
मानो कोई बच्चा वीडियो गेम पर डिमोलिशन डर्बी खेल रहा हो, ऐन उसी तरह डोनाल्ड ट्रंप अपने टैरिफ झटके से दुनिया को उलट-पुलट कर रहे थे, दुनिया अमेरिकी राष्ट्रपति की परदुख दोहन व्यापार नीतियों के नतीजों से निबटने की जद्दोजहद में जुटी थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उसके पहले ही अमेरिका यात्रा से भारत को ट्रंप के हमले से बचाने में कोई खास मदद नहीं मिली.
हालांकि भारत सबसे बुरे दौर से फिलहाल बच गया और ट्रंप ने खुद 9 अप्रैल को 90 दिन का विराम बटन दबा दिया, लेकिन नई दिल्ली पहले ही ट्रंप के व्यापार युद्ध की उम्मीद में भारतीय उद्योग को मजबूत करने के तरीकों पर विचार करने लगी थी. फेहरिस्त में सबसे ऊपर देश की आर्थिक वृद्धि की धमनियों में रुकावट पैदा करने वाले नियम-कायदों के कोलेस्ट्रॉल को साफ करने की फौरी जरूरत थी. जानकार एक मत थे कि नियम-कायदों की सख्ती का राज खत्म किया जाना चाहिए.
पहला संकेत शायद ट्रंप के शपथ ग्रहण के 11 दिन बाद जारी आर्थिक सर्वेक्षण में मिला. मुख्य आर्थिक सलाहकार वी. अनंत नागेश्वरन ने भूमि, श्रम और पूंजी के नियम-कायदों में ढील और सुधारों की जरूरत का जिक्र किया, ताकि कारोबार को पुराने पचड़ों से मुक्त किया जा सके और अर्थव्यवस्था को नए वैश्विक संदर्भ में सुपरफास्ट ट्रैक पर लाया जा सके.
केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक दिन बाद बजट दस्तावेज में इस सूत्र को पकड़ा और कैबिनेट सचिव टी.वी. सोमनाथन की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय समिति के गठन की घोषणा की, जिसमें नीति आयोग तथा प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारी शामिल थे. इसे सभी गैर-वित्तीय क्षेत्र के नियम-कायदों, सर्टिफिकेशन, लाइसेंस और मंजूरियों की समीक्षा करने का अधिकार दिया गया.
सख्त नियम-कायदों वाले राज्यों के साथ तालमेल बैठाने के लिए एक विनियमन आयोग का भी गठन किया गया. सीतारमण ने कहा, ''उद्देश्य विश्वास-आधारित आर्थिक व्यवस्था को मजबूत करना और 'कारोबारी सहूलियत’ में इजाफे के लिए बदलाव करना है, खासकर जांच-परख और नियमों के पालन के मामलों में. राज्यों को इस कोशिश में जुड़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा."

नियमों का मकड़जाल
देश में सभी छोटे-बड़े कारोबार शुरुआत से लेकर अंत तक नियमों के थकाऊ चक्रव्यूह में फंसे रहते हैं. स्टाफ और मानव पूंजी फर्म टीमलीज सर्विसेज की सहयोगी टीमलीज रेगटेक के 2024 के श्वेत पत्र के मुताबिक, भारतीय उद्यम 1,536 अलग-अलग कानूनों के अधीन हैं, जिनमें 69,233 अनुपालन और 6,618 वार्षिक फाइलिंग की जरूरत होती है.
ये नियम केंद्रीय, राज्य, नगरपालिका और पंचायत के कई स्तरों पर लागू होते हैं और अक्सर एक ही प्रक्रिया बार-बार करनी पड़ती है. ऐसा इसलिए है क्योंकि जमीन राज्य की सूची का मामला है, लेकिन संपत्ति का हस्तांतरण समवर्ती सूची में आता है, जिसमें केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं. इसी तरह, श्रम कानून 463 अधिनियमों के तहत 32,542 अनुपालनों और 3,048 फाइलिंग की मांग करते हैं, जिनमें कुछ समवर्ती सूची में आते हैं. बिजली के मामले में भी यही बात लागू होती है.
बेंगलूरू के उपनगर कोरमंगला में अपने कार्यालय में इंडिया टुडे से बातचीत में टीमलीज सर्विसेज के अध्यक्ष तथा सह-संस्थापक मनीष सभरवाल ने गहराई से चर्चा की कि भारतीय कारोबार दुनिया में अपने क्षेत्र के कारोबार में सबसे पीछे क्यों हैं.
