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ट्रंप का टैरिफ भारत के लिए कितनी बड़ी आफत?

अमेरिका के भारी-भरकम टैरिफ थोपने से भारत का निर्यात बाजार हुआ बेदम. ऑटो तथा ऑटो कल-पुर्जे और इंजीनियरिंग सामान जैसे अहम क्षेत्रों को भारी झटका लगा. क्या भारतीय कंपनियां इस आपदा को अवसर में बदल पाएंगी?

भारत-अमेरिका व्यापार (इलस्ट्रेशन : नीलांजन दास/एआई)
भारत-अमेरिका व्यापार (इलस्ट्रेशन : नीलांजन दास/एआई)
अपडेटेड 22 अप्रैल , 2025

हर कोई जानता था कि ट्रंप के खतरनाक टैरिफ आने वाले हैं. लेकिन जब वे आखिरकार आए तो हर ओर अफरा-तफरी मच गई. दुनिया भर में शेयर और कमोडिटी बाजार ढह गए, डॉलर के मुकाबले प्रमुख मुद्राएं लुढ़क गईं और वैश्विक मंदी की चर्चा फिर से सुर्खियों में छा गई.

चीन और विएतनाम जैसे अपने कुछ प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले भारत अपेक्षाकृत कम टैरिफ के साथ थोड़ी राहत में रहा क्योंकि उसने दो महीने से थोड़े ही समय पहले अमेरिका के साथ एक बहु-क्षेत्रीय साझेदारी समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. इसमें 2030 तक द्विपक्षीय व्यापार को बढ़ाकर 500 अरब डॉलर (43.4 लाख करोड़ रुपए) तक करने की योजना शामिल है. लेकिन कम टैरिफ कोई राहत नहीं थी.

सभी सेक्टरों के भारतीय कारोबार फिलहाल अमेरिकी टैरिफों से होने वाले नुक्सान का—न सिर्फ अमेरिका को अपने निर्यात का, बल्कि टैरिफ से अस्त-व्यस्त हुए दुनिया भर के बाजारों का भी—आकलन करने में व्यस्त हैं. वे आने वाले महीनों में मांग में कमी झेल सकते हैं. हालांकि ट्रंप ने अब 90 दिनों की मोहलत दे दी है, मगर हवा में दहशत घटी नहीं है. उद्योग संगठन सरकारी अधिकारियों के साथ भारी टैरिफ के असर का अंदाज लगाने और उलट-पुलट गए विश्व व्यापार परिदृश्य को लेकर रणनीति बनाने में जुटे हैं.

वित्त वर्ष 24 में भारत ने अमेरिका को 77.5 अरब डॉलर (6.7 लाख करोड़ रुपए) मूल्य का वाणिज्यिक सामान निर्यात किया और उससे 42.2 अरब डॉलर (3.6 लाख करोड़ रुपए) मूल्य का आयात किया. इससे भारत को 35.3 अरब डॉलर (3 लाख करोड़ रुपए) की व्यापार बढ़त हासिल हुई. अमेरिका ने धारा 232 के तहत पहले 12 मार्च को स्टील और एल्युमिनियम पर 25 फीसद टैरिफ लगाया और फिर 26 मार्च को उतना ही ऑटो और ऑटो कल-पुर्जे पर लगा दिया.

अगर ये टैरिफ बने रहते हैं तो इन क्षेत्रों के निर्यात के आंकड़े भारी गोता लगा सकते हैं. इंजीनियरिंग सामान क्षेत्र ने पिछले साल अमेरिका को 17.6 अरब डॉलर (1.5 लाख करोड़ रुपए) की वस्तुओं का निर्यात किया था. यही सबसे ज्यादा झटका खा सकता है. इस साल उसका 5 अरब डॉलर (43,217.5 करोड़ रुपए) का कारोबार साफ हो सकता है.

इसके ज्यादातर निर्यातक कुटीर, लघु और मझोले उद्यमों (एमएसएमई) के हैं. उनकी तात्कालिक चिंता तीन महीने के 6-7 अरब डॉलर (51,860-60,504 करोड़ रुपए) कीमत के ऑर्डर पूरे करने की है.

भारतीय इंजीनियरिंग निर्यात संवर्धन परिषद के चेयरमैन पंकज चड्ढा कहते हैं, ''दूसरे क्षेत्रों में टैरिफ बढ़ोतरी पर फिलहाल रोक के बावजूद, भारतीय निर्यातकों का अमेरिका पर भरोसा टूट गया है. बेहतर यही है कि हर हाल में अमेरिका का जोखिम हटाया जाए."

यही बात रत्न और आभूषण क्षेत्र पर भी लागू होती है, जो अमेरिका को 11.6 अरब डॉलर (1 लाख करोड़ रुपए) का निर्यात करता है. यह उस श्रेणी के कुल निर्यात का 30 फीसद से ज्यादा है. ऑटो कल-पुर्जा क्षेत्र ने अमेरिका को 6.8 अरब डॉलर (58,775.8 करोड़ रुपए) का निर्यात किया जो भारत के कुल कंपोनेंट निर्यात का 32 फीसद है. निर्यातकों का कहना है कि टैरिफ से अमेरिका को भारत के ज्वेलरी निर्यात का 50 फीसद खत्म हो सकता है.

इस अंधी सुरंग से निकलने का रास्ता क्या है? वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल चाहते हैं कि इसे ''जीवन में एक बार मिलने वाले अवसर" के रूप में देखा जाए, लेकिन भारतीय कारोबार के लिए यह संकट बहुत ज्यादा गहरा है. अमेरिकी बाजार से इतर एक विकल्प यूरोप, अफ्रीका या पश्चिम एशिया हो सकते हैं और इसे कई उद्योग तलाशेंगे लेकिन नए बाजारों में ग्राहक बनाना आसान नहीं होगा.

