
अमेरिकी शिक्षा संस्थानों के पवित्र गलियारों में बह रही सर्द बर्फीली हवाओं की लहर अनिश्चितता का ऐसा आलम पैदा कर रही है कि लाखों महत्वाकांक्षी अंतरराष्ट्रीय और खासकर भारत के छात्रों की उम्मीदें गहरे बर्फ में धंसती जा रही हैं. ट्रंप सरकार ने अचानक अपने लगातार कई अजीबोगरीब कदमों से दुनिया भर से प्रतिभाओं के स्वागत के लिए बिछी लाल कालीन खींचनी शुरू कर दी है.
27 मई को भारत समेत दुनिया भर के अमेरिकी दूतावासों में नए छात्र वीजा के लिए मुकर्रर तारीखों को स्थगित करने का फैसला किया गया. लिहाजा, अनगिनत युवा प्रतिभाओं को अधर में लटका दिया गया है. इसे वीजा की अर्जी देने वालों की सोशल मीडिया गतिविधियों की पड़ताल की जरूरत का हवाला देकर जायज ठहराया गया है लेकिन यह सिर्फ पड़ताल की प्रक्रिया का ही मामला नहीं, बल्कि बड़े बदलाव का संकेत है.
अमेरिकी पढ़ाई के इर्द-गिर्द अपने भविष्य की शिद्दत से योजना बनाने वाले भारतीय छात्रों का सपना अब नीतियों में अपारदर्शी और अजीबोगरीब बदलाव के माहौल में टूटने-बिखरने लगा है, जिससे कइयों के मन में सवाल घुमड़ने लगे हैं कि अमेरिका उनकी महत्वाकांक्षाओं के लिए सुरक्षित/स्थिर ठिकाना नहीं रह गया है या नहीं?
नया माहौल जैसे-जैसे खुल रहा है, उसके नतीजे समझने के लिए सिर्फ आंकड़ों पर गौर करना ही काफी होगा. 2023-24 में अमेरिका में रिकॉर्ड 11.3 लाख अंतरराष्ट्रीय छात्रों की आमद हुई. उनमें भारतीय छात्रों की संख्या 3,31,602 या करीब 30 फीसद थी, जो पिछले वर्ष से 23 फीसद ज्यादा थी.
अलबत्ता, सियासी तनाव की वजह से चीन के छात्रों के दाखिले में 4 फीसदी की गिरावट आई. अधिकांश भारतीय छात्र एसटीईएम यानी साइंसटेक, इंजीनियरिंग, गणित विषय ही चुनते हैं. उस साल करीब 42.9 फीसद ने गणित और कंप्यूटर विज्ञान चुना और 24.5 फीसद ने इंजीनियरिंग.
इन्हीं प्रतिभाओं के बूते अमेरिका के फलते-फूलते स्टार्ट-अप उद्योग की नींव रखी गई है. उसकी स्थापना में लगे लोगों के अपने देशों के आंकड़े तो उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन अनुमान है कि हर चार में से एक अमेरिकी अरब डॉलर मूल्य वाले स्टार्ट-अप की स्थापना किसी पूर्व अंतरराष्ट्रीय छात्र ने की है; इन्हीं आप्रवासियों ने अमेरिका की टॉप एआइ (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) कंपनियों में लगभग दो-तिहाई की सह-स्थापना भी की है.

ट्रंप सरकार का यह फैसला इस मायने में और भी अबूझ है कि इससे अमेरिका को भारतीय छात्रों से पढ़ाई के मद में मिलने वाली भारी रकम का भी नुक्सान होने वाला है. ग्लोबल स्टूडेंट हाउसिंग मार्केटप्लेस यूनिवर्सिटी लिविंग की इंडियन स्टूडेंट मोबिलिटी रिपोर्ट 2023-24 के मुताबिक, भारतीय छात्रों के 2025 में अमेरिका में 17.4 अरब डॉलर खर्च करने का अनुमान है, जिसमें 10.1 अरब डॉलर सिर्फ पढ़ाई पर, 4 अरब डॉलर रिहाइश पर और बाकी 3.3 अरब डॉलर खाने-पीने वगैरह पर खर्च होने हैं.