वे कहते हैं, ''देश के 6.3 करोड़ उद्यमों में से 1.2 करोड़ के पास कोई दफ्तर नहीं है, और उनके कर्मचारी घर से काम करते हैं. माल और सेवा कर (जीएसटी) के लिए पंजीकृत 1.2 करोड़ में 80 लाख ही कर अदा करते हैं और सिर्फ दस लाख सामाजिक सुरक्षा की मदों में भुगतान करते हैं. देश में सिर्फ 29,000 कंपनियां हैं जिनकी चुकता पूंजी 10 करोड़ रुपए से ज्यादा है."
हमारे पास ऐसी बहुत कम कंपनियां क्यों हैं? वे बताते हैं, ''हमारे पास जमीन, कामगार या पूंजी की कमी नहीं है. हमारे यहां सांस्कृतिक समस्याएं नहीं हैं. भारत ने 2021 में सऊदी अरब से निर्यात किए गए तेल के मुकाबले अधिक सॉफ्टवेयर का निर्यात किया. इन्फ्रास्ट्रक्चर और हुनरमंद लोगों की दिक्कत अब नहीं हैं. इसलिए, इन वजहों को घटाते जाएं, तो आप असली वजह तक पहुंचते हैं और वह है नियम-कायदों का कोलेस्ट्रॉल."
टीमलीज ने भारतीय कारोबार के लिए सभी अनुपालन जरूरतों का व्यापक डेटाबेस तैयार करने के लिए व्यापक शोध करने में लगभग चार साल बिताए. वे कहते हैं, ''जब हमने 69,233 का आंकड़ा दिया तो सभी प्रशासनिक अधिकारियों की पहली प्रतिक्रिया यही थी कि हम झूठ बोल रहे हैं. इसलिए मैंने उनसे पूछा कि हमें बताएं कि डेटाबेस से किन नियमों को हटाया जाए. कोई भी बताने के लिए वापस नहीं आया."
नियम-कायदों की खींचतान की भारी कीमत चुकानी पड़ती है. पुणे स्थित इंजीनियरिंग और इंस्ट्रूमेंटेशन फर्म फोर्ब्स मार्शल के चेयरमैन नौशाद फोर्ब्स कहते हैं, ''इन नियम-कायदों के पालन से लागत खर्च बढ़ते हैं और कारोबार करना अधिक बोझिल बनाते हैं, जिससे हताशा पैदा होती है. और उद्यमशीलता का दम निकल जाता है." साथ ही, कारोबार, खासकर छोटे, लघु और मझोले उद्यमों (एमएसएमई) के फायदे और व्यावहारिक पहलुओं में रोड़ा बनते हैं, उनमें से कई तो कारोबार बंद करने के लिए मजबूर हो जाते हैं.
100 करोड़ रुपए तक के सालाना टर्नओवर वाले एमएसएमई के लिए, नियमों के पालन का बोझ 11-16 लाख रुपए प्रति वर्ष तक हो सकता है. टीमलीज के अनुमान के मुताबिक, यह फिनटेक फर्मों के लिए और भी अधिक है—छोटी कंपनियों के मामले में 96 लाख रुपए से 1.17 करोड़ रुपए प्रति वर्ष और बड़ी कंपनियों के मामले में 2.5-3.2 करोड़ रुपए के बीच हो सकता है.
सो, आश्चर्य नहीं कि केंद्र सरकार के उद्यम पोर्टल पर पंजीकृत 35,567 एमएसएमई वित्त वर्ष 25 (फरवरी तक) में मुख्य रूप से नियम-कायदों के मकड़जाल का हवाला देकर दुकान बढ़ा चुके हैं. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) वित्त वर्ष 22 में 84.8 अरब डॉलर से घटकर वित्त वर्ष 24 में 70.95 अरब डॉलर रह गया.
संघीय नाकाबंदी
जानकारों का मानना है कि नियम-कायदे नेक इरादों के साथ तैयार और लागू किए गए थे, लेकिन सामूहिक रूप से अब यह लकवाग्रस्त बोझ बन गया है. फोर्ब्स कहते हैं, ''यह हजारों अच्छे इरादों वाले नियमों का नतीजा है जो कहर बरपा कर रहे हैं." और आप हर कदम पर उसका सामना करते हैं, चाहे जमीन हो, कामगार हो या निरीक्षण. नियम राज्यों में भी अलग-अलग हो सकते हैं.
महाराष्ट्र को ही लें: अल्को-बेवरेज क्षेत्र में कोई उत्पादन इकाई शुरू करने के लिए 99 लाइसेंस की जरूरत होती है, जिनमें 35 को समय-समय पर नया करना पड़ता है. कर्नाटक में, केंद्रीय और राज्य श्रम कानूनों सहित 60 अधिनियम हैं, जो लगातार नियमों का मासिक, त्रैमासिक, अर्ध-वार्षिक और वार्षिक पालन अनिवार्य बनाते हैं. कर्नाटक नियोक्ता संघ के अध्यक्ष बी.सी. प्रभाकर हताशा से कहते हैं, ''कानूनों के नियम-कायदों पर अमल एक बड़ी चुनौती है."