इसके अलावा, चीन को अमेरिका निर्यात पर 125 फीसद टैरिफ का सामना करना पड़ रहा है, वह भी तेजी से नए बाजारों में प्रवेश करेगा और मौजूदा बाजारों को सस्ते माल से पाट देगा. यही काम विएतनाम, इंडोनेशिया और जापान जैसे देश भी करेंगे, जो कई देशों में भारतीय निर्यातकों को कड़ी प्रतिस्पर्धा दे रहे हैं.

ऑटोमोटिव कंपोनेंट मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन के महानिदेशक विन्नी मेहता पूछते हैं, "मूल सवाल यह है कि बढ़ी हुई ड्यूटी का खर्च कौन उठाएगा?" अफ्रीका और पश्चिम एशिया जैसे कई नए बाजार छोटे हैं. उद्योग जगत के अधिकांश दिग्गज एक बात पर सहमत हैं—भारत का बढ़ता घरेलू बाजार सहारा दे सकता है और सबसे भरोसेमंद है.

दवा उद्योग जैसे अन्य क्षेत्र, जिन्हें फिलहाल बख्श दिया गया है, आस लगाए हुए हैं कि टैरिफ वृद्धि 10 फीसद (जितना भारत अमेरिकी दवा आयात पर लगाता है) से ज्यादा न हो. उससे ज्यादा लगाई गई तो जेनेरिक दवा निर्यात को नए बाजार तलाशने पर मजबूर होना पड़ सकता है. सभी उद्योगों की उम्मीदें अमेरिका के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौते और इस वर्ष यूरोपीय संघ के साथ मुक्त व्यापार करार पर टिकी हुई हैं.

अंत में एक अहम बात, एमएसएमई को बड़ा झटका झेलना पड़ सकता है, यह उद्योग सरकार से अधिक मदद की मांग कर रहा है, ताकि नए बाजारों के दोहन में मदद मिले और अधिक पूंजी सहायता उपलब्ध हो. व्यापार सिर के बल है. अब भारतीय उद्योग संकट से उबरने के अच्छे तरीके खोजे और इसे अवसर में बदले.

भारतीय उद्योग जगत के अधिकांश दिग्गज और अगुआ एक बात पर सहमत हैं—भारत का बढ़ता घरेलू बाजार संकट से प्रभावित कंपनियों को सहारा मुहैया करा सकता है और वही सबसे भरोसेमंद लगता है. अब भारतीय उद्योग को इस संकट से उबरने और इसे अपने लिए नए अवसर में बदलने के तरीके तलाशने होंगे.

ऑटो कल-पुर्जे

बढ़त पर लगा भारी ब्रेक

हरियाणा के मानेसर में मारुति सुजुकी कारखाना

आखिर इससे निबटें कैसे

- विनी मेहता, महानिदेशक, ऑटोमोटिव कंपोनेंट मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन

● बाजारों में विविधता लाएं लेकिन यह प्रक्रिया धीरे-धीरे होने वाली है. इसमें विश्वसनीय ग्राहक आधार बनाने में अक्सर दो से तीन साल लग जाते हैं. हमें इसके असर को पूरी तरह से समझने के लिए कुछ समय लगेगा.

● भारत का मजबूत घरेलू बाजार ऐसे समय में सहारा है. 74 अरब डॉलर के व्यापार में से निर्यात (21.2 अरब डॉलर) और आयात (20.9 अरब डॉलर) दोनों लगभग बराबर हैं.

● कंपनियां ग्राहक प्रोफाइल के आधार पर अलग-अलग रणनीति अपनाएंगी. कुछ ने मेक्सिको में भी इकाइयां लगाई हैं, हालांकि अमेरिका-मेक्सिको-कनाडा समझौते का भविष्य अभी भी अस्पष्ट है.

भारत अपने कुल ऑटो पार्ट्स निर्यात का 32 फीसद अमेरिका को निर्यात करता है. इसका मूल्य 21.2 अरब डॉलर (1.8 लाख करोड़ रुपए) है. फिर भी यह अमेरिका में दुनिया भर से आयातित सभी ऑटो कल-पुर्जों का महज 3 फीसद है. 26 मार्च को इस सेक्टर पर घोषित 25 फीसदी टैरिफ (90 दिन की राहत में यह शामिल नहीं) ग्लोबल सप्लाइ चेन में भारत की भूमिका में दीर्घकालिक तौर पर बदल सकता है.

इसकी उम्मीद नहीं है कि कार निर्माता रातोरात नए आपूर्तिकर्ताओं के पास चले जाएंगे. लेकिन लंबी अवधि में ऊंचा टैरिफ भारतीय निर्यात को कम प्रतिस्पर्धी बना देगा, जिससे कार निर्माताओं को ऑटो पुर्जों के लिए वैकल्पिक स्रोत की तलाश करनी होगी.

ऑटोमोटिव कंपोनेंट मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन (एसीएमए) की अध्यक्ष श्रद्धा सूरी मारवाह कहती हैं, ''हमारा मानना है कि भारत-अमेरिका के मजबूत व्यापार संबंधों के कारण, विशेष रूप से ऑटो कल-पुर्जा क्षेत्र में, इन कदमों का असर घटाने के लिए लगातार बातचीत करनी होगी."

एसीएमए के महानिदेशक विनी मेहता कहते हैं कि एसोसिएशन अभी भी स्थिति का आकलन कर रही है और कुछ सदस्य मौजूदा अनिश्चितता के कारण निर्यात रोक रहे हैं.

वे कहते हैं, ''असल सवाल बरकरार है: बढ़े हुए शुल्क की लागत कौन उठाएगा—आयातक या निर्यातक? इसके अलावा, हमारे लिए ग्राहकों के साथ दीर्घकालिक संबंध बनाए रखना भी महत्वपूर्ण है. इन संबंधों में अड़चन पैदा हुई तो उसके दीर्घकालिक नतीजे हो सकते हैं, इसलिए हमारे कई सदस्य सावधानी से माल को रोके हुए हैं."