यह 2022 में 10.5 अरब डॉलर के खर्च से काफी ज्यादा है. वर्जीनिया कॉन्फ्रेंस ऑफ अमेरिकन एसोसिएशन ऑफ यूनिवर्सिटी प्रोफेसर्स के अध्यक्ष टिमोथी गिब्सन कहते हैं, ''अंतरराष्ट्रीय छात्र अमेरिकी विश्वविद्यालयों को रकम मुहैया कराते हैं और बौद्धिक माहौल को समृद्ध करते हैं. प्रशासन उन्हें परायों की तरह संकीर्ण चश्मे से देखना जारी रखता है तो अमेरिका विज्ञान और अनुसंधान में दुनिया में अगुआ होने की प्रतिष्ठा गंवा सकता है.’’
ट्रंप सरकार ने कई संघीय अनुदानों और आर्थिक मदद के कार्यक्रमों पर भी रोक लगा दी है, जिसके तहत अंतरराष्ट्रीय छात्रवृत्ति और छात्र विनिमय की सुविधा प्रदान की जाती है. उनमें फुलब्राइट और गिलमैन छात्रवृत्ति कार्यक्रम शामिल हैं.
परेशानी का दूसरा बड़ा मामला वैकल्पिक व्यावहारिक प्रशिक्षण (ओपीटी) कार्यक्रम पर संभावित प्रतिबंध है, जिसके तहत फिलहाल अंतरराष्ट्रीय एसटीईएम ग्रेजुएट्स को तीन साल तक अमेरिका में काम करने की इजाजत मिलती है. अगर सरकार ओपीटी को सीमित या खत्म करने का फैसला करती है, तो विदेशी ग्रेजुएट्स के लिए व्यावहारिक कार्य अनुभव हासिल करने के मौके काफी कम हो जाएंगे, जिससे उनके करियर की संभावनाएं खतरे में पड़ जाएंगी और भविष्य में दाखिले में अड़चन आएगी.
अंतरराष्ट्रीय छात्रों में दिखी भारी बेचैनी
दिल्ली स्थित शिक्षा परामर्श फर्म एडुवेलोसिटी ग्लोबल में दाखिले के मामलों की प्रमुख मैरी गोगोई कहती हैं, ''इन घटनाक्रमों से अंतरराष्ट्रीय छात्रों के साथ-साथ अमेरिकी विश्वविद्यालयों में भी बेचैनी है, जो सांस्कृतिक विविधता और आर्थिक स्थिरता के लिए दूसरे देशों के छात्रों पर निर्भर हैं.’’
नाम न बताने की शर्त पर एक 24 वर्षीय छात्रा ने अपने मामले के बारे में जो बताया, नए हालात का खुलासा उससे बेहतर ढंग से नहीं हो सकता. उसे एआइ में विशेषज्ञता के साथ कंप्यूटर विज्ञान में मास्टर डिग्री के लिए एक अमेरिकी विश्वविद्यालय में दाखिला मिल गया, लेकिन उसके बीजा की अर्जी बिना कोई वजह बताए खारिज कर दी गई.
उसे फिर से अर्जी डालने को मजबूर होना पड़ा. वह सिर्फ अमेरिका ही जाना चाहती है क्योंकि उसके मुताबिक शोध और नवाचार के लिए वही सबसे अच्छा है. इसलिए अगर फिर वीजा नहीं लगता है तो वह अपनी पढ़ाई साल भर के लिए स्थगित करने की सोच रही है.
ट्रंप सरकार का छात्र वीजा देने के पहले सोशल मीडिया अकाउंट को खंगालने का ताजा फरमान भी भारी फिक्र का विषय है. बकौल वैश्विक परामर्श फर्म बीडीओ इंडिया में शिक्षा और हुनर के पार्टनर रोहिन कपूर, सोशल मीडिया अकाउंट की पड़ताल सिर्फ अमेरिका तक ही सीमित नहीं है; ऑस्ट्रेलिया और कनाडा भी वीजा आवेदकों के सोशल मीडिया पोस्ट की जांच करते हैं.
मौजूदा अमेरिकी नीति भी 2019 में शुरू की गई सोशल मीडिया जांच पर आधारित है. हालांकि, अब, विदेश विभाग ने कहा है कि ''यहूदी विरोधी गतिविधि’’, ''जिहादी समर्थक’’ विचारों या ''अमेरिका विरोधी’’ भावनाओं की पहचान करने के लिए ''सभी उपलब्ध जानकारी’’ का इस्तेमाल किया जाएगा.