मंजूरी और लाइसेंस हासिल करना भी आसान नहीं है, क्योंकि संबंधित व्यक्ति को विधिवत भरे हुए फॉर्म और संबंधित दस्तावेजों के साथ संबंधित अधिकारी के पास खुद जाना पड़ता है.
बिल्ट-टू-सूट औद्योगिक इन्फ्रास्ट्रक्चर की पेशकश करने वाले एकस इन्फ्रा के एमडी विक्रम अन्नाप्पा कहते हैं, ''औसतन, आपको कारोबार शुरू करने के लिए न्यूनतम एक वर्ष की जरूरत होती है, क्योंकि देश में अभी भी मंजूरी और परमिट प्रणाली को डिजिटल बनाने की जरूरत है, और फिर बहुत सारी एजेंसियों के एक साथ काम करने की दरकार है. यह किसी उद्यमी के लिए बहुत बड़ा अवसर गंवाने जैसा लगता है, जो कमाई खो देता है, और सरकार जीएसटी राजस्व खो देती है. वह वैश्विक बाजार में भी मौके खो देने का नुक्सान उठा सकता है."
इसके विपरीत, देश के प्रमुख वैश्विक प्रतिस्पर्धियों में से एक, वियतनाम में स्थानीय लोगों को एक महीने से भी कम समय में और विदेशियों को दो महीने के भीतर औद्योगिक लाइसेंस मिल जाता है.
देश में इससे भी चिंताजनक बात यह है कि नियमों का पालन न करने पर जेल जाने का खतरा है. ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ओआरएफ) और टीमलीज रेगटेक की 2022 की रिपोर्ट में बताया गया है कि हर कारोबार को 69,233 अनुपालनों को पूरा करना है, जिनमें से 26,134 या 38 फीसद में जेल की धाराएं हैं. यह सब देश में उद्योग के लिए बहुत दमनकारी माहौल बनाता है और सिस्टम को मनमानी शक्ति और भ्रष्टाचार के लिए खुला छोड़ देता है, जिससे आदमी को जूझना पड़ता है.
जमीन का जंजाल
भारत में जमीन राज्य सूची में आती है यानी हर राज्य सरकार कानून, नियम और जमीन से जुड़ी नीतियां बनाती हैं. इस विकेंद्रीकृत नियंत्रण के कारण सभी राज्यों में जमीन अधिग्रहण की प्रक्रियाओं, भू उपयोग की नीतियों, जोन के हिसाब से कानूनों और संपत्ति कराधान में अच्छा- खासा अंतर हो जाता है. औद्योगिक उद्देश्यों के लिए जमीन अधिग्रहण पर भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार या एलएआरआर, अधिनियम, 2013 लागू होता है.
इस कानून में उचित मुआवजा आश्वस्त करने के साथ-साथ सामाजिक असर आकलन और सहमति की आवश्यकताओं को अनिवार्य किया गया है, खासकर निजी परियोजनाओं के लिए.यह अमूमन अंधी सुरंग जैसा हो जाता है. इसके अलावा, कारखानों के लिए फैक्टरी लाइसेंस लेना और कारखाना अधिनियम, 1948 के प्रावधानों का पालन करना जरूरी है.
कारोबारियों के सामने एक बड़ी समस्या यह है कि सरकार के पास औद्योगिक उपयोग के लिए उपलब्ध जमीन की कमी है. और किसानों से सीधे भूमि हासिल करना टेढ़ा काम है. सरकार की ओर से मुहैया कराई गई जमीन के मामले में भी अक्सर किसान आंदोलनों और अदालतों के स्थगन आदेशों का सामना करना पड़ता है. किसानों को मनाने के लिए सरकारें जमीन के बाजार मूल्य में बढ़ोतरी करती रहती हैं. विशेष रसायन कंपनी विक्टर कलर कोटिंग तथा एयरोस्पेस और रक्षा उपकरण निर्माता सनऑटो इंजीनियर्स (इंडिया) के मालिक विनोद करवा कहते हैं कि यह वृद्धि चार गुना तक भी हो सकती है.
इसलिए अगर फरीदाबाद की औद्योगिक मॉडल टाउनशिप (आईएमटी) में जमीन की कीमत जून 2013 में 14,900 रुपए प्रति वर्ग मीटर थी तो यह 2025 में नई नीलामी या रीसेल में 67,000 रुपए प्रति वर्ग मीटर तक चली गई, जो किसी नए उद्यमी के लिए बर्दाश्त की सीमा से बाहर है. पश्चिम बंगाल में अगर राज्य के उद्योगीकरण के लिए नोडल एजेंसी पश्चिम बंगाल औद्योगिक विकास निगम (डब्ल्यूबीआइडीसी) से मान्यता प्राप्त या आवंटित जमीन के हिस्से में कारोबार लगाया जा रहा है तो यह आसान हो जाता है.