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ऑटोमोबाइल : गियर कमजोर

अमेरिका को कार निर्यात मामूली होने से टैरिफ इजाफे से खास असर नहीं होना है. लेकिन चिंता यह है कि इन टैरिफ के कारण वैश्विक मांग में मंदी आ सकती है जिससे भारत की निर्यात महत्वाकांक्षाओं के डगमगाने का खतरा हो सकता है. हालांकि भारत ने लग्जरी बाइकों पर आयात शुल्क कम कर दिया है लेकिन यह साफ नहीं है कि क्या इस कदम से हार्ले-डेविडसन जैसी फर्में फिर से यहां अपने शोरूम खोलने के लिए प्रोत्साहित होंगी.

रेटिंग फर्म इक्रा के अनुसार, अमेरिका को यात्री वाहन निर्यात कुल यात्री वाहन निर्यात का 1 फीसद से भी कम है, इसलिए अमेरिका के ऊंचे टैरिफ का भारतीय कार निर्माताओं पर कोई खास असर नहीं होगा.

सोसाइटी ऑफ इंडियन ऑटोमोबाइल मैन्युफैक्चरर्स के महानिदेशक राजेश मेनन कहते हैं, ''हमें भारतीय ऑटोमोबाइल उद्योग पर कोई बड़ा असर पड़ने की उम्मीद नहीं है क्योंकि अमेरिका को निर्यात सीमित है, लेकिन हम स्थिति पर नजर रखना जारी रखेंगे."

विश्लेषकों का कहना है कि टैरिफ से कारों की वैश्विक मांग पर असर पड़ेगा और इसका अगले साल भारतीय कार निर्यातकों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है.

आखिर इससे निबटें कैसे

- गौरव वंगाल, एसोसिएट डायरेक्टर, इंडियन सब-कांटिनेंट, एसऐंडपी ग्लोबल मोबिलिटी

● भारत-अमेरिका द्विपक्षीय संधि का लागू होना अमेरिका को निर्यात के बेहतर अवसरों की खोज के लिए अहम होगा.

● भारत के पास 'चीन प्लस वन' का फायदा उठाने का एक बड़ा मौका है. भारत अपनी नीति में अधिक उदार रहा है और उसने जवाबी टैरिफ वृद्धि नहीं की है.

● सरकारों के स्तर पर अधिक बातचीत होनी चाहिए, वह भी तेजी से ताकि यह तय हो सके कि भारत बदले हुए परिदृश्य में सही अवसरों का लाभ उठा सके.

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इंजीनियरिंग सामान : नट-बोल्ट कसने की जरूरत

भारत के इंजीनियरिंग सामान का कुल निर्यात में हिस्सा 27 फीसद है. इसमें 17 से 18 फीसद अकेले अमेरिका को जाता है. पिछले वित्त वर्ष में भारत ने 17.6 अरब डॉलर (1.5 लाख करोड़ रुपए) मूल्य के इंजीनियरिंग सामान निर्यात किए थे, जो उससे पिछले वर्ष की इसी अवधि की तुलना में 8.3 फीसद अधिक है. टैरिफ बढ़ोतरी से भारतीय इंजीनियरिंग निर्यात की क्षमता घटने का खतरा बढ़ गया है.

उद्योग जगत का मानना है कि टैरिफ बढ़ोतरी से भारतीय कंपनियों को एक साल में अमेरिका को 5 अरब डॉलर (43,350 करोड़ रुपए) का निर्यात गंवाना पड़ सकता है. अमेरिका में भारत के प्रमुख प्रतिस्पर्धी देश चीन, मेक्सिको, कनाडा, जापान, कोरिया और यूरोपियन यूनियन हैं जिन पर भी 20-34 फीसद (चीन पर और ज्यादा) शुल्क लगाया गया है. उन्हें भी संकट का सामना करना पड़ रहा है.

ऐसे में अमेरिका के पास 20-26 फीसद ऊंची दरों पर आयात करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा, इसलिए उपभोक्ताओं को ज्यादा भुगतान करना पड़ेगा.

आखिर इससे निबटें कैसे

- पंकज चड्ढा, चेयरमैन, इंजीनियरिंग एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल ऑफ इंडिया

● अमेरिका में जोखिम घटाएं. यूरोपियन यूनियन के अध्यक्ष के भारत दौरे और इसी साल ईयू के साथ मुक्त व्यापार समझौते की संभावना है. ऐसे में इंजीनियरिंग कंपनियां अमेरिका में अपना जोखिम कम करने की उम्मीद कर रही हैं. भारतीय कंपनियां पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका के देशों में निर्यात कर सकती हैं.

● भारत को और अधिक व्यापार समझौतों की रणनीति बनानी चाहिए. इसके अलावा, हम द्विपक्षीय व्यापार करार के लिए अमेरिका के साथ सक्रिय बातचीत कर रहे हैं. इससे 26 फीसद टैरिफ वृद्धि में कमी आ सकती है. लेकिन तात्कालिक चिंता निर्यातकों का तीन महीने का ऑर्डर बुक है, जो करीब 6-7 अरब डॉलर का है. इसे कौन लेगा?

● भारत के इंजीनियरिंग निर्यात का आधा हिस्सा एमएसएमई क्षेत्र का है. सरकार को उसे कई तरीकों से सहायता करनी चाहिए. मसलन, ब्याज सहायता योजना फिर से शुरू करनी चाहिए. एमएसएमई को अपने उत्पादों को उन बाजारों में ले जाने के लिए मदद की जरूरत है जिनका अभी तक दोहन नहीं किया गया है.

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रत्न और जेवरात : चमक फीकी पड़ने का डर

अमेरिका भारतीय रत्न और आभूषणों का सबसे बड़ा बाजार है. यह बाजार इस क्षेत्र के निर्यात का 30-35 फीसद हिस्सा है, खास तौर पर सोने से जड़े आभूषणों और हीरे का. 2024 में इस क्षेत्र में कुल द्विपक्षीय व्यापार 16.9 अरब डॉलर (1.46 लाख करोड़ रुपए) था जिसमें भारत की 6.3 अरब डॉलर (54,300 करोड़ रुपए) की व्यापार बढ़त थी.