आव्रजन कानूनों के जानकार, अटलांटा स्थित कानूनी फर्म कुक बैक्सटर के संस्थापक पार्टनर चार्ल्स एच. कुक बताते हैं कि इसका क्या मतलब है. वे कहते हैं, ''सोशल मीडिया जांच कई साल से चल रही है, लेकिन अब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस सभी पोस्ट की जांच करता है. यह अभिव्यक्ति और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मूल अमेरिकी मूल्यों का उल्लंघन है.
फिर भी विदेशियों के मामले में सरकार उन सिद्धांतों की फिक्र छोड़ देती है.’’ इमिग्रेशन लॉ फर्म लॉक्वेस्ट की मैनेजिंग पार्टनर पूर्वी चोथानी को भी यह पहले की नीति से बड़ा बदलाव लगता है. वे कहती हैं, ''पहले संदेह होने की स्थिति में किसी-किसी की जांच पर होती थी. अब जांच-पड़ताल सभी छात्र वीजा के लिए अनिवार्य है.’’
जिन्हें वीजा मिल गया है, उनके लिए भी मामला आसान नहीं. उन्हें लगातार जांच का सामना करना पड़ रहा है. अमेरिकी आव्रजन और सीमा शुल्क प्रवर्तन एजेंसी (आइसीई) अब चाहती है कि छात्र पूर्णकालिक दाखिले और एकदम पूरी उपस्थिति का प्रमाण पत्र दें, थोड़ी भी चूक हुई तो निर्वासन का खतरा मंडरा रहा है.
वर्मोंट विश्वविद्यालय में भूगोल और भूविज्ञान के प्रोफेसर, शोध और स्नातक शिक्षा के सहयोगी डीन पाब्लो एस. बोस कहते हैं कि ट्रंप की बंदिशें नए दाखिलों तक ही सीमित नहीं हैं. प्रशासन ने 300 से ज्यादा वीजा रद्द कर दिए हैं.
विदेश मंत्री मार्को रूबियो ने दावा किया है कि असली संख्या हजारों में हो सकती है, कई को ऑनलाइन फलस्तीनी समर्थन के नाते निशाना बनाया गया है. करीब अन्य 5,000 छात्रों को छोटी-मोटी वारदातों के लिए निष्कासित कर दिया गया है, जिनमें कम उम्र में शराब पीने से लेकर ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन तक हैं.
बोस कहते हैं, ''इन प्रतिबंधों से ये मामले प्रभावित होते हैं कि विश्वविद्यालय किसे दाखिला दें, क्या मौजूदा छात्र यहां रह सकते हैं और क्या ग्रेजुएट काम कर सकते हैं? इससे पैदा हुई अराजकता के नतीजे भयावह होने जा रहे हैं.’’ अमेरिका में दाखिला लेने वाले कई भारतीय छात्रों का मूड डर और घबराहट वाला है, जिनमें अधिकांश चुपचाप रहते हैं और नए हालात की खबरें रखने की कोशिश करते हैं.
जॉर्जिया के एक निजी विश्वविद्यालय, सवाना कॉलेज ऑफ आर्ट्स में द्वितीय वर्ष की छात्रा 19 वर्षीय लुबैना कपासी ने अब तक अमेरिका के कुछ सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों की तरह अंतरराष्ट्रीय छात्रों पर शिकंजा कसने का पूरा असर महसूस नहीं किया है.
फिर भी, वे कहती हैं, ''इसका मतलब यह नहीं कि हम पूरी तरह से सुरक्षित हैं. अंतरराष्ट्रीय, खासकर भारत से आए छात्र यहां पढ़ाई करने के लिए काफी पैसा खर्च करते हैं और कठिनाइयां उठाते हैं. इस पर भी नीतिगत अनिश्चितता और वीजा दिक्कतों का सामना करना उनके लिए दु:स्वप्न जैसा है.’’
क्या है इसकी राजनीति
ट्रंप सरकार ने अंतरराष्ट्रीय छात्रों पर शिकंजे को राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले के रूप में पेश किया है, लेकिन असलियत में यह एकदम अलग, सांस्कृतिक संघर्ष जैसा है. यह विश्वविद्यालय परिसरों में होने वाले बहस-मुबाहिसों पर नियंत्रण रखने के मंसूबे से किया गया है. सरकार कई विश्वविद्यालयों को अत्यधिक ''वामपंथी’’ झुकाव वाले मानती है और ये फलस्तीन समर्थक सक्रियता को रोकने में नाकाम रहते हैं, जिसे सरकार स्पष्ट रूप से यहूदी विरोध या आतंकवाद के समर्थन के बराबर मानती है.