लेकिन किसी उद्यमी को फिर भी विभिन्न विभागों से अलग-अलग मंजूरियां लेनी ही होती हैं. उद्योग के सूत्रों का कहना है कि हालांकि डब्ल्यूबीआइडीसी संबंधित अधिकारियों को पत्र जारी करके कुछ सहूलियत मुहैया कराता है, जिससे कुछ हद तक प्रक्रिया तेज हो जाती है. लेकिन समूची प्रणाली बोझिल ही रहती है. और अगर आप भूमि की अनुमति हासिल कर भी लेते हैं तो फिर आपका साबका नगर नियोजन, सर्वेक्षण विभाग और लोक निर्माण विभाग सहित 14 अन्य एजेंसियों से पड़ता है. कई राज्यों ने भूमि के लिए एक ही जगह मंजूरी की सुविधा की घोषणा की है लेकिन कारोबारियों का कहना है कि इसमें भी खामियां हैं.
कामगारों का दर्द
2024 की टीमलीज रेगटेक की 'डिकोडिंग इंडियाज लेबर कंप्लाएंस फ्रेमवर्क' रिपोर्ट के अनुसार सभी अनुपालनों में लगभग 47 फीसद (32,542) और सभी फाइलिंग में से 46 फीसद (3,048) श्रम कानूनों से संबंधित हैं. इनमें से 54 फीसद (17,819) में अनुपालन न करने पर जेल जाने का प्रावधान है. राज्य स्तर के अनुपालनों में कारोबारियों के लिए सभी श्रम-संबंधी दायित्वों (31,605) का चौंका देने वाला 97 फीसद हिस्सा है जबकि केंद्र के स्तर पर अनुपालन की संख्या बहुत कम 937 है.
करवा उद्योग संस्था पीएचडीसीसीआई की एमएसएमई समिति के अध्यक्ष भी हैं. वे कहते हैं कि कुछ राज्यों का आदेश है कि उद्यमों में 60-70 फीसद स्थानीय श्रम बल रखा जाए. हालांकि स्थानीय लोग डेयरी या खेती के अपने पारिवारिक कामकाज के अलावा अक्सर फैक्ट्री में काम करते हैं और वे बेमन से काम करने वाले कर्मचारी हो सकते हैं. करवा अफसोस जताते हैं, ''और सरकार हमें अक्षम कर्मचारियों को नौकरी से निकालने की इजाजत नहीं देती."
इसलिए, पूरे देश में श्रमिक आंदोलन आम बात है. तमिलनाडु में सैमसंग इलेक्ट्रॉनिक्स की उत्पादन इकाई में हाल में एक महीने तक हड़ताल चली. इसमें 1,000 से ज्यादा श्रमिकों ने उन 23 लोगों के निलंबन का विरोध किया, जो अपनी ट्रेड यूनियन पंजीकृत कराना चाहते थे. हड़ताल के कारण कंपनी को लगभग 10 करोड़ डॉलर (857.1 करोड़ रुपए) का नुक्सान हुआ. अनुपालन की बढ़ी हुई लागत भी कारोबार को अनौपचारिक भर्ती की ओर ले जाती है. विशेषज्ञों के अनुसार, ओवरटाइम मजदूरी भी इसी तरह की है.
फैक्ट्रीज अधिनियम की धारा 59 के अनुसार जो श्रमिक सप्ताह में अनिवार्य 48 घंटे से ज्यादा काम करते हैं, वे नियमित वेतन से दोगुना ओवरटाइम पाने के हकदार हैं. इसलिए नियोक्ता लोगों से ओवरटाइम काम करवाने के लिए अनौपचारिक माध्यमों का विकल्प चुनने को मजबूर होते हैं.
भारत का अनुपालन तंत्र स्वाभाविक रूप से ढुलमुल है, जिससे कारोबारों के लिए इसके साथ चलना मुश्किल हो जाता है. टीमलीज रेगटेक के सह-संस्थापक और सीईओ ऋषि अग्रवाल कहते हैं, ''2024 में कानून की सात श्रेणियों में केंद्र, राज्य और स्थानीय निकाय स्तर पर 9,331 नियामकीय अपडेट प्रकाशित किए गए." ये अधिसूचनाएं, राजपत्र, परिपत्र, अध्यादेश, मास्टर परिपत्र या प्रेस विज्ञप्तियां हो सकती हैं.