लेकिन हाल के वर्षों में भू-राजनैतिक तनाव, सोने की उछलती कीमतों और दूसरे निर्यातक देशों से बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण उद्योग को मुश्किलों का सामना करना पड़ा है.

इस पृष्ठभूमि में ट्रंप के जवाबी टैरिफ गंभीर खतरे के रूप में उभरे हैं. रत्न और आभूषण निर्यात संवर्धन परिषद (जीजेईपीसी) के अध्यक्ष किरीट भंसाली के अनुसार, इससे अमेरिका को भारत के आभूषण निर्यात का 50 फीसद तक चौपट हो सकता है, जिसकी कीमत 1.5-2 अरब डॉलर (13,000-17,250 करोड़ रुपए) है. इसके साथ ही 2.5-3 अरब डॉलर (21,500-25,900 करोड़ रुपए) कीमत के कटे और तराशे हीरों का निर्यात भी खत्म हो सकता है.

ऐसा इसलिए कि भारतीय वस्तुओं पर ऊंचा टैरिफ अमेरिकी आयातकों को आभूषणों के लिए फ्रांस, इटली और स्विट्जरलैंड जैसे देशों और हीरों के लिए यूएई और इज्राएल जैसे देशों की ओर जाने को प्रेरित करेगा. ये वे बाजार हैं जिनको कम जवाबी टैरिफ से फायदा है.

यहां तक कि जॉर्डन और दक्षिण कोरिया जैसे देशों से निर्यात अधिक आकर्षक होते जा रहे हैं, जिनके अमेरिका के साथ मुक्त व्यापार समझौते हैं. भंसाली चेतावनी देते हैं, ''इससे ऐसे श्रमबहुल क्षेत्र में बड़ी संख्या में नौकरियां खत्म हो सकती हैं."

आखिर इससे निबटें कैसे

- किरीट भंसाली, चेयरपर्सन, जेम ऐंड ज्वेलरी प्रमोशन काउंसिल

● भारत सालाना 500-600 टन सोना आयात करता है, मुख्य रूप से स्विट्जरलैंड से. इसका कुछ हिस्सा अमेरिका की ओर करने से व्यापार असंतुलन कम हो सकता है.

● अमेरिका हर साल भारत से 4 अरब डॉलर (34,500 करोड़ रुपए) के हीरे आयात करता है. उन्हें कच्चा माल मानकर भारत अमेरिका को निर्यात पर शुल्क आधा करके इसे 2.5 फीसद रखने पर विचार कर सकता है.

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खाद्य एवं कृषि : मिला-जुला असर

भारत को कृषि क्षेत्र में अमेरिका के साथ 3.5 अरब डॉलर (30,300 करोड़ रुपए) की व्यापार बढ़त हासिल है, जिसमें करीब 10 फीसद निर्यात अमेरिकी बाजारों में जाता है. ट्रंप को टैरिफ गैर-बराबरी से चिढ़ है. अमेरिका के लिए कृषि उपज पर भारतीय शुल्क औसतन उसके टैरिफ के मुकाबले करीब आठ गुना ज्यादा है. उसके अलावा बाजार की ऊंच-नीच और गैर-टैरिफ अड़चनें भी हैं.

ट्रंप के बराबरी के टैरिफ ने दुनियाभर में खाद्य वस्तुओं और खाद्य तेल बाजारों में उथल-पुथल मचा दिया है. इससे भारतीय निर्यातकों को नुक्सान पहुंचाया है. जैसे, सरसों के तेल की कीमतें कनाडा के सस्ते कैनोला तेल के कारण गिर गई हैं. फिर भी, भारत को कुछ क्षेत्रों में अपने क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वियों पर अपेक्षाकृत बढ़त हासिल है.

चीन, वियतनाम और थाइलैंड जैसे प्रतिद्वंद्वियों पर अधिक टैरिफ की मार पड़ी है और भारतीय कृषि उत्पाद अपेक्षाकृत बेहतर हाल में हैं. मसलन, भारत सालाना लगभग 3,00,000 टन बासमती चावल अमेरिका को भेजता है. अमेरिका सालाना कुल 13 लाख टन चावल का आयात करता है. पाकिस्तान के चावल पर 29 फीसद शुल्क लगा है, इसलिए बढ़त में रहे भारतीय सुगंधित चावल और अन्य पैकेटबंद खाद्य पदार्थ के निर्यात की अधिक गुंजाइश बनी रह सकती है.

आखिर इससे निबटें कैसे

- सिराज हुसैन, पूर्व कृषि सचिव, भारत सरकार

● भारत को द्विपक्षीय व्यापार वार्ता में अपने कृषि क्षेत्र को बचाना चाहिए. गेहूं, सोयाबीन, मक्का जैसी अमेरिकी फसलों के लिए बाजार खोलने के दबाव का विरोध करना चाहिए.

● एमएसपी नीतियों पर अमेरिकी समीक्षा में भारत को डब्ल्यूटीओ में अपने रुख पर अड़े रहना चाहिए और यह तय करना चाहिए कि बाहरी दबावों से कृषि मदद व्यवस्था कमजोर न हो.

● पोल्ट्री व अंगूर/किशमिश जैसी चुनिंदा वस्तुओं पर आयात को आसान बना भारत को डेयरी, सेब, बागवानी जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में जोखिम को कम करना चाहिए.

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मछली पालन : भारी उथल-पुथल

भारत अरसे से अमेरिका का प्रमुख समुद्री खाद्य आपूर्तिकर्ता रहा है. 2024 में इसमें वहां भारत का निर्यात करीब 2.5 अरब डॉलर (21,500 करोड़ रुपए) रहा. इसमें 90 फीसद से अधिक हिस्सेदारी सिर्फ झींगा और उस किस्म की मछलियों की है, जिनकी अमेरिका में खास मांग है. इनके फ्रोजन किस्म की बाजार हिस्सेदारी 40 फीसद और तैयार/संरक्षित किस्म में 27 फीसद है.