आधिकारिक तौर पर व्हाइट हाउस का कहना है कि कड़ी जांच 'आम उपाय’ है, ताकि नए छात्रों को कोई खतरा न हो. व्हाइट हाउस की प्रवक्ता अन्ना केली कहती हैं, ''अमेरिका में पढ़ाई करना अधिकार नहीं, विशेषाधिकार है.’’ विदेश विभाग का कहना है कि हर वीजा का फैसला ''राष्ट्रीय सुरक्षा निर्णय’’ है.
ट्रंप ने सुझाव दिया है कि हार्वर्ड में विदेशी छात्रों के दाखिले को मौजूदा 31 फीसद से घटाकर 15 फीसद किया जाना चाहिए, क्योंकि उनका दावा है कि अमेरिकी छात्र इससे वंचित हो रहे हैं. उनके उप-राष्ट्रपति जे.डी. वैंस भी यही कहते हैं, उनकी दलील है कि विदेशी छात्र ''अमेरिकी बच्चों की जगह ले लेते हैं.’’
कई लोग इसके पीछे छिपे मकसद को देखते हैं. गिब्सन का कहना है कि मकसद आप्रवासी छात्र नहीं, विश्वविद्यालयों पर शिकंजा कसना ज्यादा है. वे कहते हैं, ''ट्रंप कॉलेजों को संदेह की नजर से देखते हैं. वहां ऐसा ज्ञान पैदा होता है, जो उनकी विश्वदृष्टि को चुनौती देता है.’’
जलवायु परिवर्तन और कोविड-19 जैसे मुद्दे इसकी मिसाल हैं, जिनके वैज्ञानिक निष्कर्ष ट्रंप के दावों का खंडन करते हैं. कोलंबिया विश्वविद्यालय के बर्नार्ड कॉलेज के प्रोफेसर राजीव सेठी के मुताबिक, वैंस ने कहा था कि दक्षिणपंथ नामी-गिरामी विश्वविद्यालयों पर कब्जा करके या उन्हें खत्म करके ही जीतेगा. तो विदेशी छात्रों को निशाना बनाना बड़े वैचारिक अभियान का मोर्चा है.
कोलंबिया लॉ स्कूल में इमिग्रेंट्स राइट्स क्लीनिक की निदेशक तथा जेरोम एल. ग्रीन क्लीनिकल की विधि विभाग की प्रोफेसर एलोरा मुखर्जी का कहना है कि यह नीति ''क्रूरता, श्वेत राष्ट्रवाद और नस्लवाद से प्रेरित लगती है’’, वीजा के फैसले अब नस्ल, धर्म और राजनैतिक पूर्वाग्रह के आधार पर तय हो रहे हैं.
दरअसल सुरक्षा के नाम पर इस नैरेटिव में आतंकवाद और यहूदी-विरोध को भी जोड़ लिया गया है. होमलैंड सुरक्षा विभाग ने चेतावनी दी है कि ''सोशल मीडिया पर यहूदी-विरोधी गतिविधि’’ और ''यहूदी व्यक्तियों का उत्पीड़न’’ प्रवासी वीजा में अड़चन पैदा कर सकता है. वीजा पाने की योग्यता अब इज्राएल-फलस्तीनी संघर्ष पर प्रशासन के रुख से जुड़ी हुई है.
यह विश्वविद्यालयों पर व्यापक वैचारिक हमले का भी हिस्सा है, जिन्हें बहुत उदार माना जाता है. मसलन, हार्वर्ड पर ट्रंप प्रशासन ने यहूदी-विरोधी भावना को बढ़ावा देने और विविधता, समानता और समावेश (डीईआइ) नीतियों को बढ़ावा देने का आरोप लगाया है, जिसे वह नस्लवादी मानता है (देखें: गहरा गतिरोध).
छात्रों के पास बचे हैं सीमित कानूनी रास्ते
अंतरराष्ट्रीय, खासकर भारत के छात्र ट्रंप सरकार की नई वीजा नीतियों से उपजी अनिश्चितताओं से जूझ रहे हैं. वे उपलब्ध कानूनी रास्ते, व्यापक सोशल मीडिया पड़ताल की बारीकियों और मददगार व्यवस्थाओं का पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं. व्यक्तिगत रूप से छात्रों के लिए आर्थिक खर्च का दांव बहुत ज्यादा है.