उनमें से कई में फॉर्म, प्रारूप, नियत तारीख, आवृत्ति, दंड, शुल्क संरचना, न्यूनतम मजदूरी या ऐप्लिकैबिलिटी की सीमाएं आदि बदल दी गई हैं. वे कहते हैं कि समय के साथ बदलने वाले अपडेट के इस जटिल जाल से निबट पाना आसान काम नहीं है, खास तौर पर तब जब सर्च, सॉर्ट और फिल्टर क्षमताओं वाली कोई स्मार्ट डिजिटल लाइब्रेरी नहीं है.
अक्सर नए कानून और नियम पेश किए जाते हैं जो अनिश्चितता बढ़ाते हैं और इनसे दायित्व भी बढ़ जाते हैं. नीति में इस तरह के उलटफेर कारोबारियों के लिए अनिश्चितता पैदा करते हैं, जो आम तौर पर अनुबंधों, आपूर्ति शृंखलाओं और खरीद की योजना छह महीने से एक साल पहले ही बना लेते हैं. इसलिए बीच-बीच में किए जाने वाले बदलाव भारी मुश्किल पैदा करते हैं.


आर्थिक आतंकवाद
ऑडिट और निरीक्षण उद्यमियों के लिए एक और बारूदी सुरंग क्षेत्र जैसा है. इसके तहत कारखाने में किसी भी समय 40 इंस्पेक्टरों और सरकारी अधिकारियों के दौरे की संभावना हो सकती है.
हालांकि उनका इरादा व्यवस्था बेहतर करने का होता है. लेकिन उद्यमी अफसोस जताते हैं कि ये दौरे बिना किसी वस्तुनिष्ठ मापदंड के किए जाते हैं और अक्सर जबरन वसूली की मांग का बहाना बन जाते हैं.
नई दिल्ली में पाहवा समूह के अध्यक्ष दीपक पाहवा की छह महाद्वीपों में कंपनियां और 10 उत्पादन इकाइयां हैं. उनमें से एक मलेशिया में 30 साल पुरानी कंपनी है और एक चीन में 20 साल पुरानी है, लेकिन उन्होंने किसी भी कर्मचारी को उन देशों में अधिकारियों के हाथों परेशान होने की शिकायत करते नहीं सुना.
भारत में अनुभव एकदम अलग है. वे कहते हैं, ''यह आर्थिक आतंकवाद जैसा है.’’ वे याद करके बताते हैं कि कैसे जीएसटी ऑडिट पूरा होने और मंजूरी मिलने के बावजूद पिछले वर्षों के खातों को खोलने के लिए जीएसटी कानून की एक खास धारा का इस्तेमाल किया गया.
भले ही सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में कई तरह की मंजूरियों को खत्म करके कारोबारों के लिए लाइसेंसिंग को आसान बना दिया हो, लेकिन कारोबारी समुदाय का कहना है कि जब तक अधिकारी ऑडिट और इंस्पेक्शन के लिए फैक्टरी के दरवाजे खटखटाना बंद नहीं कर देते, तब तक व्यापार करने में सहूलियत नहीं होगी.
मसलन, फैक्टरी बनाने के लिए निर्माण लाइसेंस लेना आसान हो गया है क्योंकि आर्किटेक्ट अब खुद ही ड्रॉइंग पास कर सकता है. लेकिन वह अभी भी कंप्लीशन सर्टिफिकेट जारी नहीं कर सकता; उसे निरीक्षण के बाद अधिकारी ही देगा. इससे इंस्पेक्टरों को छोटे-मोटे बहाने से फाइल की मंजूरी रोकने का मौका मिल जाता है जो कारोबारी के लिए उत्पीड़न का स्रोत बन जाता है.
श्रम से जुड़े सुधारों के लिए ई-श्रम पोर्टल को अन्य प्लेटफॉर्म के साथ जोड़ा गया है, ताकि रोजगार और कौशल सेवाओं सहित श्रमिकों को व्यापक सेवा दी जा सके. इसके अलावा उद्योगों में अनुपालन आसान बनाने के लिए श्रम सुविधा और समाधान पोर्टल को नए सिरे से तैयार किया गया है. लेकिन और भी बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है.
मुंबई के एक बिल्डर का कहना है कि अनुपालन की हरेक सीढ़ी का मतलब है अधिक लालफीताशाही और पसरती हथेलियां. ये लागत आखिरकार अंतिम उपभोक्ता पर ही डाली जाती हैं, जो लगभग 1,000-1,500 रुपए प्रति वर्ग फुट का 'अनुपालन बोझ’ उठाता है. वे बताते हैं, ''दूसरी समस्या यह है कि हमारे लैंड टाइटल पुराने हैं और उनके डेटाबेस और रिकॉर्ड आपस में नहीं जुड़े हुए हैं." वे जोर देकर कहते हैं कि जरूरत इस बात की है कि सभी विभागों की मंजूरियां एक ही जगह मिलें.