यह मजबूत बढ़त अब खतरे में है. अमेरिका ने भारतीय समुद्री खाद्य पर 26 फीसद का जवाबी शुल्क जड़ दिया है, जो मौजूदा 0-5 फीसद से काफी ज्यादा है, क्योंकि भारत अमेरिका से झींगा आयात पर 30 फीसद शुल्क लगाता है. भारत में घरेलू मछुआरों और मत्स्य व्यापार को दी जाने वाली अतिरिक्त सब्सिडी से भी अमेरिका खुश नहीं है.

वहीं, इस मद में भारत के प्रमुख प्रतिद्वंद्वियों को कम या कोई शुल्क नहीं देना पड़ता है. मसलन, कनाडा को अमेरिका-मेक्सिको-कनाडा समझौते (यूएसएमसीए) के तहत शुल्क में छूट मिल जाती है और इक्वाडोर तथा अर्जेंटीना को सिर्फ 10 फीसद देना पड़ता है.

ऐसे में भारत नुक्सान में है क्योंकि महज 4-5 फीसद के लाभ मार्जिन वाले इस क्षेत्र के लिए ऊंचे शुल्क ढोना मुश्किल होगा. भारत से समुद्री खाद्य ढुलाई में संभावित 20 फीसद की कमी और 3 करोड़ लोगों की आजीविका पर बुरा असर पड़ सकता है. 

आखिर इससे निबटें कैसे

- रंजा सेनगुप्ता, सीनियर रिसर्चर, थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क इंडिया

● भारत सरकार को अपने निर्यातकों को राहत देने के लिए ब्याज सब्सिडी, आसान ऋण और दूसरे बाजारों की तलाश के लिए मदद की व्यवस्था तैयार करनी चाहिए.

● डब्ल्यूटीओ के नियम निर्यात सब्सिडी को घटाने पर जोर देते हैं, मगर भारत प्रतिस्पर्धा की ताकत बनाए रखने के लिए सीमित या लक्षित समर्थन पर विचार कर सकता है, खासकर जब प्रमुख अर्थव्यवस्थाएं बहुपक्षीय मानदंडों से तेजी से किनारा कर रही हैं.

● अमेरिका के साथ किसी भी द्विपक्षीय व्यापार समझौते (बीटीए) में भारत को समुद्री खाद्य क्षेत्र में उसे तरजीही बर्ताव देने के जोखिमों का आकलन करना चाहिए, क्योंकि अन्य एफटीए भागीदार व्यापक कृषि क्षेत्र में इसी तरह की मांग कर सकते हैं.

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दूरसंचार और इलेक्ट्रॉनिक्स : मुसीबत के लिए तैयार

अब दुनिया में व्यापार के क्षेत्र में तनाव बढ़ रहा है. यूरोपियन यूनियन, चीन और ब्रिटेन जैसी प्रमुख अर्थव्यवस्थाएं अमेरिका के नए संरक्षणवादी रुख के जवाब में अधिक टैरिफ लगा रही हैं. इस उथल-पुथल के बीच, आसन्न टैरिफ से पहले इलेक्ट्रॉनिक्स और दूरसंचार व्यापार—खासकर भारत और चीन में ओईएम हब से—ढुलाई में उछाल दिख रहा है.

भारत के दूरसंचार और इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्र को बड़ा झटका लगने वाला है, क्योंकि अमेरिका ने आयात पर 26 फीसद टैरिफ लगाया है, जो पहले औसतन 0.41 फीसद था. इस अचानक बढ़ोतरी से अमेरिकी बाजार में भारतीय निर्यात की होड़ खतरे में है. इस वित्त वर्ष में इलेक्ट्रिकल, टेलीकॉम और इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों के निर्यात की मात्रा में 12 फीसद की गिरावट का मोटा अनुमान है.

उद्योग के अंदरूनी सूत्रों ने बताया कि 9 अप्रैल की समय सीमा से पहले माल भेजने के लिए भारी जद्दोजहद की गई, जिसमें कथित तौर पर ओईएम कारखानों से फोन और इलेक्ट्रॉनिक्स से भरी उड़ानें शामिल हैं. बढ़े हुए टैरिफ से अमेरिका में भारतीय उत्पादों की कीमतों के बढ़ने का अनुमान है, जिससे मांग काफी घट सकती है और बाजार हिस्सेदारी गिर सकती है.

आखिर इससे निबटें कैसे

- पंकज महिंद्रू, चेयरमैन, इंडिया सेल्युलर ऐंड इलेक्ट्रॉनिक्स एसोसिएशन

● अमेरिका के साथ भारत के इलेक्ट्रॉनिक्स व्यापार में असल मोड़ द्विपक्षीय व्यापार समझौते की कामयाबी पर निर्भर करेगा.

● ऐसी रिपोर्ट हैं कि एपल और सैमसंग या अमेरिका स्थित कंपनियां अन्य एशियाई केंद्रों पर उच्च टैरिफ की भरपाई के लिए भारत में उत्पादन बढ़ाने पर विचार कर रही हैं. उनका लक्ष्य प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए भारत के कम टैरिफ का लाभ उठाना है.

● भारत को उत्पादन क्षेत्र की योजना में तेजी की दरकार है. पीएलआइ योजनाओं के दायरे को नए क्षेत्रों में बढ़ाने की जरूरत है.

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फार्मास्युटिकल : दवा का दर्द

अप्रैल की 9 तारीख को भारत में फार्मास्युटिकल कंपनियों के शेयर लगभग 2 फीसद गिर गए. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि ट्रंप ने एक हफ्ते में दूसरी बार टैरिफ लगाने की धमकी दी थी. इससे पहले भी, अमेरिकी राष्ट्रपति ने चेतावनी दी थी कि वे फार्मा उद्योग को एक 'अलग श्रेणी’ के तौर पर देख रहे हैं और ''टैरिफ उस स्तर पर लगाए जाएंगे जो आपने पहले कभी नहीं देखा होगा."