कॉलेज आवेदन सलाहकार, द आइवी लीग एज के बी.के. शुक्ला ने बताते हैं कि विश्वविद्यालय के आवेदनों की फीस प्रति संस्थान 10,000-15,000 रुपए है, जबकि परामर्शदाता आम तौर पर 5-6 लाख रुपए ऐंठ लेते हैं.
कई छात्रों ने पहले ही ट्यूशन फीस का भुगतान कर दिया है या आवास बुक कर लिया है, जो पैसा शायद वापस न मिले. शुक्ला कहते हैं कि असली झटका मौके का है. ''एक साल खोने का मतलब डिग्री, कार्य अनुभव और करियर की शुरुआत से हाथ धोना है.’’ जोखिम सिर्फ पैसे गंवाने का हीं नहीं, बल्कि मौके और साल गंवाने का भी है.
जिन भारतीय छात्रों के वीजा आवेदन अनिश्चित काल के लिए रोक दिए गए हैं, उनके लिए सीधे कानूनी रास्ते बहुत सीमित हैं. अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया है कि विदेश विभाग को विदेश में वीजा न दिए जाने पर मुकदमों से छूट है, जिसे कॉन्सुलर नॉन-रिव्यूएबिलिटी सिद्धांत कहा जाता है.
बीडीओ के कपूर कहते हैं, ''जब कोई किसी देश के लिए वीजा की मांग करता है, तो वह सरकार से अनुरोध होता है, न कि अधिकार. किसी भारतीय अदालत में दायर किए गए मामले में किसी विदेशी सरकार को निर्देश देने का अधिकार नहीं होगा. छात्रों के लिए एकमात्र उपाय भारत में अमेरिकी दूतावास में अर्जी डालना है जिसमें वीजा की स्थिति के बारे में अपडेट मांगा जाए या प्रक्रिया में तेजी लाने की मांग की जाए.’’
कुक कुछ व्यावहारिक सलाह देते हैं, ''छात्र जो कर सकते हैं वह है इंटरव्यू के लिए बेहतर तैयारी, इनकार के मूल कारण का पता लगाना और उस शुरुआती निर्णय से कैसे उबरना है, इसका सबूत और मौखिक विवरण लाना.’’ भारतीय सलाहकार छात्रों को हल्के राजनैतिक पोस्ट भी मिटाने या सोशल मीडिया पर ''सुरक्षित’’ समूहों में शामिल होने की सलाह देते हैं.
ट्रंप सरकार के नए छात्र वीजा कायदे का मुख्य असर तो छात्रों और संस्थानों पर पड़ेगा लेकिन कूटनीतिक असर भी हो सकता है. भारतीय विदेश मंत्रालय ने अमेरिका से ''योग्यता के आधार पर छात्र वीजा समय पर जारी करने’’ का आग्रह किया है. विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने कहा कि ''वीजा किसी देश का संप्रभु अधिकार है,’’ लेकिन उन्होंने अपील की कि ''विदेश में भारतीय छात्रों का कल्याण भारत सरकार के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता है.’’
उम्मीद की किरण
अनिश्चितता के बादल मंडराने के बावजूद कई लोग इसे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ और सबसे प्रतिभाशाली लोगों के लिए हमेशा की बाधा नहीं मानते, बल्कि इसे एक अस्थायी बदलाव के रूप में देखते हैं. हार्वर्ड की पूर्व छात्रा और विदेशी शिक्षा सलाहकार रीचआइवीडॉटकॉम की संस्थापक विभा कागजी का मानना है कि ''अमेरिकी सपना’’ फिर से तय हो रहा है, खत्म नहीं किया जा रहा.
वे कहती हैं, ''ऐतिहासिक रूप से अंतरराष्ट्रीय शिक्षा में नीतिगत बदलावों ने खुद को दुरुस्त किया है, खासकर विश्वविद्यालयों, उद्योग के अग्रणियों और कानून निर्माताओं के मजबूत दबावों के बाद जो वैश्विक प्रतिभा को अहमियत देते हैं.’’ उनका यह भी मानना है कि अभी भी व्यापकता, रिसर्च फंडिंग, पूर्व छात्रों के नेटवर्क और वैश्विक प्रतिष्ठा के मामले में अमेरिका में बेमिसाल फायदे हैं.