नियम घटाने की लंबी राह
अपनी आर्थिक समीक्षा में नागेश्वरन ने भूमि और श्रम सुधारों का खाका पेश किया. जमीन के मामले में उन्होंने भू प्रशासन, योजना और प्रबंधन में सुधार का प्रस्ताव रखा. साथ ही जमीन के रिकॉर्डों को डिजिटल बनाने और शहरी नियोजन प्रणालियों को अपडेट करने की बात कही. श्रम के मामले में उन्होंने अनुपालन प्रक्रियाओं को सरल बनाने, काम पर रखने और हटाने के तरीकों में अधिक लचीलेपन और श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा उपायों में सुधारों की पैरवी की.
वित्त मंत्री ने भूमि और श्रम के क्षेत्र में इनमें से ''अगली पीढ़ी के कुछ सुधारों" की शुरुआत की. ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में भूमि-संबंधी सुधारों और कार्रवाइयों में दो प्रमुख पहलुओं पर ध्यान दिए जाने की उम्मीद है: भूमि प्रशासन में सुधार, योजना और प्रबंधन और शहरी नियोजन, लैंड यूजेज और बिल्डिंग बाइलॉज को अपडेट करना.

ग्रामीण सुधारों में विशिष्ट भूमि पहचान संख्या (यूलपिन) या भू-आधार की शुरुआत, भू-नक्शों (जमीन की सीमा, मूल्य और स्वामित्व को दर्शाना, खास तौर पर कराधान के लिए) का डिजिटलीकरण, नक्शों के सब डिविजनों का सर्वेक्षण, भूमि रजिस्ट्री की स्थापना और इसे किसानों की रजिस्ट्री से जोड़ना शामिल है.
शहरी सुधारों में जीआइएस (भौगोलिक सूचना प्रणाली) नक्शों के साथ शहरी भूमि रिकॉर्डों का डिजिटलीकरण, संपत्ति रिकॉर्ड प्रशासन के लिए आइटी आधारित प्रणाली बनाना और स्थानीय निकायों की वित्तीय क्षमता मजबूत करने की बात शामिल है.
देश को घरेलू और अंतरराष्ट्रीय उद्यमियों के साथ-साथ निवेशकों, खास तौर पर अंतरराष्ट्रीय निवेशकों, दोनों के लिए कारोबारी सहूलियत को समग्र रूप से देखने की जरूरत है क्योंकि वे पूरी तरह स्वतंत्र हैं और उनके पास व्यापार के अधिक अनुकूल देशों में निवेश करने का विकल्प है.
पाहवा कहते हैं, ''कारोबारी सहूलियत के लिहाज से किसी भी देश की परीक्षा विदेशी निवेश होता है. कई निवेशकों और कारोबारी घरानों ने भारत को दरकिनार करते हुए थाइलैंड, वियतनाम और मलेशिया को पसंद किया है."
अग्रवाल कहते हैं कि केंद्र सरकार ने अच्छी मंशा दिखाई है. उनका कहना है कि कुछ लोग दलील दे सकते हैं कि सुधार धीमे रहे हैं लेकिन 17 तरह की अप्रत्यक्ष कर प्रणालियों को एक जीएसटी में शामिल करना और इसे डिजिटल बनाना कारोबारी सुगमता के लिए महत्वपूर्ण कदम था.
इसके अलावा, सरकार ने सार्वजनिक विश्वास अधिनियम को कानूनी रूप देकर और कम से कम 42 केंद्रीय अधिनियमों में आपराधिकता को घटाकर उद्यमियों का भरोसा बढ़ाने का प्रयास किया है. उसने राज्यों के लिए एक मजमून भी दिया है—मध्य प्रदेश और तमिलनाडु जैसे राज्यों ने कुछ उपायों को लागू करना शुरू कर दिया है.
क्या चाहता है उद्योग
फोर्ब्स का मानना है कि जब 2014 में पहली बार मोदी सरकार आई थी तो कारोबारी सुगमता में सुधार और राज्यों के बीच प्रतिस्पर्धी संघवाद को बढ़ावा देने पर बहुत जोर दिया गया था. लेकिन उसके बाद से यह घटता जा रहा है. उनका कहना है, ''व्यापार में सुगमता को बेहतर बनाने के प्रयास किए गए, लेकिन हर चीज में सुधार के साथ ही कुछ चीजें बिगड़ती भी गईं. उदाहरण के लिए, सेबी पिछले और लगभग हर साल बहुत ज्यादा जटिल और पीड़ादायक नियामक बन गया है."