फार्मा उद्योग अभी 'देखो और इंतजार करो' की स्थिति में है. उद्योग को उम्मीद है कि सस्ती और असरदार दवाएं उपलब्ध कराने वाला होने के कारण उसे बख्श दिया जाएगा. उद्योग सूत्रों का कहना है कि कुछ खास दवाइयों को अमेरिका में बनाने की लागत भारत में उसी उत्पाद को बनाने की तुलना में कम से कम छह गुना अधिक होगी.

वैसे, अगर ट्रंप टैरिफ लगाने का फैसला करते भी हैं तो उद्योग को उम्मीद है कि यह 10 फीसद से अधिक नहीं होगा (उतना ही जितना भारत अमेरिकी आयात पर लगाता है). मगर, इससे ज्यादा कुछ भी उद्योग के लिए बहुत नकारात्मक हो सकता है.

आखिर इससे निबटें कैसे

- दारा पटेल, सेक्रेटरी जनरल, भारतीय दवा निर्माता संघ

● अमेरिका ने अभी तक टैरिफ नहीं बढ़ाया है. फार्मा उद्योग को फिलहाल शांत रहना चाहिए. अमेरिका को इतनी बड़ी मात्रा में और उच्च गुणवत्ता वाले इतने प्रतिस्पर्धी मूल्य वाले सामान और कौन दे सकता है?

● टैरिफ 10 फीसद तक भले बढ़ जाए, उद्योग को इसे झेलने या अमेरिकी उपभोक्ताओं पर बोझ डालने में सक्षम होना चाहिए. उन्हें थोड़ी वृद्धि से फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि यह सब बीमा के पैसे से चलता है.

● मगर टैरिफ 15 फीसद से ज्यादा हो जाता है तो भारत को पूर्वी अफ्रीका और पश्चिम एशिया में नए बाजारों की तलाश करनी होगी. ये बाजार ज्यादा मूल्य या मात्रा वाले नहीं, मगर उन्हें विकल्प तलाशना होगा.

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तेल और गैस : फिलहाल टंकी फुल

भारत का तेल आयात कमोडिटी के निर्यात से कहीं ज्यादा है. यह चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा आयातक है जिसने 2023-24 में 132.4 अरब डॉलर (11.4 लाख करोड़ रु.) का 23.25 करोड़ टन कच्चा तेल आयात किया. मार्च 2025 में अमेरिका से कच्चे तेल का आयात 2,44,000 बैरल प्रति दिन था.

अभी तक तो तेल और गैस ट्रंप के जवाबी शुल्कों से बचे हैं. अगर इन पर भी शुल्क लगे तो भारत पर दो तरह से मार पड़ सकती है. एक यह कि भारत कुछ हद तक व्यापार घाटा कम करने के लिए अमेरिका से तेल और गैस आयात बढ़ाएगा. दूसरा असर वैश्विक बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट से होगा. तेल कीमतें 31 मार्च को 77 डॉलर प्रति बैरल से गिरकर 8 अप्रैल को 65 डॉलर पर आ गई हैं.

इतनी बड़ी गिरावट दुनिया में मंदी आने की आशंका और चीन के प्रतिशोधी शुल्कों के कारण आई है. ओपेक देशों की योजनाबद्ध उत्पादन वृद्धि भी कच्चे तेल की कीमतों पर दबाव बढ़ा रही है. अमेरिका से आयात में वृद्धि यानी रूस से आयात में कमी होगी.

पिछले राष्ट्रपति बाइडेन ने इस साल जनवरी की शुरुआत में रूस के तेल व्यापार के खिलाफ प्रतिबंध लगाए थे. अप्रैल-नवंबर 2024 के दौरान भारत ने 95 अरब डॉलर (8.2 लाख करोड़ रु.) का 15.8 करोड़ टन कच्चा तेल आयात किया. इसमें से 6.1 लाख टन रूस, 3.17 लाख टन इराक, 2 लाख टन सऊदी अरब और 1.33 लाख टन यूएई से है. 

आखिर इससे निबटें कैसे

- प्रशांत वशिष्ठ, सीनियर वी-पी और को-ग्रुप हेड, कॉर्पोरेट रेटिंग्स, आइसीआरए

● ट्रंप के जवाबी शुल्कों से तेल और गैस को फिलहाल छूट मिली हुई है. यथास्थिति बनी रह सकती है, जब तक कि भारत किसी प्रतिबंधित देश से कच्चा तेल खरीदने की चूक नहीं करता.

● कच्चे तेल कीमतों में कमी. पर केंद्र ने पेट्रोल/डीजल पर उत्पाद शुल्क में 2 रुपये प्रति लीटर की वृद्धि की. वित्त वर्ष 26 के लिए अनुमानित उच्च संग्रह: 35,000 करोड़ रुपये.

● घरेलू एलपीजी में 50 रु. प्रति सिलिंडर वृद्धि; इससे घरेलू बिक्री में घाटे में रही तेल विपणन कंपनियों को मदद.

● कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट से उत्पाद शुल्क वृद्धि के बावजूद तेल विपणन कंपनियों का मार्केटिंग मार्जिन मजबूत रहेगा.

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अक्षय ऊर्जा : हमारे सेल की ताकत

अक्षय ऊर्जा ट्रंप प्रशासन के एजेंडे में शीर्ष पर नहीं है. घरेलू हरित प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने के उद्देश्य से बनाए गए यूएस इन्फ्रलेशन रिडक्शन ऐक्ट (आईआरए), 2022 ने हालिया वर्षों में भारतीय फोटोवोल्टिक सेल के निर्यात को काफी बढ़ावा दिया है, लेकिन इससे भविष्य में ऑर्डर को नुक्सान भी पहुंच सकता है.

