय संपर्क की जांच करना, शून्य गुरुत्वाकर्षण में मांसपेशियों पर पड़ने वाले असर की पहचान करना और मेटाबॉलिक सप्लीमेंट्स के प्रभाव का अध्ययन करना शामिल है.
शुभांशु के लिए विशेष तौर पर कई अध्ययन डिजाइन किए गए हैं, जिनमें मूंग दाल, मेथी स्प्राउट्स जैसी खाद्य फसलों की खेती और खाद्य सूक्ष्म शैवाल पर माइक्रोग्रैविटी के प्रभाव का विश्लेषण शामिल है. टार्डिग्रेड्स, सूक्ष्म जलीय जीवों और ऐसी कठोर परिस्थितियों में उनके कामकाज पर एक गहन प्रयोग भी है. सभी प्रयोग देशभर के प्रमुख वैज्ञानिक संस्थानों ने डिजाइन किए हैं और बीएएस-1 में कई अन्य प्रयोग भी आजमाए जाएंगे. भारत निकट भविष्य में चंद्रमा और मंगल पर भी संसाधनों के दोहन के अभियान पर नजरें टिकाए है.

अंतरिक्ष अभियानों के दिग्गज
ये सभी कार्यक्रम भारत को चंद्र अभियान में शामिल एक प्रमुख खिलाड़ी बनाने की दीर्घकालिक रणनीति का हिस्सा हैं. अगस्त 2023 में इसरो के चंद्रमा की सतह पर अंतरिक्ष यान उतारने और रोवर संचालित करने की अपनी क्षमता का सफलतापूर्वक प्रदर्शन किए जाने के बाद मोदी सरकार ने सितंबर 2024 में महत्वाकांक्षी चंद्रयान-4 परियोजना को मंजूरी दी.
इसमें चंद्रमा पर अंतरिक्ष यान उतारने, चट्टान के नमूने जुटाने और फिर उन्हें विश्लेषण के लिए धरती पर लाने की तकनीक विकसित करना शामिल है. 2,000 करोड़ रुपए से ज्यादा की लागत वाला चंद्रयान-4 मिशन 2027-28 के अंत में लॉन्च किए जाने की उम्मीद है, और यह 2040 तक चंद्रमा पर भारतीय लैंडिंग और सुरक्षित वापसी की प्रौद्योगिकी क्षमताओं को सामने लाएगा. उसके बाद जापान के साथ साझा मिशन चंद्रयान-5 होगा, जिसमें लंबे समय तक टिकने वाला रोवर चंद्रमा की सतह पर मनुष्य के रहने के लिए संसाधनों की तलाश करेगा.
इसके साथ ही भारत वैश्विक स्तर पर चंद्र अभियानों की होड़ में शामिल हो जाएगा. अमेरिका आर्टेमिस परियोजनाओं को मंजूरी दे रहा है, जो तकरीबन 50 वर्षों के अंतराल के बाद अमेरिकी अंतरिक्ष यात्रियों के चंद्रमा पर कदम रखने और सुरक्षित वापसी से जुड़ा है. चीन भी पूरी सक्रियता के साथ चंद्र अभियान में शामिल है, जो वहां से नमूने एकत्र कर विश्लेषण के लिए धरती पर लाने का अभियान चला रहा है.
रूस, जापान और दक्षिण कोरिया समेत आधा दर्जन अन्य देश महत्वाकांक्षी उड़ानों के साथ चंद्र अभियानों का हिस्सा हैं. इसमें खासकर उन देशों की दिलचस्पी ज्यादा है जो अपने खुद के अंतरिक्ष स्टेशन स्थापित करना चाहते हैं. रूस ने आइएसएस से वापसी की घोषणा कर रखी है और अपना खुद का रूसी ऑर्बिटल सर्विस स्टेशन (आरओएसएस) विकसित करने की योजना बना रहा है.
भारत और चीन के अलावा प्रमुख निजी खिलाड़ी भी अपना वाणिज्यिक अंतरिक्ष स्टेशन विकसित करने के इच्छुक हैं. इनमें ब्लू ओरिजिन और सिएरा स्पेस की संयुक्त परियोजना ऑर्बिटल रीफ; वॉयजर स्पेस और एयरबस की स्टारलैब; और एक्सिओम परियोजनाएं हैं. विज्ञान और प्रौद्योगिकी, पृथ्वी विज्ञान और अंतरिक्ष मामलों के केंद्रीय राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह कहते हैं, ''भारत अंतरिक्ष क्षेत्र में पीछे रहने के बजाय ताकत बनकर उभरने का इरादा रखता है. भारत अब अंतरिक्ष अभियानों में समान वैश्विक भागीदार है.’’
भारतीय अंतरिक्ष क्षेत्र में निजी भागीदारी को बढ़ाने के लिए मोदी सरकार ने जुलाई 2020 में कोविड के दौरान रॉकेट और उपग्रह बनाने और लॉन्च करने के इसरो के एकाधिकार को समाप्त कर दिया. इस क्षेत्र में न केवल निजी खिलाड़ियों के लिए रास्ता खुला, बल्कि भुगतान करके इसरो की सेवाएं लेने का मौका भी मुहैया करा दिया गया.
अंतरिक्ष क्षेत्र में 100 फीसद एफडीआइ की भी अनुमति दी. पिछले चार वर्षों में करीब 200 अंतरिक्ष स्टार्ट-अप सामने आए हैं, जिनमें कई तेजी से फल-फूल रहे हैं. यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एलॉन मस्क के स्पेस-एक्स और जेफ बेजोस के ब्लू ओरिजिन जैसे निजी दिग्गजों के बोइंग और लॉकहीड-मार्टिन जैसे स्थापित दिग्गजों के साथ प्रतिस्पर्धा करने जैसा ही है.
भारत का अंतरिक्ष बाजार 2024 में 8.4 अरब डॉलर (71,800 करोड़ रुपए) का था, जो 430 अरब डॉलर के वैश्विक अंतरिक्ष बाजार का सिर्फ 2 फीसद है और क्षमता की तुलना में काफी कम है. भारत सरकार इसे 2033 तक 44 अरब डॉलर (3.75 लाख करोड़ रु.) पर पहुंचाने के लक्ष्य पर काम कर रही है, जो वैश्विक हिस्सेदारी का 8 फीसद होगा. इसमें महत्वाकांक्षी मानव अंतरिक्ष अभियान सबसे अहम है. शुभांशु का सफर देश की अंतरिक्ष महत्वाकांक्षाओं की दिशा तय करने वाला बने.