लालफीताशाही कम करने के लिए फोर्ब्स दो नजरिए बताते हैं. एक विचार जो कुछ समय से चल रहा है, लेकिन इस पर अमल नहीं हुआ है—वह है, एक ही जगह मंजूरी. ऐसा इसलिए कि यह हकीकत में कभी भी सिंगल विंडो नहीं रहा है. वियतनाम का उदाहरण देते हुए फोर्ब्स बताते हैं कि जब यह देश कोई औद्योगिक पार्क स्थापित करता है तो वह प्रदूषण मंजूरी और बिजली कनेक्शन देने से लेकर संचालन लाइसेंस और स्वास्थ्य और सुरक्षा प्रमाणपत्र जारी करने तक सब मामलों का अधिकार एक ही आधिकारिक निकाय को दे देता है. साथ ही, अनगिनत नियमों को भी खत्म करने की जरूरत है—उनमें से लगभग 6,000 में कारावास की धाराएं हैं—जो पिछले एक दशक में काम भी नहीं आई हैं.

भारत में अमेरिका की तरह डोज (सरकारी दक्षता विभाग) या चीन की तरह शून्य श्रम कानूनों जैसा कुछ भी होने की संभावना नहीं है, ''नियामकीय चर्बी के मामले में यह वह मध्यम मार्ग है जिसे हम चाहते हैं," सभरवाल कहते हैं. ''मैं राज्य या नियमन के खिलाफ तर्क नहीं दे रहा हूं. मैं सिर्फ यह कह रहा हूं कि 67,000 अनुपालन बहुत ज्यादा हैं."
नियामकीय थुलथुलापन कम करने की उनकी दवा है, तर्कसंगत बनाना, अपराधीकरण खत्म करना और डिजिटलीकरण. वे कहते हैं, ''आपको दिल्ली में 75 मंत्रालयों की जरूरत नहीं है. भारत सरकार में सचिव पद वाले 250 लोग हैं. पिरामिड एक सिलिंडर जैसा बन गया है जो जल्द ही उल्टा शंकु बन जाएगा. यह एफिल टावर की तरह होना चाहिए जिसमें ऊपर के स्तर पर कुछ लोग हों मगर उसका बड़ा आधार हो." उनका कहना है, कारावास की 26,000 से अधिक धाराओं को घटाकर 1,000 या 500 तक कर देना चाहिए.
इसी तरह भारत के पास दुनिया का सबसे नवीन और अनूठा डिजिटल सार्वजनिक बुनियादी ढांचा है जिससे आधार, डिजिलॉकर, डिजियात्रा और प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण जैसी सेवाएं संचालित होती हैं. इसका विस्तार अनुपालन के लिए भी करना चाहिए. सभरवाल कहते हैं, ''हमें एक राष्ट्रीय रोजगार नियोक्ता अनुपालन ग्रिड बनाना चाहिए और रोजगार सृजन के लिए भारत को बेहतर जगह बने, इसके लिए समयबद्ध कार्यक्रम बनाना चाहिए."
जहां तक कारावास की धाराओं का सवाल है, ओआरएफ-टीमलीज रेगटेक रिपोर्ट में इस बारे में 10 प्रमुख सिफारिशें की गई हैं. इनमें नीतियां बनाने के तरीके में सुधार, कारोबारी कानूनों में संयम के साथ आपराधिक दंड का इस्तेमाल करना, भारतीय विधि आयोग के भीतर नियामक प्रभाव आकलन समिति का गठन करना, अनुपालन सुधारों में सभी स्वतंत्र आर्थिक नियामकों को शामिल करना, सभी अनुपालन प्रक्रियाओं के अपराधीकरण को खत्म करना, वैकल्पिक तंत्र और व्यवस्था बनाना और कानूनी मसौदा तैयार करने के लिए मानकों को परिभाषित करना, सनसेट क्लॉज शुरू करना शामिल है.
भारत में बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप के पूर्व अध्यक्ष तथा लेखक अरुण मायरा कहते हैं, ''हम कम मगर बेहतर नियमन चाहते हैं." वे नियामकीय प्रभाव विश्लेषण करने का सुझाव देते हैं जो यह पता लगाए कि किस अनुपालन को रखना है और किसे खत्म करना है. वे कहते हैं, ''हमें कंपनियों से यह सुनना चाहिए कि उचित नियमन के बारे में वे क्या कहती हैं और सरकार की क्या जरूरत है. यह उससे एकदम अलग होगा जिसमें कुछ श्रम विशेषज्ञ बैठते और तय करते हैं कि कौन से नियमन चाहिए."
अन्नाप्पा का सुझाव है कि अनुमोदन और परमिट पर कड़ी नजर रखने के लिए एक केंद्रीकृत निगरानी और कार्यान्वयन एजेंसी बनाई जाए. साथ ही परियोजना अमल की प्रणाली में दक्षता लाने के लिए स्पष्ट आदेश के साथ निजी एजेंसियों की सेवाएं ली जाएं. यह एहसास बढ़ता जा रहा है कि भारत को अपने नियमनों और अनुपालनों को काफी कम करना चाहिए, ताकि सभी उद्यमों में मंदी दूर हो सके. केंद्र ने पहला कदम उठाया है, लेकिन प्रक्रिया तेज और अधिक विमर्श वाली होनी चाहिए. कारोबारी सुगमता को महज दिखावा नहीं बनाना तो राज्यों को भी इसमें शामिल होना चाहिए.