वाशिंगटन अब इस पर खास ध्यान केंद्रित कर रहा है कि भारत पर तेल और प्राकृतिक गैस की खरीद सुनिश्चित करने का दबाव डाला जाए.

सौर उपकरणों के भारतीय निर्यात में अमेरिकी हिस्सेदारी 97 फीसद है. अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के पहले कार्यकारी आदेशों में से एक का शीर्षक 'अनलीशिंग अमेरिकन एनर्जी’ था, जो संघीय एजेंसियों को आइआरए और इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट ऐंड जॉब्स ऐक्ट के जरिए 'धन को बाहर जाने से रोकने' का निर्देश देता है.

इसके बावजूद, व्यवस्था में लगभग 50 अरब डॉलर हैं, जिससे आने वाले कुछ समय के लिए भारत से अक्षय ऊर्जा उपकरणों की मांग में निरंतरता सुनिश्चित होती है. दूसरी तरफ, भारतीय कंपनियां भी इस क्षेत्र में नवीनतम अमेरिकी प्रौद्योगिकी को हासिल करने की कोशिशों में जुटी हैं.

इसके अलावा, 26 फीसद की उच्च टैरिफ दर के बावजूद अदाणी, रिन्यू, विक्रम सोलर, टाटा पावर सरीखी भारतीय कंपनियों के लिए यह बात काफी राहत पहुंचाने वाली है कि चीन, वियतनाम, मलेशिया और थाइलैंड के प्रतिस्पर्धियों को भी उच्च टैरिफ का सामना करना पड़ रहा है. इससे लागत प्रतिस्पर्धा सुनिश्चित होती है. फिर, पिछले चार साल से भारत ने खुद घरेलू निर्माताओं को तैयार करने और उन्हें चीनी सामान की भरमार से बचाने के लिए टैरिफ लगाया है.

आखिर इससे निबटें कैसे

- जगजीत सरीन, पार्टनर, ग्लोबल क्लाइमेट, डलबर्ग एडवाइजर्स

● स्वच्छ तकनीक मैन्युफैक्चरिंग पर जोर देते हुए उसके लिए राष्ट्रीय मिशन को गति दी जाए. इसे कौशल और कारोबार में आसानी पर केंद्रित दृष्टिकोण के साथ अमल में लाना चाहिए.

● ईयू और अन्य देशों के साथ व्यापार सौदों में स्वच्छ तकनीक मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा मिले. भारत अमेरिका के साथ व्यापार सौदा करता है तो इसे क्षमता बढ़ानी होगी, साथ ही आइआरए कोष से विकसित प्रौद्योगिकियों तक पहुंच बनानी होगी.

● अमेरिका-चीन के एक-दूसरे पर थोपे शुल्क के बीच अक्षय ऊर्जा में भारत के आगे बढ़ने का मौका है. भारत पश्चिम एशिया आर्थिक गलियारे और क्षेत्रीय निकाय बिम्सटेक के साथ नई आपूर्ति शृंखलाएं बनानी होगी और दुनिया में आपूर्ति के मौके तलाशने होंगे.

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रबड़ : छीन ली ताकत

भारत ने 2023 में अमेरिका को 85.2 करोड़ डॉलर (7,505 करोड़ रुपए) के रबड़ उत्पाद निर्यात किए, जो दुनियाभर में भारत से रबड़ उत्पादों के कुल निर्यात के 20 फीसद से ज्यादा थे. भारत दुनिया में प्राकृतिक रबड़ का दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक भी है, जिसने 2023 में 35.6 लाख टन से ज्यादा प्राकृतिक रबड़ निर्यात किया. इसका बड़ा हिस्सा अमेरिका, फिलीपींस और नीदरलैंड गया. दूसरी तरफ, 2023 में 13.2 करोड़ डॉलर (1,144 करोड़ रुपए) मूल्य के सिंथेटिक या कृत्रिम रबड़ का निर्यात किया गया.

अमेरिका के लगाए गए रेसिप्रोकल टैरिफ की वजह से भारतीय रबड़ के सामान वियतनाम और तुर्की जैसे निर्यातकों के मुकाबले नुक्सान की स्थिति में आ गए हैं. वियतनाम ने हाल में अमेरिका को शून्य फीसद शुल्क की पेशकश की, जबकि तुर्की पर महज 10 फीसद शुल्क लगाए गए हैं.

इसकी वजह से इन देशों के निर्यातक भारतीय निर्यातकों के मुकाबले कम दाम पर बेचेंगे. मीडिया रिपोर्टों में कहा गया कि अमेरिकी खरीदारों ने भारतीय निर्यातकों से फिलहाल रबड़ के सामान का उत्पादन बंद करने को कहा है.

ऑटोमोटिव टायर मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन (एटीएमए) के चेयरमैन अरुण मम्मेन ने कहा कि टायर उद्योग अपने निर्यात गंतव्यों में विविधता लाएगा. अमेरिका 17 फीसद हिस्सेदारी के साथ भारत के टायरों के लिए सबसे बड़ा निर्यात बाजार है, जिसके बाद छह फीसद पर जर्मनी, पांच फीसद पर ब्राजील और चार फीसद पर यूएई है.

आखिर इससे निबटें कैसे

- शशि सिंह, प्रेसिडेंट, ऑल इंडिया रबड़ इंडस्ट्रीज एसोसिएशन, मीडिया से एक बातचीत में

● रबड़ क्षेत्र में गैर-टायर मैन्युफैक्चरर्स की सहायता के लिए आयातित तैयार उत्पादों पर सीमा शुल्क बढ़ाएं.

● भारत सिंथेटिक रबड़ की अपनी जरूरत का बड़ा हिस्सा आयात करता है, जिस पर 10 फीसद का शुल्क वसूला जाता है. इसे कम करने की जरूरत है.