विदेश में अध्ययन कराने वाले प्लेटफॉर्म लीवरेज एडु के अक्षय चतुर्वेदी भी कुछ इसी तरह सोचते हैं. वे कहते हैं, ''दरवाजे बंद नहीं हुए हैं, बल्कि यह सिस्टैमिक रीसेट है कि अमेरिका वैश्विक प्रतिभाओं के साथ किस तरह जुड़ता है. अमेरिका में हमेशा ही चीजें फिर से पटरी पर लौट आई हैं. ये चक्रीय बदलाव हैं जो अक्सर अधिक समावेशी और परिणाम-केंद्रित सिस्टम बनाते हैं.’’
शुक्ला का मानना है कि शीर्ष-स्तर के विश्वविद्यालयों पर काफी हद तक इनका कोई असर नहीं होगा. वे कहते हैं, ''यह कार्रवाई उन लोगों को बाहर करने के मकसद से की गई लगती है जो अमेरिका में बसने के लिए अनजान संस्थानों में दाखिलों का दुरुपयोग करते हैं. डेटा विश्लेषकों या साइबर सुरक्षा जैसे ज्यादा हुनर वाले कामों के लिए अमेरिका को अंतरराष्ट्रीय प्रतिभाओं की जरूरत है.’’
ऐसे भी लोग हैं जो मानते हैं कि अंतरराष्ट्रीय छात्र वीजा की नई छानबीन प्रक्रिया से इमिग्रेशन जांच में सुधार होगा. वैश्विक छात्र आवास मार्केटप्लेस—यूनिवर्सिटी लिविंग के संस्थापक तथा सीईओ सौरभ अरोड़ा कहते हैं, ''पिछले पांच वर्षों में आवेदकों के सोशल मीडिया हैंडल, ईमेल एड्रेस और फोन नंबर की जांच से पहचान की बेहतर पुष्टि होगी, धोखाधड़ी रोकी जा सकेगी और अमेरिका में रहने का सुरक्षित माहौल कायम होगा.’’
छात्रों को सही कॉलेज और फंडिंग के बारे में गाइड करने वाली एजेंसी ग्रैडराइट के अमन सिंह का मानना है कि वैध आवेदनों की प्रोसेसिंग जारी रहेगी. वे कहते हैं, ''अमेरिका विरोध की भावना वाले छात्रों को परेशानी हो सकती है और जांच के नए कदम निर्णयों को धीमा कर सकते हैं. फिर भी वैश्विक बातचीत को समझने-बूझने वाले आधुनिक एआइ टूल से इसमें बहुत ज्यादा देरी की संभावना नहीं है.’’
अमेरिका के विकल्प
लंबी अवधि में ट्रंप प्रशासन की वीजा सख्ती से न केवल विदेशी छात्रों को खतरा है बल्कि अमेरिका में उच्च शिक्षा की आर्थिक संजीवनी और उसकी इनोवेशन बढ़त के लिए भी खतरा है. कई विश्वविद्यालय खास तौर पर जो आइवी लीग से बाहर हैं, पूरा भुगतान करने वाले विदेशी छात्रों पर निर्भर हैं जिससे वे घरेलू शिक्षा को सब्सिडी दे पाते हैं.
दाखिले में गिरावट से कमाई का यह बड़ा स्रोत बंद हो जाएगा. भारतीय छात्र पहले से ही बैकअप प्लान की तलाश कर रहे हैं. वे एडमिशन टालने या दूसरे देशों पर विचार कर रहे हैं. बेंगलूरू के निशांत (बदला हुआ नाम) अगली मई में इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियरिंग में अपनी बीटेक पूरी कर लेंगे, वे उन लोगों में हैं जो अपने विकल्पों पर फिर से विचार कर रहे हैं.
वे कहते हैं, ''जो लोग पहले ही (अमेरिका में) अपनी मास्टर डिग्री पूरी कर चुके हैं, उन्हें अभी तक नौकरी नहीं मिली है. तो क्या अमेरिका में इतना खर्च उचित है जबकि जर्मनी जैसे देशों में अधिक सब्सिडी मिलती है?’’
भारतीय छात्रों के दाखिले के पैटर्न में भी बदलाव दिखता है. संसद में केंद्रीय शिक्षा राज्यमंत्री सुकांत मजूमदार के जवाब के अनुसार, 2023 और 2024 के बीच जर्मनी में भारतीय छात्रों की संख्या में 49 फीसद की वृद्धि हुई है और यह 23,296 से बढ़कर 34,702 हो गई है.