— साथ में धवल एस. कुलकर्णी, जुमाना शाह, अजय सुकुमारन, अर्कमय दत्ता मजूमदार और अवनीश मिश्र
केस स्टडी
डॉ. अरुण कुमार, 38 वर्ष (मालिक और एमडी, आरोग्य मल्टी-स्पेशिएलिटी हॉस्पिटल सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश)

उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले में स्थित सेमरी बाजार में 30 बिस्तरों वाला अस्पताल बनाना डॉ. कुमार का सपना था, जो 10 किलोमीटर के दायरे में अपनी तरह का एकमात्र अस्पताल हो. 2019 में उसका निर्माण होने लगा, और उसके साथ ही शुरू हुईं दुश्वारियां अब तक खत्म होने का नाम नहीं ले रहीं.
इसके लिए क्लिनिकल एस्टैब्लिशमेंट ऐक्ट के तहत पंजीकरण, राज्य स्वास्थ्य विभाग के लाइसेंस और पंजीकरण के साथ ही मुख्य चिकित्सा अधिकारी की मंजूरी, फार्मेसी लाइसेंस, अग्नि सुरक्षा मंजूरी, श्रम उपकर और पानी-बिजली संबंधी अनुमोदन अनिवार्य था. पूरी प्रक्रिया बेहद थकाऊ रही.
बायोमेडिकल कचरा प्रबंधन नियमों का पालन करना सबसे ज्यादा निराशाजनक साबित हुआ. कानून के तहत कचरा निबटान की खातिर अस्पतालों को सरकार की तरफ से स्वीकृत एजेंसी के साथ साझेदारी करनी होती है, जो प्रतिदिन प्रति बिस्तर 7 रुपए शुल्क लेती है. यह डॉ. कुमार को काफी ज्यादा लगा.
यही नहीं, प्रक्रियाओं-जिम्मेदारियों में दोहराव भी था क्योंकि उन्हें उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में अलग से पंजीकरण कराना पड़ा. योग्य लाभार्थियों को मुफ्त इलाज की सुविधा देने वाली आयुष्मान भारत योजना के लिए मंजूरी हासिल करना तो और भी कठिन काम साबित हुआ. बीमा नेटवर्क में अस्पतालों की रजिस्ट्री (रोहिणी) प्रमाणपत्र प्राप्त करने की प्रक्रिया भी काफी उलझाऊ थी.
नतीजा? अस्पताल परियोजना पूरी होने में एक साल का विलंब हुआ. 2022 में अस्पताल के आंशिक रूप से चालू होने के बाद भी अनुपालन संबंधी चुनौतियां बरकरार रहीं. फिलहाल, डॉ. कुमार को निर्माण श्रमिकों का उपस्थिति संबंधी रिकॉर्ड न रखने पर सरकारी विभागों की तरफ से नोटिस मिल चुका है. यह ऐसा नियम है, जिसके बारे में उनका कहना है कि इसकी उन्हें कोई जानकारी ही नहीं थी.
केस स्टडी
अमित कुलकर्णी, 50 वर्ष, आर्किटेक्ट, मुंबई

कुलकर्णी पिछले 20 वर्ष से मुंबई में पुनर्विकास परियोजनाओं की डिजाइन तैयार कर रहे हैं. पुरानी इमारतों को तोड़ना और उनकी जगह नई इमारतें बनाने की हर परियोजना के लिए कुलकर्णी को चार प्रमुख सरकारी एजेंसियों-बृहन्मुंबई नगर निगम (बीएमसी), महाराष्ट्र आवास और क्षेत्र विकास प्राधिकरण (एमएचएडीए), मुंबई महानगर क्षेत्र विकास प्राधिकरण (एमएमआरडीए), महाराष्ट्र औद्योगिक विकास निगम (एमआइएससी) और स्लम पुनर्वास प्राधिकरण (एसआरए) से मंजूरी लेनी होती है.
इसके अलावा, पर्यावरण मंजूरी समितियों के साथ-साथ अग्नि, उड्डयन और धरोहर विभागों से भी मंजूरी लेनी होती है. तटीय नियम-कायदों के मानदंडों का भी पालन करना अनिवार्य होता है. मंजूरी और कानून के पालन के इस मकड़जाल की वजह से अक्सर परियोजना में काफी देरी होती है और लागत खर्च काफी बढ़ जाता है.