● भारत को रबड़ उत्पादों पर लॉजिस्टिक लागतें कम करने की दरकार. यह निर्यात बाजार में तुर्की और वियतनाम से प्रतिस्पर्धा के लिए बेहद जरूरी है.

खिलौने बच्चों का खेल नहीं

अमेरिका दुनिया में खिलौनों का सबसे बड़ा बाजार है, जहां 30 फीसद वैश्विक उत्पादन खप जाता है. बीते कुछ वर्षों में भारत ने खिलौनों की घरेलू मैन्युफैक्चरिंग बढ़ाने पर जोर दिया. इसके लिए सीमा शुल्क 70 फीसद तक बढ़ाया और गुणवत्ता नियंत्रण मानक लागू किए ताकि घरेलू कंपनियों को बढ़त मिल सके.

अमेरिका को भारत का निर्यात बहुत कम 15 करोड़ से 18 करोड़ डॉलर (1,300-1,560 करोड़ रुपए) के बीच है, जबकि खिलौनों के वैश्विक बाजार में भारत की हिस्सेदारी एक फीसद से भी कम है. अलबत्ता इस मौके का फायदा उठाने की गुंजाइश बहुत ज्यादा है.

भारत पर टैरिफ 26 फीसद है, जो चीन पर लगाए गए 34 फीसद से कम है. मगर, टॉय एसोसिएशन ऑफ इंडिया के प्रेसिडेंट अजय अग्रवाल के मुताबिक, चीन खिलौनों का विकसित निर्माता है, जो अमेरिका की 70-80 फीसद मांग पूरी करता है, जबकि वैश्विक बाजार में भारत का हिस्सा बहुत कम है. वैसे, वे कहते हैं कि अमेरिका को निर्यात करने वाली 20-25 भारतीय फर्म पर असर पड़ेगा.

आखिर इससे निबटें कैसे

- अजय अग्रवाल, प्रेसिडेंट, टॉय एसोसिएशन ऑफ इंडिया

● भारत को अपनी आरऐंडडी क्षमताएं बढ़ाने और नए उत्पाद रचने की जरूरत है, क्योंकि फिलहाल यह सॉफ्ट खिलौनों, लकड़ी के खिलौनों और डीआइवाइ किट, और स्टेम या शैक्षणिक खिलौनों पर ध्यान देता है. इससे भारत को निर्यात बाजार में ज्यादा मजबूती से पैर जमाने में मदद मिलेगी.

● भारतीय मैन्युफैक्चरर्स की घरेलू क्षमता को बढ़ाने और विकसित करने की दरकार है, क्योंकि ज्यादातर के पास बड़े पैमाने पर निर्यात ऑर्डर पूरे करने की क्षमता नहीं है.

● सरकार स्थानीय मैन्युफैक्चरिंग को सहारा देने के खातिर, खिलौनों के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना शुरू करने में तेजी ला सकती है, जिस पर काम चल रहा है.

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परिधान : अच्छे नाप की तलाश

नए जवाबी शुल्कों ने भारत को ब्राजील, मेक्सिको, तुर्की के अलावा इटली, जर्मनी और स्पेन सरीखे दूसरे परिधान निर्यातक यूरोपीय देशों के साथ-साथ मिस्र और डोमिनिकन गणराज्य के मुकाबले नुक्सान की स्थिति में डाल दिया है, जो अपनी क्षमता के निर्माण के लिए नई व्यवस्था का फायदा उठा सकते हैं.

छोटे वक्त में अमेरिका के खरीदारों को नकदी के संकट का सामना करना पड़ेगा और इसलिए वे भारतीय निर्यातकों के साथ नए सिरे से सौदेबाजी करके रियायतें हासिल करने की कोशिश करेंगे. वे भारतीय विक्रेताओं से डिलिवरी महीने-दो महीने टालने के लिए कहने ही लगे हैं, इस उम्मीद में कि इस सितंबर तक होने वाले दोतरफा व्यापार समझौते से रास्ते निकल आएंगे.

अगर तमाम देशों के लिए जवाबी शुल्कों में कोई बदलाव नहीं होता, तो लंबे वक्त में भारत को फायदा होगा, क्योंकि भारत पर लगाए गए जवाबी शुल्क थाइलैंड, बांग्लादेश, कंबोडिया, वियतनाम, चीन और पाकिस्तान सहित दूसरे प्रतिस्पर्धी एशियाई देशों पर लगाए गए शुल्कों के मुकाबले कम हैं.

भारतीय निर्यातकों को क्षमता निर्माण करके कारोबार के दूसरे देशों से हटकर भारत आने पर मौके का फायदा उठाने के लिए तैयार रहना होगा. केंद्र सरकार का सहारा बेहद जरूरी होगा, और निर्यातक मौकों का फायदा उठा पाते हैं तो वे साल 2030 तक 40 अरब डॉलर (3.5 लाख करोड़ रुपए) के परिधान निर्यात का लक्ष्य हासिल करने में मदद कर सकेंगे.

आखिर इससे निबटें कैसे

- सुधीर सेखरी, चेयरमैन, अपेरल एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल

● निवेश की ऊंची सीमा (न्यूनतम 100 करोड़ रु.) के कारण कपड़ों की मौजूदा पीएलआइ योजना को ज्यादा निवेशक नहीं मिले. मानदंड में संशोधन करें ताकि ज्यादा फर्म आएं.

● निर्यातकों की मदद की खातिर पांच साल के लिए जरूरी कर्ज की लागत को कम करने के वास्ते ब्याज समतुल्यीकरण योजना. छूट योजना को मार्च 2026 से आगे बढ़ाएं.

● अमेरिकी बाजारों तक पहुंच के लिए यूएस एक्सपोर्ट प्रमोशन फंड की जरूरत. इससे जवाबी टैरिफ के लागू होने के बाद भारत के नुक्सान की भरपाई में भी मदद मिलेगी.

साथ में अनिलेश एस. महाजन और सोनल खेत्रपाल.

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