शिक्षा रणनीति सलाहकार फर्म एडुशाइन सर्च पार्टनर्स के कल्पेश बैंकर दूसरे देशों के लाभ गिनाते हैं, ''कनाडा में अनुकूल वीजा नीतियां और अध्ययन के बाद काम करने का परमिट मिलता है, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन मजबूत शोध और छोटे कोर्स मुहैया कराते हैं. जर्मनी, हांगकांग, सिंगापुर और यूएई भी शिक्षा के उभरते केंद्र हैं जहां कम फीस, सांस्कृतिक विविधता और सुविधाएं हैं.’’
इस बीच, अंतरराष्ट्रीय छात्रों पर लगाए गए ट्रंप प्रशासन के प्रतिबंध महज आधिकारिक बदलाव से कहीं ज्यादा बड़े संकेत देते हैं; इससे वैश्विक प्रतिभाओं के साथ अमेरिका के संबंधों को फिर से व्यवस्थित होने की संभावना का अनुमान लगता है. राष्ट्रीय सुरक्षा में लिपटी, जो किसी भी देश की वैध चिंता है, ये नीतियां भ्रम और भय पैदा कर रही हैं, उन लाभों को ही खत्म कर दे रही हैं जो अमेरिका की अकादमिक और इनोवेटिव श्रेष्ठता का आधार रहे हैं.
इच्छित तरीके से काम करने के लिए वास्तव में समायोजन आवश्यक है: खुलेपन के साथ सुरक्षा का संतुलन और अंतरराष्ट्रीय छात्रों के महत्व की पुष्टि. वरना अमेरिका दुनिया के सबसे प्रतिभाशाली लोगों के आकर्षण के रूप में अपनी भूमिका गंवा सकता है.
—साथ में शैली आनंद, अजय सुकुमारन
कानूनी उपाय सीमित हैं, क्योंकि अमेरिकी विदेश विभाग का वीजा इनकार कांसुलर समीक्षा के तहत कानून के दायरे में नहीं है.
बहुतों की राय में मौजूदा नीति रीसेट है न कि स्थायी बदलाव क्योंकि अमेरिका को डेटा एनॉलिसिस जैसे ऊंचे हुनर वाले कामों के लिए प्रतिभाओं की दरकार है.
राष्ट्रीय सुरक्षा की फिक्र किसी देश के लिए वाजिब है, मगर अमेरिका के अंध-राष्ट्ररवादी मोड़ से उसकी अकादमिक प्रभुता के मिट जाने का खतरा है.
ट्रंप सरकार के लगाए प्रतिबंध और शर्तें

ट्रंप प्रशासन ने अमेरिका में पढ़ाई के इच्छुक विदेशी छात्रों के लिए रुकावट खड़ी कर दी है. इनमें सीधे वीजा प्रक्रियाओं से लेकर शीर्ष संस्थानों पर हमला करने वाली नीतियां शामिल हैं. भारतीय छात्रों पर इन दमनकारी नीतियों काअसर कुछ इस प्रकार पड़ेगा:
छात्र वीजा साक्षात्कारों पर रोक
ट्रंप प्रशासन ने भारत समेत अमेरिकी दूतावासों में नए छात्र वीजा (एफ-1) से संबंधित बुलावे पर रोक लगा दी है, हालांकि पहले से तय बुलावे जारी हैं. इससे अमेरिका में पढ़ाई करने के आकांक्षी छात्रों के लिए असमंजस खड़ा हो गया है.
सोशल मीडिया पड़ताल पर जोर
छात्र वीजा आवेदकों की विस्तृत सोशल मीडिया पड़ताल के निर्देश हैं, जिसका मकसद 'राष्ट्रीय सुरक्षा का दायरा बढ़ाना’ है. कोई भी 'कट्टरपंथी/अमेरिका विरोधी’ राय वीजा मिलने की संभावनाएं कम कर देगी, जिससे छात्रों की गोपनीयता में दखल की चिंताएं बढ़ेंगी.
सियासी गतिविधि के आधार पर वीजा न देना
'फलस्तीन समर्थक गतिविधियों’ में शामिल रहे लोगों पर निशाना साधने के लिए ट्रंप प्रशासन ने विदेशी छात्रों के लिए 300 से ज्यादा छात्र वीजा खत्म कर दिया है. इतना ही नहीं, ''सुरक्षा खतरे’’ का हवाला देकर 4 जून को ट्रंप ने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में विदेशी छात्रों के प्रवेश को छह महीनों के लिए रोक दिया.
आज्ञापालन की सलाह
भारत में अमेरिकी दूतावास ने सलाह जारी की है कि जो छात्र कक्षाएं छोड़ते हैं, कार्यक्रमों से हट जाते हैं, या उचित सूचना के बिना अपनी पढ़ाई छोड़ देते हैं, उनका वीजा रद्द हो सकता है. जो भारतीय छात्र इसका पालन नहीं करते, उन्हें निर्वासित किया जा सकता है.
विदेशी छात्रों की प्रस्तावित सीमा
राष्ट्रपति ट्रंप ने हार्वर्ड में विदेशी छात्रों के दाखिले की सीमा को मौजूदा 31 फीसद से घटाकर 15 फीसद करने का सुझाव दिया है. उनकी दलील है कि वे अमेरिकी छात्रों की सीटों को हथिया लेते हैं. इसे सभी विश्वविद्यालयों में लागू किया जाता है तो भारतीय छात्रों के लिए सीटें कम हो सकती हैं.
एसईवीपी सर्टिफिकेट पर रोक
मई में हार्वर्ड के एसईवीपी (स्टूडेंट ऐंड एक्सचेंज विजिटर प्रोग्राम) सर्टिफिकेट को 'यहूदी विरोधी भावना और हिंसा को बढ़ावा देने’ के आरोप में रद्द कर दिया गया था, जिसके तहत विश्वविद्यालय में विदेशी छात्रों की आमद होती है. एक संघीय न्यायाधीश ने इस पर रोक लगा दी है. अगर इसे सही ठहराकर अन्य जगहों पर भी लागू किया जाता है, तो भारतीय छात्रों के लिए मुश्किल खड़ी हो सकती है.
संघीय फंड रोकना
ट्रंप प्रशासन अमेरिकी विश्वविद्यालयों को अपने एजेंडे के आगे झुकने को मजबूर करने के लिए अरबों डॉलर के संघीय अनुदान को औजार बना रहा है. मसलन, हार्वर्ड को अनुसंधान अनुदान में 2.3 अरब डॉलर से ज्यादा की राशि रोक दी गई. कई शीर्ष विश्वविद्यालयों को ऐसे ही फंड में कटौती का सामना करना पड़ता है तो तमाम भारतीय छात्रों को मदद न मिल पाएगी.
छात्रों की जानकारी की मांग
ट्रंप प्रशासन ने मांग की है कि हार्वर्ड अपने विदेशी छात्रों के रिकॉर्ड उपलब्ध कराए, जिसमें अनुशासनात्मक कार्रवाई और कोर्स-वर्क शामिल है. इसे भी विस्तार दिया जाता है तो छात्रों की पढ़ाई की आजादी पर असर पड़ेगा.
टेक्नोलॉजी के छात्रों पर निशाना
ट्रंप प्रशासन चीनी छात्रों, खासकर कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े या एआइ और चिप जैसे संवेदनशील विषयों की पढ़ाई करने वाले छात्रों के वीजा को सिरे से 'रद्द’ करना चाहता है. इससे अहम क्षेत्रों में प्रतिभाओं की कमी हो सकती है. अगर इसका दायरा बढ़ा तो भारतीय छात्र भी प्रभावित हो सकते हैं.
ओपीटी बंद करना
अप्रैल में ऑप्शनल प्रैक्टिकल ट्रेनिंग (ओपीटी) प्रोग्राम को खत्म करने के लिए अमेरिकी कांग्रेस में एक विधेयक पेश किया गया था, जो विदेशी छात्रों को पढ़ाई पूरी करने के बाद अमेरिका में अस्थायी काम करने की इजाजत देता है.
जोसेफ एडलो सरीखे ओपीटी के जाने-माने आलोचक की अमेरिकी नागरिकता और आव्रजन सेवाओं (यूएससीआइएस) के निदेशक के पद पर नियुक्ति से कई छात्रों को ओपीटी से हाथ धोने का डर है. कुछ छात्र दूसरे देशों में जाने का विकल्प तलाश रहे हैं. मसलन, फ्रांसीसी बिजनेस स्कूल अमेरिकी वीजा प्रतिबंधों से प्रभावित छात्रों के लिए दाखिले के दरवाजे खोल रहा है.